Book Title: Agam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 6
________________ सम्पादकीय अतीत में तीर्थकर भगवन्तों ने चतुर्विध संघ की स्थापना के समय अणगार संघ को अणगार धर्म का महत्व बताते हुए गुरुपद का गुरुतर दायित्व बताया था और सागार संघ को सागार धर्म का उपदेश करते हुए अणगार संघ की उपासना का कर्तव्य भी बताया था। अणगार धर्म के मूल पंचाचारों का विधान करते हुए चारित्राचार को मध्य में स्थान देने का हेतु यह था कि ज्ञानाचार-दर्शनाचार तथा तपाचारवीर्याचार की समन्वय साधना निर्विघ्न सम्पन्न हो-इसका एकमात्र अमोघ साधन चारित्राचार ही है । अर्थात ज्ञानाचार-दर्शनाचार तथा तपाचार एवं वीर्याचार, चारित्राचार के चमत्कार से ही चमत्कृत हैं-इसके बिना अणगार जीवन अन्धकारमय है। चारित्राचार के माठ विभाग हैं-पांच समिति और तीन गुप्ति । इनमें पाँच समितियां संयमी जीवन में भी निवृत्तिमूलक प्रवृत्तिरूपा है और तीन गुप्तियाँ तो निवृत्तिरूपा हैं ही । ये आठों अणगार-अंगीकृत महावतों की भूमिका रूपा हैं-अर्थात् इनकी भूमिका पर ही अणगार की भव्य भावनाओं का निर्माण होता है। विषय-कपायवश याने राग-द्वेषवश समिति-गुप्ति तथा महाव्रतों की मर्यादाओं का अतिक्रम-व्यतिक्रम या अतिचार यदा-कदा हो जाय तो सुरक्षा के लिए प्रायश्चित्त प्राकाररूप कहे गये हैं। फलितार्य यह है कि मूलगुणों या उत्तरगुणों में प्रतिसेवना का धुन लग जाय तो उनके परिहार के लिए प्रायश्चित्त अनिवार्य हैं। प्रायश्चित्त दस प्रकार के हैं-इनमें प्रारम्भ के छह प्रायश्चित्त सामान्य दोषों की शुद्धि के लिए हैं और अन्तिम चार प्रायश्चित्त प्रवल दोषों की शुद्धि के लिए हैं। छेदाह प्रायश्चित्त अन्तिम चार प्रायश्चित्तों में प्रथम प्रायश्चित्त है । अतः आयारदशादि सूत्रों को इसी प्रायश्चित्त के निमित्त से छेद सूत्र कहा गया है। इन सूत्रों में तीन प्रकार के चारित्राचार प्रतिपादित हैं-१ हेयाचार, २ ज्ञेयाचार और ३ उपादेयाचार । ५

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