Book Title: Agam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण'
द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक धारक होते हैं।
बत्तीस हजार श्रेष्ठ मुकुटबद्ध राजा मार्ग में उनके पीछे-पीछे चलते हैं । वे चौंसठ हजार श्रेष्ठ युवतियों के नेत्रों के कान्त होते हैं । उनके शरीर की कान्ति रक्तवर्ण होती है । वे कमल के गर्भ, चम्पा के फूलों, कोरंट की माला और तप्त सुवर्ण की कसौटी पर खींची हुई रेखा के समान गौर वर्ण वाले होते हैं । उनके सभी अंगोपांग अत्यन्त सुन्दर और सुडौल होते हैं । बड़े-बड़े पत्तनों में बने हुए विविध रंगों के हिरनी के चर्म के समान कोमल एवं बहुमूल्य वल्कल से तथा चीनी वस्त्रों, रेशमी वस्त्रों से तथा कटिसूत्र से उनका शरीर सुशोभित होता है । उनके मस्तिष्क उत्तम सुगन्ध से सुंदर चूर्ण के गंध से और उत्तम कुसुमों से युक्त होते हैं । कुशल कलाचार्यों द्वारा निपुणतापूर्वक बनाई हुई सुखकर माला, कड़े, अंगद, तुटिक तथा अन्य उत्तम आभूषणों को वे शरीर पर धारण किए रहते हैं । एकावली हार से उनका कण्ठ सशोभित रहता है । वे लम्बी लटकती धोती एवं उत्तरीय वस्त्र पहनते हैं। उनकी उंगलियाँ अंगूठियों से पीली रहती हैं । अपने उज्ज्वल एवं सुखप्रद वेष से अत्यन्त शोभायमान होते हैं।
अपनी तेजस्विता से वे सूर्य के समान दमकते हैं। उनका आघोष शरद् ऋतु के नये मेघ की ध्वनि के समान मधुर गम्भीर एवं स्निग्ध होता है। उनके यहाँ चौदह रत्न-उत्पन्न हो जाते हैं और वे नौ निधियों के अधिपति होते हैं । उनका कोश, खूब भरपूर होता है । उनके राज्य की सीमा चातुरन्त होती है, चतुरंगिणी सेना उनके मार्ग का अनुगमन करती है । वे अश्वों, हाथियों, रथों, एवं नरों के अधिपति होते हैं । वे बड़े ऊंचे कुलों वाले तथा विश्रुत होते हैं । उनका मुख शरद्-ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा के समान होता है । शूरवीर होते हैं । उनका प्रभाव तीनों लोकों में फैला होता है एवं सर्वत्र उनकी जय-जयकार होती है । वे सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के अधिपति, धीर, समस्त शत्रुओं के विजेता, बड़े-बड़े राजाओं में सिंह के समान, पूर्वकाल में किए तप के प्रभाव से सम्पन्न, संचित पुष्ट सुख को भोगने वाले, अनेक वर्षशत के आयुष्य वाले एवं नरों में इन्द्र होते हैं । उत्तर दिशा में हिमवान् वर्षधर पर्वत और शेष तीन दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त समग्र भरतक्षेत्र का भोग उनके जनपदों में प्रधान एवं अतुल्य शब्द, स्पर्श, रस, रूप
और गन्ध सम्बन्धी काम-भोगों का अनुभव करते हैं। फिर भी वे काम-भोगों से तप्त हए बिना ही मरणधर्म को प्राप्त हो जाते हैं।
बलदेव और वासुदेव पुरुषों में अत्यन्त श्रेष्ठ होते हैं, महान् बलशाली और महान् पराक्रमी होते हैं । बड़े-बड़े धनुषों को चढ़ाने वाले, महान् सत्त्व के सागर, शत्रुओं द्वारा अपराजेय, धनुषधारी, मनुष्यों में वृषभ समान, बलराम
और श्रीकृष्ण-दोनों भाई-भाई विशाल परिवार समेत होते हैं । वे वसुदेव तथा समुद्रविजय आदि दशाह के तथा प्रद्युम्न, प्रतिव, शम्ब, अनिरुद्ध, निषध, उल्मक, सारण, गज, सुमुख, दुर्मुख आदि यादवों और साढ़े तीन करोड़ कुमारों के हृदयों को प्रिय होते हैं । वे देवी रोहिणी तथा देवकी के हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाले होते हैं । सोलह हजार मुकुट-बद्ध राजा उनके मार्ग का अनुगमन करते हैं । वे सोलह हजार सुनयना महारानियों के हृदय के वल्लभ होते हैं।
उनके भाण्डार विविध प्रकार की मणियों, स्वर्ण, रत्न, मोती, मूंगा, धन और धान्य के संचय रूप ऋद्धि से सदा भरपूर रहते हैं । वे सहस्रों हाथियों, घोड़ों एवं रथों के अधिपति होते हैं । सहस्रों ग्रामों, आकरों, नगरों, खेटों, कर्बटों, मडम्बों, द्रोणमुखों, पट्टनों, आश्रमों, संवाहों में स्वस्थ, स्थिर, शान्त और प्रमुदित जन निवास करते हैं, जहाँ विविध प्रकार के धान्य उपजाने वाली भूमि होती है, बड़े-बड़े सरोवर हैं, नदियाँ हैं, छोटे-छोटे तालाब हैं, पर्वत हैं, वन हैं, आराम हैं, उद्यान हैं, वे अर्धभरत क्षेत्र के अधिपति होते हैं, क्योंकि भरतक्षेत्र का दक्षिण दिशा की ओर का आधा भाग वैताढ्य नामक पर्वत के कारण विभक्त हो जाता है और वह तीन तरफ लवणसमुद्र से घिरा है । उन तीनों खण्डों के शासक वासुदेव होते हैं । वह अर्धभरत छहों प्रकार के कालों में होने वाले अत्यन्त सुख से युक्त होता है।
बलदेव और वासुदेव धैर्यवान् और कीर्तिमान होते हैं । वे ओघबली होते हैं । अतिबल होते हैं । उन्हें कोई आहत नहीं कर सकता । वे कभी शत्रुओं द्वारा पराजित नहीं होते । वे दयालु, मत्सरता से रहित, चपलता से रहित,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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