Book Title: Acharya Prabhachandra aur uska Pramey kamal Marttand
Author(s): Manikyanandi Sutrakar
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य प्रभाचन्द्र और उनका प्रमेयकमलमार्तण्ड सूत्रकार माणिक्यनन्दि जैनन्यायशास्त्र में माणिक्यनन्दि आचार्यका परीक्षामुखसूत्र आद्य सूत्रग्रन्थ है । प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्याचार्यं लिखते हैं कि- "अकलङ्कवचोम्भोधेः उद्दधे येन धीमता । न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥ " अर्थात्-जिस धीमान्ने अकलङ्कके वचनसागरका मथन करके न्यायविद्यामृत निकाला उस माणिक्यनन्दिको नमस्कार हो । इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि माणिक्यनन्दिने अकलङ्कन्यायका मन्थनकर अपना सूत्रग्रन्थ बनाया है । अकलङ्कदेवने जैनन्यायशास्त्रकी रूपरेखा बाँधकर तदनुसार दार्शनिकपदार्थोंका विवेचन किया हैं । उनके लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह आदि न्यायप्रकरणोंके आधारसे माणि क्यनन्दिने परीक्षामुखसूत्रकी रचना की है । बौद्धदर्शन में हेतुमुख, न्यायमुख जैसे ग्रन्थ थे । माणिक्यनन्दि जैनन्यायके कोषागार में अपना एकमात्र परीक्षामुखरूपी माणिक्यको ही जमा करके अपना अमरस्थान बना गए हैं । इस सूत्र ग्रन्थकी संक्षिप्त पर विशदसारवाली निर्दोष शैली अपना अनोखा स्थान रखती है । इसमें सूत्रका यह लक्षण "अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम् । अस्तोभमनवद्यञ्च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥” सर्वांशतः पाया जाता है । अकलङ्क के ग्रन्थोंके साथही साथ दिग्नागके न्यायप्रवेश और धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दुका भी परीक्षामुखपर प्रभाव है। उत्तरकालीन वादिदेवसूरिके प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार और हेमचन्द्रको प्रमाणमीमांसापर परीक्षामुख सूत्र अपना अमिट प्रभाव रखता है । वादिदेवसूरिने तो अपने सूत्र ग्रन्थके बहु भाग में परीक्षामुखको अपना आदर्श रखा है। उन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारमें नय, सप्तभंगी और वादका विवेचन बढ़ाकर उसके आठ परिच्छेद बनाए हैं जबकि परीक्षामुखमें मात्र प्रमाणके परिकर ही वर्णन होनेसे ६ परिच्छेद हो हैं । परीक्षामुखमें प्रज्ञाकरगुप्तके भाविकारणवाद और अतीतकारणवादकी समालोचना की गई है । प्रज्ञाकर गुप्तके वार्तिकालङ्ककारका भिक्षुवर राहुल सांकृत्यायन के अटूट साहस परिश्रमके फलस्वरूप उद्धार हुआ है । उनकी प्रेसकापीमें भाविकारणवाद और भूतकारणवादका निम्नलिखित शब्दों में समर्थन किया गया है "अविद्यमानस्य करणमिति कोऽर्थः ? तदनन्तरभाविनी तस्य सत्ता, तदेतदानन्तर्यमुभयापेक्षया समानम् - यथैव भूतापेक्षया तथा भाव्यपेक्षयापि । नचानन्तर्यमेव तत्त्वे निबन्धनम्, व्यवहितस्य कारणत्वात्गाढसुप्तस्य विज्ञानं प्रबोधे पूर्ववेदनात् । जायते व्यवधानेन कालेनेति विनिश्चितम् ॥ तस्मादन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वं निबन्धनम् । कार्यकारणभावस्य तद् भाविन्यपि विद्यते ॥ भावेन च भावो भाविनापि लक्ष्यत एव । मत्युप्रयुक्तमरिष्टमिति लोके व्यवहारः, यदि मृत्युर्न भविष्यन्न भवेदेवम्भूतमरिष्टमिति । " - प्रमाणवार्तिकालङ्कार, पृ० १७६ । परीक्षामुखके निम्नलिखित सूत्र में प्रज्ञाकरगुप्तके इन दोनों सिद्धान्तों का खंडन किया गया है- Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ "भाव्यतीतयोः मरणजाग्रबोधयोरपि नारिष्टोद्बोधौ प्रति हेतुत्वम् । तद्व्यापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ।”-परीक्षामु० ३।६२, ६३ । छठे अध्यायके ५७वें सूत्रमें प्रभाकरकी प्रमाणसंख्याका खंडन किया है। प्रभाकर गुरुका समय ईसाकी ८ वीं सदीका प्रारम्भिक भाग है। माणिक्यनन्दिका समय-प्रमेयरत्नमालाकारके उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दि आचार्य अकलंकदेवके अनन्तरवर्ती हैं । मैंने अकलङ्कग्रन्थत्रय और उसके कर्ता लेखमें अकलंकदेवका समय ई० ७२० से ७८० तक सिद्ध किया है । अकलङ्कदेवके लघीयस्त्रय और न्यायविनिश्चय आदि तर्कग्रन्थोंका परीक्षामुखपर पर्याप्त प्रभाव है, अतः माणिक्यनन्दिके समयकी पूर्वावधि ई० ८०० निर्बाध मानी जा सकती है । प्रज्ञाकरगुप्त ( ई० ७२५ तक ) प्रभाकर ( ८वीं सदीका पूर्वभाग ) आदिके मतोंका खंडन परीक्षामुखमें है, इससे भी माणिक्यनन्दिकी उक्त पूर्वावधिका समर्थन होता है। आ० प्रभाचन्द्रने परीक्षामखपर प्रमेयकमलमार्तण्डनामक व्याख्या लिखी है । प्रभाचन्द्रका समय ई० की ११ वीं शताब्दी है। अतः इनकी उत्तरावधि ईसाकी १०वीं शताब्दी समझना चाहिए। इस लम्बी अवधिको संकुचित करनेका कोई निश्चित प्रमाण अभी दृष्टिमें नहीं आया। अधिक संभव यही है कि ये विद्यानन्दके समकालीन हों और इसलिए इनका समय ई० ९वीं शताब्दी होना चाहिए। आ० प्रभाचन्द्र आ० प्रभाचन्द्र के समयविषयक इस निबन्धको वर्गीकरणके ध्यानसे तीन स्थल भागोंमें बाँट दिया है-१ प्रभाचन्द्रकी इतर आचार्योंसे तुलना, २ समय विचार, ३ प्रभाचन्द्रके ग्रन्थ । प्रभाचन्द्रकी इतर आचार्योसे तुलना __ इस तुलनात्मक भागको प्रत्येक परम्पराके अपने क्रमविकासको लक्ष्यमें रखकर निम्नलिखित उपभागोंमें क्रमशः विभाजित कर दिया है। १ वैदिक दर्शन-वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण, महाभारत, वैयाकरण, सांख्य योग, वैशेषिक न्याय, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा । २ अवैदिक दर्शन-बौद्ध, जैन-दिगम्बर, श्वेताम्बर । वैदिकदर्शन वेद और प्रभाचन्द्र-आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डमें पुरातनवेद ऋग्वेदसे "पुरुष एवेदं यद्भूतं" "हिरण्यगर्भः समवर्तताग्ने" आदि अनेक वाक्य उद्धृत किये हैं। कुछ अन्य वेदवाक्य भी न्यायकुमुन्दचन्द्र ( पृ० ७२६ ) में उद्धृत हैं-"प्रजापतिः सोमं राजानमन्वसृजत्, ततस्यत्रो वेदा अन्वसृज्यन्त' "रुद्रं वेदक रम्" आदि । न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ७७० ) में "आदौ ब्रह्मा मुखतो ब्राह्मणं ससर्ज, बाहुभ्यां क्षत्रियमुरूम्यां वैश्यं पद्भ्यां शूद्रम्'' यह वाक्य उद्धृत है । यह ऋग्वेदके 'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्” आदि सूक्तकी छाया रूप ही है। __उपनिषत् और प्रभाचन्द्र-आ० प्रभाचन्द्रने अपने दोनों न्यायग्रन्थोंमें ब्रह्माद्वैतवाद तथा अन्य प्रकरणोंमें अनेकों उपनिषदोंके वाक्य प्रमाणरूपसे उद्धृत किये हैं। इनमें बृहदारण्यकोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद्, कठोपनिषत्, श्वेताश्वतरोपनिषत्, तैत्तिर्यपनिषत्, ब्रह्मबिन्दूपनिषत्, रामतापिन्युपनिषत्, जाबालोपनिषत् आदि उपनिषत् मुख्य हैं । इनके अवतरण अवतरणसूचीमें देखना चाहिये। स्मृतिकार और प्रभाचन्द्र-महर्षि मनुकी मनुस्मृति और ज्ञायवल्क्यकी याज्ञवल्क्यस्मृति प्रसिद्ध हैं। आ० प्रभाचन्द्रने कारकसाकल्यवादके पूर्वपक्ष (प्रमेयक पृ०८) में याज्ञवल्क्यस्मृति (२२२) का Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १२२ “लिखित साक्षिणो भुक्तिः" वाक्य कुछ शाब्दिक परिवर्तनके साथ उद्धृत किया है। न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ५७५ ) में मनुस्मृतिका "अकुर्वन् विहितं कर्म" श्लोक उद्धृत है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ६३४ ) में मनुस्मृतिके "यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः” श्लोकका “न हिंस्यात् सर्वा भूतानि” इस कूर्मपुराणके वाक्यसे विरोध दिखाया गया है। पुराण और प्रभाचन्द्र-प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें मत्स्यपुराणका "प्रतिमन्वतरश्चैव श्रुतिरन्या विधीयते ।" यह श्लोकांश उद्धृत मिलता है। न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ६३४ ) में कूर्मपुराण ( अ० १६ ) का 'न हिंस्यात् सर्वा भूतानि" वाक्य प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है। व्याम और प्रभाचन्द्र-महाभारत तथा गीताके प्रणेता महर्षि व्यास माने जाते हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ५८० ) में महाभारत वनपर्व ( अ० ३०।२८) से 'अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ....'' श्लोक उद्धृत किया है । प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ३६८ तथा ३०९ ) में भगवद्गीताके निम्नलिखित श्लोक 'व्यासवचन' के नामसे उद्धृत हैं-'यथैधांसि समिद्धोऽग्नि ..." [ गीता ४।३७] "द्वाविमौ पुरुषौ लोके, उत्तमपुरुषस्त्वन्यः..." (गीता १५।१६, १७) इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ३५८ ) में गीता ( २।१६ ) का "नाभावो विद्यते सतः" अंश प्रमाणरूपसे उद्धत किया गया है । पतञ्जलि और प्रभाचन्द्रपाणिनिसूत्रके ऊपर महाभाष्य लिखनेवाले ऋषि पतञ्जलिका समय इतिहासकारोंने ईसवी सनसे पहिले माना है। आ० प्रभाचन्द्रने जैनेन्द्रव्याकरणके साथ ही पाणिनिव्याकरण और उसके महाभाष्यका गम्भीर परिशीलन और अध्ययन किया था। वे शब्दाम्भोजभास्करके प्रारम्भमें स्वयं ही लिखते हैं कि 'शब्दानामनुशासनानि निखिलान्याध्यायताऽहनिशम्" आ० प्रभाचन्द्र का पातञ्जलमहाभाष्यका तलस्पर्शी अध्ययन उनके शब्दाम्भोजभास्करमें पद पदपर अनुभूत होता है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० २७५ ) में वैयाकरणोंके मतसे गुण शब्दका अर्थ बताते हुये पात जलमहाभाष्य ( ५।१।११९ ) से “यस्य हि गुणस्य भावात् शब्दे द्रव्यविनिवेशः" इत्यादि वाक्य उद्धृत किया गया है । शब्दोंके साधुत्वासाधुत्व-विचारमें व्याकरणकी उपयोगिताका समर्थन भी महाभाष्यकी ही शैलीमें किया है। भतहार और प्रभाचन्द्र--ईसाकी ७वीं शताब्दीमें भर्तृहरि नामके प्रसिद्ध वैयाकरण हुए हैं। इनका वाक्यपदीय ग्रन्थ प्रसिद्ध है। ये शब्दाद्वैतदर्शनके प्रतिष्ठाता माने जाते हैं। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में शब्दाद्वैतवादके पूर्वपक्षको वाक्यपदीयकी अनेक कारिकाओंको उद्धृत करके ही परिपुष्ट किया है । शब्दोंके साधुत्व-असाधुत्व विचारमें पूर्वपक्षका खुलासा करने के लिए वाक्यपदीयकी सरणीका पर्याप्त सहारा लिया है। वाक्यपदीयके द्वितीयकाण्डमें आए हए "आख्यातशब्दः" आदि दशविध या अष्टविध वाक्यलक्षणोंका सविस्तार खण्डन किया है। इसी तरह प्रभाचन्द्र की कृति जैनेन्द्रन्यासके अनेक प्रकरणोंमें वाक्यपदीयके अनेक श्लोक उद्धृत मिलते हैं । शब्दाद्वैतवादके पूर्वपक्षमें वैखरी आदि चतुर्विधवाणीके स्वरूपका निरूपण करते समय प्रभाचन्द्रने जो "स्थानेषु विवृते वायौ' आदि तीन श्लोक उद्धृत किये हैं वे मुद्रित वाक्यपदीयमें नहीं हैं । टीकामें उद्धृत है। व्यासभाष्यकार और प्रभाचन्द्र--योगसूत्रपर व्यास ऋषिका व्यासभाष्य प्रसिद्ध है। इनका समय ईसाकी पञ्चम शताब्दी तक समझा जाता है । आ० प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० १०९) में योगदर्शनके आधारसे ईश्वरवादका पूर्वपक्ष करते समय योगसूत्रोंके अनेक उद्धरण दिए है। इसके विवेचनमें व्यास ४-१७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ भाष्यकी पर्याप्त सहायता ली गई है। अणिमादि अष्टविध ऐश्वर्यका वर्णन योगभाष्यसे मिलता जुलता है । न्यायकुमुदचन्द्र में योगभाष्यसे “चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्" "चिच्छक्तिरपरिणामिन्य प्रतिसङ्क्रमा" आदि वाक्य उद्धृत किये गये हैं । ईश्वरकृष्ण और प्रभाचन्द्र — ईश्वरकृष्णकी सांख्यसप्तति या सांख्यकारिका प्रसिद्ध है । इनका समय साकी दूसरी शताब्दी समझा जाता है। सांख्यदर्शनके मूलसिद्धान्तोंका सांख्यकारिकामें संक्षिप्त और स्पष्ट विवेचन है। आ० प्रभाचन्द्रने सांख्यदर्शन के पूर्वपक्ष में सर्वत्र सांख्यकारिकाओंका ही विशेष उपयोग किया है। न्यायकुमुदचन्द्रमें सांख्योंके कुछ वाक्य ऐसे भी उद्धृत हैं जो उपलब्ध सांख्यग्रन्थों में नहीं पाये जाते । यथा"बुद्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते" "आसर्ग-प्रलयादेका बुद्धिः" "प्रतिनियतदेशा वृत्तिरभिव्यज्येत" "प्रकृतिपरिणामः शुक्लं कृष्णञ्च कर्म" आदि । इससे ज्ञात होता है कि ईश्वरकृष्णकी कारिकाओंके सिवाय कोई अन्य प्राचीन सांख्य ग्रन्थ प्रभाचन्द्रके सामने था जिससे ये वाक्य उद्धृत किये गए हैं । माठराचार्य और प्रभाचन्द्र - सांख्यकारिकाकी पुरातन टीका माठरावृत्ति है। इसके रचयिता माठराचार्य ईसाकी चौथी शताब्दी के विद्वान् समझे जाते हैं । प्रभाचन्द्रने सांख्यदर्शन के पूर्वपक्ष में सांख्यकारिकाओंके साथ ही साथ माठरवृत्तिको भी उद्धृत किया है । जहाँ कहीं सांख्यकारिकाओंकी व्याख्याका प्रसंग आया है, माठरवृत्तिके हो आधारसे व्याख्या की गई है । प्रशस्तपाद और प्रभाचन्द्र - कणादसूत्रपर प्रशस्तपाद आचार्यका प्रशस्तपादभाष्य उपलब्ध है । इनका समय ईसाकी पाँचवीं शताब्दी माना जाता है। आ० प्रभाचन्द्रने प्रशस्तपादभाष्यकी "एवं धर्मेविना धर्मिणामेव निर्देशः कृतः” इस पंक्तिको प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० ५३१ ) में 'पदार्थ प्रवेशकग्रन्थ' के नाम उद्धृत किया है । न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्त्तण्ड दोनोंको षट्पदार्थपरीक्षाका यावत् पूर्वपक्ष प्रशस्तपादभाष्य और उसकी पुरातनटीका व्योमवतीसे ही स्पष्ट किया गया है । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० २७० ) के ईश्वरवादके पूर्वपक्ष में 'प्रशस्तमतिना च' लिखकर "सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारो" इत्यादि अनुमान उद्धृत हैं । यह अनुमान प्रशस्तपादभाष्यमें नहीं है । तत्त्वसंग्रहकी पंजिका ( पृ० ४३ ) में भी यह अनुमान प्रशस्तमति नामसे उद्धृत है । ये प्रशस्तमति, प्रशस्तपादभाष्यकारसे भिन्न मालूम होते हैं, पर इनका कोई ग्रन्थ अद्यावधि उपलब्ध नहीं है । व्योमशिव और प्रभाचन्द्र - प्रशस्तपादभाष्य के पुरातन टीकाकार आ० व्योमशिवकी व्योमवती टीका उपलब्ध है । आ० प्रभाचन्द्रने अपने दोनों ग्रन्थोंमें, न केवल वैशेषिकमतके पूर्वपक्ष में ही व्योमवतीको अपनाया है किन्तु अनेक मतोंके खंडन में भी इसका पर्याप्त अनुसरण किया है। यह टीका उनके विशिष्ट अध्ययनकी वस्तु थी। इस टीकाके तुलनात्मक अंशोंको न्यायकुमुदचन्द्रकी टिप्पणीमें देखना चाहिए । आ० व्योमशिवके समय के विषयमें विद्वानोंका मतभेद चला आ रहा है । डॉ० कीथ इन्हें नवमशताब्दीका कहते हैं। तो डॉ० दासगुप्ता इन्हें छठवीं शताब्दीका । मैं इनके समयका कुछ विस्तारसे विचार करता हूँ — राजशेखरने प्रशस्तपादभाष्यकी 'कन्दली' टीकाकी 'पंजिका' में प्रशस्तपादभाष्यकी चार टीकाओंका इस क्रमसे निर्देश किया है— सर्वप्रथम 'व्योमवती' ( व्योम शिवाचार्य ), तत्पश्चात् 'न्यायकन्दली' ( श्रीधर ), तदनन्तर 'किरणावली' ( उदयन ) और उसके बाद 'लीलावती' ( श्रीवत्साचार्य ) । ऐतिह्यपर्यालोचनासे भी राजशेखरका यह निर्देशक्रम संगत जान पड़ता है । यहाँ हम व्योमवतीके रचयिता व्योमशिवाचार्य के विषय में कुछ विचार प्रस्तुत करते हैं । व्योमशिवाचार्य शैव थे । अपनी गुरु-परम्परा तथा व्यक्तित्वके विषयमें स्वयं उन्होंने कुछ भी नहीं Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १३१ लिखा । पर रणिपद्रपुर रानोद, वर्तमान नारोद ग्रामकी एक वापी प्रशस्ति से इनकी गुरुपरम्परा तथा व्यक्तित्व-विषयक बहुत-सी बातें मालूम होती हैं, जिनका कुछ सार इस प्रकार है "कदम्बगुहाधिवासी मुनीन्द्रके शंखमठिकाधिपति नामक शिष्य थे, उनके तेरम्बिपाल, तेरम्बिपालके आमर्दकतीर्थनाथ और आमर्दकतीर्थनाथके पुरन्दरगुरु नामके अतिशय प्रतिभाशाली तार्किक शिष्य हुए। पुरन्दरगुरुने कोई ग्रन्थ अवश्य लिखा है; क्योंकि उसी प्रशस्ति-शिलालेखमें अत्यन्त स्पष्टतासे यह उल्लेख है कि-'इनके वचनोंका खण्डन आज भी बड़े-बड़े नैयायिक नहीं कर सकते ।"