Book Title: Acharya Prabhachandra aur uska Pramey kamal Marttand
Author(s): Manikyanandi Sutrakar
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 25
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १५१ भाग ३, किरण ३, पृ० ८७ ) लिखते हैं कि - " बहुत गंभव है कि उन्होंने गंगवाड़ि प्रदेशमें बहुवास किया हो, क्योंकि गंगवाड़ि प्रदेशके राजा राजमल्लने भी गंगवंशमें होनेवाले राजाओंमें सर्वप्रथम 'सत्यवाक्य ' उपाधि या अपरनाम धारण किया था। उपर्युक्त श्लोकों में यह संभव है कि विद्यानन्दजीने अपने समय इस राजाके 'सत्यवाक्याधिप' नामको ध्वनित किया हो । युक्त्यनुशासनालंकारमें उपर्युक्त श्लोक प्रशस्ति रूप है और उसमें रचयिता द्वारा अपना नाम और समय सूचित होना ही चाहिए। समयके लिए तत्कालीन राजाका नाम ध्वनित करना पर्याप्त है । राजमल सत्यवाक्य विजयादित्यका लड़का था और वह सन् ८१६ के लगभग राज्याधिकारी हुआ था । उनका समय भी विद्यानन्दके अनुकूल है । युक्त्यनुशासनालङ्कारके अन्तिम श्लोक के "प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभिः श्रीसत्यवाक्याधिपः " इस अंश में सत्यवाक्याधिप और विजय दोनों शब्द हैं, जिनसे गंगराज सत्यवाक्य और उसके पिता विजयादित्यका नाम ध्वनित होता है ।" इस अवतरण से यह सुनिश्चित जाता है कि विद्यानन्दने अपनी कृतियाँ राजमल सत्यवाक्य ( ८१६ ई० ) के राज्यकालमें बनाई हैं । आ० विद्यानन्दने सर्वप्रथम अपना तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थ बनाया है, तदुपरान्त अष्टसहस्री और विद्यानन्दमहोदय, इसके अनन्तर आपने आप्तपरीक्षा आदि परीक्षान्तनामवाले लघु प्रकरण तथा युक्त्यनुशासन टीका; क्योंकि अष्टसहस्रीमें तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका तथा आप्तपरीक्षा आदिमें अष्टसहस्री और विद्यानन्दमहोदयका उल्लेख पाया जाता है । विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्रीमें, जो उनकी आद्य रचनाएँ हैं, 'सत्यवाक्य' नाम नहीं लिया है, पर आप्तपरीक्षा आदिमें 'सत्यवाक्य' नाम लिया है । अतः मालूम होता है कि विद्यानन्द श्लोकवार्तिक और अष्टसहस्रीको सत्यवाक्यके राज्यसिंहासनासीन होने के पहिले ही बना चुके होंगे । विद्यानन्दके ग्रन्थोंमें मंडनमिश्र के मतका खंडन है और अष्टसहस्रीमें सुरेश्वर के सम्बन्धवार्तिक ३।४ कारिकाएँ भी उद्धृत की गई हैं। मंडनमिश्र और सुरेश्वरका समय ईसाकी ८वीं शताब्दीका पूर्वभाग माना जाता है । अतः विद्यानन्दका समय ईसाकी ८वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और नवींका पूर्वार्ध मानना सयुक्तिक मालूम होता है । प्रभाचन्द्र के सामने इनकी समस्त रचनाएँ रही हैं । तत्त्वोपप्लववादका खंडन तो विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीमें ही विस्तारसे मिलता है, जिसे प्रभाचन्द्रने अपने ग्रन्थों में स्थान दिया है । इसी तरह अष्टसहस्त्री और श्लोकवार्तिकमें पाई जानेवाली भावना विधि नियोगके विचारकी दुरवगाह चर्चा प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र में प्रसन्तरूपसे अवतीर्ण हुई है । आ० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( पृ० २०६ ) में न्यायदर्शन के 'पूर्ववत्' आदि अनुमानसूत्रका निरास करते समय केवल भाष्यकार और वार्तिककारका ही मत पूर्वपक्ष रूप से उपस्थित किया है । वे न्यायवार्तिकतात्पर्यटीकाकारके अभिप्रायको अपने पूर्वपक्ष में शामिल नहीं करते । वाचस्पतिमिश्र ने तात्पर्यटीका ई० ८४१ के लगभग बनाई थी। इससे भी विद्यानन्दके उक्त समयकी पुष्टि होती है । यदि विद्यानन्दका ग्रन्थरचनाकाल ई० ८४१ के बाद होता तो वे तात्पर्यटीका उल्लेख किये बिना न रहते । अनन्तकीर्ति और प्रभानन्द्र - लघीयस्त्रयादि संग्रहमें अनन्तकीर्तिकृत लघुसर्वज्ञसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण मुद्रित हैं । लघीयस्त्रयादिसंग्रहकी प्रस्तावना में पं० नाथूरामजी प्रेमीने इन अनन्तकीर्तिके समयकी उत्तरावधि विक्रम संवत् १०८२ के पहिले निर्धारित की है, और इस समय के समर्थन में वादिराज के पार्श्वनाथचरितका यह श्लोक उद्धृत किया है— "आत्मनैवाद्वितीयेन जीवसिद्धि निबध्नता । अनन्तकीर्तिना मुक्ति रात्रिमार्गेव लक्ष्यते ॥” वादिराजने पार्श्वनाथचरितकी रचना विक्रम संवत् १०८२ में को थी । संभव तो यह है कि इन्हीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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