Book Title: Agam 30 2 Chandravejjhaya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 6
________________ आगम सूत्र ३०/२, पयन्नासूत्र-७/२, ‘चन्द्रवेध्यक' सूत्र - १२ हे सुविनीत वत्स ! तू विनय से विद्या-श्रुतज्ञान शीख, शीखी हुई विद्या और गुण बार-बार याद कर, उसमें सहज भी प्रमाद मत कर । क्योंकि ग्रहण की हुई और गिनती की हुई विद्या ही परलोक में सुखाकारी बनती है । सूत्र - १३ विनय से शीखी हुई, प्रसन्नतापूर्वक गुरुजन ने उपदेशी हुई और सूत्र द्वारा संपूर्ण कंठस्थ की गई विद्या का फल यकीनन महसूस कर सकते हैं। सूत्र - १४ इस विषम काल में समस्त श्रुतज्ञान के दाता आचार्य भगवंत मिलने अति दुर्लभ हैं और फिर क्रोध, मान आदि चार कषाय रहित श्रुत ज्ञान को शीखनेवाले शिष्य मिलने भी दुर्लभ हैं । सूत्र -१५ साधु या गृहस्थ कोई भी हो, उसके विनय गुण की प्रशंसा ज्ञानी पुरुष यकीनन करते हैं । अविनीत कभी भी लोक में कीर्ति या यश प्राप्त नहीं कर सकता। सूत्र - १६ कुछ लोग विनय का स्वरूप, फल आदि जानने के बावजूद भी ईस तरह के प्रबल अशुभ कर्म के प्रभाव को लेकर रागद्वेष से घिरे हए विनय की प्रवृत्ति करना नहीं चाहते। सूत्र-१७ न बोलनेवाले या अधिक न पढ़नेवाले फिर भी विनय से सदा विनीत-नम्र और इन्द्रिय पर काबू पानेवाले कुछ पुरुष या स्त्री की यशकीर्ति लोक में सर्वत्र फैलती है। सूत्र - १८ भागशाली पुरुष को ही विद्याएं फल देनेवाली होती है, लेकिन भाग्यहीन को विद्या नहीं फलती। सूत्र - १९ विद्या का तिरस्कार या दुरूपयोग करनेवाला और निंदा अवहेलना आदि द्वारा विद्यावान् आचार्य भगवंत आदि के गुण को नष्ट करनेवाला गहरे मिथ्यात्व से मोहित होकर भयानक दुर्गति पाता है। सूत्र - २० सचमुच ! समस्त श्रुतज्ञान के दाता आचार्य भगवंत मिलने सुलभ नहीं है । और फिर सरल और ज्ञानाभ्यास में सतत उद्यमी शिष्य मिलने भी सलभ नहीं है। सूत्र-२१ इस तरह के विनय के गुण विशेषी-विनीत बनने से होनेवाले महान लाभ को संक्षिप्त में कहा है, अब आचार्य भगवंत के गुण कहता हूँ, वो एकाग्र चित्त से सुनो। सूत्र - २२ शुद्ध व्यवहार मार्ग के प्ररूपक, श्रुतज्ञान रूप रत्न के सार्थवाह और क्षमा आदि कईं लाखों गुण के धारक ऐसे आचार्य के गुण मैं कहूँगा। सूत्र - २३-२७ पृथ्वी की तरह सबकुछ सहनेवाले, मेरु जैसे निष्प्रकंप-धर्म में निश्चल और चन्द्र जैसी सौम्य कान्तिवाले, शिष्य आदि ने आलोचन किए हए दोष दूसरों के पास प्रकट न करनेवाले । आलोचना के उचित आशय, कारण और विधि को जाननेवाले, गंभीर हृदयवाले, परवादी आदि से पराभव नहीं पानेवाले । उचितकाल, देश और भाव मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(चंद्रवेध्यक)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 6

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