२ स्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रंथोंमें पुरन्दरके नामसे कुछ वाक्य उद्धृत मिलते हैं, सम्भव है वे पुरन्दर ये ही हों । इन पुरन्दरगुरुको अवन्तिवर्मा उपेन्द्रपुरसे अपने देशको ले गया । अवन्तिवर्माने इन्हें अपना राज्यभार सौंपकर शवदीक्षा धारण की और इस तरह अपना जन्म सफल किया। पुरन्दरगुरुने मत्तमयूर में एक बड़ा मठ स्थापित किया । दूसरा मठ रणिपद्रपुरमें भी इन्होंने स्थापित किया था। पुरन्दरगुरुका कवचशिव और कवचशिवका सदाशिव नामक य हुआ, जो कि रणिपद्रपुरके तापसाश्रममें तपःसाधन करता था। सदाशिवका शिष्य हृदयेश और हृदयशका शिष्य व्योमशिव हआ, जो कि अच्छा प्रभावशाली, उत्कट प्रतिभासम्पन्न और समर्थ विद्वान् था।" व्योमशिवाचार्य के प्रभावशाली होनेका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इनके नामसे ही व्योममन्त्र प्रचलित हुए थे। ये सदनुष्ठानपरायण, मृदु-मितभाषी, विनय-नय-संयमके अद्भुत स्थान तथा अप्रतिम प्रतापशाली थे । इन्होंने रणिपद्रपुरका तथा रणिपद्रमठका उद्धार एवं सुधार किया था और वहीं एक शिवमन्दिर तथा वापीका भी निर्माण कराया था। इसी वापीपर उक्त प्रशस्ति खुदी है।। इनकी विद्वत्ताके विषयमें शिलालेखके ये श्लोक पर्याप्त हैं "सिद्धान्तेष महेश एष नियतो न्यायेऽक्षपादो मुनिः। गम्भीरे च कणाशिनस्तु कणभुक्शास्त्रे श्रुतो जैमिनिः ।। सांख्येऽनल्पमतिः स्वयं स कपिलो लोकायते सद्गुरुः । बुद्धो बुद्धमते जिनोक्तिषु जिनः को वाथ नायं कृती ।। यद्भूतं यदनागतं यदधुना किचित्क्वचिद्वधं (त) ते । सम्यग्दर्शनसम्पदा तदखिलं पश्यन् प्रमेयं महत् ।। सर्वज्ञः स्फुटमेष कोपि भगवानन्यः क्षितौ सं (शं) करः । धत्ते किन्तु न शान्तधीविषमदृग्रौद्रं वपुः केवलम् ॥" इन श्लोकोंमें बतलाया है कि 'व्योमशिवाचार्य शैवसिद्धान्तमें स्वयं शिव, न्यायमें अक्षपाद, वैशेषिक शास्त्रमें कणाद, मीमांसामें जैमिनि, सांख्यमें कपिल, चार्वाकशास्त्रमें बृहस्पति, बुद्धमतमें बुद्ध तथा जिनमतमें स्वयं जिनदेवके समान थे। अधिक क्या; अतीतानागतवर्तमानवर्ती यावत् प्रमेयोंको अपनी सम्यग्दर्शनसम्पत्तिसे स्पष्ट देखने जाननेवाले सर्वज्ञ थे। और ऐसा मालम होता था कि मात्र विषमनेत्र (तृतीयनेत्र ) तथा रौद्रशरीरको धारण किए बिना वे पृथ्वीपर दूसरे शंकर भगवान् ही अवतरे थे । इनके गगनेश, व्योमशम्भु, व्योमेश, गगनशशिमौलि आदि भी नाम थे। शिलालेखके आधारसे समय-व्योमशिवके पूर्ववर्ती चतुर्थगुरु पुरन्दरको अवन्तिवर्मा राजा अपने १. प्राचीन लेखमाला, द्वि० भाग, शिलालेख नं० १०८ । २. "यस्याधुनापि विबुधैरतिकृत्यशंसि व्याहन्यते न वचनं नयमार्गविद्भिः ॥" ३. "अस्य व्योमपदादिमन्त्ररचनाख्या ताभिधानस्य च ।" वापीप्रशस्तिः । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ नगरमें ले गया था । अवन्तिवर्माके चाँदीके सिक्कोंपर "विजितावनिरवनिपतिः श्री अवन्तिवर्मा दिवं जयति" लिखा रहता है तथा संवत् २५० पढ़ा गया है।' यह संवत् संभवतः गुप्त-सवर है। डॉ० फ्लीट्के मतानुसार गुप्त संवत् ई० सन् ३२० की २६ फरवरीको प्रारम्भ होता है । अतः ५७० ई० में अवन्तिवर्माका अपनी मुद्राको प्रचलित करना इतिहाससिद्ध है। इस समय अवन्तिवर्मा राज्य कर रहे होंगे। तथा ५७० ई० के आमपास ही वे पुरन्दरगुरुको अपने राज्यमें लाए होंगे। ये अवन्तिवर्मा मोखरीवशीय राजा थे । शैव होनेके कारण शिवोपासक पुरन्दरगुरुको अपने यहाँ लाना भी इनका ठीक ही था। इनके समयके सम्बन्धमे दूसरा प्रमाण यह है कि--वैसवंशीय राजा हर्षवर्द्धनकी छोटी बहिन राज्यश्री, अवन्तिवर्माके पुत्र ग्रहवर्माको विवाही गई थी। हर्षका जन्म ई० ५९० में हुआ था। राज्यश्री उससे १ या २ वर्ष छोटी थी। ग्रहवर्मा हर्षसे ५-६ वर्ष बड़ा जरूर होगा। अतः उसका जन्म ५८४ ई० के करीब मानना चाहिए । इसका राज्यकाल ई० ६०० से ६०६ तक रहा है। अवन्तिवर्माका यह इकलौता लड़का था। अतः मालम होता है कि ई० ५८४ में अर्थात् अवन्तिवर्माकी ढलती अवस्थामें यह पैदा हुआ होगा । अस्तु; यहाँ तो इतना ही प्रयोजन है कि ५७० ई० के आसपास ही अवन्तिवर्मा पुरन्दरको अपने यहाँ ले गए थे। यद्यपि संन्यासियोंमें शिष्य-परम्पराके लिए प्रत्येक पोढीका समय २५ वर्ष मानना आवश्यक नहीं है; क्योंकि कभी-कभी २० वर्ष में ही शिष्य-प्रशिष्योंकी परम्परा चल जाती है। फिर भी यदि प्रत्येक पीढीका समय २५ वर्ष ही मान लिया जाय तो पुरन्दरसे तीन पीढीके बाद हुए व्योमशिवका समय सन् ६७० के आसपास सिद्ध होता है। दार्शनिक ग्रन्थोंके आधारसे समय-व्योमशिव स्वयं ही अपनी व्योमवती टीका (पृ० ३९२) में श्रीहर्षका एक महत्त्वपूर्ण ढंगसे उल्लेख करते हैं । यथा "अत एव मदीयं शरीरमित्यादिप्रत्ययेष्वात्मानुरागसद्भावेऽपि आत्मनोऽवच्छेदकत्वम् । श्रहर्ष देवकुलमिति ज्ञाने श्रीहर्षस्येव उभयत्रापि बाधकसद्भावात्, यत्र ह्यनुरागसद्भावेऽपि विशेषणत्वे बाधकमस्ति तत्रावच्छेदकत्वमेव कल्प्यते इति । अस्ति च श्रीहर्षस्य विद्यमानत्वम । आत्मनि कर्तुत्वकरणत्वयोरसम्भव इति बाधकम् ।" ___यद्यपि इस सन्दर्भका पाठ कुछ छूटा हुआ मालूम होता है फिर भी 'अस्ति च श्रीहर्षस्य विद्यमानत्वम्' यह वाक्य खास तौरसे ध्यान देने योग्य है। इससे साफ मालम होता है कि श्रीहर्ष ( 606-647 A. D. राज्य ) व्योमशिवके समयमें विद्यमान थे । यद्यपि यहां यह कहा जा सकता है कि व्योमशिव श्रीहर्ष के बहुत बाद होकर भी ऐसा उल्लेख कर सकते हैं। परन्तु जब शिलालेखसे उनका समय ई० सन् ६७० के आसपास है तथा श्रीहर्षकी विद्यमानताका वे इस तरह जोर देकर उल्लेख करते हैं तब उक्त कल्पनाको स्थान ही नहीं मिलता। व्योमवतीका अन्तःपरीक्षण-व्योमवती ( पृ० ३०६,३०७,६८० ) में धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिक ( २-११,१२ तथा १-६८,७२ ) से कारिकाएँ उद्धत की गई हैं। इसी तरह व्योमवती ( पृ० ६१७ ) में धर्मकीतिके हेतुबिन्दु प्रथमपरिच्छेदके "डिण्डिकरागं परित्यज्य अक्षिणो निमील्य" इस वाक्यका प्रयोग पाया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रमाणवात्तिककी और भी बहत-सी कारिकाएँ उद्धृत देखी जाती हैं। १. देखो, भारतके प्राचीन राजवंश, द्वि० भाग, पृ० ३७५ । २. देखो, भारतके प्राचीन राजवंश, द्वितीय भाग, पृ० २२९ । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १३३ व्योमवती ( पृ० ५९१, ५९२ ) में कुमारिल के मीमांसा - श्लोकवार्तिककी अनेक कारिकाएँ उद्धृत हैं । व्योमवती ( पृ० १२९ ) में उद्योतकरका नाम लिया है, भर्तृहरिके शब्दाद्वैतदर्शनका ( पृ० २० च ) खण्डन किया है और प्रभाकरके स्मृतिप्रमोषवादका भो ( पृ० ५४० ) खंडन किया गया है । इनमें भर्तृहरि, धर्मकीर्ति कुमारिल तथा प्रभाकर ये सब प्रायः समसामयिक और ईसाकी सातवीं शताब्दी के विद्वान् हैं | उद्योतकर छठी शताब्दी के विद्वान् हैं । अतः व्योमशिव के द्वारा इन समसामयिक एवं किचित्पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख तथा समालोचनका होना संगत ही है । व्योमवती ( पृ० १५ ) में बाणकी कादम्बरीका उल्लेख है । बाण हर्षकी सभाके विद्वान् थे, अतः इसका उल्लेख भी होना ठीक ही है । व्योमवती टीकाका उल्लेख करनेवाले परवर्ती ग्रन्थकारोंमें शान्तरक्षित, विद्यानन्द, जयन्त, वाचस्पति, सिद्धर्षि, श्रीधर, उदयन, प्रभाचन्द्र वादिराज, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र तथा गुणरत्न, विशेषरूपसे उल्लेखनीय हैं । शान्तरक्षितने वैशेषिक सम्मत षट्पदार्थोंकी परीक्षा की है । उसमें वे प्रशस्तपाद के साथ ही साथ शंकरस्वामी नामक नैयायिकका मत भी पूर्वपक्षरूपसे उपस्थित करते हैं । परन्तु जब हम ध्यानसे देखते हैं तो उनके पूर्वपक्ष में प्रशस्तपादव्योमवतीके शब्द स्पष्टतया अपनी छाप मारते हुए नजर आते हैं । ( तुलनातत्त्वसंग्रह, पृ० २०६ तथा व्योमवती, पृ० ३४३ । ) तत्त्वसंग्रहकी पंजिका ( पृ० २०६ ) में व्योमवती ( ( पृ० १२९ ) के स्वकारणसमवाय तथा सत्तासमवायरूप उत्पत्ति के लक्षणका उल्लेख है । शान्तरक्षित तथा उनके शिष्य कमलशीलका समय ई० की आठवीं शताब्दिका पूर्वार्द्ध है । ( देखो, तत्त्वसंग्रहकी भूमिका, पृ० xcvi ) विद्यानन्द आचार्यने अपनी आप्तपरोक्षा ( पृ० २६ ) में व्योमवती टीका ( पृ० १०७ ) से समवायके लक्षणकी समस्त पदकृत्य उद्धृत की है । 'द्रव्यत्वोपलक्षित समवाय द्रव्यका लक्षण है' व्योमवती ( पृ० १४९ ) के इस मन्तव्यकी समालोचना भी आप्तपरीक्षा ( पृ० ६ ) में की गई है । विद्यानन्द ईसाकी नवमशताब्दी पूर्वार्द्धवर्ती हैं । जयन्तकी न्यायमंजरी ( पृ० २३ ) में व्योमवती ( पृ० ६२१ ) के अनर्थजत्वात् स्मृतिको अप्रमाण मानने के सिद्धान्तका समर्थन किया है, साथ ही पृ० ६५ पर व्योमवती ( पृ० ५५६ ) के फलविशेषणपक्षको स्वीकार कर कारकसामग्रीको प्रमाणमानने के सिद्धान्तका अनुसरण किया है की ९वीं शताब्दीका पूर्वभाग सिद्ध करेंगे । वाचस्पति मिश्र अपनी तात्पर्यटीका में ( पृ० १०८ ) प्रत्यक्षलक्षणसूत्र में 'यतः ' पदका अध्याहार करते हैं तथा ( पृ० १०२ ) लिंगपरामर्श ज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं । व्योमवतीटीकामे ( पृ० ५५६ ) 'यतः' पदका प्रयोग प्रत्यक्षलक्षणमें किया है तथा ( पृ० ५६१ ) लिंगपरामर्शज्ञानको उपादानबुद्धि भी कहा है । वाचस्पति मिश्रका समय ८४१ A. D. है । जयन्तका समय हम आगे ईसा · न्याय प्रभाचन्द्र आचार्यने मोक्ष निरूपण ( प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ३०७ ) आत्मस्वरूपनिरूपण कुमुदचन्द्र, पृ० ३४९, प्रमेयकमलमा०, पृ० ११० ) समवायलक्षण ( न्यायकुमु०, पृ० २९५, प्रमेयकमलमा०, पृ० ६०४ ) आदि व्योमवती ( पृ० २०, ३९३, १०७ ) का पर्याप्त सहारा लिया है । स्वसंवेदन सिद्धि में व्योमवतीके ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादका खण्डन भी किया है । श्रीधर तथा उदयनाचार्यंने अपनी कन्दली ( पृ० ४ ) तथा किरणावलीमें व्योमवती ( पृ० २० क ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ ' के "नवानामात्म विशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात् यथा प्रदीपसन्तानः ।" इस अनुमानको 'तार्किकाः' तथा 'आचार्याः' शब्दके साथ उद्धृत किया हैं । कन्दली ( पृ० २० ) में व्योमवती ( पृ० १४९ ) के 'द्रव्यत्वोपलक्षितः समवायः द्रव्यत्वेन योग:' इस मतकी आलोचना की गई। । इसी तरह कन्दली ( पृ० १८ ) में व्योमवती ( पृ० १२९ ) के 'अनित्यत्वं तु प्रागभाव प्रध्वंसाभावोपलक्षिता वस्तुसत्ता इस अनित्यत्वके लक्षणका खण्डन किया है । कन्दली ( पृ० २०० ) में व्योमवती ( पृ० ५९३ ) के 'अनुमान - लक्षणमें विद्या के सामान्यलक्षणकी अनुवृत्ति करके संशयादिका व्यवच्छेद करना' तथा स्मरण के व्यवच्छेदके लिये 'द्रव्यादिषु उत्पद्यते' इस पदका अनुवर्त्तन करना' इन दो मतोंका समालोचन किया है । कन्दलीकार श्रीधरका समय कन्दलीके अन्तमें दिए गए " त्र्यधिकदशोत्तरनवशतशकाब्दे" पदके अनुसार ९१३ शक अर्थात् ९९१ ई० है । और उदयनाचार्य का समय ९८४ ई० है । वादिराज अपने न्यायविनिश्चय-विवरण ( लिखित पृ० १११ B तथा १११ A ) में व्योमवतीसे पूर्वपक्ष करते हैं । वादिदेवसूरि अपने स्याद्वादरत्नाकर ( पृ० ३१८ तथा ४९८ ) में पूर्वपक्षरूपसे व्योमवतीका उद्धरण देते हैं । सिद्धषि न्यायावतारवृत्ति ( पृ० ९) में, हेमचन्द्र प्रमाणमीमांसा ( पृ० ७ ) में तथा गुणरत्न अपनी षड्दर्शनसमुच्चयकी वृत्ति ( पृ० ११४ A ) में व्योमवती के प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम रूप प्रमाणत्रित्वकी - वैशेषिकपरम्पराका पूर्वपक्ष करते हैं । इस तरह व्योमवतीकी संक्षिप्त तुलनासे ज्ञात हो सकता है कि व्योमवतीका जैन ग्रन्थोंसे विशिष्ट सम्बन्ध है । इस प्रकार हम व्योमशिवका समय शिलालेख तथा उनके ग्रन्थके उल्लेखोंके आधारसे ईस्वी सातवीं शताब्दीका उत्तर भाग अनुमान करते हैं । यदि ये आठवीं या नवमी शताब्दीके विद्वान् होते तो अपने समसामयिक शंकराचार्य और शान्तरक्षित जैसे विद्वानोंका उल्लेख अवश्य करते । हम देखते हैं कि - व्योमशिव शांकरवेदान्तका उल्लेख भी नहीं करते तथा विपर्यय ज्ञानके विषय में अलौकिकार्थख्याति, स्मृतिप्रमोष आदिका खण्डन करनेपर भी शंकरके अनिर्वचनीयार्थख्यातिवादका नाम भी नहीं लेते । व्योमशिव जैसे बहुश्रुत एवं सैकड़ों मतमतान्तरोंका उल्लेख करनेवाले आचार्य के द्वारा किसी भी अष्टमशताब्दी या नवम शताब्दीवर्त्ती आचार्य मतका उल्लेख न किया जाना ही उनके सप्तमशताब्दीवर्ती होने का प्रमाण है । अतः डॉ० कीथका इन्हें नवमी शताब्दीका विद्वान् लिखना तथा डॉ० एस० एन० दासगुप्ताका इन्हें छठी शताब्दीका विद्वान् बतलाना ठीक नहीं जँचता । श्रीधर और प्रभाचन्द्र - प्रशस्तपाद भाष्यकी टीकाओंमें न्यायकन्दली टीकाका भी अपना अच्छा स्थान है । इसकी रचना श्रीधरने शक ९१३ ( ई० ९९१ ) में की थी । श्रीधराचार्य अपने पूर्व टीकाकार व्योमशिवका शब्दानुसरण करते हुए भी उनसे मतभेद प्रदर्शित करने में नहीं चूकते । व्योमशिव बुद्धयादि विशेष गुणोंकी सन्ततिके अत्यन्तोच्छेदको मोक्ष कहते हैं और उसकी सिद्धि के लिए 'सन्तानत्वात्' हेतुका प्रयोग करते हैं ( प्रश० व्यो०, पृ० २० क ) । श्रीधर आत्यन्तिक अहितनिवृत्तिको मोक्ष मानकर भी उसकी सिद्धि के लिए प्रयुक्त होनेवाले 'सन्तानत्वात्' हेतुको पार्थिवपरमाणुकी रूपादिसन्तानसे व्यभिचारी बताते हैं। ( कन्दली, पृ० ४ ) | आ० प्रभाचन्द्रने भी वैशेषिकों को मुक्तिका खण्डन करते समय न्यायकुमुद० ( पृ ८२६ ) और प्रमेयकमल० ( पृ० ३१८ ) में 'सन्तानत्वात्' हेतुको पाकजपरमाणुओंकी रूपादिसन्तानसे व्यभिचारी बताया है । इसी तरह और भी एकाधिकस्थलोंमें हम कन्दलीकी आभा प्रभाचन्द्रके ग्रन्थोंपर देखते हैं । वात्सायन और प्रभाचन्द्र - न्यायसूत्र के ऊपर वात्सायनकृत न्यायभाष्य उपलब्ध है । इनका समय Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १३५ ईसाकी तीसरी-चौथी शताब्दी समझा जाता है । आ० प्रभावन्द्र ने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें इनके न्यायभाष्यका कहीं न्यायभाष्य और कहीं भाष्य शब्दसे उल्लेख किया । वात्सायनका नाम न लेकर सर्वत्र न्यायभाष्यकार और भाष्यकार शब्दोंसे ही इनका निर्देश किया गया है। उद्योतकर और प्रभाचन्द्र - न्यायसूत्रके ऊपर न्यायवार्तिक ग्रन्थके रचयिता आ० उद्योतकर ई० ६वीं सदी, अन्ततः सातवीं सदी के पूर्वपादके विद्वान् हैं । इन्होंने दिङ्नागके प्रमाणसमुच्चय के खण्डनके लिए न्याय वार्तिक बनाया था । इनके न्यायवार्तिकका खण्डन ध मंकीर्ति ( ई० ६३५ के बाद ) ने अपने प्रमाणवार्तिक में किया है । म० प्रभाचन्द्र प्रमेयकमल मार्त्तण्ड के सृष्टिकर्तृत्व प्रकरण के पूर्वपक्ष में ( पृ० २६८ ) उद्योतकरके अनुमानोंको 'वार्तिककारेणापि शब्दके साथ उद्धृत किया है । