________________
आगम सूत्र २८, पयन्नासूत्र-५, 'तन्दुलवैचारिक'
सूत्रसूत्र-१४
१०० साल से पूर्वकोटी जितना आयु होता है । उस के आधे हिस्से के बाद स्त्री संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाती है । और आयु का २० प्रतिशत भाग बाकी रहते पुरुष शुक्राणु रहित हो जाते हैं। सूत्र -१५
___ रक्तोत्कट स्त्री की योनि १२ मुहूर्तमें उत्कृष्ट से लाख पृथक्त्व जीवों को संतान के रूपमें उत्पन्न करने में समर्थ होती है । १२ सालमें अधिकतम गर्भकालमें एक जीव के ज्यादा से ज्यादा शत पृथक्त्व (२०० से ९००) पिता हो सकते हैं। सूत्र - १६
दाँयी कुक्षी पुरुष की और बाँई कुक्षी स्त्री के निवास की जगह होती है । जो दोनों की मध्यमें निवास करता है वो नपुंसक जीव होता है। तिर्यंच योनि में गर्भ की उत्कृष्ट स्थिति आठ साल की मानी जाती है। सूत्र-१७
निश्चय से यह जीव माता पिता के संयोग से गर्भ में उत्पन्न होता है । वो पहले माता की रज और पिता के शुक्र के कलुष और किल्बिष का आहार कर के रहता है। सूत्र - १८
पहले सप्ताहमें जीव तरल पदार्थ के रूप में, दूसरे सप्ताहमें दहीं जैसे जमे हुए, उस के बाद लचीली माँसपेशी जैसा और फिर ठोस हो जाता है। सूत्र-१९
___ उस के बाद पहले मास में वो फूले हुए माँस जैसा, दूसरे महिनेमें माँसपिंड़ जैसा घनीभूत होता है । तीसरे महिनेमें वो माता को ईच्छा उत्पन्न करवाता है । चौथे महिनेमें माता के स्तन को पुष्ट करता है । पाँचवे महिनेमें हाथ, पाँव, सर यह पाँच अंग तैयार होते हैं । छठे महिने पित्त और लहू का निर्माण होता है । और फिर बाकी अंग-उपांग बनते हैं । सातवें महिनेमें ७०० नस, ५०० माँस-पेशी, नौ धमनी और सिर एवं मुँह के अलावा बाकी बाल के ९९ लाख रोमछिद्र बनते हैं । सिर और दाढ़ी के बाल सहित साढे तीन करोड़ रोमकूप उत्पन्न होते हैं । आठवें महिने में प्रायः पूर्णता प्राप्त करता है। सूत्र - २०
हे भगवन् ! क्या गर्भस्थ जीव को मल-मूत्र, कफ, श्लेष्म, वमन, पित्त, वीर्य या लहू होते हैं ? यह अर्थ उचित नहीं है अर्थात् ऐसा नहीं होता । हे भगवन् ! किस वजह से आप ऐसा कह रहे हो कि गर्भस्थ जीव को मल, यावत् लहू नहीं होता । गौतम ! गर्भस्थ जीव माता के शरीर से आहार करता है। उसे नेत्र, चक्षु, घ्राण, रस के और स्पर्शन इन्द्रिय के रूप में हड्डियाँ, मज्जा, केश, मूंछ, रोम और नाखून के रूप में परिणमता है । इस वजह से ऐसा कहा है कि गर्भस्थ जीव को मल यावत् लह नहीं होता। सूत्र - २१
हे भगवन् ! गर्भस्थ जीव मुख से कवल आहार करने के लिए समर्थ है क्या ? हे गौतम ! यह अर्थ उचित नहीं है । हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हो? हे गौतम ! गर्भस्थ जीव सभी ओर से आहार करता है । सभी ओर से परिणमित करता है । सभी ओर से साँस लेता है और छोड़ता है । निरन्तर आहार करता है और परिणमता है। हमेशा साँस लेता है और बाहर नीकालता है । वो जीव जल्द आहार करता है और परिणमता है। जल्द साँस लेता है और छोड़ता है । माँ के शरीर से जुड़े हुए पुत्र के शरीर को छूती एक नाड़ी होती है जो माँ के शरीर रस की ग्राहक और पुत्र के जीवन रस की संग्राहक होती है । इसलिए वो जैसे आहार ग्रहण करता है वैसा ही परिणाता है । पुत्र के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (तंदुलवैचारिक) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
Page 6