Book Title: Agam 30 2 Chandravejjhaya Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, DeepratnasagarPage 16
________________ आगम सूत्र ३०/२, पयन्नासूत्र-७/२, चन्द्रवेध्यक' सूत्र-१४० जो मुनि बाईस परीषह और दुःसह ऐसे उपसर्ग को शून्य स्थान या गाँव नगर आदि में सहन करता है, वो मरणकाल में समाधि में भी झैल सकता है। सूत्र - १४१ धन्य पुरुष के कषाय दूसरों के क्रोधादिक कषाय से टकराने के बावजूद भी अच्छी तरह से बैठे हुए पंगु मानव की तरह खड़े होने की ईच्छा नहीं रखते। सूत्र - १४२, १४३ श्रमणधर्म का आचरण करनेवाले साधु को यदि कषाय उच्च कोटि के हो तो उनका श्रमणत्व शेलड़ी के फूल की तरह निष्फल है, ऐसा मेरा मानना है । कुछ न्यून पूर्व कोटि साल तक पालन किया गया निर्मल चारित्र भी कषाय से कलूषित चित्तवाला पुरुष एक मुहूर्त में हार जाता है। सूत्र - १४४ अनन्तकाल से प्रमाद के दोष द्वारा उपार्जन किए कर्म को, राग-द्वेष को परास्त करनेवाले-खत्म कर देनेवाले मुनि केवल कोटि पूर्व साल में ही खपा देते हैं। सूत्र-१४५ यदि उपशान्त कषायवाला-उपशम श्रेणी में आरूढ़ हुआ योगी भी अनन्त बार पतन पाता है। तो बाकी रहे थोड़े कषाय का भरोसा क्यों किया जाए ? सूत्र - १४६ यदि क्रोधादि कषाय का क्षय हुआ हो तो ही खुद को क्षेम-कुशल है, उस तरह जैसे, अगर कषाय जीते हो तो सच्चा जय जाने, यदि कषाय हत-प्रहत हुए हो तो अभय प्राप्त हुआ ऐसा माने एवं कषाय सर्वथा नष्ट हुए हो तो अविनाशी सुख अवश्य मिलेगा ऐसा जाने । सूत्र - १४७ धन्य है उन साधुभगवंतों को जो हमेशा जिनवचनमें रक्त रहते हैं, कषायों का जय करते हैं, बाह्य वस्तु प्रति जिनको राग नहीं है तथा निःसंग, निर्ममत्व बनकर यथेच्छ रूप से संयममार्ग में विचरते हैं। सूत्र - १४० मोक्षमार्ग में लीन बने जो महामुनि, अविरहित गुणों से युक्त होकर इसलोक या परलोक में तथा जीवन या मृत्यु में प्रतिबन्ध रहित होकर विचरते हैं, वे धन्य हैं। सूत्र-१४९ बुद्धिमान पुरुष को मरणसमुद्घात के अवसर पर मिथ्यात्व का वमन करके सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए। सूत्र-१५०-१५१ खेद की बात है कि महान् धीर पुरुष भी बलवान् मृत्यु के समय मरण समुद्घात की तीव्र वेदना से व्याकुल होकर मिथ्यात्व दशा पाते हैं । इसीलिए बुद्धिमान मुनि को गुरु के समीप दीक्षा के दिन से हुए सर्व पापों को याद करके उसकी आलोचना, निंदा, गर्दा करके पाप की शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिए । सूत्र - १५२ उस वक्त गुरु भगवंत जो उचित प्रायश्चित्त देवे, उसका ईच्छापूर्वक स्वीकार करके तथा गुरु का अनुग्रह मानते हुए कहे कि हे भगवन् ! मैं आपके द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त-तप करना चाहता हूँ, आपने मुझे पाप से मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(चंद्रवेध्यक)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 16Page Navigation
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