Book Title: Agam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar View full book textPage 7
________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक हैं । जिनके परिणाम-अशुभ हैं, जो मन्दबुद्धि हैं, वे इन प्राणियों को नहीं जानते । वे अज्ञानी जन न पृथ्वीकाय को जानते हैं, न पृथ्वीकाय के आश्रित रहे अन्य स्थावरों एवं त्रस जीवों को जानते हैं । उन्हें जलकायिक तथा जल में रहने वाले अन्य जीवों का ज्ञान नहीं है । उन्हें अग्निकाय, वायुकाय, तृण तथा (अन्य) वनस्पतिकाय के एवं इनके आधार पर रहे हुए अन्य जीवों का परिज्ञान नहीं है । ये प्राणी उन्हीं के स्वरूप वाले, उन्हीं के आधार से जीवित रहने वाले अथवा उन्हीं का आहार करने वाले हैं । उन जीवों का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शरीर अपने आश्रयभूत पृथ्वी, जल आदि सदृश होता है । उनमें से कोई जीव नेत्रों से दिखाई नहीं देते हैं और कोई-कोई दिखाई देते हैं । ऐसे असंख्य त्रसकायिक जीवों की तथा अनन्त सूक्ष्म, बादर, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर वाले स्थावरकाय के जीवों की जानबूझ कर या अनजाने इन कारणों से हिंसा करते हैं। वे कारण कौन से हैं, जिनसे (पृथ्वीकायिक) जीवों का वध किया जाता है ? कृषि, पुष्करिणी, वावड़ी, क्यारी, कप, सर, तालाब, भित्ति, वेदिका, खाई, आराम, विहार, स्तप, प्राकार, द्वार, गोपर, अटारी, चरिका, सेतपुल, संक्रम, प्रासाद, विकल्प, भवन, गह, झोंपडी, लयन, दुकान, चैत्य, देवकुल, चित्रसभा, प्याऊ, आयतन, देवस्थान, आवसथ, भूमिगृह और मंडप आदि के लिए तथा भाजन, भाण्ड आदि एवं उपकरणों के लिए मन्दबुद्धि जन पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं। स्नान, पान, भोजन, वस्त्र धोना एवं शौच आदि की शुद्धि, इत्यादि कारणों से जलकायिक जीवों की हिंसा की जाती है । भोजनादि पकाने, पकवाने, जलाने तथा प्रकाश करने के लिए अग्निकाय के जीवों की हिंसा की जाती है । सूप, पंखा, ताड़ का पंखा, मयूरपंख, मुख, हथेलियों, सागवान आदि के पत्ते तथा वस्त्र-खण्ड आदि से वायुकाय के जीवों की हिंसा की जाती है। गृह, परिचार, भक्ष्य, भोजन, शयन, आसन, फलक, मूसल, ओखली, तत, वितत, आतोद्य, वहन, वाहन, मण्डप, अनेक प्रकार के भवन, तोरण, विडंग, देवकुल, झरोखा, अर्द्धचन्द्र, सोपान, द्वारशाखा, अटारी, वेदी, निःसरणी, द्रौणी, चंगेरी, खूटी, खम्भा, सभागार, प्याऊ, आवसथ, मठ, गंध, माला, विलेपन, वस्त्र, जूवा, हल, मतिक, कुलिक, स्यन्दन, शिबिका, रथ, शकट, यान, युग्य, अट्टालिका, चरिका, परिघ, फाटक, आगल, अरहट आदि, शूली, लाठी, मुसुंढी, शतध्नी, ढक्कन एवं अन्य उपकरण बनाने के लिए और इसी प्रकार के ऊपर कहे गए तथा नहीं कहे गए ऐसे बहुत-से सैकड़ों कारणों से अज्ञानी जन वनस्पतिकाय की हिंसा करते हैं। ढ-अज्ञानी, दारुण मति वाले पुरुष क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभत होकर तथा हँसी, रति, एवं शोक के अधीन होकर, वेदानुष्ठान के अर्थी होकर, जीवन, धर्म, अर्थ एवं काम के लिए, स्ववश और परवश होकर प्रयोजन से और बिना प्रयोजन त्रस तथा स्थावर जीवों का, जो अशक्त हैं, घात करते हैं । (ऐसे हिंसक प्राणी वस्तुतः) मन्दबुद्धि हैं । वे बुद्धिहीन क्रूर प्राणी स्ववश होकर घात करते हैं, विवश होकर, स्ववशविवश दोनों प्रकार से, सप्रयोजन एवं निष्प्रयोजन तथा सप्रयोजन और निष्प्रयोजन दोनों प्रकार से घात करते हैं। हास्य-विनोद से, वैर से और अनुराग से प्रेरित होकर हिंसा करते हैं । क्रुद्ध होकर, लुब्ध होकर, मुग्ध होकर, क्रुद्धलुब्ध-मुग्ध होकर हनन करते हैं, अर्थ के लिए, धर्म के लिए, काम-भोग के लिए तथा अर्थ-धर्म-कामभोग तीनों के लिए घात करते हैं। सूत्र-८ वे हिंसक प्राणी कौन हैं ? शौकरिक, मत्स्यबन्धक, मृगों, हिरणों को फँसाकर मारने वाले, क्रूरकर्मा वागुरिक, चीता, बन्धनप्रयोग, छोटी नौका, गल, जाल, बाज पक्षी, लोहे का जाल, दर्भ, कूटपाश, इन सब साधनों को हाथ में लेकर फिरने वाले, चाण्डाल, चिड़ीमार, बाज पक्षी तथा जाल को रखने वाले, वनचर, मधु-मक्खियों का घात करने वाले, पोतघातक, मृगों को आकर्षित करने के लिए मुगियों का पालन करने वाले, सरोवर, ह्रद, वापी, तालाब, पल्लव, खाली करने वाले, जलाशय को सूखाने वाले, विष अथवा गरल को खिलाने वाले, घास एवं खेत को निर्दयतापूर्वक जलाने वाले, ये सब क्रूरकर्मकारी हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 7Page Navigation
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