Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Samvao Terapanth Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni Publisher: Jain Vishva BharatiPage 15
________________ [१४] है । इस कार्य में हमें अन्य अनेक विद्वानों की सद्भावना, समर्थन और प्रोत्साहन मिल रहा है । मुझे विश्वास है कि आचार्यश्री की यह वाचना पूर्ववर्ती वाचनाओं से कम अर्थवान नहीं होगी। सम्पादन का कार्य सरल नहीं है-यह उन्हे सुविदित है, जिन्होंने उस दिशा में कोई प्रयत्न किया है। दो-ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रन्थों के सम्पादन का कार्य और भी जटिल है, क्योंकि उनकी भाषा और भावधारा से आज की भाषा और भावधारा बहुत व्यवधान पा चुकी है। इतिहास की यह अपवाद-शून्य गति रही है कि जो विचार या आचार जिस आकार में आरब्ध होता है, वह उसी आकार में स्थिर नहीं रहता, या तो वह बड़ा हो जाता है या छोटा। यह ह्रास और विकास की कहानी ही परिवर्तन की कहानी है । और कोई भी आकार ऐसा नहीं है, जो कृत है और परिवर्तनशील नहीं है। परिवर्तनशील घटनाओं, तथ्यों, विचारों और आचारों के प्रति अपरिवर्तनशीलता का आग्रह मनुष्य को असत्य की ओर ले जाता है । सत्य का केन्द्र-बिन्दु यह है कि जो कृत है वह सब परिवर्तनशील है । अकृत या शाश्वत भी ऐसा क्या है, जहां परिवर्तन का स्पर्श न हो ? इस विश्व में जो है वह वही है जिसकी सत्ता शाश्वत और परिवर्तन की धारा से सर्वथा विभक्त नहीं है। शब्द की परिधि में बन्धने वाला कोई भी सत्य क्या ऐसा हो सकता है, जो तीनों कालों में समानरूप से प्रकाशित रह सके ? शब्द के अर्थ का उत्कर्ष या अपकर्ष होता है-भाषाशास्त्र के इस नियम को जानने वाला यह आग्रह नहीं रख सकता कि दो हजार वर्ष पुराने शब्द का आज भी वही अर्थ सही है, जो आज प्रचलित है । 'पाषण्ड' शब्द का जो अर्थ आगम-ग्रन्थों और अशोक के शिलालेखों में है, वह आज के श्रमण साहित्य में नहीं है । आज उसका अपकर्ष हो चुका है । आगम साहित्य के सैकड़ों शब्दों की यही कहानी है कि वे आज अपने मौलिक अर्थ का प्रकाश नहीं दे रहे हैं । इस स्थिति में हर चिन्तनशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि प्राचीन साहित्य के सम्पादन का कार्य कितना दुरूह है। मनुष्य अपनी शक्ति में विश्वास करता है और अपने पौरुष से खेलता है, अत: वह किसी भी कार्य को इसलिए नहीं छोड़ देता कि वह दुरूह है। यदि यह पलायन की प्रवृत्ति होती तो प्राप्य की संभावना नष्ट ही नहीं हो जाती किन्तु आज जो प्राप्त है, वह अतीत के किसी भी क्षण में विलुप्त हो जाता। आज से हजार वर्ष पहले नवाङ्गीटीकाकार (अभयदेवसूरि) के सामने अनेक कठिनाइयां थीं। उन्होंने उनकी चर्चा करते हुए लिखा है' १. सत् सम्प्रदाय (अर्थ-बोध की सम्यक् गुरु-परम्परा) प्राप्त नहीं है । २. सत् ऊह (अर्थ की आलोचनात्मक कृति या स्थिति) प्राप्त नहीं है। ३. अनेक वाचनाएं (आगमिक अध्यापन की पद्धतियां) हैं। ४. पुस्तकें अशुद्ध हैं। ५. कृतियां सूत्रात्मक होने के कारण बहुत गम्भीर हैं । ६. अर्थ-विषयक मतभेद है। इन सारी कठिनाइयों के उपरान्त भी उन्होंने अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा और वे कुछ कर गए। कठिनाइयां आज भी कम नहीं हैं, किन्तु उनके होते हुए भी आचार्य श्री तुलसी ने आगम-सम्पादन के कार्य को अपने हाथों में ले लिया। उनके शक्तिशाली हाथों का स्पर्श पाकर निष्प्राण भी प्राणवान् बन जाता है, तो भला आगम-साहित्य, जो स्वयं प्राणवान् है, उसमें प्राण-सञ्चार करना क्या बड़ी बात है ? बड़ी बात यह है कि आचार्य श्री ने उसमें प्राण-सञ्चार मेरी और मेरे सहयोगी साधु-साध्वियों की असमर्थ अंगुलियों द्वारा कराने का प्रयत्न किया है । सम्पादन कार्य में हमें आचार्यश्री का आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं है किन्तु मार्ग-दर्शन और सक्रिय योग भी प्राप्त है । आचार्य श्री ने इस कार्य को प्राथमिकता दी है और इसकी परिपूर्णता स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति श्लोक 1,१: सत्सम्प्रदायहीनत्वात्, सदूहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे।। वाचनानामनेकत्वात्, पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्याद, मतभेदाश्च कुत्रचित् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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