Book Title: Agam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक ये बहत-सी म्लेच्छ जातियाँ हैं, जो हिंसक हैं । वे कौन-सी हैं ? शक, यवन, शबर, बब्बर, काय, मुरुंड, उद, भडक, तित्तिक, पक्कणिक, कुलाक्ष, गौड, सिंहल, पारस, क्रौंच, आन्ध्र, द्रविड़, विल्वल, पुलिंद, आरोष, डौंब, पोकण, गान्धार, बहलीक, जल्ल, रोम, मास, वकुश, मलय, चुंचुक, चूलिक, कोंकण, मेद, पण्हव, मालव, महुर, आभाषिक, अणक्क, चीन, ल्हासिक, खस, खासिक, नेहुर, मरहष्ट्र, मौष्टिक, आरब, डोबलिक, कुहण, कैकय, हूण, रोमक, रुरु, मरुक, चिलात, इन देशों के निवासी, जो पाप बुद्धि वाले हैं, वे जो अशुभ लेश्या-परिणाम वाले हैं, वे जलचर, स्थलचर, सनखपद, उरग, नभश्चर, संडासी जैसी चोंच वाले आदि जीवों का घात करके अपनी आजीविका चलाते हैं । वे संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का हनन करते हैं । वे पापी जन पाप को ही उपादेय मानते हैं । पाप में ही उनकी रुचि-होती है । वे प्राणिघात करके प्रसन्नता अनुभवते हैं । उनका अनुष्ठानप्राणवध करना ही होता है । प्राणियों की हिंसा की कथा में ही आनन्द मानते हैं । वे अनेक प्रकार के पाप का आचरण करके संतोष अनुभव करते हैं। (पूर्वोक्त मूढ़ हिंसक लोग) हिंसा के फल-विपाक को नहीं जानते हुए, अत्यन्त भयानक एवं दीर्घकाल पर्यन्त बहुत-से दुःखों से व्याप्त-एवं अविश्रान्त-लगातार निरन्तर होने वाली दुःखरूप वेदना वाली नरकयोनि और तिर्यञ्चयोनि को बढ़ाते हैं। पूर्ववर्णित हिंसाकारी पापीजन यहाँ, मृत्यु को प्राप्त होकर अशुभ कर्मों की बहुलता के कारण शीघ्र हीनरकों में उत्पन्न होते हैं । नरक बहुत विशाल है। उनकी भित्तियाँ वज्रमय हैं । उन भित्तियों में कोई सन्धिछिद्र नहीं है, बाहर नीकलने के लिए कोई द्वार नहीं है । वहाँ की भूमि कठोर है । वह नरक रूपी कारागार विषम है । वहाँ नारकावास अत्यन्त उष्ण एवं तप्त रहते हैं । वे जीव वहाँ दुर्गन्ध-के कारण सदैव उद्विग्न रहते हैं । वहाँ का दृश्य ही अत्यन्त बीभत्स है । वहाँ हिम-पटल के सदृश शीतलता है । वे नरक भयंकर हैं, गंभीर एवं रोमांच खड़े कर देने वाले हैं । धृणास्पद हैं । असाध्य व्याधियों, रोगों एवं जरा से पीड़ा पहुंचाने वाले हैं । वहाँ सदैव अन्धकार रहने के कारण प्रत्येक वस्तु अतीव भयानक लगती है । ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र आदि की ज्योति का अभाव है, मेद, वसा, माँस के ढेर होने से वह स्थान अत्यन्त धृणास्पद है । पीव और रुधिर के बहने से वहाँ की भूमि गीली और चिकनी रहती है और कीचड़-सी बनी रहती है। वहाँ का स्पर्श दहकती हुई करीष की अग्नि या खदिर की अग्नि के समान उष्ण तथा तलवार, उस्तरा अथवा करवत की धार के सदश तीक्ष्ण है । वह स्पर्श बिच्छ के डंक से भी अधिक वेदना उत्पन्न करने वाला अतिशय दुस्सह है । वहाँ के नारक जीव त्राण और शरण से विहीन हैं । वे नरक कटुक दुःखों के कारण घोर परिणाम उत्पन्न करने वाले हैं । वहाँ लगातार दुःखरूप वेदना चालु ही रहती है । वहाँ परमाधामी देव भरे पड़े हैं । नारकों को भयंकर-भयंकर यातनाएं देते हैं। वे पूर्वोक्त पापी जीव नरकभूमि में उत्पन्न होते ही अन्तर्मुहूर्त में नरकभवकारणक लब्धि से अपने शरीर का निर्माण कर लेते हैं । वह शरीर हुंडक संस्थान वाला-बेडौल, भद्दी आकृति वाला, देखने में बीभत्स, घृणित, भयानक, अस्थियों, नसों, नाखूनों और रोमों से रहित; अशुभ और दुःखों को सहन करने में सक्षम होता है । शरीर का निर्माण हो जाने के पश्चात् वे पर्याप्तियों से-पर्याप्त हो जाते हैं और पाँचों इन्द्रियों से अशुभ वेदना का वेदन करते हैं। उनकी वेदना उज्ज्वल, बलवती, विपुल, उत्कट, प्रखर, परुष, प्रचण्ड, घोर, डरावनी और दारुण होती है नारकों को जो वेदनाएं भोगनी पड़ती हैं, वै-कैसी हैं ? नारक जीवों को-कढाव जैसे चौडे मुख के पात्र में और महाकुंभी-सरीखे महापात्र में पकाया और उबाला जाता है । सेका जाता है । पूँजा जाता है । लोहे की कढ़ाई में ईख के रस के समान औटाया जाता है । -उनकी काया के खंड-खंड कर दिये जाते हैं । लोहे के तीखे शूल के समान तीक्ष्ण काँटों वाले शाल्मलिवृक्ष के काँटों पर उन्हें इधर-उधर घसीटा जाता है । काष्ठ के समान उनकी चीरफाड़ की जाती है । उनके पैर और हाथ जकड़ दिये जाते हैं । सैकड़ों लाठियों से उन पर प्रहार किये जाते हैं । गले में फंदा डालकर लटका दिया जाता है । शूली के अग्रभाग से भेदा जाता है । झूठे आदेश देकर उन्हें ठगा जाता है। उनकी भर्त्सना की जाती है । उन्हें वधभूमि में घसीट कर ले जाया जाता है । वध्य जीवों को दिए जाने वाले सैकड़ों मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 8

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54