Book Title: Agam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 53
________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक जाना, बेंत या चाबुक द्वारा प्रहार किया जाना, एड़ी, घुटना या पाषाण का अंग पर आघात होना, यंत्र में पीला जाना, अत्यन्त खुजली होना, करेंच का स्पर्श होना, अग्नि का स्पर्श, बिच्छू के डंक का, वायु का, धूप का या डाँसमच्छरों का स्पर्श होना, कष्टजनक आसन, स्वाध्यायभूमि में तथा दुर्गन्धमय, कर्कश, भारी, शीत, उष्ण एवं रूक्ष आदि अनेक प्रकार के स्पर्शों में और इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ स्पर्शों में साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिए, उनकी हीलना, निन्दा, गर्हा और खिंसना नहीं करनी चाहिए, अशुभ स्पर्श वाले द्रव्य का छेदन-भेदन, स्व-पर का हनन और स्व-पर में धृणावृत्ति भी उत्पन्न नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार स्पर्शनेन्द्रियसंवर की भावना से भावित अन्तःकरण वाला, मनोज्ञ और अमनोज्ञ अनुकूल और प्रतिकूल स्पर्शों की प्राप्ति होने पर राग-द्वेषवृत्ति का संवरण करने वाला साधु मन, वचन और काय से गुप्त होता है । इस भाँति साधु संवृतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करे । इस प्रकार से यह पाँचवां संवरद्वार-सम्यक प्रकार से मन, वचन और काय से परिरक्षित पाँच भावना रूप कारणों से संवत्त किया जाए तो सुरक्षित होता है । धैर्यवान और विवेकवान साधु को यह योग जीवनपर्यन्त निरन्तर पालनीय है । यह आस्रव को रोकने वाला, निर्मल, मिथ्यात्व आदि छिद्रों से रहित होने के कारण अपरिस्रावी, संक्लेशहीन, शुद्ध और समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात है । इस प्रकार यह पाँचवां संवरद्वार शरीर द्वारा स्पृष्ट, पालित, अतिचाररहित शुद्ध किया हुआ, परिपूर्णता पर पहुँचाया हुआ, वचन द्वारा कीर्तित किया हुआ, अनुपालित तथा तीर्थंकरों की आज्ञा के अनुसार आराधित होता है । ज्ञातमुनि भगवान ने ऐसा प्रतिपादन किया है । युक्तिपूर्वक समझाया है। यह प्रसिद्ध, सिद्ध और भवस्थ सिद्धों का उत्तम शासन कहा गया है, समीचीन रूप से उपदिष्ट है। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण सूत्र-४६ ये पाँच संवररूप महाव्रत सैकड़ों हेतुओं से विस्तीर्ण हैं। अरिहंत-शासन में ये संवरद्वार संक्षेप में पाँच हैं। विस्तार से इनके पच्चीस भेद हैं । जो साधु ईर्यासमिति आदि या ज्ञान और दर्शन से रहित है, कषाय और इन्द्रियसंवर से संवृत है, जो प्राप्त संयमयोग का यत्नपूर्वक पालन और अप्राप्त संयमयोग के लिए यत्नशील है, सर्वथा विशुद्ध श्रद्धानवान् है, वह इन संवरों की आराधना करके मुक्त होगा। सूत्र - ४७ प्रश्नव्याकरण में एक श्रुतस्कन्ध है, एक सदृश दस अध्ययन हैं । उपयोगपूर्वक आहारपानी ग्रहण करने वाले साधु के द्वारा, जैसे आचारांग का वाचन किया जाता है, उसी प्रकार एकान्तर आयंबिल युक्त तपस्यापूर्वक दस दिनों में इन का वाचन किया जाता है। १० प्रश्नव्याकरण-अंगसूत्र-१० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 53

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