Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana Publisher: Padma PrakashanPage 10
________________ जैसी सुगेयता भी उनमें है।"१ इन पद्यांशों की सुगेयता, लयबद्धता ऋग्वेद के अति प्राचीन सूक्तों जैसी है। संक्षिप्त-सारपूर्ण शब्दों में असीम अर्थ, नये-नये लाक्षणिक शब्दों का प्रयोग और सुगठित वाक्य रचना देखकर ही विद्वानों ने अनुमान किया है कि आचारांग की रचना, वेद और उपनिषद् की सूक्तात्मक शैली की है, जो सबसे प्राचीन शास्त्र रचना शैली है। यही कारण है कि आचारांग की व्याख्या और उसके सूत्रों का भाव-उद्घाटन काफी कठिन माना जाता है। प्रथम आचारांग के आठवें अध्ययन के सातवें उद्देशक तक प्रायः सूत्रात्मक गद्य शैली है। बीच-बीच में कुछ पद्य-गाथाएँ हैं। आठवाँ उद्देशक तथा नौवाँ अध्ययन पद्यात्मक है। नौवें अध्ययन में भगवान महावीर की उग्र परीषहयुक्त साधना का बड़ा ही रोमांचक वर्णन है। आगमों की रचना में दो प्रकार की पद्धतियाँ मिलती हैं(१) छिन्न-छेद नयिक (२) अच्छिन्न-छेद नयिक जो वाक्य, गाथा, पद अपने आप में पूर्ण होते हैं, जिनका अर्थ करने में आगे-पीछे के संदर्भो को देखने व मिलाने की जरूरत नहीं होती, वे छिन्न-छेद नयिक कहलाते हैं। जैसे-दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि सूत्र। __सूत्रों, वाक्यों व पदों की व्याख्या करने के लिए आगे-पीछे के संदर्भ, विषय का वर्णन आदि पर विचार कर, संगति बैठाना पड़ता है, वह दूसरी अच्छिन्न-छेद नयिक पद्धति है। आचारांग सूत्र की रचना दूसरी पद्धति लिए हुए है। इसलिए इसके छोटे-छोटे वाक्यों व सूत्रों का अर्थ करते समय आगे-पीछे के संदर्भ, क्रियाएँ, विषय प्रतिपादन का विचार करना जरूरी है। इसकी व्याख्या में नियुक्ति, चूर्णि, टीका आदि का अध्ययन करना तथा उनके अर्थों पर विचार करना आवश्यक लगता है अन्यथा आचारांग के अर्थ के सम्बन्ध में भूल भी हो सकती। आचारांग सूत्र की व्याख्याएँ ___ यह माना जाता है कि आचारांग सूत्र के मूल उपदेष्टा स्वयं भगवान महावीर हैं। गणधर सुधर्मा इसके संकलनकर्ता हैं। इसके अर्थ गम्भीर सूत्रों की व्याख्या करने वाला सबसे प्राचीन ग्रन्थ है आचार्य भद्रबाहुकृत नियुक्ति। आचार्य भद्रबाहु ५-६वीं सदी के बहुश्रुत विद्वान् हैं। जिन्होंने लगभग दस आगमों पर नियुक्तियाँ लिखी हैं। नियुक्ति की भाषा प्राकृत तथा रचना पद्यात्मक होती है। दूसरा व्याख्या ग्रन्थ है चूर्णि। चूर्णि गद्य-पद्य मिश्रित तथा संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा में होती है। इसके कर्ता आचार्य जिनदासगणि महत्तर (६-७वीं शती) माने जाते हैं। ऐसा लगता है १. आतंकदंसी अहियं ति णच्चा आसं च छंदं च विगिंच धीरे -सूत्र ५७ -सूत्र ८३ आरम्भजं दुक्खमिणं ति णच्चा मायी पमायी पुणरेति गभं -सूत्र १०९ -सूत्र १०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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