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आगम सूत्र ३०/२, पयन्नासूत्र-७/२, ‘चन्द्रवेध्यक' को जाननेवाले, त्वरा रहित, किसी भी काम में जल्दबाजी न करनेवाले, भ्रान्तिरहित, आश्रित शिष्यादि को संयमस्वाध्यायादि में प्रेरक और मायारहित, लौकिक, वैदिक और सामाजिक-शास्त्र में जिन का प्रवेश है और स्वसमयजिनागम और परसमय-अन्यदर्शनशास्त्र के ज्ञाता, जिस की आदिमें सामायिक और अन्त में पूर्वो व्यवस्थित है।ऐसी द्वादशांगी का अर्थ जिन्होंने पाया है, ग्रहण किया है, वैसे आचार्य की विद्वद्जन पंड़ित-गीतार्थ सदा तारीफ करते हैं सूत्र - २८
अनादि संसार में कईं जन्म के लिए यह जीव ने कर्म काम-काज, शिल्पकला और दूसरे धर्म आचार के ज्ञाता-उपदेष्टा हजारों आचार्य प्राप्त किए हैं। सूत्र - २९-३०
सर्वज्ञ कथित निर्ग्रन्थ प्रवचन में जो आचार्य हैं, वो संसार और मोक्ष-दोनों के यथार्थ रूप को बतानेवाले होने से जिस तरह एक प्रदीप्त दीप से सेंकड़ों दीपक प्रकाशित होते हैं, फिर भी वो दीप प्रदीप्त-प्रकाशमान ही रहता है, वैसे दीपक जैसे आचार्य भगवंत स्व और पर, अपने और दूसरे आत्माओं के प्रकाशक-उद्धारक सूत्र-३१-३२
सूरज जैसे प्रतापी, चन्द्र जैसे सौम्य-शीतल और क्रान्तिमय एवं संसारसागर से पार उतारनेवाले आचार्य भगवंत के चरणों में जो पुण्यशाली नित्य प्रणाम करते हैं, वो धन्य हैं । ऐसे आचार्य भगवंत की भक्ति के राग द्वारा इस लोक में कीर्ति, परलोक में उत्तम देवगति और धर्म में अनुत्तर-अनन्य बोधि-श्रद्धा प्राप्त होती है। सूत्र - ३३, ३४
देवलोक में रहे देव भी दिव्य अवधिज्ञान द्वारा आचार्य भगवंत को देखकर हमेशा उनके गुण का स्मरण करते हुए अपने आसन-शयन आदि रख देते हैं।
देवलोक में रूपमती अप्सरा के बीच में रहे देव भी निर्ग्रन्थ प्रवचन का स्मरण करते हुए उस अप्सरा द्वारा आचार्य भगवंत को वन्दन करवाते हैं। सूत्र - ३५
जो साधु छठ्ठ, अठुम, चार उपवास आदि दुष्कर तप करने के बावजूद भी गुरुवचन का पालन नहीं करते, वो अनन्त संसारी बनते हैं। सूत्र - ३६
यहाँ गिनवाए वे और दूसरे भी कईं आचार्य भगवंत के गुण होने से उसकी गिनती का प्रमाण नहीं हो सकता । अब मैं शिष्य के विशिष्ट गुण को संक्षेप में कहूँगा। सूत्र-३७ ___जो हमेशा नम्र वृत्तिवाला, विनीत, मदरहित, गुण को जाननेवाला, सुजन-सज्जन और आचार्य भगवंत के अभिप्राय-आशय को समझनेवाला होता है, उस शिष्य की प्रशंसा पंडित पुरुष भी करते हैं । (अर्थात् वैसा साधु सुशिष्य कहलाता है।) सूत्र - ३८
शीत, ताप, वायु, भूख, प्यास और अरति परीषह सहन करनेवाले, पृथ्वी की तरह सर्व तरह की प्रतिकूलता -अनुकूलता आदि को सह लेनेवाली-धीर शिष्य की कुशल पुरुष तारीफ करते हैं। सूत्र- ३९
लाभ या गेरलाभ के अवसर में भी जिसके मुख का भाव नहीं बदलता अर्थात् हर्ष या खेद युक्त नहीं बनता और फिर जो अल्प ईच्छावाला और सदा संतुष्ट होता है, ऐसे शिष्य की पंड़ित पुरुष तारीफ करते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(चंद्रवेध्यक)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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