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में एकाधिकस्थानोंमें 'उद्योतकर' का नामोल्लेख करके न्यायवार्तिक से पूर्वपक्ष किए गए हैं। न्यायकुमुचन्द्र के षोडशपदार्थवादका पूर्वपक्ष भी उद्योतकरके न्यायवार्तिक से पर्याप्त पुष्टि पाया है । "पूर्ववच्छेषवत्" आदि अनुमानसूत्रकी वार्तिककारकृत विविध व्याख्याएँ भी प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में खंडित हुई हैं । वार्तिककारकृत साधकतमत्वका "भावाभावयोस्तद्वत्ता" यह लक्षण प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में प्रमाणरूपसे उद्धृत है । भट्ट जयन्त और प्रभाचन्द्र - भट्ट जयन्त जरन्नैयायिकके नामसे प्रसिद्ध थे । इन्होंने न्यायसूत्रोंके आधारसे न्यायकलिका और न्यायमञ्जरी ग्रन्थ लिखे हैं । न्यायमञ्जरी तो कतिपय न्यायसूत्रोंकी विशद व्याख्या है । अब हम भट्ट जयन्तके समयका विचार करते हैं जयन्तकी न्यायमञ्जरीका प्रथम संस्करण विजयनगर सीरीज में सन् १८९५ में प्रकाशित हुआ है । इसके संपादक म० म० गंगाधर शास्त्री मानवल्ली हैं । उन्होंने भूमिका में लिखा है कि- " जयन्तभट्टका गंगेशोपाध्यायने उपमान - चिन्तामणि ( पृ० ६१ ) में जरन्नैया थिक शब्दसे उल्लेख किया है, तथा जयन्तभट्टने न्यायमंजरी ( पृ० ३१२ ) में वाचस्पति मिश्रकी तात्पर्य - टीकासे " जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः " यह वाक्य ' आचार्यै: ' करके उद्धृत किया है। अतः जयन्तका समय वाचस्पति ( 841 A D ) से उत्तर तथा गंगेश ( 1175 A. D. ) से पूर्व होना चाहिये । इन्हींका अनुसरण करके न्यायमञ्जरीके द्वितीय संस्करणके सम्पादक पं० सूर्यनारायणजी शुक्लने, तथा 'संस्कृतसाहित्यका संक्षिप्त इतिहास' के लेखकोंने भी जयन्तको वाचस्पतिका परवर्ती लिखा है । स्व० डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण भी उक्त वाक्यके आधारपर इनका समय ९वींसे ११वीं शताब्दी तक मानते थे । अतः जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन माननेकी परम्पराका आधार म० म० गंगाधर शास्त्री द्वारा "जातं च सम्बद्धं चेत्येकः कालः " इस वाक्यको वाचस्पति मिश्रका लिख देना ही मालूम होता है । वाचस्पति मिश्र ने अपना समय 'न्यायसूची निबन्ध' के अन्त में स्वयं दिया है । यथा--- "न्यायसूत्रीनिबन्धोऽयमकारि सुधियां मुदे । श्रीवाचस्पति मिश्रेण वस्वं कवसुवत्सरे ॥” इस श्लोक में ८९८ वत्सर लिखा है । म० म० विन्ध्येश्वरीप्रसादजीने 'वत्सर' शब्दसे शकसंवत् लिया है । 2 डॉ० शतीशचन्द्र विद्याभूषण विक्रम संवत् लेते हैं । म० म० गोपीनाथ कविराज लिखते हैं कि 'तात्पर्यटीकाकी परिशुद्धिटीका बनानेवाले १. हिस्ट्री ऑफ दि इण्डियन लॉजिक, पृ० १४६ । २. न्यायवार्तिक - भूमिका, पृ० १४५ । ३. हिस्ट्री ऑफ दि इण्डियन लॉजिक, पृ० १३३ । ४. हिस्ट्री एंड बिब्लोग्राफी ऑफ न्यायवैशेषिक लिटरेचर, Vol. III, पृ० १०१ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ आचार्य उदयनने अपनी 'लक्षणावली' शक सं० ९०६ (984 A. D. ) में समाप्त की है । यदि वाचस्पतिका समय शक सं० ८९८ माना जाता है तो इतनी जल्दी उसपर परिशुद्धि जैसी टीकाका बन जाना संभव मालूम नहीं होता। अतः वाचस्पतिमिश्रका समय विक्रम संवत् ८९८ (841 A. D.) प्रायः सर्वसम्मत है । वाचस्पतिमिश्रने वैशेषिकदर्शनको छोड़कर प्रायः सभी दर्शनोंपर टीकाएँ लिखीं हैं । सर्वप्रथम इन्होंने मंडनमिश्रके विधिविवेकपर 'न्यायकणिका' नामकी टीका लिखी है, क्योंकि इनके दूसरे ग्रन्थों में प्रायः इसका निर्देश है । उसके बाद मंडनमिश्रकी ब्रह्मसिद्धिकी व्याख्या 'ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा' तथा 'तत्त्वबिन्दु'; इन दोनों ग्रन्थोंका निर्देश तात्पर्यटीकामें मिलता है, अतः उनके बाद 'तात्पर्य-टीका' लिखी गई। तात्पर्य टीकाके साथ ही 'न्यायसूची-निबन्ध' लिखा होगा; क्योंकि न्यायसूत्रोंका निर्णय तात्पर्य-टीकामें अत्यन्त अपेक्षित है । 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' में तात्पर्यटीका उद्धत है, अतः तात्पर्यटीकाके बाद 'सांख्यतत्त्वकौमदी'की रचना हई। योगभाष्यकी तत्त्ववैशारदी टीकामें 'सांख्यतत्त्वकौमुदी' का निर्देश है, अतः निर्दिष्ट कौमदीके बाद 'तत्त्ववैशारदी' रची गई। और इन सभी ग्रन्थोंका 'भामती' टीकामें निर्देश होनेसे 'भामती' टीका सबके अन्तमें लिखी गई है। जयन्त वाचस्पति मिश्रके समकालीन वृद्ध हैं-वाचस्पतिमिश्र अपनी आद्यकृति 'न्यायकणिका' के मङ्गलाचरणमें न्यायमञ्जरीकारको बड़े महत्त्वपूर्ण शब्दोंमें गुरुरूपसे स्मरण करते हैं । यथा ___ "अज्ञानतिमिरशमनी परदमनी न्यायमञ्जरीं रुचिराम् । प्रसवित्रे प्रभवित्रे विद्यातरवे नमो गुरवे ।।" अर्थात्-जिनने अज्ञानतिमिरका नाश करनेवाली, प्रतिवादियोंका दमन करनेवाली, रुचिर न्यायमंजरीको जन्म दिया उन समर्थ विद्यातरु गुरुको नमस्कार हो । - इस श्लोकमें स्मृत 'न्यामञ्जरी' भट्ट जयन्तकृत न्यायमजरी जैसी प्रसिद्ध 'न्यायमञ्जरी' ही होनी चाहिये । अभी तक कोई दूसरी न्यायमञ्जरी तो सुननेमें भी नहीं आई। जब वाचस्पति जयन्तको गुरुरूपसे स्मरण करते हैं तब जयन्त वाचस्पतिके उत्तरकालीन कैसे हो सकते हैं। यद्यपि वाचस्पतिने तात्पर्य टीकामें 'त्रिलोचनगुरून्नीत' इत्यादि पद देकर अपने गुरुरूपसे 'त्रिलोचन' का उल्लेख किया है, फिर भी जयन्तको उनके गुरु अथवा गुरुसम होने में कोई बाधा नहीं है; क्योंकि एक व्यक्तिके अनेक गुरु भी हो सकते हैं। अभी तक 'जातञ्च सम्बद्धं चेत्येकः कालः' इस वचनके आधारपर ही जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन माना जाता है। पर, यह वचन वाचस्पतिकी तात्पर्य-टीकाका नहीं है, किन्तु न्यायवार्तिककार श्री उद्योतकरका है (न्यायवार्तिक, १० २३६ ), जिस न्यायवार्तिकपर वाचस्पतिकी तात्पर्यटीका है । इनका समय धर्मकीर्तिसे पूर्व होना निर्विवाद है। म. म. गोपीनाथ कविराज अपनी 'हिस्ट्री एण्ड बिब्लोग्राफी ऑफ न्याय वैशेषिक लिटरेचर' में लिखते हैं कि-"वाचस्पति और जयन्त समकालीन होने चाहिए, क्योंकि जयन्तके ग्रन्थोंपर वाचस्पतिका कोई असर देखने में नहीं आता।" 'जातञ्च' इत्यादि वाक्यके विषयमें भी उन्होंने सन्देह प्रकट करते हुए लिखा है कि-"यह वाक्य किसी पूर्वाचार्यका होना चाहिये।" वाचस्पतिके पहले भी शंकरस्वामी आदि नैयायिक हुए हैं, जिनका उल्लेख तत्त्वसंग्रह आदि ग्रन्थोंमें पाया जाता है। म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने जयन्तको वाचस्पतिका उत्तरकालीन मानकर न्यायमञ्जरी (पृ० १२०) १. सरस्वती भवन सीरीज, III पार्ट। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १३७ में 'उद्धृत 'यत्नेनानुमितोऽप्यर्थ:' इस पयको टिप्पणी में 'भामती' टीकाका लिख दिया है। पर वस्तुतः यह वाक्यपदीय (१-३४ ) का है और न्यायमञ्जरोकी तरह भामतो टीकामें भी उद्धृत हो है, मूलका नहीं है । न्यायसूत्रके प्रत्यक्ष-लक्षणसूत्र ( १-१-४ ) की व्याख्या में वाचस्पति मिश्र लिखते हैं कि- 'व्यवसायात्मक' पदसे सविकल्पक प्रत्यक्षका ग्रहण करना चाहिये तथा 'अव्यपदेश्य' पदसे निर्विकल्पक ज्ञानका । संशयज्ञानका निराकरण तो 'अव्यभिचारी' पदसे हो ही जाता है, इसलिये संशयज्ञानका निराकरण करना 'व्यवसायात्मक' पदका मुख्य कार्य नहीं है । यह बात मैं 'गुरून्नीत मार्ग का अनुगमन करके कह रहा हूँ । इसी तरह कोई व्याख्याकार 'अयमश्वः' इत्यादि शब्दसंसृष्ट ज्ञानको उभयजज्ञान कहकर उसकी प्रत्यक्षताका निराकरण करनेके लिये अव्यपदेश्य पदकी सार्थकता बताते हैं । वाचस्पति 'अयमश्व:' इस ज्ञानको उभयजज्ञान न मानकर ऐन्द्रियक कहते हैं। और वह भी अपने गुरुके द्वारा उपदिष्ट इस गाथाके आधारपर - शब्दजत्वेन शाब्दञ्चेत् प्रत्यक्षं चाक्षजत्वतः । स्पष्टग्रहरूपत्वात् युक्तमैन्द्रियकं हि तत् ॥ इसलिये वे 'अव्यपदेश्य' पदका प्रयोजन निर्विकल्पका संग्रह करना ही बतलाते हैं । न्यायमञ्जरी ( पृ० ७८ ) में 'उभयजज्ञानका व्यवच्छेद करना अव्यपदेश्यपदका कार्य है' इस मतका 'आचार्या:' इस शब्दके साथ उल्लेख किया गया है। उसपर व्याख्याकारकी अनुपपत्ति दिखाकर न्यायमञ्जरीकारने उभयजज्ञानका खण्डन किया है । म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने इस 'आचार्याः' पदके नीचे 'तात्पर्यटीकायां वाचस्पतिमिश्राः' यह टिप्पणी की है । यहाँ यह विचारणीय है कि यह मत वाचस्पति मिश्रका है या अन्य किसी पूर्वाचार्यका ? तात्पर्य - टीका ( पृ० १४८ ) में तो स्पष्ट ही उभयजज्ञान नहीं मानकर उसे ऐन्द्रियक कहा है। इसलिये वह मत वाचस्पतिका तो नहीं है । व्योमवती' टीका ( पृ० ५५५ ) में उभयजज्ञानका स्पष्ट समर्थन है, अतः यह मत व्योमशिवाचार्यका हो सकता है । व्योमवतीमें न केवल उभयजज्ञानका समर्थन ही है किन्तु उसका व्यवच्छेद भी अव्यपदेश्य पदसे किया है। हाँ, उसपर जो व्याख्याकारकी अनुपपत्ति है वह कदाचित् वाच - स्पतिकी तरफ लग सकती है; सो भी ठीक नहीं; क्योंकि वाचस्पतिने अपने गुरुकी जिस गाथाके अनुसार उभयजज्ञानको ऐन्द्रियक माना है, उससे साफ मालूम होता है कि वाचस्पतिके गुरुके सामने उभयजज्ञानको माननेवाले आचार्य ( सम्भवतः व्योमशिवाचार्य ) की परम्परा थी, जिसका खण्डन वाचस्पतिके गुरूने किया । और जिस खण्डनको वाचस्पतिने अपने गुरुकी गाथाका प्रमाण देकर तात्पर्य- टीकामें स्थान दिया है । इसी तरह तात्पर्य - टीका में ( पृ० १०२ ) ' यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षा बुद्धयः फलम्' इस भाष्यका व्याख्यान करते हुए वाचस्पति मिश्रने उपादेयताज्ञानको उपादान' पदसे लिया है और उसका क्रम १. "न, इन्द्रियसहकारिणा शब्देन यज्जन्यते तस्य व्यवच्छेदार्थत्वात्, तथा ह्यकृतसमयो रूपं पश्यन्नपि चक्षुषा रूपमिति न जानीते रूपमितिशब्दोच्चारणानन्तरं प्रतिपद्यत इत्युभयजं ज्ञानम्; ननु च शब्देन्द्रिययोरेकस्मिन् काले व्यापाराऽसम्भवादयुक्तमेतत् । तथाहि मनसाऽधिष्ठितं न श्रोत्रं शब्दं गृह्णाति पुनः क्रियाक्रमेण चक्षुषा सम्बन्धे सति रूपग्रहणम् । न च शब्दज्ञानस्यैतावत्कालमवस्थानं सम्भवतीति कथमुभयजं ज्ञानम् ? अत्रैका श्रोत्रसम्बद्धे मनसि क्रियोत्पन्ना विभागमारभते ततः स्वज्ञान सहायशब्दसहकारिणा चक्षुषा रूपज्ञानमुत्पद्यते इत्युभयजं ज्ञानम् । यदि वा भवत्येवोभयजं ज्ञानम् " - प्रश० व्यो०, पृ० ५५५ । ४-१८ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थ भी 'तोयालोचन, तोयविकल्प, दृष्टतज्जातीयसंस्कारोद्बोध, स्मरण, 'तज्जातीयं चेदम्' इत्याकारक परामर्श' इत्यादि बताया है । न्यायमंजरी ( पृ० ६६ ) में इसी प्रकरण में शङ्का की है कि- 'प्रथम आलोचनज्ञानका फल उपादानादिबुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि उसमें कई क्षणोंका व्यवधान पड़ जाता है' ? इसका उत्तर देते हुए मंजरी - कारने 'आचार्याः' शब्द लिखकर 'उपादेयताज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं' इस मतका उल्लेख किया है । इस 'आचार्याः' पद पर भी म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने 'न्यायवार्तिक- तात्पर्यटीकायां वाचस्पतिमिश्राः ' ऐसा टिप्पण किया है। न्यायमञ्जरीके द्वितीय संस्करणके सम्पादक पं० सूर्यनारायणजी न्यायाचार्यने भी उन्हींका अनुसरण करके उसे बड़े टाइपमें हेडिंग देकर छपाया है । मंजरीकारने इस मतके बाद भी एक व्याख्याताका मत दिया है । जो इस परामर्शात्मक उपादेयताज्ञानको नहीं मानता। यहाँ भी यह विचारणीय है कि - यह मत स्वयं वाचस्पतिका है या उनके पूर्ववर्ती उनके गुरुका ? यद्यपि यहाँ उन्होंने अपने गुरुका नाम नहीं लिया है, तथापि जब व्योमवती' जैसी प्रशस्तपादको प्राचीन टीका ( पृ० ५६१ ) में इसका स्पष्ट समन है, तब इस मतकी परम्परा भी प्राचीन ही मानना होगी और 'आचार्याः' पदसे वाचस्पति न लिए जाकर व्योमशिव जैसे कोई प्राचीन आचार्य लेना होंगे। मालूम होता है म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने "जातञ्च सम्बद्धं चेत्येकः कालः " इस वचनको वाचस्पतिका माननेके कारण ही उक्त दो स्थलों में 'आचार्याः' पदपर 'वाचस्पतिमिश्रा:' ऐसी टिप्पणी कर दी है, जिसकी परम्परा चलती रही । हाँ, म० म० गोपीनाथ कविराजने अवश्य ही उसे सन्देह कोटिमें रखा है । भट्ट जयन्तकी समयावधि - जयन्त मंजरीमें धर्मकीर्ति मतकी समालोचनाके साथ ही साथ उनके टीकाकार धर्मोत्तरकी आदिवाक्यकी चर्चाको स्थान देते हैं । तथा प्रज्ञाकरगुप्त के 'एकमेवेदं हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्त्तं पश्यामः तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम्' ( भिक्षु राहुलजीकी वार्तिकालंकारकी प्रेसकॉपी, पृ० ४४९ ) इस वचनका खंडन करते हैं, ( न्यायमंजरी, पृ० ७४ ) । भिक्षु राहुलजीने टिबेटियन गुरुपरम्परा के अनुसार धर्मकीर्तिका समय ई० ६२५, प्रज्ञाकरगुप्तका ७००, धर्मोत्तर और रविगुप्तका ७२५ ईस्वी लिखा है । जयन्तने एक जगह रविगुप्तका भी नाम लिया है | अतः जयन्तकी पूर्वावधि ७६० A D तथा उत्तरावधि ८४० A. D. होनी चाहिए। क्योंकि वाचस्पतिका न्यायसूचीनिबन्ध ८४१ A. D. में बनाया गया है, इसके पहिले भी वे ब्रह्म सिद्धि तत्त्वबिन्दु और तात्पर्यटीका लिख चुके हैं। संभव है कि वाचस्पतिने अपनी आद्यकृति न्यायकणिका ८१५ ई० के आसपास लिखी हो । इस न्यायकणिकामें जयन्तकी न्यायमंजरीका उल्लेख होनेसे जयन्तकी उत्तरावधि ८४० A D ही मानना समुचित ज्ञात होता है । यह समय जयन्तके पुत्र अभिनन्द द्वारा दी गई जयन्तकी पूर्वजावलीसे भी संगत बैठता है । अभिनन्द अपने कादम्बरीकथासार में लिखते हैं कि " भारद्वाज कुलमें शक्ति नामका गौड़ ब्राह्मण था । उसका पुत्र मित्र, मित्रका पुत्र शक्तिस्वामी हुआ। यह शक्तिस्वामी कर्कोटवंशके राजा मुक्तापीड ललितादित्य के मंत्री थे । शक्तिस्वामीके पुत्र कल्याणस्वामी, कल्याणस्वामी के पुत्र चन्द्र तथा चन्द्रके पुत्र जयन्त हुए, जो नववृत्तिकारके नामसे मशहूर थे । जयन्तके अभिनन्द नामका पुत्र हुआ ।" १. " द्रव्यादिजातीयस्य पूर्वं सुखदुःखसाधनत्वोपलब्धेः तज्ज्ञानानन्तरं यद्यत् द्रव्यादिजातीयं तत्तत्सुखसाधनमित्यविनाभावस्मरणम्, तथा चेदं द्रव्यादिजातीयमिति परामर्शज्ञानम्, तस्मात् सुखसाधनमिति विनिश्चयः तत उपादेयज्ञानम्" " - प्रश० व्यो०, पृ० ५६१ । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १३९ काश्मीरके कर्कोट वंशीय राजा मुक्तापीड ललितादित्यका राज्य काल ७३३ से ७६८ A. D तक रहा है' । शक्तिस्वामीके, जो अपनी प्रौढ़ अवस्थामें मन्त्री होंगे, अपने मन्त्रित्वकाल के पहिले ही ई० ७२० में कल्याणस्वामी उत्पन्न हो चुके होंगे । इसके अनन्तर यदि प्रत्येक पोढ़ीका समय २० वर्ष भी मान लिया जाय तो कल्याणस्वामीके ईस्वी सन् ७४० में चन्द्र, चन्द्र के ई० ७६० में जयन्त उत्पन्न हुए और उन्होंने ईस्वी ८०० तक में अपनी 'न्यायमंजरी' बनाई होगी। इसलिए वाचस्पतिके समय में जयन्त वृद्ध होंगे और वाचस्पति इन्हें आदरकी दृष्टिसे देखते होंगे । यही कारण है कि उन्होंने अपनी आद्यकृतिमें न्यायमंजरी - कारका स्मरण किया है । जयन्तके इस समयका समर्थक एक प्रबल प्रमाण यह है कि हरिभद्रसूरिने अपने षडदर्शनसमुच्चय ( श्लो० २० ) में न्यायमंजरी ( विजयानगरं सं०, पृ० १२९ ) के— “गम्भीरगर्जितारम्भनिभिन्न गिरिगह्वराः । रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः ॥ त्वङ्गत्त डिल्लतासङ्गपिशङ्गोत्तुङ्गविग्रहाः । वृष्टि व्यभिचरन्तीह नैवंप्रायाः पयोमुचः ॥” इन दो श्लोकोंके द्वितीय पादोंको जैसाका तैसा शामिल कर लिया है । प्रसिद्ध इतिवृत्तज्ञ मुनि जिनविजयजीने "जैन साहित्यसंशोधक' ( भाग १ अंक १ ) में अनेक प्रमाणोंसे, खासकर उद्योतनसूरिकी कुवलयमाला कथामें हरिभद्रका गुरुरूपसे उल्लेख होनेके कारण हरिभद्रका समय ई० ७०० से ७७० त निर्धारित किया है । कुवलयमाला कथाकी समाप्ति शक ७०० ( ई० ७७८ ) में हुई थी । मेरा इस विषय में इतना संशोधन है कि उस समयकी आयुःस्थिति देखते हुए हरिभद्रकी निर्धारित आयु स्वल्प मालूम होती है । उनके समयकी उत्तरावधि ई० ८१० तक माननेसे वे न्यायमंजरीको देख सकेंगे । हरिभद्र जैसे सैकड़ों प्रकरणोंके रचयिता विद्वान् के लिए १०० वर्ष जीना अस्वाभाविक नहीं हो सकता । अतः ई० ७१० से ८१० तक समयवाले हरिभद्रसूरिके द्वारा न्यायमंजरीके श्लोकोंका अपने ग्रन्थ में शामिल किया जाना जयन्तके ७६० से ८४० ई० तक के समयका प्रबल साधकप्रमाण है । आ० प्रभाचन्द्र ने वात्सायनभाष्य एवं न्यायवार्तिकको अपेक्षा जयन्तको न्यायमञ्जरी एवं न्यायकलिकाका ही अधिक परिशीलन एवं समुचित उपयोग किया है । षोडशपदार्थ के निरूपणमें जयन्तकी न्यायमंजरीके ही शब्द अपनी आभा दिखाते हैं । प्रभाचन्द्रको न्यायमंजरी स्वभ्यस्त थी । वे कहीं कहीं मंजरीके ही शब्दों को ' तथा चाह भाष्यकार:' लिखकर उद्धृत करते हैं । भूतचैतन्यवादके पूर्वपक्ष में न्यायमंजरी में 'अपि च' करके उद्धृत की गई १७ कारिकाएँ न्यायकुमुदचन्द्र में भी ज्योंकी त्यों उद्धृत की गई हैं । जयन्तके कारकसाकल्यका सर्वप्रथम खण्डन । प्रभाचन्द्रने ही किया है। न्यायमञ्जरीकी निम्नलिखित तीन कारिकाएँ भी न्यायकुमुदचन्द्रमें उद्धृत की गई हैं । ( न्यायकुमुद० पृ० ३३६ ) " ज्ञातं सम्यगसम्यग्वा यन्मोक्षाय भवाय वा । तत्प्रमेयमिहाभीष्टं न प्रमाणार्थं मात्रकम् ।।" [ न्यायमं० पृ० ४४७ ] ( न्यायकुमुद० पृ० ४९१ ) " भूयोऽवयवसमान्ययोगो यद्यपि मन्यते । सादृश्यं तस्य तु ज्ञप्तिः गृहीते प्रतियोगिनि ।। [ न्यायमं० पृ० १४६ ] ( न्यायकुमुद० पृ० ५११ ) " नन्वस्त्येव गृहद्वारवर्तिनः संगतिग्रहः । भावेनाभवसिद्ध तु कथमेतद्भविष्यति ||" [ न्यायमं० पृ० ३८ ] १. देखो, संस्कृत साहित्यका इतिहास, परिशिष्ट ( ख ), पृ० १५ । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ इस तरह न्यायकुमुदचन्द्र के आधारभूत ग्रन्थोंमें न्यायमंजरीका नाम लिखा जा सकता है। वाचस्पति और प्रभाचन्द्र-षड्दर्शनटीकाकार वाचस्पतिने अपना न्यायसूचीनिबन्ध ई० ८४१ में समाप्त किया था। इनमें अपनी तात्पर्यटीका ( पृ० १६५) मे सांख्योंके अनुमानके मात्रामात्रिक आदि सात भेद गिनाए हैं और उनका खंडन किया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४६२ ) में भी सांख्योंके अनुमानके इन्हीं सात भेदोंके नाम निर्दिष्ट हैं । वाचस्पतिने शांकरभाष्यकी भामती टीकामें अविद्यासे अविद्याके उच्छेद करनेके लिए "यथा पयः पयोऽन्तरं जरयति स्वयं च जीर्यति, विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति, यथा वा कतकरजो रजोऽन्तराविले पाथ सि प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि भिन्दत् स्वयमपि भिद्यमानमनाविलं पाथः करोति.." इत्यादि दृष्टान्त दिए हैं। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ६६) मे इन्हीं दृष्टान्तोंको पूर्वपक्षमें उपस्थित किया है। न्यायकुमुदचन्द्रके विधिवादके पूर्वपक्षमें विधिविवेकके साथही साथ उसकी वाचस्पतिकत न्यायकणिका टीकाका भी पर्याप्त सादश्य पाया जाता है। वाचस्पतिके उक्त ई० ८४१ समयका साधक एक प्रमाण यह भी है कि इन्होंने तात्पर्यटीका ( पृ० २१७ ) में शान्तर क्षितके तत्त्वसंग्रह ( श्लो. २०० ) से निम्नलिखित श्लोक उद्धत किया है-'नर्तकीभ्रलताक्षेपो न ह्येकः पारमार्थिकः । अनेकाणुसमहत्वात् एकत्वं तस्य कल्पितम् ।।" शान्तरक्षितका समय ई० ७६२ है। शबर ऋषि और प्रभाचन्द्र-जैमिनिसूत्रपर शाबरभाष्य लिखनेवाले महर्षि शबरका समय ईसाकी तीसरी सदी तक समझा जाता है। शाबरभाष्यके ऊपर ही कुमारिल और प्रभाकरने व्याख्याएँ लिखी हैं। आ० प्रभाचन्द्रने शब्द-नित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद आदिमें कुमारिलके श्लोकवार्तिकके साथ ही साथ शाबरभाष्यकी दलीलोंको भी पूर्वपक्षमें रखा है। शाबरभाष्यसे ही “गौरित्यत्र कः शब्दः ? गकारौकारविसर्जनीया इति भगवानुपवर्षः'' यह उपवर्ष ऋषिका मत प्रमेयकमळमार्तण्ड ( पृ० ४६४ ) में उद्धृत किया गया है। न्यायकुमुदचन्द्र (१० २७९ ) में शब्दको वायवीय माननेवाले शिक्षाकार मीमांसकोंका मत भी शाबरभाष्यसे ही उद्धृत हुआ है। इसके सिवाय न्यायकुमुदचन्द्रमे शाबरभाष्यके कई वाक्य प्रमाणरूपमें और पूर्वपक्ष में उद्धृत किए गए हैं । कुमारिल और प्रभाचन्द्र-भट कुमारिलने शाबरभाष्यपर मीमांसाश्लोकवार्तिक, तन्त्रवार्तिक और दुप्टीका नामकी व्याख्या लिखी है कुमारिलने अपने तन्त्रवार्तिक ( पृ० २५१-२५३ ) में वाक्यपदीयके निम्नलिखित श्लोककी समालोचना की है ___ “अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । अपूर्वदेवतास्वर्गः सममाहुर्गवादिषु ॥" -वाक्यप० २।१२१ इसी तरह तन्त्रवार्तिक (पृ० २०९-१० ) में वाक्यपदीय (१७) के "तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणादृते" अंश उद्धृत होकर खंडित हुआ है। मीमांसाश्लोकवार्तिक ( वाक्याधिकरण श्लो० ५१) में वाक्यपदीय ( २११-२) में निर्दिष्ट दशविध या अष्टविध वाक्यलक्षणोंका समालोचन किया गया है। भर्तृहरिके स्फोटवादको आलोचना भी कुमारिलने मीमांसाश्लोकवातिकके स्फोटवादमें बडी प्रखरता चीनी यात्री इत्सिगने अपने यात्राविवरणमें भर्तृहरिका मृत्युसमय ई० ६५० बताया है अतः भर्तृहरिके समालोचक कुमारिलका समय ईस्वी ७वी शताब्दीका उत्तर भाग मानना समुचित है। आ० प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में सर्वज्ञवाद, शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद, आगमादिप्रमाणोंका विचार, प्रामाण्यवाद आदि प्रकरणोंमें कुमारिलके श्लोकवार्तिकसे पचासों कारिकाएँ उद्धृत की है। शब्दनित्यत्ववाद आदि प्रकरणोंमें कुमारिलकी युक्तियोंका सिलसिलेवार सप्रमाण उत्तर दिया गया है। कुमारिलने आत्माको व्यावृत्त्यनुगमात्मक या नित्यानित्यात्मक माना है। प्रभाचन्द्रने आत्माकी नित्यानित्यात्मकताका समर्थन करते Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १४१ समय कुमारिलकी "तस्मादुभवहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मकः " आदि कारिकाएँ अपने पक्ष के समर्थनमें भी उद्धृत की हैं । इसी तरह सृष्टिकर्तृत्वखंडन, ब्रह्मवादखंडन आदि में प्रभाचन्द्र कुमारिलके साथ-साथ चल । सारांश यह है कि प्रभाचन्द्र के सामने कुमारिलका मीमांसाश्लोकवार्तिक एक विशिष्ट ग्रन्थके रूपमें रहा है । इसीलिए इसकी आलोचना भी जमकर की गई। । श्लोकवार्तिककी भट्ट उम्बेककृत तात्पर्यटीका अभी प्रकाशित हुई है । इस टीकाका आलोडन भी प्रभाचन्द्रने खूब किया है । सर्वज्ञवादमें कुछ कारिकाएँ ऐसी उद्धृत हैं जो कुमारिलके मौजूदा श्लोकवार्तिकमें नहीं पाईं जाती । संभव है ये कारिकाएँ कुमारिलकी बृहट्टीका या अन्य किसी ग्रंथ की हों । मंडन मिश्र और प्रभाचन्द्र - आ० मंडनमिश्रके मीमांसानुक्रमणी, विधिविवेक, भावनाविवेक, सिद्धि, ब्रह्मसिद्धि, स्फोटसिद्धि आदि यन्थ प्रसिद्ध हैं । इनका समय' ईसाकी ८वीं शताब्दीका पूर्वभाग है | आचार्य विद्यानन्दने ( ई० ९वीं शताब्दीका पूर्वभाग ) अपनी अष्टसहस्रीमें मण्डन मिश्रका नाम लिया है । यतः मण्डन मिश्र अपने ग्रन्थोंमें सप्तमशतकवर्ती कुमारिलका नामोल्लेख करते हैं । अतः इनका समय ई० की सप्तमशताब्दीका अन्तिमभाग तथा ८वीं सदीका पूर्वार्ध सुनिश्चित होता है । आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० १४९ ) में मंडन मिश्र की ब्रह्मसिद्धिका " आहुविधातृ प्रत्यक्ष" श्लोक उद्धृत किया है । न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ५७२ ) में विधिवादके पूर्वपक्ष में मंडनमिश्र के विधिविवेक में वर्णित अनेक विधिवादियोंका निर्देश किया गया है। उनके मतनिरूपण तथा समालोचनमें विधिविवेक ही आधारभूत मालूम होता है । प्रभाकर और प्रभाचन्द्र - शाबरभाष्यकी बृहती टीकाके रचयिता प्रभाकर करीब-करीब कुमारिल - के समकालीन थे । भट्ट कुमारिलका शिष्य परिवार भाट्टके नामसे ख्यात हुआ तथा प्रभाकरके शिष्य प्राभाकर या गुरुमतानुयायी कहलाए । प्रभाकर विपर्ययज्ञानको स्मृतिप्रमोष या विवेकाख्याति रूप मानते हैं । ये अभावको स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानते । वेदवाक्योंका अर्थ नियोगपरक करते हैं । प्रभाचन्द्रने अपने ग्रन्थों में प्रभाकरके स्मृतिप्रमोष, नियोगवाद आदि सभी सिद्धान्तोंका विस्तृत खंडन किया है । शालिकनाथ और प्रभाचन्द्र - प्रभाकरके शिष्योंमें शालिकनाथका अपना विशिष्ट स्थान है । इनका समय ईसाकी ८वीं शताब्दी है । इन्होंने बृहतीके ऊपर ऋजुविमला नामकी पञ्जिका लिखी है । प्रभाकरगुरुके सिद्धान्तोंका विवेचन करनेके लिए इन्होंने प्रकरणपञ्जिका नामका स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखा है । ये अन्धकारको स्वतन्त्र पदार्थ नहीं मानते किन्तु ज्ञानानुत्पत्तिको ही अन्धकार कहते हैं । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० २३८ ) तथा न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ६६६ ) में शालिकनाथ के इस मतकी विस्तृत समीक्षा की है । शङ्कराचार्य और प्रभाचन्द्र - आद्य शङ्कराचार्य के ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य, गीताभाष्य, उपनिषद्भाष्य आदि अनेकों ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इनका समय ई० ७८८ से ८२० तक माना जाता है । शाङ्करभाष्य में धर्मकीर्तिके 'सहोपलम्भनियमात् ' हेतुका खण्डन होनेसे यह समय समर्थित होता है । आ० प्रभाचन्द्रने शङ्करके अनिर्वचनीयार्थख्यातिवादकी समालोचना प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें की है। न्यायकुमुदचन्द्रके परमब्रह्मवादके पूर्वपक्ष में शाङ्करभाष्यके आवारसे हो वैषम्य नैर्ऋग्य आदि दोषोंका परिहार किया गया है । सुरेश्वर और प्रभाचन्द्र - शङ्कराचार्य के शिष्यों में सुरेश्वराचार्यका नाम उल्लेखनीय है । इनका १. देखो बृहती द्वि० भागकी प्रस्तावना । २. द्रष्टव्य-अच्युतपत्र वर्ष ३, अङ्क ४ में म० म० गोपीनाथ कविराजका लेख । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ नाम विश्वरूप भी था । इन्होंने तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्यवार्तिक, बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक, मानसोल्लास, पञ्चीकरणवार्तिक, काशीमृतिमोक्षविचार, नैष्कम्र्म्यसिद्धि आदि ग्रन्थ बनाए हैं। आ० विद्यानन्द ( ईसाकी ९ वीं शताब्दी ) ने अs - सहस्री ( पृ० १६२ ) में बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य वार्तिक से 'ब्रह्मविद्यावदिष्टं चेन्ननु' इत्यादि कारिकाएँ उद्धृत की हैं । अतः इनका समय भी ईसाकी ९वीं शताब्दीका पूर्वभाग होना चाहिए । शङ्कराचार्य ( ई० ७८८ से ८२० के साक्षात् शिष्य थे । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० ४४४५ ) तथा न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० १४१ ) में ब्रह्मवाद के पूर्वपक्ष में इनके बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक ( ३।५।४३-४४ ) से “यथा विशुद्धमाकाश" आदि दो कारिकाएँ उद्धृत का हैं । भामह और प्रभाचन्द्र - भामहका काव्यालङ्कार ग्रन्थ उपलब्ध है । शान्तरक्षितने तत्त्वसंग्रह ( पृ०२९१ ) में भामह के काव्यालंकारकी अपोहखण्डन वालो "यदि गौरित्ययं शब्दः " आदि तीन कारिकाओंकी समालोचना की है । ये कारिकाएँ काव्यालंकार के ६ वें परिच्छेद ( श्लोक० १७-१९ ) में पाई जाती हैं । तत्त्वसंग्रहकारका समय ई० ७०५-७६२ तक सुनिर्णीत है। बौद्धसम्मत प्रत्यक्षके लक्षणका खण्डन करते समय भामहने ( काव्यालंकार ५/६ ) दिङ्नागके मात्र 'कल्पनापोढ' पदवाले लक्षणका खण्डन किया है, धर्मकीर्ति के 'कल्पनापोढ और अभ्रान्त' उभयविशेषणवाले लक्षणका नहीं । इससे ज्ञात होता है कि भामह दिङ्नागके उत्तरवर्ती तथा धर्मकीर्ति के पूर्ववर्ती हैं । अन्ततः इनका समय ईसाकी ७वीं शताब्दीका पूर्वभाग है। आο प्रभाचन्द्रने अपोहवादका खंडन करते समय भामहकी अपोहखण्डनविषयक "यदि गौरित्ययं" आदि तीनों कारिकायें प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पू. ४३२ ) में उद्धृत की हैं। यह भी संभव है कि ये कारिकायें सीधे भामह के ग्रन्थसे उद्धृत न होकर तत्त्वसंग्रहके द्वारा उद्धृत हुई हों । बाग और प्रभाचन्द्र - प्रसिद्ध गद्यकाव्य कादम्बरीके रचयिता बाणभट्ट, सम्राट हर्षवर्धन ( राज्य ६०६ से ६४८ ई० ) की सभा के कविरत्न थे । इन्होंने हर्षचरितकी भी रचना की थी। बाण, कादम्बरी और हर्षचरित दोनों ही ग्रन्थोंको पूर्ण नहीं कर सके। इनकी कादम्बरीका आद्यश्लोक "रजोजुषे जन्मनि सत्त्ववृत्तये" प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ २९८ ) में उद्धृत है । आ० प्रभाचन्द्रने वेदापौरुषेयत्व प्रकरण में ( प्रमेयक ० पृ० ३९३ ) कादम्बरीके कर्तृत्व के विषयमें सन्देहात्मक उल्लेख किया है--" कादम्बर्यादीनां कर्तृविशेषे विप्रतिपत्तेः " - अर्थात् कादम्बरी आदिके कत्त के विषय में विवाद है। इस उल्लेखसे ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रके समयमें कादम्बरी आदि ग्रन्थोंके कर्त्ता विवादग्रस्त थे । हम प्रभाचन्द्रका समय आगे ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सिद्ध करेंगे । माघ और प्रभाचन्द्र - शिशुपालवध काव्यके रचयिता माघ कविका समय ई० ६६०-६७५ के लगभग है ।' माघकविके पितामह सुप्रभदेव राजा वर्मलातके मन्त्री थे । राजा वर्मलातका उल्लेख ई० ६२५ के एक शिलालेख में विद्यमान है अतः इनके नाती माघ कविका समय ई० ६७५ तक मानना समुचित है । प्रभाचन्द्रने माघकाव्य ( १।२३ ) का “ युगान्तकालप्रतिसंहृतात्मनो श्लोक प्रमेयक मलमातंण्ड ( पृ० ६८८ ) में उद्धृत किया है। इससे ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रने माघकाव्यको देखा था । .77 अवैदिक दर्शन अश्वघोष और प्रभाचन्द्र - अश्वघोषका समय ईसाका द्वितीय शतक माना जाता है। इनके बुद्धचरित और सौन्दरनन्द दो महाकाव्य प्रसिद्ध हैं । सौन्दरनन्दमें अश्वघोषने प्रसङ्गतः बौद्धदर्शनके कुछ पदार्थों १. देखो, संस्कृत साहित्यका इतिहास, पृ० १४३ । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १४३ का भी सारगर्भ विवेचन किया है। आ० प्रभाचन्द्रने शून्यनिर्वाणवादका खंडन करते समय पूर्वपक्ष में ( प्रमेयक० पृ० ६८७ ) सौन्दरनन्दकाव्यसे निम्नलिखित दो श्लोक उद्धृत किए हैं "दीपो यथा निर्बुणिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद विदिशं काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।।" -सौन्दरनन्द १६।२८, २९ नागार्जुन और प्रभावन्द्र-नागार्जुनकी माध्यमिककारिका और विग्रहव्यावर्तिनी दो ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । ये ईसाकी तीसरी शताब्दीके विद्वान् हैं। इन्हें शून्यवादके प्रस्थापक होनेका श्रेय प्राप्त है । माध्यमिककारिकामें इन्होंने विस्तृत परीक्षाएँ लिखकर शन्यवादको दार्शनिक रूप दिया है। विग्रहव्यावर्तिनी भी इसी तरह शन्यवादका समर्थन करनेवाला छोटा प्रकरण है। प्रभाचन्द्रने न्यायकूमदचन्द्र (१० १३२ ) में माध्यमिकके शून्यवादका खंडन करते समय पूर्वपक्ष में प्रमाणवातिककी कारिकाओंके साथ ही साथ माध्यनिककारिकासे भी 'न स्वतो नापि परतः' और 'यथा मया यथा स्वप्नो' ये दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं । वसुबन्धु और प्रभावन्द्र-वसुबन्धुका अभिधर्मकोश ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इनका समय इ० ४०० के करीब माना जाता है। अभिधर्मकोश बहुत अंशोंमें बौद्धदर्शनके सूत्रग्रन्थका कार्य करता है। प्रभाचन्द्रने न्यायकुमदचन्द्र (१० ३९० ) में वैभाषिक समस्त द्वादशाङ्ग प्रतीत्यसमुत्पादका खंडन करते समय प्रतीत्यसमत्पादका पूर्वपक्ष वसूबन्धके अभिधर्मकोशके आधारसे ही लिखा है। उसमें यथावसर अभिधर्मकोशसे २-३ कारिकाएँ भी उद्धृत की है । देखो न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ३९५ । दिङ्नाग और प्रभाचन्द्र-आ० दिग्नागका स्थान बौद्धदर्शनने विशिष्ट संस्थापकोंमें है। इनके न्यायप्रवेश और प्रमाणसमच्चय प्रकरण मुद्रित हैं। इनका समय ई० ४२५ के आसपास माना जाता है। प्रमाणसमुच्चयमें प्रत्यक्षका कल्पनापोढ लक्षण किया है। इसमें अभ्रान्तपद धर्मकीर्तिने जोड़ा है। इन्हींके प्रमाणसमुच्चय पर धर्मकीर्तिने प्रमाणवातिक रचा है। भिक्ष राहुलजीने' दिग्नागके आलम्बनपरीक्षा, त्रिकालपरोक्षा और हेतुचक्रडमरु आदि ग्रन्थोंका भी उल्लेख किया है। