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दसर्वआलियं ( वशर्वकालिक)
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अनुयोग
व्याख्याक्रम व विषयगत वर्गीकरण की दृष्टि से आर्यरक्षित सूरि ने आगमों को चार भागों में वर्गीकृत किया (१) चरण करणानुयोग-कालिक श्रुत ।
(२) धर्मानुयोग - ऋषि भाषित, उत्तराध्ययन आदि ।
(३) गणितानुयोग - सूर्य प्रज्ञप्ति आदि ।
(४) द्रव्यानुयोग दृष्टिवाद या सूत्रकृत आदि ।
यह वर्गीकरण विषय - सादृश्य की दृष्टि से है । व्याख्याक्रम की दृष्टि से आगमों के दो रूप बनते हैं—
(१) अनुयोग
(२) पृथक्त्वानुयोग |
आरक्षित से पूर्व अपूचक्त्वानुयोग प्रचलित था। उसमें प्रत्येक सूत्र की चरण-करण, धर्म, गणित और द्रव्यं की दृष्टि से व्याख्या की जाती थी । यह व्याख्या -क्रम बहुत जटिल और बहुत बुद्धि-स्मृति सापेक्ष था। आर्यरक्षित ने देखा कि दुर्बलिका पुष्यमित्र जैसा मेधावी मुनि भी इस व्याख्या - क्रम को याद रखने में श्रान्त-क्लान्त हो रहा है तो अल्प मेधा वाले मुनि इसे कैसे याद रख पायेंगे। एक प्रेरणा मिली और उन्होंने पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन कर दिया। उसके अनुसार चरण-करण आदि विषयों की दृष्टि से आगमों का विभाजन हो गया ।
सूत्रकृत चूर्णि के अनुसार अपृथक्त्वानुयोग काल में प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण-करण आदि चार अनुयोग तथा सात सौ नयों से की जाती थी । पृथक्त्वानुयोग काल में चारों अनुयोगों की व्याख्या पृथक्-पृथक् की जाने लगी।
वाचना
वीर निर्वाण के ६८० या ९६३ वर्ष के मध्य में आगम साहित्य के संकलन की चार प्रमुख वाचनाएँ हुई:
पहली वाचना
वीर निर्माण की दूसरी शताब्दी में (बी० नि० के १६० के वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में बारह वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा। उस समय श्रम संघ जिन-भिन्न हो गया अनेक तर काल-कति हो गए। अन्यान्य दुविधाओं के कारण यथास्थित सूत्र- परावर्तन नहीं हो सका, अतः आगम ज्ञान की श्रृंखला टूटी गई दुर्भिक्ष मिटा उस काल में विद्यमान विशिष्ट आचार्य पाटलीपुत्र में एकत्रित हुए। म्यारह अंग एकत्रित किए। उस समय बारहवें अंग के एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी थे और वे नेपाल में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ के विशेष निवेदन पर स्थूलिभद्र मुनि को बारहवें अंग की वाचना देना स्वीकार किया । उन्होंने दस पूर्व अर्थ सहित सीख लिए। ग्यारहवें पूर्व की वाचना चालू थी। बहिनों को चमत्कार दिखाने के लिए उन्होने सिंह का रूप बनाया । भद्रबाहु ने इसे जान लिया। आगे वाचना वन्द कर दी। फिर विशेष आग्रह करने पर अन्तिम चार पूर्वी की वाचना दी, किन्तु अर्थ नहीं बताया । अर्थ की दृष्टि से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ही थे । स्थूलभद्र शाब्दिक दृष्टि से चौदह पूर्वी थे किन्तु आर्थी दृष्टि से दस पूर्वी ही थे ।
१ -- आवश्यक निर्युक्ति गाथा ७७३-७७४ : अपुहुत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो ।
पहताोगकरणे ते अरथा तो उना ।। देविदवं दिहि महाणुभावेहिं रविवअअज्जेहि । जुममासज्ज वित्तो अणुओगो ता कओ चउहा ||
२ – सूत्रकृत चूर्णि पत्र ४ : जत्थ एते चत्तारि अणुयोगा विहप्पिहं वक्खाणिज्जंति पुहुत्ताणुयोगो, अपुहुत्ताणुजोगो पुण जं एक्केक्कं सुतं एते हि चहं वि अणुयोगेहि सतह जयसतेहि वक्खाणिज्जति ।
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