Book Title: Agam 30 2 Chandravejjhaya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 17
________________ आगम सूत्र ३०/२, पयन्नासूत्र-७/२, चन्द्रवेध्यक' निकालकर भवसमुद्र पार करवाया है। सूत्र - १५३ __ परमार्थ से मुनि को अपराध करना ही नहीं चाहिए, प्रमादवश हो जाए तो प्रायश्चित्त अवश्य करना चाहिए सूत्र - १५४ प्रमाद की बहुलतावाले जीव को विशुद्धि प्रायश्चित्त से ही हो सकती है, चारित्र की रक्षा के लिए उसके अंकुश समान प्रायश्चित्त का आचरण करना चाहिए। सूत्र-१५५,१५६ शल्यवाले जीव की कभी शुद्धि नहीं होती, ऐसा सर्वभावदर्शी जिनेश्वरने कहा है । पाप की आलोचना, निंदा करनेवाले मरण और पुनः भव रहित होते हैं। एक बार भी शल्य रहित मरण से मरकर जीव महाभयानक इस संसार में बार-बार कईं जन्म और मरण करते हुए भ्रमण करते हैं। सूत्र - १५७ जो मुनि पाँच समिति से सावध होकर, तीन गुप्ति से गुप्त होकर, चिरकाल तक विचरकर भी यदि मरण के समय धर्म की विराधना करे तो उसे ज्ञानी पुरुष ने अनाराधक-आराधना रहित कहा है। सूत्र-१५८ काफी वक्त पहले अति मोहवश जीवन जी कर अन्तिम जीवन में यदि संवृत्त होकर मरण के वक्त आराधना में उपयुक्त हो तो उसे जिनेश्वर ने आराधक कहा है। सूत्र-१५९ इसलिए सर्वभाव से शुद्ध, आराधना को अभिमुख होकर, भ्रान्ति रहित होकर संथारा स्वीकार करता हुआ मुनि अपने दिल में इस तरह चिन्तन करेगा। सूत्र - १६०, १६१ मेरी आत्मा एक है, शाश्वत है, ज्ञान और दर्शन युक्त है । शेष सर्व-देहादि बाह्य पदार्थ संयोग सम्बन्ध से पैदा हुआ है । ..... मैं एक हूँ, मेरा कोई नहीं या मैं किसी का नहीं । जिसका मैं हूँ उसे मैं देख नहीं सकता, और फिर ऐसी कोई चीज नहीं कि जो मेरी हो । सूत्र - १६२-१६३ पूर्वे-भूतकालमें अज्ञान दोष द्वारा अनन्त बार देवत्व, मनुष्यत्व, तिर्यंच योनि और नरकगति पा चूका हूँ। लेकिन दुःख के कारण ऐसे अपने ही कर्म द्वारा अब तक मुझे न तो संतोष प्राप्त हुआ न सम्यक्त्व विशुद्धि पाई। सूत्र - १६४ मुक्त करवानेवाले धर्म में जो मानव प्रमाद करते हैं, वो महा भयानक ऐसे संसार सागर में दीर्घ काल तक भ्रमण करते हैं। सूत्र - १६५ दृढ़-बुद्धियुक्त जो मानव पूर्व-पुरुष ने आचरण किए जिनवचन के मार्ग को नहीं छोड़ते, वो सर्व दुःख का पार पा लेते हैं। सूत्र - १६६ जो उद्यमी पुरुष क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष का क्षय करता है, वो परम-शाश्वत सुख समान मोक्ष की यकीनन साधना करता है। दःख समुक्त करणा" मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(चंद्रवेध्यक)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 17

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