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (१०८० ) में 'स्तुतश्च अद्वैतादिप्रकरणानामादौ दिग्नागादिभिः सद्भिः ' लिखकर प्रमाणसमुच्चयका 'प्रमाणभूताय' इत्यादि मंगलश्लोकांश उद्धृत किया है। इसी तरह अपोहबादके पूर्वपक्ष ( प्रमेयक० पृ० ४३६ ) में दिग्नागके नामसे निम्नलिखित गद्यांश भी उद्धृत किया है-"दिग्नागेन विशेषणविशेष्यभावसमर्थनार्थम 'नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानांनाहुः' इत्युक्तम् । धर्मकीति और प्रभाचन्द्र-बौद्धदर्शनके युगप्रधान आचार्य धर्मकीर्ति ईसाकी ७वीं शताब्दी में नालन्दाके बौद्धविद्यापीठके आचार्य थे । इनकी लेखनीने भारतीय दर्शनशास्त्रों में एक युगान्तर उपस्थित कर दिया था। धर्मकीर्तिने वैदिक-स्कृतिपर दढ प्रहार किए है। यद्यपि इनका उद्धार करने के लिए व्योमशिव, जयन्त, वाचस्पतिमिश्र, उदयन आदि आचार्योंने कुछ उठा नहीं रखा । पर बौद्धोंके खंडनमें जितनो कुशलता तथा सतर्कतासे जैनाचार्योने लक्ष्य दिया है उतना अन्यने नहीं। यहो कारण है कि अकलङ्क, हरिभद्र, अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, वादिदेवसरि आदिके जैनन्यायशास्त्रके ग्रन्थोंका बहभाग बौद्धोंके खंडनने ही रोक रखा है। धर्मकीतिके समयके विषयमें मैं विशेष ऊहापोह "अकलङ्कग्रन्थ त्रय" की प्रस्तावना १. वादन्याय परिशिष्ट पृ० VI, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ ( पृ० १८ ) में कर आया हूँ । इनके प्रमाणवार्तिक, हेतुबिन्दु, न्यायबिन्दु, सन्तानान्तर सिद्धि, वादन्याय, सम्बन्धपरीक्षा आदि ग्रन्थोंका प्रभाचन्द्रको गहरा अभ्यास था । इन ग्रन्थोंकी अनेकों कारिकाएँ, खासकर प्रमाणवार्तिककी कारिकाएँ प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों में उद्धृत हैं। मालूम होता है कि सम्बन्धपरीक्षाकी अथ से इति तक २३ कारिकाएँ प्रमेयकमलमार्त्तण्डके सम्बन्धवादके पूर्वपक्ष में ज्योंकी त्यों रखी गई हैं, और खण्डित हुई हैं । विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में इसकी कुछ कारिकाएँ ही उद्धृत हैं । वादन्यायका " हसति हसति स्वामिनि ” आदि श्लोक प्रमेयकमलमात्तण्ड में उद्धृत है । संवेदनाद्वैत के पूर्वपक्ष में धर्मकीर्ति के 'सहोपलम्भनियमात् ' आदि हेतुओं का निर्देशकर बहुविध विकल्पजालोंसे खण्डन किया गया है । वादन्यायकी " असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः " कारिकाका और इसके विविध व्याख्यानोंका सयुक्तिक उत्तर प्रमेयकमलमार्त्तण्डमें दिया गया है। इन सब ग्रन्थोंके अवतरण और उनसे की गई तुलना न्यायकुमुदचन्द्रके टिप्पणी में देखनी चाहिए । " प्रज्ञाकरगुप्त और प्रभाचन्द्र - धर्मकीर्तिके व्याख्याकारोंमें प्रज्ञाकरगुप्तका अपना खास स्थान है । उन्होंने प्रमाणवार्तिकपर प्रमाणवार्तिकालङ्कार नामकी विस्तृत व्याख्या लिखी है इनका समय भी ईसाकी 9वीं शताब्दीका अन्तिम भाग और आठवींका प्रारम्भिक भाग है । इनकी प्रमाणवार्तिकालङ्का र टीका वार्तिकालङ्कार और अलंकारके नामसे भी प्रख्यात रही है । इन्हींके वार्तिकालङ्कारसे भावना विधि नियोगकी विस्तृत चर्चा विद्यानन्दके ग्रन्थों द्वारा प्रभाचन्द्रवे न्यायकुमुदचन्द्र में अवतीर्ण हुई है । इतना विशेष है कि - विद्यानन्द और प्रभाचन्द्रने प्रज्ञाकरगुप्तकृत भावना विधि आदिके खंडनका भी स्थान-स्थानपर विशेष समालोचन किया है । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० ३८० ) में प्रज्ञाकरके भाविकारणवाद और भूतकारणवादका उत्लेख प्रज्ञाकरका नाम देकर किया गया है । प्रज्ञाकरगुप्तने अपने इस मतका प्रतिपादन प्रमाणवार्तिकालङ्कारमें किया 19 भिक्षु राहुल सांकृत्यायन के पास इसकी हस्तलिखित कापी है । प्रभाचन्द्रने धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिककी तरह उनके शिष्य प्रज्ञाकरके वार्तिकालङ्कारका भी आलोचन किया है । प्रभाचन्द्रने जो ब्राह्मणत्वजातिका खण्डन लिखा है, उसमें शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहके साथ ही साथ प्रज्ञाकरगुप्तके वार्तिकालङ्कारका भी प्रभाव मालूम होता है । ये बौद्धाचार्य अपनी संस्कृति के अनुसार सदैव जातिवादपर खड्गहस्त रहते थे । धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिक के निम्नलिखित श्लोक में जातिवाद के मदको जडताका चिह्न बताया है— "वेदप्रामाण्यं कस्यचित्कर्तृ वादः स्नाने धर्मेच्छा जातिवादावलेपः । सन्तापारम्भः पापहानाय चेति ध्वस्तप्रज्ञानां पञ्च लिङ्गानि जाड्ये ||" उत्तराध्ययनसूत्रमें 'कम्मुणा बम्हणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ' लिखकर कर्मणा जातिका स्पष्ट समर्थन किया गया है । दि० जैनाचार्यों में वराङ्गचरित्रके कर्ता जटा सिंहनन्दिने वराङ्गचरितके २५वें अध्यायमें ब्राह्मणत्वजातिका निरास किया है । और भी रविषेण अमितगति आदिने जातिवाद के खिलाफ थोड़ा बहुत लिखा है पर तर्क ग्रन्थों में सर्वप्रथम हम प्रभाचन्द्र के ही ग्रन्थोंमें जन्मना जातिका सयुक्तिक खण्डन यथेष्ट विस्तार के साथ पाते हैं । १. इसके अवतरण अकलंकग्रन्थत्रयकी प्रस्तावना, पृ० २७ में देखना चाहिए । २, इन आचार्यों के ग्रन्थोंके अवतरण के लिए देखो न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ७७८, टि०९ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १४५ कर्ण गोम और प्रभाचन्द्र - प्रमाणवार्तिकके तृतीयपरिच्छेदपर धर्मकीर्तिकी स्वोपज्ञवृत्ति भी उपलब्ध है । इस वृत्तिपर कर्णकगोमिकी विस्तृत टीका है। इस टीकामें प्रज्ञाकर गुप्तके प्रमाणवार्तिकालङ्कारका 'अलङ्कार' शब्द से उल्लेख । इसमें मण्डन मिश्रकी ब्रह्मसिद्धिका 'आहुविधातृ ' श्लोक उद्धृत है । अतः इनका समय ई० ८वीं सदीका पूर्वार्ध संभव है । न्यायकुमुदचन्द्रके शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद, स्फोटवाद आदि प्रकरणों पर कर्णकगोमिकी स्ववृत्तिटोका अपना पूरा असर रखती है । इसके अवतरण इन प्रकरणों के टिप्पणों में देखना चाहिये । शान्तरक्षित, कमलशील और प्रभाचन्द्र - तत्त्वसंग्रहकार' शान्तरक्षित तथा तत्त्वसंग्रहपञ्जिकाके रचयिता कमलशील नालन्दाविश्वविद्यालयके आचार्य थे । शान्तरक्षितका समय ई० ७०५ से ७६२ तथा कमलशीलका समय ई० ७१३ से ७६३ है । शान्तरक्षितकी अपेक्षा कमलशीलकी प्रावाहिक प्रसादगुणमयी भाषाने प्रभाचन्द्रको अत्यधिक आकृष्ट किया है । यों तो प्रभाचन्द्र के प्रायः प्रत्येक प्रकरणपर कमलशोलकी पञ्जिका अपना उन्मुक्त प्रभाव रखती है पर इसके लिए षट्पदार्थ परीक्षा, शब्दब्रह्म परीक्षा, ईश्वरपरीक्षा, प्रकृतिपरीक्षा, शब्दनित्यत्वपरीक्षा आदि परीक्षाएँ खासतौरसे द्रष्टव्य हैं । तत्त्वसंग्रहकी सर्वज्ञपरीक्षामें कुमारिकी पचासों कारिकाएँ उद्धृत कर पूर्वपक्ष किया गया है । इनमेंसे अनेकों का रिकाएँ ऐसी हैं जो कुमारिके श्लोकवार्तिक में नहीं पाई जातीं । कुछ ऐसी ही कारिकाएँ प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में भी उद्धृत है। संभव है कि ये कारिकाएँ कुमारिल के ग्रन्थसे न लेकर तत्त्वसंग्रहसे ही ली गई हों । तात्पर्य यह कि प्रभाचन्द्र के आधारभूत ग्रन्थों में तत्त्वसंग्रह और उसकी पञ्जिका अग्रस्थान पानेके योग्य है । अर्चंट और प्रभाचन्द्र - धर्मकीर्ति के हेतुबिन्दुपर अर्चटकृत टीका उपलब्ध है । इसका उल्लेख अनन्तवीर्यंने अपनी सिद्धिविनिश्चयटीका में अनेकों स्थलोंमें किया है । 'हेतुलक्षणसिद्धि' में तो धर्मकीर्ति हेतुबिन्दु के साथही साथ अर्चटकृत विवरणका भी खण्डन है । अटका समय भी करीब ईसाकी ९वीं शताब्दी होना चाहिये | अर्चने अपने हेतुबिन्दुविवरण में सहकारित्व दो प्रकारका बताया है - १ एकार्थकारित्व, २ परस्परातिशयाधायकत्व । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० १० ) में कारकसाकल्यवादकी समीक्षा करते समय सहकारित्वके यही दो विकल्प किये हैं । धर्मोत्तर और प्रभाचन्द्र - धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दुपर आ० धर्मोत्तरने टीका रची है। भिक्षु राहुलजी द्वारा लिखित टिबेटियन गुरुपरम्परा के अनुसार इनका समय ई० ७२५ के आसपास है । आ० प्रभाचन्द्र अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० २ ) तथा न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० २० ) में सम्बन्ध, अभिधेय, शक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनरूप अनुबन्धत्रयकी चर्चामें, जो उन्मत्तवाक्य, काकदन्तपरीक्षा, मातृविवाहोपदेश तथा सर्वज्वरहर - तक्षकचूडारत्नालङ्कारोपदेशके उदाहरण दिए हैं वे धर्मोत्तरकी न्यायबिन्दुटीका ( पृ० २ ) के प्रभावसे अछूते नहीं हैं । इनकी शब्दरचना करीब-करीब एक जैसी है । इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० २६ ) में प्रत्यक्ष शब्दकी व्याख्या करते समय अक्षाश्रितत्वको प्रत्यक्षशब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त बताया है और अक्षाश्रितत्वोपलक्षित अर्थसाक्षात्कारित्वको प्रवृत्तिनिमित्त । ये प्रकार भी न्यायबिन्दुटीका ( पृ० ११ ) से अक्षरशः मिलते हैं । ज्ञानश्री और प्रभाचन्द्र -- ज्ञानश्रीने क्षणभंगाध्याय आदि अनेक प्रकरण लिखे हैं । उदयनाचार्य ने १. देखो, तत्त्वसंग्रहकी प्रस्तावना, पृ० Xovi २. देखो, वादम्यायका परिशिष्ट । ४- १९ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अपने आत्मतत्त्वविवेकमें ज्ञानश्रीके क्षणभंगाध्यायका नामोल्लेखपूर्वक आनुपूर्वीसे खण्डन किया है। उदयनाचार्यने अपनी लक्षणावली तकम्बिरांक ( ९०६ ) शक, ई० ९८४ में समाप्त की थी। अतः ज्ञानश्रीका समय ई०९८४ से पहिले तो होना ही चाहिये । भिक्ष राहुल सांकृत्यायनजीके नोट्स देखनेसे ज्ञात हुआ है किज्ञानश्रीके क्षणभंगाध्याय या अपोहसिद्धि(?)के प्रारम्भमें यह कारिका है _ "अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तु विधिनोच्यते ।" विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीमें भी यह कारिका उद्धृत है । आ० प्रभाचन्द्रने भी अपोहवादके पूर्वपक्षमें "अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां" कारिका उद्धृत की है। वाचस्पतिमिश्र ( ई० ८४१ ) के ग्रन्थोंमें ज्ञानश्रीकी समालोचना नहीं हैं पर उदयनाचार्य ( ई० ९८४ ) के ग्रन्थों में है, इसलिए भी ज्ञानश्रीका समय ईसाक १०वीं शताब्दीके बाद तो नहीं जा सकता। जयसिंहराशिभट्ट और प्रभाचन्द्र-भट्ट श्री जयसिंहराशिका तत्त्वोपप्लवसिंह नामक ग्रन्थ गायकवाड सीरीजमें प्रकाशित हुआ है। इनका समय ईसाकी ८वीं शताब्दी है। तत्त्वोपप्लवग्रन्थमें प्रमाण-प्रमेय आदि सभी तत्त्वोंका बहविध विकल्पजालसे खण्डन किया गया है। आ० विद्यानन्दके ग्रन्थों में सर्वप्रथम तत्त्वोपप्लववादीका पूर्वपक्ष देखा जाता है। प्रभाचन्द्रने संशयज्ञानका पूर्वपक्ष तथा बाधकज्ञानका पूर्वपक्ष तत्त्वोपप्लव ग्रन्थसे ही किया है और उसका उतने ही विकल्पों द्वारा खण्डन किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड ( १० ६४८ ) में 'तत्त्वोपप्लववादि' का दृष्टान्त भी दिया गया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ३३९) में भी तत्त्वोपप्लववादिका दृष्टान्त पाया जाता है। तात्पर्य यह कि परमतके खण्डनमें क्वचित तत्त्वोपप्लववादिकृत विकल्पोंका उपयोग कर लेनेपर भी प्रभाचन्द्रने स्थान-स्थानपर तत्त्वोपप्लववादिके विकल्पोंकी भी समीक्षा को है। कुन्दकुन्द और प्रभाचन्द्र-दिगम्बर आचार्यों में आ० कुन्दकुन्दका विशिष्ट स्थान है। इनके सारत्रय-प्रवचनसार, पञ्चास्तिकायसमयसार और समयसार-के सिवाय बारसअणवेवखा अष्टपाड आदि ग्रन्थ उपलब्ध है। प्रो० ए० एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी भूमिकामें इनका समय ईसाकी प्रथमशताब्दी सिद्ध किया है । कुन्दकुन्दाचार्यने बोधपाहुड ( गा० ३७) में केवलीको आहार और निहारसे रहित बताकर कवलाहारका निषेध किया है। सूत्रप्राभूत ( गा० २३-३६ ) में स्त्रीको प्रव्रज्याका निषेध करके स्त्रीमुक्तिका निरास किया है । कुन्दकुन्दके इस मलमार्गका दार्शनिकरूप हम प्रभाचन्द्र के ग्रन्थों में केवलिकवलाहारवाद तथा स्त्रीमक्तिवादके रूपमें पाते हैं । यद्यपि शाकटायनने अपने केवलिभक्ति और स्त्रीमक्ति प्रकरणों में दिगम्बरोंकी मान्यताका विस्तृत खण्डन किया है। जिससे ज्ञात होता है कि शाकटायनके सामने दिगम्बराचार्योंका उक्त सिद्धान्तद्वयका समर्थक विकसित साहित्य रहा है। पर आज हमारे सामने प्रभाचन्द्र के ग्रन्थ ही इन दोनों मान्यताओंके समर्थकरूपमें समुपस्थित है। आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रवचनसारकी "जियद् य मरद य' गाथा, भावपाहडकी 'एगो मे सस्सदो' गाथा, तथा प्रा० सिद्धभक्तिकी 'पंवेदं वेदन्ता' गाथा उद्धृत की है । प्राकृत दशभक्तियाँ भी कुन्दकुन्दाचार्यके नामसे प्रसिद्ध हैं। समन्तभद्र और प्रभाचन्द्र-आद्यस्तुतिकार स्वामि समन्तभद्राचार्यके बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दी माना जाता है। किन्हीं विद्वानोंका विचार है कि इनका समय विक्रमकी पांचवीं या छठवीं शताब्दी होना चाहिये। प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्रमें बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रसे "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः" "मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान्" "तदेव च स्यान्न तदेव' इत्यादि श्लोक उद्धृत किए हैं। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १४७ आ० विद्यानन्दने आप्तपरीक्षाका उपसंहार करते हुए यह श्लोक लिखा है कि "श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुत सलिलनिधेरिद्वरत्नोद्भवस्य, प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत्, विद्यानन्दः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थ सिद्ध्यै ।। १२३ ।।” अर्थात् तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रसे दीप्तरत्नोंके उद्भव के प्रोत्थानारम्भकाल - प्रारम्भिक समयमें, शास्त्रकारने, पापों का नाश करनेके लिए, मोक्षके पयको बतानेवाला, तीर्थस्वरूप जो स्तवन किया था और जिस स्तवनकी स्वामीने मीमांसा की है, उसीका विद्यानन्दने अपनी स्वल्पशक्ति के अनुसार सत्यवाक्य और सत्यार्थी सिद्धिके लिए विवेचन किया है । अथवा, जो दीप्तरत्नोंके उद्भव - उत्पत्तिका स्थान है उस अद्भुत सलिलनिधिके समान तत्त्वार्थशास्त्र के प्रोत्थानारम्भकाले उत्पत्तिका निमित्त बताते समय या प्रोत्थानउत्थानिक भूमिका बाँधनेके प्रारम्भिक समयमें शास्त्रकारने जो मंगलस्तोत्र रचा और जिस स्तोत्र में वर्णित आप्तकी स्वामीने मीमांसा की उसीकी मैं ( विद्यानन्द ) परीक्षा कर रहा हूँ । वे इस श्लोक में स्पष्ट सूचित करते हैं कि स्वामी समन्तभद्रने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मंगलश्लोकमें वर्णित जिस आप्तकी मीमांसा की है उसी आप्तकी मैंने परीक्षा की है। वह मंगलस्तोत्र तत्त्वार्थशास्त्ररूपी समुद्रसे दीप्त रत्नोंके उद्भव के प्रारम्भिक समय में या तत्त्वार्थशास्त्रकी उत्पत्तिका निमित्त बताते समय शास्त्रकारने बनाया था । यह तत्त्वार्थशास्त्र यदि तत्त्वार्थसूत्र है तो उसका मंथन करके रत्नोंके निकालनेवाले या उसकी उत्थानिका बाँधनेवाले उसकी उत्पत्तिका निमित्त बतानेवाले आचार्य पूज्यपाद हैं । यह 'मोक्षमार्गस्य नेतारं ' श्लोक स्वयं सूत्रकारका तो नहीं मालूम होता, क्योंकि पूज्यपाद, भट्टाकलङ्कदेव और विद्यानन्दने सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक में इसका व्याख्यान नहीं किया है । यदि विद्यानन्द इसे सूत्रकारकृत हो मानते होते तो वे अवश्य ही श्लोकवार्तिकमें उसका व्याख्यान करते । परन्तु यहो विद्यानन्द आप्तपरीक्षा ( पृ० ३ ) के प्रारम्भ में इसी श्लोकको सूत्रकारकृत भी लिखते हैं । यथा— ...33 " किं पुनस्तत्परमेष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति निगद्यते - मोक्षमार्गस्य नेतारं इस पंक्ति में यही श्लोक सूत्रकारकृत कहा गया है । किन्तु विद्यानन्दकी शैलीका ध्यानसे समीक्षण करने पर यह स्पष्टरूपसे विदित हो जाता है कि वे अपने ग्रन्थोंमें किसी भी पूर्वाचार्यको सूत्रकार और किसी भी पूर्वग्रंथको सूत्र लिखते हैं । