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प्रत्येक अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी काल में
भरत व ऐरावत क्षेत्रों की कर्म भूमियों में ६३ शलाका पुरुष होते हैं, जो निम्नवत
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तीर्थकर चक्रवर्ती
- नारायण - ६ प्रतिनारायण - ६ बलभद्र
ये सभी भव्य जीव होते हैं, किन्तु तीर्थकरों के अतिरिक्त सभी का मुक्त होना उसी भव में अनिवार्य नहीं है। सभी बलभद्र ऊर्ध्वगामी (स्वर्ग और मोक्षगामी) होते हैं। सभी नारायण और प्रतिनारायण नियन से नरक में जाते हैं।
इनके अतिरिक्त २४ कामदेव होते हैं. ६ नारद होते हैं जो कलहप्रिय होते हैं तथा ११ रुद्र होते हैं। नारद पाप के निधान, कलह प्रिय एवम् युद्ध प्रिय होते हैं तथा नरकों में जाते हैं। सभी कामदेव, नारद और रुद्र भव्य जीव होते हैं। रुद्र दसवें पूर्व का अध्ययन करते समय विषयों के निमित्त से तप से भ्रष्ट होकर, सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित होते हुए नरकों में जाते हैं।
असंख्यात कल्पकाल व्यतीत होने पर एक हुण्डावसर्पिणी काल आता है, जब बजाय ६३ के, कम जीव शलाकापुरुष होते हैं, जैसे वर्तमान काल में भगवान शान्तिनाथ, कुंथुनाथ व अरहनाथ चक्रवर्ती भी थे, भगवान महावीर पिछले किसी अन्य भव में त्रिपृष्ट नारायण भी थे। इसके अतिरिक्त अन्य दोष भी होते हैं, जैसे चक्रवर्ती का अपमान (भरत का), तीर्थंकर को पुत्री की प्राप्ति (जैसे आदिनाथ की ब्राह्मी व सुन्दरी), मिथ्यामत का प्रचलन, तृतीय काल व पञ्चमकाल में मोक्षगमन (जैसे आदिनाथ भगवान, बाहुबलि भगवान, जम्बू स्वामी का)।
इस प्रकार जम्बूद्वीप में ३४ कर्मभूमियां (भरत क्षेत्र का आर्य खण्ड, विदेह क्षेत्र में ३२ कर्म भूमि तथा ऐरावत क्षेत्र का आर्यखण्ड) तथा धातकीखण्ड द्वीप में ६८ कर्मभूमि तथा पुष्करार्द्ध द्वीप में ६८ कर्मभूमि हैं, कुल १७० कर्मभूमियां हैं। अर्थात एक समय में १७० तीर्थंकर हो सकते हैं। कहते हैं कि भगवान अजितनाथ के समय में एक समय १७० तीर्थंकर विद्यमान थे। पुष्करार्द्ध द्वीप का व्यास ४५ लाख योजन है, इसलिए ईषत्प्राग्भार पृथ्वी पर अवस्थित कटोरे के समान सिद्धशिला का व्यास भी ४५ लाख योजन प्रमाण है।
ढाई द्वीप में काल-विभाग इस प्रकार है: