Book Title: Agam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/सूत्रांक और माण्डलिक राजा भी होते हैं । वे भी सबल होते हैं । उनका अन्तःपुर विशाल होता है । वे सपरिषद् होते हैं । शान्तिकर्म करने वाले पुरोहितों से, अमात्यों से, दंडनायकों से, सेनापतियों से जो गुप्त मंत्रणा करने एवं नीति में निपुण होते हैं, इन सब से सहित होते हैं । उनके भण्डार अनेक प्रकार की मणियों से, रत्नों से, विपुल धन
और धान्य से समृद्ध होते हैं । वे अपनी विपुल राज्य-लक्ष्मी का अनुभव करके, अपने शत्रुओं का पराभव करके बल में उन्मत्त रहते हैं ऐसे माण्डलिक राजा भी कामभोगों से तृप्त नहीं हए । वे भी अतृप्त रह कर ही कालधर्म को प्राप्त हो गए।
इसी प्रकार देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रों के वनों में और गुफाओं में पैदल विचरण करने वाले युगल मनुष्य होते हैं । वे उत्तम भोगों से सम्पन्न होते हैं । प्रशस्त लक्षणों के धारक होते हैं । भोग-लक्ष्मी से युक्त होते हैं । वे प्रशस्त मंगलमय सौम्य एवं रूपसम्पन्न होने के कारण दर्शनीय होते हैं । सर्वांग सुन्दर शरीर के धारक होते हैं । उनकी हथेलियाँ और पैरों के तलभाग-लाल कमल के पत्तों की भाँति लालिमायुक्त और कोमल होते हैं । उनके पैर कछुए के समान सुप्रतिष्ठित होते हैं । उनकी अंगुलियाँ अनुक्रम से बड़ी-छोटी, सुसंहत होती हैं । उनके नख उन्नतपतले, रक्तवर्ण और चिकने होते हैं । उनके पैरों के गुल्फ सुस्थित, सुघड़ और मांसल होने के कारण दिखाई नहीं देते हैं । उनकी जंघाएं हिरणी की जंघा, कुरुविन्द नामक तृण और वृत्त समान क्रमशः वर्तुल एवं स्थूल होती हैं । उनके घुटने डिब्बे एवं उसके ढक्कन की संधि के समान गूढ़ होते हैं, उनकी गति मदोन्मत्त उत्तम हस्ती के समान विक्रम और विकास से युक्त होती है, उनका गुह्यदेश उत्तम जाति के घोड़े के गुप्तांग के समान सुनिर्मित एवं गुप्त होता है । उत्तम जाति के अश्व के समान उन यौगलिक पुरुषों का गुदाभाग भी मल के लेप से रहित होता है । उनका कटिभाग हृष्ट-पृष्ट एवं श्रेष्ठ और सिंह की कमर से भी अधिक गोलाकार होता है । उनकी नाभि गंगा नदी के आवर्त्त के समान चक्कर-दार तथा सूर्य की किरणों से विकसित कमल की तरह गंभीर और विकट होती है।
उनके शरीर का मध्यभाग समेटी हुई त्रिकाष्ठिका-मूसल, दर्पण और शुद्ध किए हुए उत्तम स्वर्ण से निर्मित खड्ग की मूठ एवं श्रेष्ठ वज्र के समान कृश होता है । उनकी रोमराजि सीधी, समान, परस्पर सटी हुई, स्वभावतः बारीक, कृष्णवर्ण, चिकनी, प्रशस्त पुरुषों के योग्य सुकुमार और सुकोमल होती है । वे मत्स्य और विहग के समान उत्तम रचना से युक्त कुक्षि वाले होने से झषोदर होते हैं । उनकी नाभि कमल के समान गंभीर होती है । पार्श्वभाग नीचे की ओर झुके हुए होते हैं, अत एव संगत, सुन्दर और सुजात होते हैं । वे पार्श्व प्रमाणोपेत एवं परिपुष्ट होते हैं | वे ऐसे देह के धारक होते हैं, जिसकी पीठ और बगल की हड्डियाँ माँसयुक्त होती हैं तथा जो स्वर्ण के आभूषण के समान निर्मल कान्तियुक्त, सुन्दर बनावट वाली और निरुपहत होती है। उनके वक्षःस्थल सोने की शिला के तल के
समतल, उपचित और विशाल होते हैं। उनकी कलाइयाँ गाडी के जुए के समान पुष्ट, मोटी एवं रमणीय होती हैं । तथा अस्थिसन्धियाँ अत्यन्त सुडौल, सुगठित, सुन्दर, माँसल और नसों से दृढ़ बनी होती हैं । उनकी भुजाएं नगर के द्वार की आगल के समान लम्बी और गोलाकार होती हैं । उनके बाहु भुजगेश्वर के विशाल शरीर के समान और अपने स्थान से पृथक् की हुई आगल के समान लम्बे होते हैं । उनके हाथ लाल-लाल हथेलियों वाले, परिपुष्ट, कोमल, मांसल, सुन्दर बनावट वाले, शुभ लक्षणों से युक्त और निश्छिद्र उंगलियों वाले होते हैं । उनके हाथों की उंगलियाँ पुष्ट, सुरचित, कोमल और श्रेष्ठ होती हैं । उनके नख ताम्रवर्ण के, पतले, स्वच्छ, रुचिर, चिकने होते हैं । तथा चन्द्रमा की तरह, सूर्य के समान, शंख के समान या चक्र के समान, दक्षिणावर्त्त स्वस्तिक के चिह्न से अंकित, हस्त-रेखाओं वाले होते हैं । उनके कंधे उत्तम महिष, शूकर, सिंह, व्याघ्र, सांड़ और गजराज के कंधे के समान परिपूर्ण होते हैं। उनकी ग्रीवा चार अंगुल परिमित एवं शंख जैसी होती है।
उनक दाढ़ी-मूंछे अवस्थित हैं तथा सुविभक्त एवं सुशोभन होती हैं । वे पुष्ट, मांसयुक्त, सुन्दर तथा व्याघ्र के समान विस्तीर्ण हनुवाले होते हैं । उनके अधरोष्ठ संशुद्ध मूंगे और बिम्बफल के सदृश लालिमायुक्त होते हैं । उनके दाँतों की पंक्ति चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल शंख, गाय के दूध के फेन, कुन्दपुष्प, जलकण तथा कमल की नाल के समान धवल-श्वेत होती है । उनके दाँत अखण्ड, अविरल, अतीव स्निग्ध और सुरचित होते हैं । वे एक दन्तपंक्ति के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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