Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharang Sutra Aayaro Terapanth Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni Publisher: Jain Vishva BharatiPage 15
________________ १४ वास्तकिता की एक स्पष्ट स्वीकृति है कि देहधारी सब कर्मों को छोड़ नहीं सकता नहि देहभृता शक्यं त्यक्तु कर्माण्यशेषतः।' शरीर और कर्म का अनिवार्य योग है। इस स्थिति में कर्म-त्याग की बात एक सीमित अर्थ में हो सकती है। फिर त्याग किसे माना जाए? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए त्याग की कसौटियां निश्चित की गई। प्रस्तुत सूत्र के अनुसार असंयममय कर्म को छोड़ना त्याग है। गीता के अनुसार आसक्ति और कर्म-फल को छोड़ना त्याग है। राग-द्वेष-युक्त भाव से कर्म करना और फलाशंसा रखना-ये दोनों असंयम हैं। अतः आचारांग और गीता द्वारा अभिमत त्याग की कसौटी में शाब्दिक भिन्नता होने पर भी आर्थिक भिन्नता नहीं है । इस अभिन्नता के होने पर भी दोनों के आधार पर दो भिन्न परम्पराएं विकसित हुई हैं। गीता के आधार पर विकसित परम्परा में कर्म करने के पक्ष पर बल दिया जाता है। अनासक्ति और फल-त्याग की बात उतनी प्रबल दिखाई नहीं देती । आचारांग के आधार पर विकसित परम्परा में कर्म न करने के पक्ष पर बल दिया जाता है। राग-द्वेष और आशंसा-त्याग की बात उतनी प्रबल दिखाई नहीं देती। इस प्रकार दोनों परम्पराएं दो दिशाओं में विकसित हुईं, किन्तु दोनों की समान दिशा का बिन्दु शाब्दिक भिन्नता में ओझल हो गया। भगवान् महावीर ने प्रथम चरण में ही कर्म को त्याग देने की असंभव बात नहीं कही। उन्होंने कर्म-शोधन की दिशा प्रदर्शित की। उसका स्पष्ट दर्शन माचारांग चूला के निम्न निर्दिष्ट श्लोकों में मिलता है :: १. गीता, १८।११। २. मायारो, १७ : एयावंति सव्वावंति लोगसि कम्मसमारंभा परिजाणियब्वा भवंति । ३. गीता, १८९ कार्यमित्येव यत्कर्म, नियतं क्रियतेऽर्जुन ! । सङ्ग त्यक्त्वा फलं चैव, स त्यागः सात्त्विको मतः ।। ४. मायारचूसा, १५७२-७६ ण सक्का ण सोउं सहा, सोपविसयमागता । रागदोसा उजे तत्य, ते भिक्खू परिवज्जह ।। णो सक्का स्वमदहें चक्षुविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्व, ते भिक्खू परिवज्जए । जो सक्का ण गंधमग्धा, णासाविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्य, भिक्खू परिवज्जए । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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