Book Title: Agam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 30
________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक गामी पुरुष सिद्धांतों को, अहिंसा, सत्य आदि धर्मों को तथा गण को या समाज की मर्यादाओं को भंग कर देते हैं । यहाँ तक कि धर्म और संयमादि गुणों में निरत ब्रह्मचारी पुरुष भी मैथुनसंज्ञा के वशीभूत होकर क्षणभर में चारित्रसंयम से भ्रष्ट हो जाते हैं । बड़े-बड़े यशस्वी और व्रतों का समीचीन रूप से पालन करने वाले भी अपयश और अपकीर्ति के भागी बन जाते हैं । ज्वर आदि रोगों से ग्रस्त तथा कोढ़ आदि व्याधियों से पीड़ित प्राणी मैथुनसंज्ञा की तीव्रता की बदौलत रोग और व्याधि की अधिक वृद्धि कर लेते हैं, जो मनुष्य परस्त्री से विरत नहीं है, वे दोनों लोको में, दुराधक होते हैं, इस प्रकार जिनकी बुद्धि तीव्र मोह या मोहनीय कर्म के उदय से नष्ट हो जाती है, वे यावत् अधोगति को प्राप्त होते हैं। सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी, पद्मावती, तारा, काञ्चना, रक्तसुभद्रा, अहिल्या, किन्नरी, स्वर्णगुटिका, सुरूपविद्यन्मती और रोहिणी के लिए पूर्वकाल में मनुष्यों के संहारक जो संग्राम हए हैं, उनका मूल कारण मैथन ही थाइनके अतिरिक्त महिलाओं के निमित्त से अन्य संग्राम भी हए हैं, जो अब्रह्ममूलक थे। अब्रह्म का सेवन करने वाले इस लोक और परलोक में भी नष्ट होते हैं । मोहवशीभूत प्राणी पर्याप्त और अपर्याप्त, साधारण और प्रत्येकशरीरी जीवों में, अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदिम, उद्भिज्ज और औपपातिक जीवों में, नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्यगति के जीवों में, दारुण दशा भोगते हैं तथा अनादि और अनन्त, दीर्घ मार्ग वाले, चतुर्गतिक संसार रूपी अटवी में बार-बार परिभ्रमण करते हैं। अब्रह्म रूप अधर्म का यह इहलोकसम्बन्धी और परलोकसम्बन्धी फल-विपाक है । यह अल्पसुखवाला किन्तु बहुत दुःखोंवाला है । यह फल-विपाक अत्यन्त भयंकर है, अत्यधिक पाप-रज से संयुक्त है । बड़ा ही दारुण और कठोर है । असातामय है । हजारों वर्षों में इससे छुटकारा मिलता है, किन्तु इसे भोगे बिना छूटकारा नहीं मिलता । ऐसा ज्ञातकुल के नन्दन महावीर तीर्थंकर ने कहा है और अब्रह्म का फल-विपाक प्रतिपादित किया है। यह चौथा आस्रव अब्रह्म भी देवता, मनुष्य और असुर सहित समस्त लोक के प्राणियों द्वारा प्रार्थनीय है । इसी प्रकार यह चिरकाल से परिचित, अनुगत और दुरन्त है। अध्ययन-४-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 30

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