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( पृ० १८४ ) में वे अकलंकदेवका सूत्रकार शब्दसे तथा राजवार्तिकका सूत्र शब्दसे उल्लेख करते हैं- " तेन इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणम्' इत्येतत्सूत्रोपात्तमुक्तं भवति । ततः, प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ॥ ४ ॥ सूत्रकारा इति ज्ञेयमाकलंकावबोधने" इस अवतरण में 'इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष' वाक्य राजवार्तिक ( पृ० ३८ ) का है तथा 'प्रत्यक्षलक्षणं' श्लोक न्यायविनिश्चय ( श्लो० ३ ) का है । अत: मात्र सूत्रकारके नामसे 'मोक्षमार्गस्य नेतारं" श्लोकको उद्धृत करनेके कारण हम 'विद्यानन्दका झुकाव इसे मूल सूत्रकारकृत माननेकी ओर है' यह नहीं समझ सकते । अन्यथा वे इसका व्याख्यान श्लोकवार्तिकमें अवश्य करते । अतः इस पंक्ति में सूत्रकार शब्दसे भी इद्धरत्नोंके उद्भवकर्ता या तत्त्वार्थशास्त्रकी भूमिका बाँधने वाले आचार्यका ही ग्रहण करना चाहिए। आप्तपरीक्षाके--- " इति तत्त्वार्थशास्त्रादी मुनीन्द्रस्तोत्रगोचरा । प्रणीताप्तपरीक्षेयं कुविवादनिवृत्तये ॥" Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ इस अनुष्टुप् श्लोकमें तत्त्वार्थशास्त्रादौ पद 'प्रोत्थानारम्भकाले' पदके अर्थमें ही प्रयुक्त हुआ है । ३२ अक्षरवाले इस संक्षिप्त श्लोकमे इससे अधिककी गुंजाइश ही नहीं है। 'मोक्षमार्गस्य नेतार' श्लोक वस्तुतः सर्वार्थसिद्धि का ही मंगल लोक है । यदि पूज्यपाद स्वयं भी इसे सूत्रकारकृत मानते होते तो उनके द्वारा उसका व्याख्यान सर्वार्थ सिद्धि में अवश्य किया जाता । और जब समन्तभद्रने इसी श्लोकके ऊपर अपनी आप्तमीमांसा बनाई है, जैसा कि विद्यानन्दका उल्लेख है, तो समन्तभद्र कमसे कम पूज्यपादके समकालीन तो सिद्ध होते ही हैं। पं० सुखलालजीका यह तर्क कि-'यदि समन्तभद्र पूज्यपादके प्राक्कालीन होते तो वे अपने इस युगप्रधान आचार्यकी आप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृतिका उल्लेख किए बिना नहीं रहते” हृदयको लगता है। यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाणोंसे किसी आचार्य के समयका स्वतन्त्र भावसे साधन बाधन नहीं होता फिर भी विचारको एक स्पष्ट कोटि तो उपस्थित हो ही जाती है। और जब विद्यानन्दके उल्लेखोंके प्रकाशमें इसका विचार करते हैं तब यह पर्याप्त पुष्ट मालम होता है। समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाके चौथे दमें वणित "विरूपकार्यारम्भाय" आदि कारिकाओंके पूर्वपक्षोंकी समीक्षा करनेसे ज्ञात होता है कि समन्तभद्र के सामने संभवतः दिग्नागके ग्रन्थ भी रहे है । बौद्धदर्शनकी इतनी स्पष्ट विचारधाराकी सम्भावना दिग्नागसे पहिले नहीं की जा सकती। हेतुबिन्दुके अर्चटकृत विवरणमें समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाकी "द्रव्यपर्याययोरक्यं तयोरव्यतिरेकतः" कारिकाके खंडन करनेवाले ३०-३५ श्लोक उद्धृत किए गए हैं। ये श्लोक दुर्वेकमिश्रकी हेतुबिन्दुटीकानुटीकाके लेखानुसार स्वयं अर्चटने ही बनाए हैं। अर्चटका समय ९वीं सदी है। कुमारिलके मीमांसाश्लोकवातिकमें समन्तभद्रकी “घटमौलिसूवर्णार्थी" कारिकासे समानता रखनेवाले निम्न श्लोक पाये जाते हैं "वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ।। हेमाथि नस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् ॥ स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता ॥" -मी० श्लो०, पृ० ६१९ कुमारिलका समय ईसाकी ७वीं सदी है। अतः समन्तभद्रकी उत्तरावधि सातवीं सदी मानी जा सकती है । पूर्वावधिका नियामक प्रमाण दिग्नागका समय होना चाहिए। इस तरह समन्तभद्रका समय ईसाकी ५वीं और सातवीं शताब्दीका मध्यभाग अधिक संभव है। यदि विद्यानन्दके उल्लेखमें ऐतिहासिक दृष्टि भी निविष्ट है तो समन्तभद्रकी स्थिति पूज्यपादके बाद या समसमयमें होनी चाहिए। पूज्यपादके जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत प्राचीनसूत्रपाठमें "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' सूत्र पाया जाता है । इस सूत्रमें यदि इन्हो समन्तभद्रका निर्देश है तो इसका निर्वाह समन्तभद्रको पूज्यपादका समकालीनवृद्ध मानकर भी किया जा सकता है। १. आ० विद्यानन्द अष्टसहस्रीके मंगलश्लोकमे भी लिखते है कि"शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितं कृतिरलक्रियते मयाऽस्य ॥ अर्थात-शास्त्र तत्त्वार्थशास्त्रके अवतार-अवतरणिका-भूमिकाके समय रची गई स्तुतिमें वर्णित आप्तकी मीमांसा करनेवाले आप्तमीमांसा नामक ग्रन्थका व्याख्यान किया जाता है । यहाँ 'शास्त्रावताररचितस्तुति' पद आप्तपरीक्षाके 'प्रोत्थानारम्भकाल' पदका समानार्थक है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १४९ पूज्यपाद और प्रभाचन्द्र-आ० देवनन्दिका अपर नाम पूज्यपाद था। ये विक्रमकी पांचवीं और छठी सदीके ख्यात आचार्य थे। आ० प्रभाचन्द्र ने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिपर 'तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण नामकी लघुवृत्ति लिखी है। इसके सिवाय इन्होंने जैनेन्द्रव्याकरणपर शब्दाम्भोजभास्कर नामका न्यास लिखा है । पूज्यपादकी संस्कृत सिद्ध भक्तिसे 'सिद्धि : स्वात्मोपलब्धिः' पद भी न्यायकुमुदचन्द्र में प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमदचन्द्रमें जहाँ कहीं भी व्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण देनेकी आवश्यकता हई है वहाँ प्रायः जैनेन्द्रव्याकरणके अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठसे ही सूत्र उद्धृत किए गए हैं। धनञ्जय और प्रभाचन्द्र-'संस्कृतसाहित्यका संक्षिप्त इतिहास' के लेखकद्वयने धनञ्जयका समय ई० १२वें शतकका मध्य निर्धारित किया है ( पृ० १७३ )। और अपने इस मतकी पुष्टिके लिए के० बी० पाठक महाशयका यह मत भो उद्धत किया है कि-"धनञ्जयने द्विसन्धानमहाकाव्यकी रचना ई० ११२३ और ११४० के मध्यमें की है।" डॉ० पाठक और उक्त इतिहासके लेखकद्वय अन्य कई जैन कवियोंके समय निर्धारणकी भाँति धनञ्जयके समयमें भी भ्रान्ति कर बैठे है । क्योंकि विचार करनेसे धनञ्जयका समय ईसाकी ८वीं सदीका अन्त और नवीका प्रारम्भिक भाग सिद्ध होता है-- १-जल्हण ( ई० द्वादशशतक) विरचित सूक्तिमक्तावलीमें राजशेखरके नामसे धनञ्जयकी प्रशंसामें निम्नलिखित पद्य उद्धृत है "द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनञ्जयः। यया जातं फलं तस्य स तां चक्रे धनञ्जयः ।।" इस पद्यमें राजशेखरने धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका मनोमुग्धकर सरणिसे निर्देश किया है। संस्कृत साहित्यके इतिहासके लेखकद्वय लिखते हैं कि-'यह राजशेखर प्रबन्धकोशका कर्ता जैन राजशेखर है। यह राजशेखर ई० १३४८ में विद्यमान था ।" आश्चर्य है कि १२वीं शताब्दीके विद्वान् जल्हणके द्वारा विरचित ग्रन्थमें उल्लिखित होनेवाले राजशेखरको लेखकद्वय १४वीं शताब्दीका जैन राजशेखर बताते हैं । यह तो मोटी बात है कि १२वीं शताब्दीके जल्हणने १४वीं शताब्दीके जैन राजशेखरका उल्लेख न करके १०वीं शताब्दीके प्रसिद्ध काव्यमीमांसाकार राजशेखरका ही उल्लेख किया है । इस उल्लेखसे धनञ्जयका समय ९वीं शताब्दीके अन्तिम भागके बाद तो किसी भी तरह नहीं जाता। ई० ९६० में विरचित सोमदेवके यशस्तिलक चम्पूमें राजशेखरका उल्लेख हानेसे इनका समय करोब ई० ९१० ठहरता है। २-वादिराजसूरि अपने पार्श्वनाथचरित (पृ० ४ ) में धनञ्जयकी प्रशंसा करते हुए लिखते हैं-- ___ "अनेकभेदसन्धानाः खनन्तो हृदये मुहुः । बाणा धनञ्जयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रियाः कथम् ।।" इस श्लिष्ट श्लोकमें 'अनेकभेदसन्धानाः' पदसे धनञ्जयके 'द्विसन्धानकाव्य' का उल्लेख बड़ी कुशलतासे किया गया है। वादिराजसूरिने पार्श्वनाथचरित ९४७ शक (ई. १०२५ ) में समाप्त किया था। अतः धनञ्जयका समय ई० १०वीं शताब्दीके बाद तो किसी भी तरह नहीं जा सकता। ३-आ० वीरसेनने अपनी धवलाटीका ( अमरावतीकी प्रति, पृ० ३८७ ) में धनञ्जयको अनेकार्थनाममालाका निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है१. देखो, अनेकान्त वर्ष १, पृ० १९७ । प्रेमीजी सूचित करते हैं कि इसकी प्रति बंबईके ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवनमें मौजूद है। २, देखो, धवलटीका प्रथम भागकी प्रस्तावना, पृ० ६२ । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ "हेतावेवं प्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भाव समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः ॥" आ० वीरसेनने धवलाटोकाकी समाप्ति शक ७३८ ( ई० ८१६ ) में की थी। श्रीमान् प्रेमीजीने बनारसीविलासकी उत्थानिकामें लिखा है कि "ध्वन्यालोकके कर्ता आनन्दवर्धन, हरचरित्रके कर्ता रत्नाकर और जल्हणने धनञ्जयकी स्तुति की है।" संस्कृत साहित्यके संक्षिप्त इतिहासमें आनन्दवर्धनका समय ई० ८४०-७०, एवं रत्नाकरका समय ई० ८५० तक निर्धारित किया है । अतः धनञ्जयका समय ८वीं शताब्दोका उत्तरभाग और नवीं शताब्दोका पूर्वभाग सुनिश्चित होता है । धनञ्जयने अपनी नाममालाके "प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ।।" इस श्लोकमें अकलङ्कदेवका नाम लिया है । अकलङ्कदेव ईसाको ८वीं सदीके आचार्य है अतः धनञ्जयका समय ८वीं सदीका उत्तरार्ध और नवीका पूर्वार्ध मानना सुसंगत है। आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ४०२) में धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका उल्लेख किया है। न्यायकुमुदचन्द्रमें इसी स्थलपर द्विसन्धानकी जगह त्रिसन्धान नाम लिया गया है। रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र-रविभद्रपादोपजीवि अनन्तवीर्याचार्यकी सिद्धिविनिश्चयटीका समुपलब्ध है । ये अकलङ्कके प्रकरणोंके तलद्रष्टा, विवेचयिता, व्याख्याता और मर्मज्ञ थे। प्रभाचन्द्र ने इनकी उक्तियोंसे ही दूरवगाह अकलङ्कवाङमयका सुष्ठ अभ्यास और विवेचन किया थ अनन्तवीर्य के प्रति अपनी कृतज्ञताका भाव न्यायकुमुदचन्द्र में एकाधिक बार प्रदर्शित करते हैं। इनकी सिद्धिविनिश्चयटीका अकलकवाङ्मयके टीकासाहित्यका शिरोरत्न है। उसमें सैकड़ों मतमतान्तरोंका उल्लेख करके उनका सविस्तर निरास किया गया है। इस टीकामें धर्मकीर्ति, अचंट धर्मोत्तर, प्रज्ञाकरगुप्त, आदि प्रसिद्ध प्रसिद्ध धर्मकीर्तिसाहित्यके व्याख्याकारों के मत उनके ग्रन्थोंके लम्बे-लम्बे अवतरण देकर उद्धत किए गए हैं। यह टीका प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंपर अपना विचित्र प्रभाव रखती है। शान्तिसूरिने अपनी जैनतर्कवातिकवृत्ति (१० ९८ ) में 'एके अनन्तवीर्यादयः' पदसे संभवतः इन्हीं अनन्तवीर्यके मतका उल्लेख किया है। विद्यानन्द और प्राचन्द्र-आ० विद्यानन्दका जैनताकिकों में अपना विशिष्ट स्थान है। इनकी श्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरोक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनटीका आदि तार्किककृतियां इनके अतुल तलस्पर्शी पाण्डित्य और सर्वतोमुख अव्ययनका पदे-पदे अनुभव कराती हैं। इन्होंने अपने किसी भी ग्रन्थमें अपना समय आदि नहीं दिया है। आ० प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकूमदचन्द्र दोनों ही प्रमुखग्रन्थोंपर विद्यानन्दकी कृतियोंकी सुनिश्चित अमिट छाप है । प्रभाचन्द्र को विद्यानन्दके ग्रन्थोंका अनूठा अभ्यास था । उनकी शब्दरचना भी विद्यानन्दकी शब्दभंगीसे पूरी तरह प्रभावित है। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथमपरिच्छेदके अन्तमें "विद्यानन्दसमन्तभद्रगणतो नित्यं मनोनन्दनम्" इस श्लोकांशमें श्लिष्टरूपसे विद्यानन्दका नाम लिया है। प्रमेयकमलमार्तण्डमें पत्रपरीक्षासे पत्रका लक्षण तथा अन्य एक श्लोक भी उद्धृत किया गया है। अतः विद्यानन्दके ग्रन्थ प्रभाचन्द्र के लिए उपजीव्य निर्विवादरूपसे सिद्ध हो जाते हैं । आ० विद्यानन्द अपने आप्तपरीक्षा आदि ग्रन्थोंमें 'सत्यवाक्यार्थसिद्धय' 'सत्यवाक्याधिपाः' विशेषणसे तत्कालीन राजाका नाम भी प्रकारान्तरसे सूचित करते हैं। बाबू कामताप्रसादजी (जैनसिद्धान्तभास्कर Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १५१ भाग ३, किरण ३, पृ० ८७ ) लिखते हैं कि - " बहुत गंभव है कि उन्होंने गंगवाड़ि प्रदेशमें बहुवास किया हो, क्योंकि गंगवाड़ि प्रदेशके राजा राजमल्लने भी गंगवंशमें होनेवाले राजाओंमें सर्वप्रथम 'सत्यवाक्य ' उपाधि या अपरनाम धारण किया था। उपर्युक्त श्लोकों में यह संभव है कि विद्यानन्दजीने अपने समय इस राजाके 'सत्यवाक्याधिप' नामको ध्वनित किया हो । युक्त्यनुशासनालंकारमें उपर्युक्त श्लोक प्रशस्ति रूप है और उसमें रचयिता द्वारा अपना नाम और समय सूचित होना ही चाहिए। समयके लिए तत्कालीन राजाका नाम ध्वनित करना पर्याप्त है । राजमल सत्यवाक्य विजयादित्यका लड़का था और वह सन् ८१६ के लगभग राज्याधिकारी हुआ था । उनका समय भी विद्यानन्दके अनुकूल है । युक्त्यनुशासनालङ्कारके अन्तिम श्लोक के "प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभिः श्रीसत्यवाक्याधिपः " इस अंश में सत्यवाक्याधिप और विजय दोनों शब्द हैं, जिनसे गंगराज सत्यवाक्य और उसके पिता विजयादित्यका नाम ध्वनित होता है ।" इस अवतरण से यह सुनिश्चित जाता है कि विद्यानन्दने अपनी कृतियाँ राजमल सत्यवाक्य ( ८१६ ई० ) के राज्यकालमें बनाई हैं । आ० विद्यानन्दने सर्वप्रथम अपना तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ग्रन्थ बनाया है, तदुपरान्त अष्टसहस्री और विद्यानन्दमहोदय, इसके अनन्तर आपने आप्तपरीक्षा आदि परीक्षान्तनामवाले लघु प्रकरण तथा युक्त्यनुशासन टीका; क्योंकि अष्टसहस्रीमें तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका तथा आप्तपरीक्षा आदिमें अष्टसहस्री और विद्यानन्दमहोदयका उल्लेख पाया जाता है । विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्रीमें, जो उनकी आद्य रचनाएँ हैं, 'सत्यवाक्य' नाम नहीं लिया है, पर आप्तपरीक्षा आदिमें 'सत्यवाक्य' नाम लिया है । अतः मालूम होता है कि विद्यानन्द श्लोकवार्तिक और अष्टसहस्रीको सत्यवाक्यके राज्यसिंहासनासीन होने के पहिले ही बना चुके होंगे । विद्यानन्दके ग्रन्थोंमें मंडनमिश्र के मतका खंडन है और अष्टसहस्रीमें सुरेश्वर के सम्बन्धवार्तिक ३।