Book Title: Agam 30 2 Chandravejjhaya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 14
________________ आगम सूत्र ३०/२, पयन्नासूत्र-७/२, ‘चन्द्रवेध्यक' सूत्र - ११६ इस तरह चारित्रधर्म के गुण-महान फायदे मैंने संक्षिप्त में वर्णन किए हैं । अब समाधिमरण के गुण विशेष को एकाग्र चित्त से सुनो। सूत्र-११७-११८ जिस तरह बेकाबू घोड़े पर बैठा हुआ अनजान पुरुष शत्रु सैन्य को परास्त करना शायद ईच्छा रखे, लेकिन वो पुरुष और घोड़े पहले से शिक्षा और अभ्यास नहीं करने से संग्राम में शत्रु सैन्य को देखते ही नष्ट हो जाते हैं। सूत्र - ११९ उसी तरह पहले क्षुधादि परीषह, लोचादि कष्ट और तप का अभ्यास नहीं किया, वैसा मुनि मरण समय प्राप्त होते ही शरीर पर आनेवाले परीषह उपसर्ग और वेदना को समता से सह नहीं सकता। सूत्र - १२० पूर्व तप आदि का अभ्यास करनेवाले और समाधि की कामनावाला मुनि यदि वैषयिक-सुख की ईच्छा रोक ले तो परीषह को समता से सहन कर सकता है। सूत्र - १२१ पहले शास्त्रोक्त विधि के मुताबिक विगई त्याग, उणोदरी उत्कृष्ट तप आदि करके क्रमशः सर्व आहार का त्याग करनेवाले मुनि मरण काल से निश्चयनयरूप परशु के प्रहार द्वारा परीषह की सेना छेद डालते हैं। सूत्र - १२२ पूर्वे चारित्र पालन में भारी कोशीश न करनेवाले मुनि को मरण के वक्त इन्द्रिय पीड़ा देती है । समाधि में बाधा पैदा करती है । इस तरह तप आदि के पहले अभ्यास न करनेवाले मुनि अन्तिम आराधना के वक्त कायरभयभीत होकर घबराते हैं। सूत्र-१२३ __आगम का अभ्यासी मुनि भी इन्द्रिय की लोलुपता वाला बन जाए तो उसे मरण के वक्त शायद समाधि रहे या न भी रहे, शास्त्र के वचन याद आए तो समाधि रह भी जाए, लेकिन इन्द्रियरस की परवशता को लेकर शास्त्र वचन की स्मृति नामुमकीन होने से प्रायः करके समाधि नहीं रहती। सूत्र - १२४ __ अल्पश्रुतवाला मुनि भी तप आदि का सुन्दर अभ्यास किया हो तो संयम और मरण की शुभ प्रतिज्ञा को व्यथा बिना-सुन्दर तरीके से निभा सकते हैं। सूत्र - १२५ इन्द्रिय सुख-शाता में व्याकुल घोर परीषह की पराधीनता से घिरा, तप आदि के अभ्यास रहित कायर पुरुष अंतिम आराधना के वक्त घबरा जाता है। सूत्र - १२६ पहले से ही अच्छी तरह से कठिन तप-संयम की साधना करके सत्त्वशील बने मुनि को मरण के वक्त धृतिबल से निवारण की गई परीषह की सेना कुछ भी करने के लिए समर्थ नहीं हो सकती। सूत्र-१२७ पहले से ही कठिन तप, संयम की साधना करनेवाले बुद्धिमान मुनि अपने भावि हित को अच्छी तरह से सोचकर निदान-पौद्गलिक सुख की आशंसा रहित होकर, किसी भी द्रव्य-क्षेत्रादि विषयक प्रतिबंध न रखनेवाला ऐसा वो स्वकार्य समाधि योग की अच्छी तरह से साधना करता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(चंद्रवेध्यक)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 14

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