Book Title: Agam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 22
________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/सूत्रांक एक दूसरे के द्वारा उत्पन्न होने वाला भय बना रहता है। जिनकी कहीं कोई सीमा नहीं, ऐसी विपुल कामनाओं और कलुषित बुद्धि रूपी पवन आँधी के प्रचण्ड वेग के कारण उत्पन्न तथा आशा और पीपासा रूप पाताल, समुद्रतल से कामरति की प्रचुरता से वह अन्धकारमय हो रहा है । संसार-सागर के जल में प्राणी मोहरूपी भँवरों में भोगरूपी गोलाकार चक्कर लगा रहे हैं, व्याकुल होकर उछल रहे हैं, नीचे गिर रहे हैं । इस संसार-सागर में दौड़धाम करते हुए, व्यसनों से ग्रस्त प्राणियों के रुदनरूपी प्रचण्ड पवन से परस्पर टकराती हुई अमनोज्ञ लहरों से व्याकुल तथा तरंगों से फूटता हुआ एवं चंचल कल्लोलों से व्याप्त जल है । वह प्रमाद रूपी अत्यन्त प्रचण्ड एवं दुष्ट श्वापदों द्वारा सताये गये एवं इधर-उधर घूमते हुए प्राणियों के समूह का विध्वंस करने वाले घोर अनर्थों से परिपूर्ण है। उसमें अज्ञान रूपी भयंकर मच्छ घूमते हैं । अनुपशान्त इन्द्रियों वाले जीवरूप महामगरों की नयी-नयी उत्पन्न होने वाली चेष्टाओं से वह अत्यन्त क्षब्ध हो रहा है। उसमें सन्तापों का समूह विद्यमान है, ऐसा प्राणियों के द्वारा पूर्वसंचित एवं पापकर्मों के उदय से प्राप्त होनेवाला तथा भोगा जानेवाला फल रूपी घूमता हुआ जल-समूह है जो बिजली के समान चंचल है । वह त्राण एवं शरण से रहित है, इसी प्रकार संसार में अपने पापकर्मों का फल भोगने से कोई बच नहीं सकता। संसार-सागर में ऋद्धि, रस और सातागौरव रूपी अपहार द्वारा पकड़े हुए एवं कर्मबन्ध से जकड़े हुए प्राणी जब नरकरूप पाताल-तल के सम्मुख पहुँचते हैं तो सन्न और विषण होते हैं, ऐसे प्राणियों की बहलता वाला है । वह अरति, रति, भय, दीनता, शोक तथा मिथ्यात्व रूपी पर्वतों से व्याप्त हैं । अनादि सन्तान कर्मबन्धन एवं राग-द्वेष आदि क्लेश रूप कीचड़ के कारण उस संसार-सागर को पार करना अत्यन्त कठिन है । समुद्र में ज्वार के समान संसार-समुद्र में चतुर्गति रूप कुटिल परिवर्तनों से युक्त विस्तीर्ण-ज्वार-आते रहते हैं । हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप आरंभ के करने, कराने और अनुमोदने से सचित्त ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के गुरुतर भार से दबे हुए तथा व्यसन रूपी जलप्रवाह द्वारा दूर फेंके गए प्राणियों के लिए इस संसार-सागर का तल पाना अत्यन्त कठिन है। इसमें प्राणी दुःखों का अनुभव करते हैं । संसार संबंधी सुख-दुःख से उत्पन्न होने वाले परिताप के कारण वे कभी ऊपर उठने और कभी डूबने का प्रयत्न करते रहते हैं । यह संसार-सागर चार दिशा रूप चार गतियों के कारण विशाल है । यह अन्तहीन और विस्तृत है । जो जीव संयम में स्थित नहीं, उनके लिए यहाँ कोई आलम्बन नहीं है । चौरासी लाख जीवयोनियों से व्याप्त हैं । यहाँ अज्ञानान्धकार छाया रहता है और र काल तक स्थायी है । संसार-सागर उद्वेगप्राप्त-दुःखी प्राणियों का निवास स्थान है । इस संसार में पापकर्मकारी प्राणी-जिस ग्राम, कुल आदि की आयु बाँधते हैं वहीं पर वे बन्धु-बान्धवों, स्वजनों और मित्रजनों से परिवर्जित होते हैं, वे सभी के लिए अनिष्ट होते हैं । उनके वचनों को कोई ग्राह्य नहीं मानता और वे दुर्विनीत होते हैं। उन्हें रहने को, बैठने को खराब आसन, सोने को खराब शय्या और खाने को खराब भोजन मिलता है । वे अशुचि रहते हैं । उनका संहनन खराब होता है, शरीर प्रमाणोपेत नहीं होता । उनके शरीर की आकृति बेडौल होती है । वे कुरूप होते हैं । तीव्रकषायी होते हैं और मोह की तीव्रता होती है । उनमें धर्मसंज्ञा नहीं होती । वे सम्यग्दर्शन से रहित होते हैं । उन्हें दरिद्रता का कष्ट सदा सताता रहता है। वे सदा परकर्मकारी रहकर जिन्दगी बिताते हैं। कृपण-रंक-दीन-दरिद्र रहते हैं । दूसरों के द्वारा दिये जाने वाले पिण्ड-ताक में रहते हैं । कठिनाई से दुःखपूर्वक आहार पाते हैं, किसी प्रकार रूखे-सूखे, नीरस एवं निस्सार भोजन से पेट भरते हैं। दूसरों का वैभव, सत्कार सम्मान, भोजन, वस्त्र आदि समुदय-अभ्युदय देखकर वे अपनी निन्दा करते हैं । इस भव में या पूर्वभव में किये पापकर्मों की निन्दा करते हैं । उदास मन रह कर शोक की आग में जलते हुए लज्जित-तिरस्कृत होते हैं । साथ ही वे सत्त्वहीन, क्षोभग्रस्त तथा चित्रकला आदि शिल्प के ज्ञान से, विद्याओं से एवं शास्त्र ज्ञान से शून्य होते हैं । यथाजात अज्ञान पशु के समान जड़ बुद्धि वाले, अविश्वसनीय या अप्रतीति उत्पन्न करने वाले होते हैं । सदा नीच कृत्य करके अपनी आजीविका चलाते हैं-लोकनिन्दित, असफल मनोरथ वाले, निराशा से ग्रस्त होते हैं। लो के प्राणी भवान्तर में भी अनेक प्रकार की तृष्णाओं के पाश में बँधे रहते मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 22

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