Book Title: Agam 28 Tandulvaicharik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 16
________________ सूत्र आगम सूत्र २८, पयन्नासूत्र-५, 'तन्दुलवैचारिक' सूत्र-१०५ यह शरीर, खोपरी, मज्जा, माँस, हड्डियाँ, मस्तुलिंग, लहू, वालुंडक, चर्मकोश, नाक का मैल और विष्ठा का घर है । यह खोपरी, नेत्र, कान, होठ, ललाट, तलवा आदि अमनोज्ञ मल वस्तु है । होठ का घेराव अति लार से चीकना, मुँह पसीनावाला, दाँत मल से मलिन, देखने में बिभत्स है । हाथ-अंगुली, अंगूठे, नाखून के सन्धि से जुड़े हुए हैं । यह कई तरल-स्राव का घर है । यह शरीर, खंभे की नस, कईं शिरा और काफी सन्धि से बँधा हुआ है । शरीर में फूटे घड़े जैसा ललाट, सूखे पेड़ की कोटर जैसा पेट, बालवाला अशोभनीय कुक्षिप्रदेश, हड्डियाँ और शिरा के समूह से युक्त उसमें सर्वत्र और चारों ओर रोमकूप में से स्वभाव से ही अपवित्र और बदबू युक्त पसीना नीकल रहा है । उसमें कलेजा, पित्त, हृदय, फेफड़े, प्लीहा, फुप्फुस, उदर आदि गुप्त माँसपिंड़ और मलस्रावक नौ छिद्र हैं। उसमें धकधक आवाज करनेवाला हृदय है । वो बदब यक्त पित्त, कफ, मत्र और औषधि का निवासस्थान है। गहा प्रदेश गंठण, जंघा और पाँव को जोडों से जडे, माँस गन्ध से युक्त अपवित्र और नश्वर है । इस तरह सोचते और रूप देखकर यह जानना चाहिए कि यह शरीर अध्रव, अनित्य, अशाश्वत, सडन-गलन और विनाशधर्मी, एवं पहले या बाद में अवश्य नष्ट होनेवाला है। सभी मानव का देह ऐसा ही है। सूत्र - १०६ माता की कुक्षि में शुक्र और शोणित में उत्पन्न उसी अपवित्र रस को पीकर नौ मास गर्भ में रहता है। सूत्र - १०७ योनिमुख से बाहर नीकला, स्तनपान से वृद्धि पाकर, स्वभाव से ही अशुचि और मल युक्त ऐसे इस शरीर को किस तरह धोना मुमकीन है ? सूत्र - १०८ अरे ! अशुचि में उत्पन्न हुए और जहाँ से वो मानव बाहर नीकला है । काम-क्रीड़ा की आसक्ति से ही उसी अशुचि योनि में रमण करता है। सूत्र - १०९ फिर अशुचि से युक्त स्त्री के कटिभाग को हजारों कवि द्वारा अश्रान्त भाव से बयान क्यों किया जाता है ? वो इस तरह स्वार्थवश मूढ़ बनते हैं। सूत्र -११० वो बेचारे राग की वजह से यह कटिभाग अपवित्र मल की थी है यह नहीं जानते । इसीलिए ही उसे विकसित नीलकमल के समह समान मानकर उसका वर्णन करते हैं। सूत्र - १११ ज्यादा कितना कहा जाए ? प्रचुर मेद युक्त, परम अपवित्र विष्ठा की राशि और धृणा योग्य शरीर में मोह नहीं करना चाहिए। सूत्र - ११२ सेंकड़ों कृमि समूह युक्त, अपवित्र मल से व्याप्त, अशुद्ध, अशाश्वत, साररहित, दुर्गन्धयुक्त, पसीना और मल से मलिन इस शरीर से तुम निर्वेद पाओ। सूत्र - ११३ यह शरीर दाँत, कान, नाक का मैल, मुख की प्रचुर लार युक्त है ऐसे बिभत्स व धृणित शरीर प्रति राग कैसा सूत्र - ११४ सड़न, गलन, विनाश, विध्वंसन दुःखक, मरणधर्मी, सड़े हुए लकड़े समान शरीरकी अभिलाषा कौन करे? मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (तंदुलवैचारिक) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 16

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