Book Title: Agam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 45
________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक पालन करने पर सम्पूर्ण व्रत अखण्ड रूप से पालित हो जाते हैं, यथा-शील, तप, विनय और संयम, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति । ब्रह्मचर्यव्रत के प्रभाव से इहलोक और परलोक सम्बन्धी यश और कीर्ति प्राप्त होती है । यह विश्वास का कारण है । अत एव स्थिरचित्त से तीन कारण और तीन योग से विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और वह भी जीवनपर्यन्त, इस प्रकार भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्यव्रत का कथन किया है। भगवान का वह कथन इस प्रकार का हैसूत्र-४० यह ब्रह्मचर्यव्रत पाँच महाव्रतरूप शोभन व्रतों का मूल है, शुद्ध आचार वाले मुनियों के द्वारा सम्यक् प्रकार से सेवन किया गया है, यह वैरभाव की निवृत्ति और उसका अन्त करने वाला है तथा समस्त समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र के समान दुस्तर किन्तु तैरने का उपाय होने के कारण तीर्थस्वरूप है। सूत्र-४१ तीर्थंकर भगवंतों ने ब्रह्मचर्य व्रत के पालन करने के मार्ग-भलीभाँति बतलाए हैं । यह नरकगति और तिर्यंच गति के मार्ग को रोकने वाला है, सभी पवित्र अनुष्ठानों को सारयुक्त बनाने वाला तथा मुक्ति और वैमानिक देवगति के द्वार को खोलने वाला है । सूत्र -४२ देवेन्द्रों और नरेन्द्रों के द्वारा जो नमस्कृत हैं, उन महापुरुषों के लिए भी ब्रह्मचर्य पूजनीय है । यह जगत के सब मंगलों का मार्ग है । यह दुर्द्धर्ष है, यह गुणों का अद्वितीय नायक है । मोक्ष मार्ग का द्वार उद्घाटक है। सूत्र - ४३ __ब्रह्मचर्य महाव्रत का निर्दोष परिपालन करने से सुब्राह्मण, सुश्रमण और सुसाधु कहा जाता है । जो शुद्ध ब्रह्मचर्य का आचरण करता है वही ऋषि है, वही मुनि है, वही संयत है और वही सच्चा भिक्षु है । ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाले पुरुष को रति, राग, द्वेष और मोह, निस्सार प्रमाददोष तथा शिथिलाचारी साधुओं का शील और घृतादि की मालिश करना, तेल लगाकर स्नान करना, बार-बार बगल, सिर, हाथ, पैर और मुँह धोना, मर्दन करना, पैर आदि दबाना, परिमर्दन करना, विलेपन करना, चूर्णवास से शरीर को सुवासित करना, अगर आदि की धूप देना, शरीर को मण्डित करना, बाकुशिक कर्म करना-नखों, केशों एवं वस्त्रों को संवारना आदि, हँसी-ठट्ठा करना, विकारयुक्त भाषण करना, नाट्य, गीत, वाजिंत्र, नटों, नृत्यकारकों, जल्लों और मल्ला का तमाशा देखना तथा इसी प्रकार की अन्य बातें जो शृंगार का आगार हैं और जिनसे तपश्चर्या, संयम एवं ब्रह्मचर्य का उपघात या घात होता है, ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाले को सदैव के लिए त्याग देनी चाहिए। इन त्याज्य व्यवहारों के वर्जन के साथ आगे कहे जाने वाले व्यापारों से अन्तरात्मा को भावित-वासित करना चाहिए । स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, स्वेद (पसीना) धारण करना, मैल को धारण करना, मौन व्रत धारण करना, केशों का लुञ्चन करना, क्षमा, इन्द्रियनिग्रह, अचेलकता धारण करना, भूख-प्यास सहना, लाघव -उपधि अल्प रखना, सर्दी-गर्मी सहना, काष्ठ की शय्या, भूमिनिषद्या, परगृहप्रवेश में मान, अपमान, निन्दा एवं दंश-मशक का क्लेश सहन करना, नियम करना, तप तथा मूलगुण आदि एवं विनय आदि से अन्तःकरण को भावित करना चाहिए; जिससे ब्रह्मचर्यव्रत खूब स्थिर हो । अब्रह्मनिवृत्ति व्रत की रक्षा के लिए भगवान महावीर ने यह प्रवचन कहा है । यह प्रवचन परलोक में फलप्रदायक है, भविष्य में कल्याण का कारण है, शुद्ध है, न्याययुक्त है, कुटिलता से रहित है, सर्वोत्तम है और दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है। चतुर्थ अब्रह्मचर्यविरमण व्रत की रक्षा के लिए ये पाँच भावनाएं हैं-प्रथम भावना इस प्रकार है-शय्या, आसन, गृहद्वार, आँगन, आकाश, गवाक्ष, शाला, अभिलोकन, पश्चाद्गृह, प्रसाधनक, इत्यादि सब स्थान स्त्रीसंसक्त होने से वर्जनीय है । इनके अतिरिक्त वेश्याओं के स्थान हैं और जहाँ स्त्रियाँ बैठती-उठती हैं और बारबार मोह, द्वेष, कामराग और स्नेहराग की वृद्धि करने वाली नाना प्रकार की कथाएं कहती हैं-उनका भी ब्रह्मचारी को मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 45

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