Book Title: Agam 30 2 Chandravejjhaya Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ३०/२, पयन्नासूत्र-७/२, ‘चन्द्रवेध्यक' सूत्र - ९०, ९१
ज्ञानाभ्यास की रुचिवाले को बुद्धि हो या न हो लेकिन उद्यम जरुर करना चाहिए । क्योंकि बुद्धि ज्ञानावरणीयादि कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है।
असंख्य जन्म के उपार्जन किए कर्म को उपयोग युक्त आत्मा प्रति समय खपाता है लेकिन स्वाध्याय से कईं भव के संचित कर्म पलभर में खपाते हैं। सूत्र-९२
तिर्यंच, सुर, असुर, मानव, किन्नर, महोरग और गंधर्व सहित सर्व छद्मस्थ जीव केवली भगवान को पूछता है, यानि लोकमें छद्मस्थ को अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए पूछने को उचित स्थान केवल एक केवलज्ञानी है सूत्र-९३
जो किसी एक पद के श्रवण-चिन्तन से मानव वैराग्य पाता है वो एक पद भी सम्यग्ज्ञान है । क्योंकि जिससे वैराग्य प्राप्त हो, वो ही उसका सच्चा ज्ञान है। सूत्र - ९४
वीतराग परमात्मा के मार्ग में जो एक पद द्वारा मानव ने तीव्र वैराग्य पाया हो, उस पद को मरण तक भी न छोड़ना चाहिए। सूत्र-९५
जिनशासन के जो किसी एक पद के धारण से जिसे संवेग प्राप्त होता है, वही एक पद के आलम्बन से क्रमिक अध्यात्म-योग की आराधना द्वारा विशिष्ट धर्मध्यान और शुक्लध्यान द्वारा समग्र मोहजाल को भेदते हैं। सूत्र-९६-९७
मरण के वक्त समग्र द्वादशांगी का चिन्तन होना वो अति समर्थ चित्तवाले मुनि से भी मुमकीन नहीं है । इसलिए उस देश-काल में एक भी पद का चिन्तन आराधना में उपयुक्त होकर जो करता है उसे जिनेश्वर ने आराधक कहा है। सूत्र - ९८
सुविहित मुनि आराधना में एकाग्र होकर समाधिपूर्वक काल करके उत्कृष्ट से तीन भव में यकीनन मोक्ष पाता है। अर्थात् निर्वाण-शाश्वत पद पाता है। सूत्र - ९९
इस तरह श्रुतज्ञान के विशिष्ट गुण के महान लाभ संक्षेप में मैंने वर्णन किया है । अब चारित्र के विशिष्ट गुण एकाग्र चित्तवाले बनकर सुनो। सूत्र-१००
जिनेश्वर भगवान के बताए धर्म का कोशीश से पालन करने के लिए जो सर्व तरह से गृहपाश के बन्धन से सर्वथा मुक्त होते हैं, वो धन्य हैं। सूत्र - १०१
विशुद्ध भाव द्वारा एकाग्र चित्तवाले बनकर जो पुरुष जिनवचन का पालन करता है, वो गुण-समृद्ध मुनि मरण समय प्राप्त होने के बावजूद सहज भी विषाद-ग्लानि महसूस नहीं करते। सूत्र-१०२
केवल दुःख से मुक्त करनेवाले ऐसे मोक्षमार्ग में जिन्होंने अपने आत्मा को स्थिर नहीं किया, वो दुर्लभ ऐसे श्रमणत्व को पाकर सीदाते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(चंद्रवेध्यक)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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