४ कारिकाएँ भी उद्धृत की गई हैं। मंडनमिश्र और सुरेश्वरका समय ईसाकी ८वीं शताब्दीका पूर्वभाग माना जाता है । अतः विद्यानन्दका समय ईसाकी ८वीं शताब्दीका उत्तरार्ध और नवींका पूर्वार्ध मानना सयुक्तिक मालूम होता है । प्रभाचन्द्र के सामने इनकी समस्त रचनाएँ रही हैं । तत्त्वोपप्लववादका खंडन तो विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीमें ही विस्तारसे मिलता है, जिसे प्रभाचन्द्रने अपने ग्रन्थों में स्थान दिया है । इसी तरह अष्टसहस्त्री और श्लोकवार्तिकमें पाई जानेवाली भावना विधि नियोगके विचारकी दुरवगाह चर्चा प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र में प्रसन्तरूपसे अवतीर्ण हुई है । आ० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( पृ० २०६ ) में न्यायदर्शन के 'पूर्ववत्' आदि अनुमानसूत्रका निरास करते समय केवल भाष्यकार और वार्तिककारका ही मत पूर्वपक्ष रूप से उपस्थित किया है । वे न्यायवार्तिकतात्पर्यटीकाकारके अभिप्रायको अपने पूर्वपक्ष में शामिल नहीं करते । वाचस्पतिमिश्र ने तात्पर्यटीका ई० ८४१ के लगभग बनाई थी। इससे भी विद्यानन्दके उक्त समयकी पुष्टि होती है । यदि विद्यानन्दका ग्रन्थरचनाकाल ई० ८४१ के बाद होता तो वे तात्पर्यटीका उल्लेख किये बिना न रहते । अनन्तकीर्ति और प्रभानन्द्र - लघीयस्त्रयादि संग्रहमें अनन्तकीर्तिकृत लघुसर्वज्ञसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण मुद्रित हैं । लघीयस्त्रयादिसंग्रहकी प्रस्तावना में पं० नाथूरामजी प्रेमीने इन अनन्तकीर्तिके समयकी उत्तरावधि विक्रम संवत् १०८२ के पहिले निर्धारित की है, और इस समय के समर्थन में वादिराज के पार्श्वनाथचरितका यह श्लोक उद्धृत किया है— "आत्मनैवाद्वितीयेन जीवसिद्धि निबध्नता । अनन्तकीर्तिना मुक्ति रात्रिमार्गेव लक्ष्यते ॥” वादिराजने पार्श्वनाथचरितकी रचना विक्रम संवत् १०८२ में को थी । संभव तो यह है कि इन्हीं Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ अनन्तकीर्तिने जीवसिद्धिकी तरह लघुसर्वज्ञसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ग्रन्थ बनाये हों । सिद्धि विनिश्चयटीकामें अनन्तवीर्यने भी एक अनन्तकीर्तिका उल्लेख किया है । यदि पार्श्वनाथचरितमें स्मृत अनन्तकीर्ति और सिद्धिविनिश्चयटीकामें उल्लिखित अनन्तकीर्ति एक ही व्यक्ति हैं तो मानना होगा कि इनका समय प्रभाचन्द्रके समय से पहिले है; क्योंकि प्रभाचन्द्रने अपने ग्रन्थों में सिद्धिविनिश्चयटीकाकार अनन्तवीर्य का सबहुमान स्मरण किया है । अस्तु । अनन्तकीर्तिके लघुसर्वज्ञसिद्धि तथा बृहत्सर्वज्ञ सिद्धि ग्रन्थोंका और प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रके सर्वज्ञसिद्धि प्रकरणोंका आभ्यन्तर परीक्षण यह स्पष्ट बताता है कि इन ग्रन्थोंमें एकका दूसरेके ऊपर पूरा-पूरा प्रभाव है । बृहत्सर्वज्ञ सिद्धि - ( पृ० १८१ से २०४ तक ) के अन्तिम पृष्ठ तो कुछ थोड़ेसे हेरफेरसे न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८३८ से ८४७ ) के मुक्तिवाद प्रकरणके साथ अपूर्व सादृश्य रखते हैं । इन्हें पढ़कर कोई भी साधारण व्यक्ति कह सकता है कि इन दोनोंमेंसे किसी एकने दूसरेका पुस्तक सामने रखकर अनुसरण किया है । मेरा तो यह विश्वास है कि अनन्तकीर्तिकृत बृहत् सर्वज्ञसिद्धिका ही न्यायकुमुदचन्द्रपर प्रभाव है । उदाहरणार्थ किन्तु अज्ञो जनः दुःखाननुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् सांसारिकेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते । हिताहित विवेकज्ञस्तु तादात्विक सुखसाधनं स्त्र्यादिकं परित्यज्य आत्मस्नेहात् आत्यन्तिकसुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्तते । यथा पथ्यापथ्यविवेकमजानन्नातुरः तादात्विकसुखसाधनं व्याधिविवृद्धिनिमित्तं दध्यादिकमुपादत्ते, पथ्यापथ्यविवेकज्ञस्तु तत्परित्यज्य पेयादा आरोग्यसाधने प्रवर्तते । उक्तञ्च - तदात्व सुखसंज्ञेषु भावेध्वज्ञोऽनुरज्यते । हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परीक्षकाः ॥ - न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८४२ । " किन्त्वतज्ज्ञो जनो दुःखाननुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् संसारान्तः पतितेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते । हिताहितविवेकज्ञस्तु तादात्विक सुखसाधनं स्त्र्यादिकं परित्यज्य आत्मस्नेहादात्यन्तिक सुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्तते । यथा पथ्यापथ्यविवेकम जानन्नातुरः तादात्विकसुखसाधनं व्याधिविवृद्धिनिमित्तं दध्यादिकमुपादत्ते, पथ्यापथ्यविवेकज्ञस्तु आतुरस्तादात्विक सुखसाधनं दध्यादिकं परित्यज्य पेयादावारोग्यसाधने प्रवर्तते । तथा च कस्यचिद्विदुषः सुभाषितम्- तदात्व सुखसंज्ञेषु भावेष्वज्ञोऽनुरज्यते । हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परी - क्षकाः ॥ " - बृहत्सर्वज्ञसिद्धि, पृ० १८१ । इस तरह यह समूचा ही प्रकरण इसी प्रकारके शब्दानुसरणसे ओतप्रोत है । शाकटायन और प्रभाचन्द्र - राष्ट्रकूट वंशीय राजा अमोघवर्षके राज्यकाल ( ईस्वी ८१४-८७७ ) में शाकटायन नामके प्रसिद्ध वैयाकरण हो गए हैं। ये 'यापनीय संघ के आचार्य थे । यापनीयसंघका बाह्य आचार बहुत कुछ दिगम्बरोंसे मिलता जुलता था । ये नग्न रहते थे । श्वेताम्बर आगमोंको आदरकी दृष्टिसे देखते थे । आ० शाकटायनने अमोघवर्षके नामसे अपने शाकटायनव्याकरणपर 'अमोघवृत्ति' नामकी टीका बनाई थी । अतः इनका समय भी लगभग ई० ८०० से ८७५ तक समझना चाहिए । यापनीयसंघ के अनुयायी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंकी कुछ-कुछ बातोंको स्वीकार करते थे । एक तरहसे यह संघ दोनों सम्प्रदायोंके जोड़ने के लिए श्रृंखलाका कार्य करता था । आचार्य मलयगिरिने अपनी नन्दी सूत्रकी टीका ( पृ० १५ ) में शकटायनको 'यापनीययतिग्रामाग्रणी' लिखा है - "शाकटायनोऽपि यापनीययतिग्रामाग्रणीः स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ” । शाकटायन आचार्य ने अपनी अमोघवृत्तिमें छेदसूत्र नियुक्ति कालिकसूत्र आदि श्वे० ग्रन्थोंका १. देखो - पं० नाथूरामप्रेमीका 'यापनीय साहित्यकी खोज' ( अनेकान्त वर्ष ३, किरण १ ) तथा प्रो० ए० एन्० उपाध्यायका 'यापनीयसंघ' ( जैनदर्शन वर्ष ४, अंक ७ लेख | Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १५३ बड़े आदरसे उल्लेख किया है । आचार्य शाकटायनते केवलिकवलाहार तथा स्त्रीमुक्ति के समर्थन के लिए स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति नामके दो प्रकरण बनाए हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके परस्पर बिलगाव में ये दोनों सिद्धान्त ही मुख्य माने जाते हैं। यों तो दिगम्बर ग्रन्थों में कुन्दकुन्दाचार्य, पूज्यपाद आदिके ग्रन्थोंमें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिका सूत्ररूपसे निरसन किया गया है, परन्तु इन्हीं विषयोंके पूर्वोत्तरपक्ष स्थापित करके शास्त्रार्थका रूप आ० प्रभाचन्द्रने हो अपने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र में दिया है । श्वेताम्बरों के तर्कसाहित्य में हम सर्वप्रथम हरिभद्रसूरिकी ललितविस्तरामें स्त्रीमुक्तिका संक्षिप्त समर्थन देखते हैं, परन्तु इन विषयोंको शास्त्रार्थका रूप सन्मतिटीकाकार अभयदेव, उत्तराध्ययन पाइयटीकाके रचयिता शान्तिसूरि तथा स्याद्वादरत्नाकरकार वादिदेवसूरिने ही दिया है। पीछे तो यशोविजय उपाध्याय तथा मेघविजयगणि आदिने पर्याप्त साम्प्रदायिक रूपसे इनका विस्तार किया है। इन विवादग्रस्त विषयोंपर लिखे गए उभयपक्षीय साहित्यका ऐतिहासिक तथा तात्त्विक दृष्टिसे सूक्ष्म अध्ययन करनेपर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता कि स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति विषयोंके समर्थनका प्रारम्भ श्वेताम्बर आचार्योकी अपेक्षा यापनीयसंघवालोंने ही पहिले तथा दिलचस्पी के साथ किया है । इन विषयोंको शास्त्रार्थका रूप देनेवाले प्रभाचन्द्र, अभयदेव तथा शान्तिसूरि करीब-करीब समकालीन तथा समदेशीय थे । परन्तु इन आचार्योंने अपने पक्ष के समर्थन में एक दूसरेका उल्लेख या एक दूसरेकी दलीलोंका साक्षात् खंडन नहीं किया । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिका जो विस्तृत पूर्वपक्ष लिखा गया है वह किसी श्वेताम्बर आचार्य के ग्रन्थका न होकर यापनीयाग्रणी शाकटायनके केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंसे ही लिया गया है। इन ग्रन्थोंके उत्त रपक्षमें शाकटायनके उक्त दोनों प्रकरणों की एक-एक दलीलका शब्दशः पूर्वपक्ष करके सयुक्तिक निरास किया गया है। इसी तरह अभयदेवको सन्मतितर्कटीका और शान्तिसूरिको उत्तराध्ययन पाइयटीका और जैनतर्कवार्तिक में शाकटायन के इन्हीं प्रकरणों के आधारसे ही उक्त बातोंका समर्थन किया गया है । हाँ, वादिदेवसूरि रत्नाकरमें इन मतभेदोंमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सामने- सामने आते हैं । रत्नाकरमें प्रभाचन्द्रकी दलीलें पूर्वपक्ष रूपमें पाई जाती हैं । तात्पर्य यह कि - प्रभाचन्द्रने स्त्रीमुक्तिवाद तथा केवलिकवलाहारवाद में श्वेताम्बर आचार्योंकी बजाय शाकटायन के केवलिक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंको ही अपने खंडनका प्रधान लक्ष्य बनाया है। न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८६९ ) के पूर्वपक्ष में शाकटायन के स्त्रीमुक्ति प्रकरणकी यह कारिका भी प्रमाण रूपसे उद्धृत की गई है— "गार्हस्थ्येऽपि सुमत्त्वा विख्याताः शीलवत्तया जगति । सीतादयः कथं तास्तपसि विशोला विसत्त्वाश्च ॥ स्त्रीमु० श्लो० ३१ अभयनन्दि और प्रभाचन्द्र -- जैनेन्द्रव्याकरणपर आ० अभयनन्दिकृत महावृत्ति उपलब्ध है । इसी महावृत्ति आधारसे प्रभाचन्द्र ने 'शब्दाम्भोजभास्कर" नामका जैनेन्द्रव्याकरणका महान्यास बनाया है । पं० नाथूरामजी प्रेमोने अपने 'जैनेन्द्रव्याकरण और आचार्य देवनन्दी' नामक लेखमें जैनेन्द्रव्याकरणके प्रचलित दो सूत्र पाठोंमेंसे अभयन न्दिसम्मत सूत्रपाठको ही प्राचीन और पूज्यपादकृत सिद्ध किया है। इसी पुरातनसूत्रपाठ - पर प्रभाचन्द्र ने अपना न्यास बनाया है । प्रेमीजीने अपने उक्त गवेषणापूर्ण लेखमें महावृत्तिकार अभयनन्दिको चन्द्र प्रभचरित्रकार वीरनन्दिका गुरु बताया है और उनका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीका पूर्वभाग १. ये प्रकरण जैनसाहित्यसंशोधक खंड २, अंक ३-४ में मुद्रित हुए हैं । २. इसका परिचय 'प्रभाचन्द्र के ग्रंथ' शीर्षक स्तम्भमें देखना चाहिए ! ३. जैन साहित्यसंशोधक भाग १, अंक २ ४-२० Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ निर्धारित किया है । आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु भी यही अभयनन्दि थे। गोम्मटसार कर्मकाण्ड ( गा० ४३६ ) की निम्नलिखित गाथासे भी यही बात पुष्ट होती है "जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो। वीरिंदवदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं ।।" इस गाथासे तथा कर्मकाण्डकी गाथा नं० ७८४, ८९६ तथा लब्धिसार गाथा ६४८से यह सुनिश्चित हो जाता है कि वीरनन्दिके गुरु अभयनन्दि ही नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गुरु थे। आ० नेमिचन्द्रने तो वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और इन्द्रनन्दिके शिष्य कनकनन्दि तकका गुरुरूपसे स्मरण किया है। इन सब उल्लेखोंसे ज्ञात होता है कि अभयनन्दि, उनके शिष्य वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि, तथा इन्द्रनन्दिके शिष्य कनकनन्दि सभी प्रायः नेमिचन्द्र के समकालीन वृद्ध थे। वादिराजसूरिने अपने पार्श्वचरितमें चन्द्रप्रभचरित्रकार वीरनन्दिका स्मरण किया है । पार्श्वचरित शकसंवत् ९४७, ई० १०२५ में पूर्ण हुआ था । अतः वीरनन्दिकी उत्तरावधि ई० १०२५ तो सुनिश्चित है । नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने गोम्मटसार ग्रन्थ चामण्डरायके सम्बोधनार्थ बनाया था। चामण्डराय गंगवंशीय रसिंह द्वितीय (९७५ ई०) तथा उनके उत्तराधिकारी राजमल्ल द्वितीयके मन्त्री थे । चामुण्डरायने श्रवणवेल्गलस्थ बाहवलि गोम्मटेश्वरकी मतिकी प्रतिष्ठा ई० ९८१ में कराई थी, तथा अपना चामण्डपराण ई० ९७८ में समाप्त किया था । अतः आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका समय ई० ९८० के आसपास सुनिश्चित किया जा सकता है । और लगभग यही समय आचार्य अभयनन्दि आदिका होना चाहिए । इन्होंने अपनी महावृत्ति (लिखित पृ० २२१ ) में भर्तृहरि ( ई० ६५० ) की वाक्यपदीयका उल्लेख किया है । पृ० ३९३ में माघ ( ई० ७वीं सदी) काव्यसे 'सटाच्छटाभिन्न' श्लोक उद्धृत किया है तथा ३।२।५५ की वृत्तिमें 'तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते' प्रयोगसे अकलंकदेव (ई० ८वीं सदी) के तत्त्वार्थराजवार्तिकका उल्लेख किया है । अतः इनका समय ९वीं शताब्दीसे पहिले तो नहीं ही है । यदि यही अभयनन्दि जैनेन्द्र महावृत्तिके रचयिता हैं तो कहना होगा कि उन्होंने ई० ९६० के लगभग अपनी महावृत्ति बनाई होगी । इसी महावृत्तिपर ई० १०६० के लगभग आ० प्रभाचन्द्रने अपना शब्दाम्भोजभास्कर न्यास बनाया है। क्योंकि इसकी रचना न्यायकुमुदचन्द्रके बाद की गई है और न्यायकुमुदचन्द्र जयसिंहदेव (राज्य १०५६ से) के राज्यके प्रारम्भकालमें बनाया गया है । मुलाचारकार और प्रभाचन्द्र-मलाचार ग्रन्थके कर्ताके विषयमें विद्वान् मतभेद रखते हैं । कोई उसे कुन्दकुन्दकृत कहते हैं तो कोई वट्टके रिकृत । जो हो, पर इतना निश्चित है कि मलाचारकी सभी गाथाएँ स्वयं उसके कर्त्ताने नहीं रची हैं। उसमें अनेकों ऐसी प्राचीन गाथाएँ है, जो कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें, भगवती आराधनामें तथा आवश्यकनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति और सम्मतितर्क आदिमें भी पाई जाती हैं। संभव है कि गोम्मटसारकी तरह यह भी एक संग्रह ग्रन्थ हो। ऐसे संग्रहग्रन्थोंमें प्राचीन गाथाओंके साथ कुछ संग्रहकार रचित गाथाएँ भी होती हैं। गोम्मटसारमें बहभाग स्वरचित है जबकि मलाचारमें स्वरचित गाथाओंका बहुभाग नहीं मालूम होता । आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८४५ ) में “एगो मे सस्सदो" "संजोगमूलं जीवेन" ये दो गाथाएँ उद्धृत की हैं। ये गाथाएँ मलाचारमें ( २।४८, ४९) दर्ज हैं। इनमें पहिली गाथा कुन्दकुन्दके भावपाहुड तथा नियमसारमें भी पाई जाती है। इसी तरह प्रमेयकमलमात्तंण्ड (पृ० ३३१ ) में "आचेलक्कुद्देसिय" आदि गाथांश दशविध स्थितिकल्पका निर्देश करनेके लिए उद्धृत है । यह गाथा मला१. देखो, त्रिलोकसारकी प्रस्तावना । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १५५ चार (गाथा नं० ९०९) में तथा भगवतीआराधनामें ( गाथा ४२१) विद्यमान है। यहाँ यह बात खास ध्यान देने योग्य है कि प्रभाचन्द्रने इस गाथाको श्वेताम्बर आगममें आचेलक्यके समर्थनका प्रमाण बतानेके लिए श्वेताम्बर आगमके रूपमें उद्धृत किया है । यह गाथा जीतकल्पभाष्य (गा० १९७२ ) में पाई जाती है । गाथाओंकी इस संक्रान्त स्थितिको देखते हुए यह सहज ही कहा जा सकता है कि कुछ प्राचीन गाथाएँ परम्परासे चली आई है, जिन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों आचार्योंने अपने ग्रन्थोंमें स्थान दिया है। नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती और प्रभाचन्द्र आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती वीरसेनापति श्री चामुण्डरायके समकालीन थे। चामुण्डराय गंगवंशीय महाराज मारसिंह द्वितीय (९७५ ई० ) तथा उनके उत्तराधिकारी राजमल्ल द्वितीयके मन्त्री थे। इन्हींके राज्यकालमें चामुण्डरायने गोम्मटेश्वरको प्रतिष्ठा ( सन् ९८१ ) कराई थी। आ० नेमिचन्द्रने इन्हीं चामुण्डरायको सिद्धान्त परिज्ञान करानेके लिए गोम्मटसार ग्रन्थ बनाया था। यह ग्रन्थ प्राचीन सिद्धान्तग्रन्थोंका संक्षिप्त संस्करण है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० २५४ ) में 'लोयायासपएसे' गाथा उद्धृत है । यह गाथा जीवकांड तथा द्रव्यसंग्रहमें पाई जाती है। अतः आपाततः यही निष्कर्ष निकल सकता है कि यह गाथा प्रभाचन्द्रने जीवकांड या द्रव्यसंग्रहसे उद्धृत की होगी; परन्तु अन्वेषण करनेपर मालम हुआ कि यह गाथा बहुत प्राचीन है और सर्वार्थसिद्धि (५।