Book Title: Agam 10 Prashnavyakaran Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 15
________________ आगम सूत्र १०, अंगसूत्र-१०, 'प्रश्नव्याकरण' द्वार/अध्ययन/ सूत्रांक सूत्र - १२ पूर्वोक्त मिथ्याभाषण के फल-विपाक से अनजान वे मृषावादी जन नरक और तिर्यञ्च योनि की वृद्धि करते हैं, जो अत्यन्त भयंकर है, जिनमें विश्रामरहित वेदना भुगतनी पड़ती है और जो दीर्घकाल तक बहुत दुःखों से परिपूर्ण हैं । वे मृषावाद में निरत नर भयंकर पुनर्भव के अन्धकार में भटकते हैं । उस पुनर्भव में भी दुर्गति प्राप्त करते हैं, जिनका अन्त बड़ी कठिनाई से होता है । वे मृषावादी मनुष्य पुनर्भव में भी पराधीन होकर जीवन यापन करते हैं । वे अर्थ और भोगों से परिवर्जित होते हैं । वे दुःखी रहते हैं। उनकी चमड़ी बिवाई, दाद, खुजली आदि से फटी रहती है, वे भयानक दिखाई देते हैं और विवर्ण होते हैं । कठोर स्पर्श वाले, रतिविहीन, मलीन एवं सारहीन शरीर वाले होते हैं । शोभाकान्ति से रहित होते हैं । वे अस्पष्ट और विफल वाणी वाले होते हैं । वे संस्काररहित और सत्कार से रहित होते हैं । वे दुर्गन्ध से व्याप्त, विशिष्ट चेतना से विहीन, अभागे, अकान्त-अकमनीय, अनिष्ट स्वर वाले, धीमी और फटी हुई आवाज वाले, विहिंस्य, जड़, वधिर, अंधे, गूंगे और अस्पष्ट उच्चारण करने वाले, अमनोज्ञ तथा विकृत इन्द्रियों वाले, जाति, कुल, गौत्र तथा कार्यों से नीचे होते हैं । उन्हें नीच लोगों का सेवक बनना पड़ता है । वे लोक में गर्हा के पात्र होते हैं । वे भृत्य होते हैं और विरुद्ध आचार-विचार वाले लोगों के आज्ञापालक या द्वेषपात्र होते हैं । वे दुर्बुद्धि होते हैं अतः लौकिक शास्त्र, वेद, आध्यात्मिक शास्त्र, आगमों या सिद्धान्तों के श्रवण एवं ज्ञान से रहित होते हैं । वे धर्मबुद्धि से रहित होते हैं। उस अशुभ या अनुपशान्त असत्य की अग्नि से जलते हुए वे मृषावादी अपमान, निन्दा, आक्षेप, चुगली, परस्पर की फूट आदि की स्थिति प्राप्त करते हैं । गुरुजनों, बन्धु-बान्धवों, स्वजनों तथा मित्रजनों के तीक्ष्ण वचनों से अनदार पाते हैं । अमनोरम, हृदय और मन को सन्ताप देने वाले तथा जीवनपर्यन्त कठिनाई से मिटने वालेमिथ्या आरोपों को वे प्राप्त करते हैं । अनिष्ट, तीक्ष्ण, कठोर और मर्मवेधी वचनों से तर्जना, झिड़कियों और धिक्कार के कारण दीन मुख एवं खिन्न चित्त वाले होते हैं । वे खराब भोजन वाले और मैले तथा फटे वस्त्रों वाले होते हैं, उन्हें निकृष्ट वस्ती में क्लेश पाते हुए अत्यन्त एवं विपुल दुःखों की अग्नि में जलना पड़ता है । उन्हें न तो शारीरिक सुख प्राप्त होता है और न मानसिक शान्ति ही मिलती है। मृषावाद का इस लोक और परलोक सम्बन्धी फल विपाक है । इस फल-विपाकमें सुख अभाव है और दुःख-बहुलता है । यह लता है । यह अत्यन्त भयानक है, प्रगाढ कर्म-रज के बन्ध का कारण है । यह दारुण है, कर्कश है और असातारूप है । सहस्रों वर्षों में इससे छुटकारा मिलता है । फल को भोगे बिना इस पाप से मुक्ति नहीं मिलती। ज्ञातकुलनन्दन, महान आत्मा वीरवर महावीर नामक जिनेश्वर देव ने मृषावाद का यह फल प्रतिपादित किया है। यह दूसरा अधर्मद्वार है । छोटे लोग इसका प्रयोग करते- । यह मृषावाद भयंकर है, दुःखकर है, अपयशकर है, वैरकर है । अरति, रति, राग-द्वेष एवं मानसिक संक्लेश को उत्पन्न करने वाला है । यह झूठ, निष्फल कपट और अविश्वास की बहुलता वाला है । नीच जन इसको सेवन करते हैं। यह नृशंस एवं निघृण है। अविश्वासकारक है । परम साधुजनों द्वारा निन्दनीय है । दूसरों को पीड़ा उत्पन्न करने वाला और परम कृष्णलेश्या से संयुक्त है। अधोगति में निपात का कारण है । पुनः पुनः जन्म-मरण का कारण है, चिरकाल से परिचित है-अत एव अनुगत है। इसका अन्त कठिनता से होता है अथवा इसका परिणाम दुःखमय ही होता है। अध्ययन-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् । (प्रश्नव्याकरण) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 15

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