Book Title: Acharya Prabhachandra aur uska Pramey kamal Marttand Author(s): Manikyanandi Sutrakar Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf View full book textPage 9
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १३५ ईसाकी तीसरी-चौथी शताब्दी समझा जाता है । आ० प्रभावन्द्र ने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें इनके न्यायभाष्यका कहीं न्यायभाष्य और कहीं भाष्य शब्दसे उल्लेख किया । वात्सायनका नाम न लेकर सर्वत्र न्यायभाष्यकार और भाष्यकार शब्दोंसे ही इनका निर्देश किया गया है। उद्योतकर और प्रभाचन्द्र - न्यायसूत्रके ऊपर न्यायवार्तिक ग्रन्थके रचयिता आ० उद्योतकर ई० ६वीं सदी, अन्ततः सातवीं सदी के पूर्वपादके विद्वान् हैं । इन्होंने दिङ्नागके प्रमाणसमुच्चय के खण्डनके लिए न्याय वार्तिक बनाया था । इनके न्यायवार्तिकका खण्डन ध मंकीर्ति ( ई० ६३५ के बाद ) ने अपने प्रमाणवार्तिक में किया है । म० प्रभाचन्द्र प्रमेयकमल मार्त्तण्ड के सृष्टिकर्तृत्व प्रकरण के पूर्वपक्ष में ( पृ० २६८ ) उद्योतकरके अनुमानोंको 'वार्तिककारेणापि शब्दके साथ उद्धृत किया है । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में एकाधिकस्थानोंमें 'उद्योतकर' का नामोल्लेख करके न्यायवार्तिक से पूर्वपक्ष किए गए हैं। न्यायकुमुचन्द्र के षोडशपदार्थवादका पूर्वपक्ष भी उद्योतकरके न्यायवार्तिक से पर्याप्त पुष्टि पाया है । "पूर्ववच्छेषवत्" आदि अनुमानसूत्रकी वार्तिककारकृत विविध व्याख्याएँ भी प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में खंडित हुई हैं । वार्तिककारकृत साधकतमत्वका "भावाभावयोस्तद्वत्ता" यह लक्षण प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में प्रमाणरूपसे उद्धृत है । भट्ट जयन्त और प्रभाचन्द्र - भट्ट जयन्त जरन्नैयायिकके नामसे प्रसिद्ध थे । इन्होंने न्यायसूत्रोंके आधारसे न्यायकलिका और न्यायमञ्जरी ग्रन्थ लिखे हैं । न्यायमञ्जरी तो कतिपय न्यायसूत्रोंकी विशद व्याख्या है । अब हम भट्ट जयन्तके समयका विचार करते हैं जयन्तकी न्यायमञ्जरीका प्रथम संस्करण विजयनगर सीरीज में सन् १८९५ में प्रकाशित हुआ है । इसके संपादक म० म० गंगाधर शास्त्री मानवल्ली हैं । उन्होंने भूमिका में लिखा है कि- " जयन्तभट्टका गंगेशोपाध्यायने उपमान - चिन्तामणि ( पृ० ६१ ) में जरन्नैया थिक शब्दसे उल्लेख किया है, तथा जयन्तभट्टने न्यायमंजरी ( पृ० ३१२ ) में वाचस्पति मिश्रकी तात्पर्य - टीकासे " जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः " यह वाक्य ' आचार्यै: ' करके उद्धृत किया है। अतः जयन्तका समय वाचस्पति ( 841 A D ) से उत्तर तथा गंगेश ( 1175 A. D. ) से पूर्व होना चाहिये । इन्हींका अनुसरण करके न्यायमञ्जरीके द्वितीय संस्करणके सम्पादक पं० सूर्यनारायणजी शुक्लने, तथा 'संस्कृतसाहित्यका संक्षिप्त इतिहास' के लेखकोंने भी जयन्तको वाचस्पतिका परवर्ती लिखा है । स्व० डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण भी उक्त वाक्यके आधारपर इनका समय ९वींसे ११वीं शताब्दी तक मानते थे । अतः जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन माननेकी परम्पराका आधार म० म० गंगाधर शास्त्री द्वारा "जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः " इस वाक्यको वाचस्पति मिश्रका लिख देना ही मालूम होता है । वाचस्पति मिश्र ने अपना समय 'न्यायसूची निबन्ध' के अन्त में स्वयं दिया है । यथा--- "न्यायसूत्रीनिबन्धोऽयमकारि सुधियां मुदे । श्रीवाचस्पति मिश्रेण वस्वं कवसुवत्सरे ॥” इस श्लोक में ८९८ वत्सर लिखा है । म० म० विन्ध्येश्वरीप्रसादजीने 'वत्सर' शब्दसे शकसंवत् लिया है । 2 डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण विक्रम संवत् लेते हैं । म० म० गोपीनाथ कविराज लिखते हैं कि 'तात्पर्यटीकाकी परिशुद्धिटीका बनानेवाले १. हिस्ट्री ऑफ दि इण्डियन लॉजिक, पृ० १४६ । २. न्यायवार्तिक - भूमिका, पृ० १४५ । ३. हिस्ट्री ऑफ दि इण्डियन लॉजिक, पृ० १३३ । ४. हिस्ट्री एंड बिब्लोग्राफी ऑफ न्यायवैशेषिक लिटरेचर, Vol. III, पृ० १०१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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