Book Title: Acharya Prabhachandra aur uska Pramey kamal Marttand
Author(s): Manikyanandi Sutrakar
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
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१५४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ निर्धारित किया है । आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु भी यही अभयनन्दि थे। गोम्मटसार कर्मकाण्ड ( गा० ४३६ ) की निम्नलिखित गाथासे भी यही बात पुष्ट होती है
"जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो।
वीरिंदवदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं ।।" इस गाथासे तथा कर्मकाण्डकी गाथा नं० ७८४, ८९६ तथा लब्धिसार गाथा ६४८से यह सुनिश्चित हो जाता है कि वीरनन्दिके गुरु अभयनन्दि ही नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु थे। आ० नेमिचन्द्रने तो वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और इन्द्रनन्दिके शिष्य कनकनन्दि तकका गुरुरूपसे स्मरण किया है। इन सब उल्लेखोंसे ज्ञात होता है कि अभयनन्दि, उनके शिष्य वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि, तथा इन्द्रनन्दिके शिष्य कनकनन्दि सभी प्रायः नेमिचन्द्र के समकालीन वृद्ध थे।
वादिराजसूरिने अपने पार्श्वचरितमें चन्द्रप्रभचरित्रकार वीरनन्दिका स्मरण किया है । पार्श्वचरित शकसंवत् ९४७, ई० १०२५ में पूर्ण हुआ था । अतः वीरनन्दिकी उत्तरावधि ई० १०२५ तो सुनिश्चित है । नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने गोम्मटसार ग्रन्थ चामण्डरायके सम्बोधनार्थ बनाया था। चामण्डराय गंगवंशीय
रसिंह द्वितीय (९७५ ई०) तथा उनके उत्तराधिकारी राजमल्ल द्वितीयके मन्त्री थे । चामुण्डरायने श्रवणवेल्गलस्थ बाहवलि गोम्मटेश्वरकी मतिकी प्रतिष्ठा ई० ९८१ में कराई थी, तथा अपना चामण्डपराण ई० ९७८ में समाप्त किया था । अतः आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका समय ई० ९८० के आसपास सुनिश्चित किया जा सकता है । और लगभग यही समय आचार्य अभयनन्दि आदिका होना चाहिए । इन्होंने अपनी महावृत्ति (लिखित पृ० २२१ ) में भर्तृहरि ( ई० ६५० ) की वाक्यपदीयका उल्लेख किया है । पृ० ३९३ में माघ ( ई० ७वीं सदी) काव्यसे 'सटाच्छटाभिन्न' श्लोक उद्धृत किया है तथा ३।२।५५ की वृत्तिमें 'तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते' प्रयोगसे अकलंकदेव (ई० ८वीं सदी) के तत्त्वार्थराजवार्तिकका उल्लेख किया है । अतः इनका समय ९वीं शताब्दीसे पहिले तो नहीं ही है । यदि यही अभयनन्दि जैनेन्द्र महावृत्तिके रचयिता हैं तो कहना होगा कि उन्होंने ई० ९६० के लगभग अपनी महावृत्ति बनाई होगी । इसी महावृत्तिपर ई० १०६० के लगभग आ० प्रभाचन्द्रने अपना शब्दाम्भोजभास्कर न्यास बनाया है। क्योंकि इसकी रचना न्यायकुमुदचन्द्रके बाद की गई है और न्यायकुमुदचन्द्र जयसिंहदेव (राज्य १०५६ से) के राज्यके प्रारम्भकालमें बनाया गया है ।
मुलाचारकार और प्रभाचन्द्र-मलाचार ग्रन्थके कर्ताके विषयमें विद्वान् मतभेद रखते हैं । कोई उसे कुन्दकुन्दकृत कहते हैं तो कोई वट्टके रिकृत । जो हो, पर इतना निश्चित है कि मलाचारकी सभी गाथाएँ स्वयं उसके कर्त्ताने नहीं रची हैं। उसमें अनेकों ऐसी प्राचीन गाथाएँ है, जो कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें, भगवती आराधनामें तथा आवश्यकनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति और सम्मतितर्क आदिमें भी पाई जाती हैं। संभव है कि गोम्मटसारकी तरह यह भी एक संग्रह ग्रन्थ हो। ऐसे संग्रहग्रन्थोंमें प्राचीन गाथाओंके साथ कुछ संग्रहकार रचित गाथाएँ भी होती हैं। गोम्मटसारमें बहभाग स्वरचित है जबकि मलाचारमें स्वरचित गाथाओंका बहुभाग नहीं मालूम होता । आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८४५ ) में “एगो मे सस्सदो" "संजोगमूलं जीवेन" ये दो गाथाएँ उद्धृत की हैं। ये गाथाएँ मलाचारमें ( २।४८, ४९) दर्ज हैं। इनमें पहिली गाथा कुन्दकुन्दके भावपाहुड तथा नियमसारमें भी पाई जाती है। इसी तरह प्रमेयकमलमात्तंण्ड (पृ० ३३१ ) में "आचेलक्कुद्देसिय" आदि गाथांश दशविध स्थितिकल्पका निर्देश करनेके लिए उद्धृत है । यह गाथा मला१. देखो, त्रिलोकसारकी प्रस्तावना ।
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