३९ ) तथा श्लोकवार्तिक (पृ० ३९९ ) में भी यह उद्धृत की गई है। इसी तरह प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ३०० ) में 'विग्गहगइमावण्णा' गाथा उद्धृत की गई है । यह गाथा भी जीवकांडमें है। परन्तु यह गाथा भी वस्तुतः प्राचीन है और धवलाटीका तथा उमास्वातिकृत श्रावकप्रज्ञप्तिमें मौजूद है। प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र-रविभद्रके शिष्य अनन्तवीर्य आचार्य, अकलंकके प्रकरणों के ख्यात टीकाकार विद्वान् थे। प्रमेयरत्नमालाके टीकाकार अनन्तवीर्य उनसे पृथक् व्यक्ति हैं; क्योंकि प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र में प्रथम अनन्तवीर्यका स्मरण किया है, और द्वितीय अनन्तवीर्य अपनी प्रमेयरत्नमालामें इन्हीं प्रभाचन्द्रका स्मरण करते हैं । वे लिखते हैं कि प्रभाचन्द्रके वचनोंको ही संक्षिप्त करके यह प्रमेयरत्नमाला बनाई जा रही है। प्रो० ए० एन० उपाध्यायने प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यके समयका अनुमान ग्यारहवीं सदी किया है, जो उपयुक्त है । क्योंकि आ० हेमचन्द्र (१०८८-११७३ ई०) की प्रमाणमीमांसापर शब्द और अर्थ दोनों दृष्टिसे प्रमेयरत्नमालाका पूरा-पूरा प्रभाव है। तथा प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका प्रभाव प्रमेयरत्नमालापर है । आ० हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसाने प्रायः प्रमेयरत्नमालाके द्वारा ही प्रमेयकमलमार्तण्डको पाया है। दवसेन और प्रभाचन्द्र- देवसेन श्रीविमलसेन गणीके शिष्य थे । इन्होंने धारानगरीके पार्श्वनाथ मन्दिरमें माघ सुदी दशमी विक्रमसंवत् ९९० ( ई० ९३३ ) में अपना दर्शनसार ग्रन्थ बनाया था। दर्शन१. प्रमेयकमलमात्तंण्डके प्रथम संस्करणके संपादक पं० बंशीधरजी शास्त्री, सोलापुरने प्रमेयक० को प्रस्ता वनामें यही निष्कर्ष निकाला भी है। २. "प्रभेन्दवचनोदारचन्द्रिकाप्रसरे सति । मादृशाः क्व न गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः ॥ तथापि तद्वचोऽपूर्वरचनारुचिरं सताम् । चेतोहरं भृतं यद्वन्नद्या नवघटे जलम् ॥" ३. देखो, जैनदर्शन वर्ष ४, अंक ९। ४. नयचक्रकी प्रस्तावना, पृ० ११ । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ सारके बाद इन्होंने भावसंग्रह ग्रंथ की रचना की थी; क्योंकि उसमें दर्शनसारकी अनेकों गाथाएँ उद्धृत मिलती हैं। इनके आराधनासार, तत्त्वसार, नयचक्रसंग्रह तथा आलापपद्धति ग्रन्थ भी हैं । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० ३०० ) तथा न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८५६ ) के कवलाहारवाद में देवसेन के भाव संग्रह ( गा० ११० ) की यह गाथा उद्धृत की है “णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो । ओज मणोवि य कमसो आहारो छव्विहो यो ।” यद्यपि देवसेनसूरिने दर्शनसार ग्रन्थके अन्तमें लिखा है "पुव्वायरियकयाई गाहाई संचिऊण एयत्थ । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ रइयो दंसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवए । सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धं माहसुद्धदसमोए ॥ " अर्थात् पूर्वाचार्यकृत गाथाओं का संचय करके यह दर्शनसार ग्रन्थ बनाया गया है। तथापि बहुत खोज करनेपर भी यह गाथा किसी प्राचीन ग्रंथ में नहीं मिल सकी है। देवसेन धारानगरीमें ही रहते थे, अतः धारानिवासी प्रभाचन्द्रके द्वारा भावसंग्रहसे भी उक्त गाथाका उद्धृत किया जाना असंभव नहीं है । चूँकि दर्शनसारके बाद भावसंग्रह बनाया गया है, अतः इसका रचनाकाल संभवतः विक्रम संवत् ९९७ ( ई० ९४०) के आसपास ही होगा । श्रुतकीर्ति और प्रभाचन्द्र -- जैनेन्द्रके प्राचीन सूत्रपाठपर आचार्य श्रुतकीर्तिकृत पंचवस्तुप्रक्रिया उपलब्ध है।" श्रुतकीर्तिने अपनी प्रक्रियाके अन्तमें श्रीमद्वृत्तिशब्दसे अभयनन्दिकृत महावृत्ति और न्यासशब्द से संभवतः प्रभाचन्द्रकृत न्यास, दोनोंका ही उल्लेख किया है । यदि न्यासशब्द पूज्यपाद के जैनेन्द्र न्यासका निर्देशक हो तो 'टीकामाल' शब्दसे तो प्रभाचन्द्रकी टीकाका उल्लेख किया ही गया है । यथा " सूत्रस्तम्भसमुद्धृतं प्रविलसन्न्यासोरुरत्नक्षिति, श्रीमद्वृत्तिकपाटसंपुटयुतं भाष्यौघशय्यातलम् । टीकमाल महारुरुक्षुरचितं जैनेन्द्रशब्दागमम्, प्रासादं पृथुपञ्च वस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् ॥” कनडी भाषाके चन्द्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविने श्रुतकीर्तिको अपना गुरु बताया है " इति परमपुरुनाथ कुलभूभृत्समुद्भूतप्रवचनसरित्स रिन्नाथश्रुतकीर्तित्रैविद्यचक्रवर्तिपदपद्मनिधानदीपवति श्रीमदग्गलदेव विरचिते चन्द्रप्रभचरिते" । यह चरित्र शक संवत् १०११, ई० १०८९ में बनकर समाप्त हुआ था | अतः श्रुतकीर्तिका समय लगभग १०८० ई० मानना युक्तिसंगत है । इन श्रुतकीर्तिने न्यासको जैनेन्द्र व्याकरण रूपी प्रासादकी रत्नभूमि की उपमा दी है। इससे शब्दाम्भोजभास्करका रचना समय लगभग ई० १०६० समर्थित होता है । श्वे० आगमसाहित्य और प्रभाचन्द्र - भ० महावीरकी अर्धमागधी दिव्यध्वनिको गणधरोंने द्वादशांगी रूपमें गूंथा था । उस समय उन अर्धमागधी भाषामय द्वादशांग आगमोंकी परम्परा श्रुत और स्मृत रूपमें रही, लिपिबद्ध नहीं थी । इन आगमोंका आखरी संकलन वीर सं० ९८० ( वि० ५१० ) में श्वेता१. देखो, प्रेमीजीका 'जैनेन्द्रव्याकरण और आचार्यदेवनन्दी' लेख जैनसा० सं० भाग १, अंक २ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १५७ म्बराचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमणने किया था । अंगग्रंथोंके सिवाय कुछ अंगबाह्य या अनंगात्मक श्रुत भी हैं । छेदसूत्र अनंगश्रुतमें शामिल है। आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८६८ ) के स्त्रीमुक्तिवादके पूर्वपक्ष में कल्पसूत्र ( ५।२० ) से "नो कप्पइ णिग्गंथीए अचेलाए होत्तए" यह सूत्रवाक्य उद्धृत किया है। तत्त्वार्थ भाष्यकार और प्रभाचन्द्र - तत्त्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ प्रचलित हैं। एक तो वह, जिसपर स्वयं वाचक उमास्वातिका स्वोपज्ञभाष्य प्रसिद्ध हैं, और दूसरा वह जिसपर पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि है । दिगम्बर परम्परामें पूज्यपादसम्मत सूत्रपाठ और श्वेताम्बरपरम्परामें भाष्यसम्मत सूत्रपाठ प्रचलित है । उमास्वातिके स्वोपज्ञभाष्यके कर्तृत्व के विषयमें आजकल विवाद चल रहा । मुख्तारसा० आदि कुछ विद्वान् भाष्यकी उमास्वातिकर्तृकताके विषयमें सन्दिग्ध हैं । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें दिगम्बर सूत्रपाठसे ही सूत्र उद्धृत किए हैं। उन्होंने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८५९ ) के स्त्रीमुक्तिवादके पूर्वपक्ष में तत्त्वार्थ भाष्यको सम्बन्धकारिकाओं में से "श्रूयन्ते चानन्ताः सामायिक मात्र संसिद्धाः" कारिकांश उद्धृत किया है । तत्त्वार्थ राजवार्तिक ( पृ० १० ) में भी " अनंता: सामायिकमात्र सिद्धाः " वाक्य उद्धृत मिलता है । इसी तरह तत्त्वार्थभाष्य के अन्त में पाई जानेवाली ३२ कारिकाएँ राजवार्तिकके अन्त में 'उक्तञ्च' लिखकर उद्धत है । पृ० ३६ में भाष्यकी 'दग्धे बीजे' कारिका उद्धृत की गई है । इत्यादि प्रमाणों के आधारसे यह निःसङ्कोच कहा जा सकता है कि प्रस्तुत भाष्य अकलङ्कदेव के सामने भी था । उनने इसके कुछ मन्तव्योंकी समीक्षा भी की है। सिद्धसेन और प्रभाचन्द्र - आ० सिद्धसेन के सन्मतितर्क, न्यायावतार, द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशतिका ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इनके सन्मतितर्कपर अभयदेवसूरिने विस्तृत व्याख्या लिखी है । डॉ० जैकोबी न्यायावतारके प्रत्यक्ष लक्षण में अभ्रान्त पद देखकर इनको धर्मकीर्तिका समकालीन, अर्थात् ईसाकी ७वीं शताब्दीका विद्वान् मानते हैं । पं० सुखलाल जी इन्हें विक्रमकी पाँचवीं सदीका विद्वान् सिद्ध करते थे । पर अब उनका विश्वास है कि "सिद्धसेन ईसाकी छठीं या सातवीं सदीमें हुए हों और उन्होंने संभवतः धर्मकीर्तिके ग्रन्थों को देखा हो ।" न्यायावतारकी रचनायें न्यायप्रवेशके साथ ही साथ न्यायबिन्दु भी अपना यत्किञ्चित् स्थान रखता ही । आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ४३७ ) में पक्षप्रयोगका समर्थन करते समय 'धानुष्क' दृष्टान्त दिया है । इसकी तुलना न्यायावतारके श्लोक १४-१६ से भलीभाँति की जा सकती हैं । न केवल मूलश्लोक से ही, किन्तु इन श्लोकोंकी सिद्धर्षिकृत व्याख्या भी न्यायकुमुदचन्द्र की शब्दरचनासे तुलनीय है । धर्मदासगण और प्रभाचन्द्र - श्वे० आचार्य धर्मदासगणिका उपदेशमाला ग्रन्थ प्राकृतगाथा निबद्ध है । प्रसिद्धि तो यह रही कि ये महावीरस्वामीके दीक्षित शिष्य थे । पर यह इतिहासविरुद्ध है; क्योंकि इन्होंने अपनी उपदेशमाला में वज्रसूरि आदिके नाम लिए हैं । अस्तु । उपदेशमालापर सिद्धर्षिसूरिकृत प्राचीन टीका उपलब्ध है । 3 सिद्धर्षिने उपमितिभवप्रपञ्चाकथा वि० सं० ९६२ ज्येष्ठ शुद्ध पंचमीके दिन समाप्त की थी । अतः धर्मदासगणिकी उत्तरावधि विक्रमकी ९वीं शताब्दी माननेमें कोई बाधा नहीं है । प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० ३३० ) में उपदेशमाला ( गा० १५ ) की वरिससय दिक्खयाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू' इत्यादि गाथा प्रमाणरूपसे उद्धृत की है । हरिभद्र और प्रभाचन्द्र - आ० हरिभद्र श्वे० सम्प्रदायके युगप्रधान आचार्योंमेंसे हैं । कहा जाता १. देखो, गुजराती सन्मतितर्क, पृ० ४० । २. इंग्लिश सन्मतितर्ककी प्रस्तावना । ३. जैन साहित्यनो इतिहास, पृ० १८६ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ है कि इन्होंने १४०० के करीब ग्रन्थोंकी रचना की थी। मुनि श्री जिनविजयजीने अनेक प्रबल प्रमाणोंसे इनका समय ई० ७०० से ७७० तक निर्धारित किया है। मेरा इसमें इतना संशोधन है-कि इनके समयकी उत्तरावधि ई० ८१० तक होनी चाहिए; क्योंकि जयन्त भट्टकी न्यायमंजरीका 'गम्भीरगजितारम्भ' श्लोक षड्दर्शनसमुच्चयमें शामिल हुआ है। मैं विस्तारसे लिख चुका हूँ कि जयन्तने अपनी मंजरी ई० ८०० के करीब बनाई है अतः हरिभद्रके समयकी उत्तरावधि कुछ और लम्बानी चाहिए। उस युगमें १०० वर्षकी आयु तो साधारणतया अनेक आचार्योंकी देखी गई है। हरिभद्रसूरिके दार्शनिक ग्रन्थों में 'षड्दर्शनसमुच्चय' एक विशिष्ट स्थान रखता है । इसका "प्रत्यक्षमनुमानञ्च शब्दश्चोपमया सह। अर्थापत्तिरभावश्च षट् प्रमाणानि जैमिनेः ।। ७३ ।।" यह श्लोक न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ५०५ ) में उद्धृत है । यद्यपि इसी भावका एक श्लोक-''प्रत्यक्षमनुमानश्च शाब्दञ्चोपमया सह । अर्थापत्तिरभावश्च षडेते साध्यसाधकाः ॥” इस शब्दावलीके साथ कमलशीलकी तत्त्वसंग्रहपञ्जिका (१० ४५० ) में मिलता है और उससे संभावना की जा सकती है कि जैमिनिकी षटप्रमाणसंख्याका निदर्शक यह श्लोक किसी जैमिनिमतानुयायी आचार्यके ग्रन्थसे लिया गया होगा। यह संभावना हृदयको लगती भी है। परन्तु जबतक इसका प्रसाधक कोई समर्थ प्रमाण नही मिलता तबतक उसे हरिभद्रकृत मानने में ही लाघव है। और बहुत कुछ संभव है कि प्रभाचन्द्र ने इसे षड्दर्शनसमुच्चयसे ही उद्धत किया हो । हरिभद्र ने अपने ग्रन्थोंमें पूर्वपक्षके पल्लवन और उत्तरपक्षके पोषणके लिए अन्यग्रंथकारोंकी कारिकाएँ, पर्याप्त मात्रामें, कहीं उन आचार्योंके नामके साथ और कहीं विना नाम लिए ही शामिल की हैं। अतः कारिकाओंके विषयमें यह निर्णय करना बहुत कठिन हो जाता है कि ये कारिकाएँ हरिभद्रकी स्वरचित हैं या अन्यरचित होकर संग्रहीत है ? इसका एक और उदाहरण यह है कि "विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारो रूपमेव च। समुदेति यतो लोके रागादीनां गणोऽखिलः ।। आत्मात्मीयस्वभावाख्यः समुदायः स सम्मतः । क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इत्येवं वासना यका ॥ स मार्ग इति विज्ञेयो निरोधो मोक्ष उच्यते । पञ्चेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषयाः पञ्च मानसम् ।। धर्मायतनमेतानि द्वादशायतनानि च." ये चार श्लोक षड्दर्शनसमुच्चयके बौद्धदर्शनमें मौजूद हैं। इसी आनुपूर्वोसे ये ही श्लोक किञ्चित् शब्दभेदके साथ जिनसेनके आदिपुराण ( पर्व ५, श्लोक ४२-४५ ) में भी विद्यमान हैं। रचनासे तो ज्ञात होता है कि ये श्लोक किसी बौद्धाचार्यने बनाए होंगे, और उसी बौद्ध ग्रन्थसे षड्दर्शनसमुच्चय और आदिपराणमें पहुँचे हों। हरिभद्र और जिनसेन प्रायः समकालीन हैं, अतः यदि ये श्लोक हरिभद्रके होकर आदिपुराणमें आए हैं तो इसे उस समयके असाम्प्रदायिक भावकी महत्त्वपूर्ण घटना समझनी चाहिए । हरिभद्र ने तो शास्त्रवार्तासमुच्चयमें समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाके श्लोक उद्धृतकर अपनी षड्दर्शनसमुच्चायक बुद्धिके प्रेरणा बीजको ही मूर्तरूपमें अंकुरित किया है। यदि न्यायप्रवेशवृत्तिकार हरिभद्र ये ही हरिभद्र हैं तो उस वृत्ति ( पृ० १३ ) में पाई जानेवाली पक्षशब्दकी 'पच्यते व्यक्तीक्रियते योऽर्थः सः पक्षः' इस व्युत्पत्तिकी अस्पष्ट छाया न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४३८ ) में की गई पक्षकी व्युत्पत्तिपर आभासित होती है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १५९ सिद्धषि और प्रभाचन्द्र-श्रीसिद्धर्षिगणि श्वे० आचार्य दुर्गस्वामीके शिष्य थे। इन्होंने ज्येष्ठ शक्ला पंचमी, विक्रम संवत् ९६२ ( १ मई ९०६ ई०) के दिन उपमितिभवप्रपञ्चा कथा को समाप्ति की थी। सिद्धसेन दिवाकरके न्यायावतारपर भी इनकी एक टीका उपलब्ध है । न्यायावतार ( श्लो० १६ ) में पक्षप्रयोगके समर्थनके प्रसंगमें लिखा है कि-"जिस तरह लक्ष्य निर्देशके विना अपनी धनुर्विद्याका प्रदर्शन करनेवाले धनुर्धारीके गुण-दोषोंका यथावत् निर्णय नहीं हो सकता, गुण भी दोषरूपसे तथा दोष भी गुणरूपसे प्रतिभासित हो सकते हैं, उसी तरह पक्षका प्रयोग किए बिना साधनवादीके साधन सम्बन्धी गुण-दोष भी विपरीत रूपमें प्रतिभासित हो सकते हैं, प्राश्निक तथा प्रतिवादी आदिको उनका यथावत् निर्णय नहीं हो सकता।" न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४३७ ) के 'प्रक्षप्रयोगविचार' प्रकरणमें भी पक्षप्रयोगके समर्थनमें धनुर्धारीका दृष्टान्त दिया गया है। उसकी शब्दरचना तथा भावव्यञ्जनामें न्यायावतारके मलश्लोकके साथ ही साथ सिद्धर्षिकृत व्याख्याका भी पर्याप्त शब्दसादृश्य पाया जाता है। अवतरणोंके लिए देखो-न्यायकुमदचन्द्र, पृ० ४३७, टि० १। अभयदेव और प्रभाचन्द्र-चन्द्रगच्छमें प्रद्युम्नसूरि बड़े ख्यात आचार्य थे। अभयदेवसूरि इन्हों प्रद्युम्नसूरिके शिष्य थे । न्यायवनसिंह और तर्कपञ्चानन इनके विरुद थे। सन्मतितर्ककी गुजराती प्रस्तावना (पृ० ८३ ) में श्रीमान् पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने इनका समय विक्रमकी दशवीं सदीका उत्तराध और ग्यारहवींका पूर्वार्ध निश्चित किया है। उत्तराध्ययनकी पाइयटीकाके रचयिता शान्तिसूरिने उत्तराध्ययनटीकाकी प्रशस्तिमें एक अभयदेवको प्रमाणविद्याका गुरु लिखा है । पं० सुखलालजीने शान्तिसूरिके गुरुरूपमें इन्हीं अभयदेवसूरिकी संभावना की है। प्रभावकचरित्रके उल्लेखानुसार शान्तिसूरिका स्वर्गवास वि० सं० १०९६में हुआ था । इन्हीं शान्तिसूरिने धनपालकविकी तिलकमञ्जरी आख्यायिकाका संशोधन किया था, और उसपर एक टिप्पण लिखा था । धनपाल कवि मुञ्ज तथा भोज दोनोंकी राजसभाओं में सम्मानित हए थे। इन सब घटनाओंको मद्देनजर रखते हुए अभयदेवसूरिका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीके अन्तिम भाग तक मान लेने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। अभयदेवसूरिकी प्रामाणिकप्रकाण्डताका जीवन्त रूप उनकी सन्मतिटीकामें पद-पदपर मिलता है। इस सुविस्तृत टीकाको 'वादमहार्णव' के नामसे भी प्रसिद्धि रही है। प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्रकी अपेक्षा प्रमेयकमलमार्तण्डका अकल्पित सादृश्य इस टीकामें पाया जाता है। अभयदेवसूरिने सन्मतिटीकामें स्त्रीमुक्ति और केवलिकवलाहारका समर्थन किया है। इसमें दी गई दलीलोंमें तथा प्रभाचन्द्रके द्वारा किए गए उक्त वादोंके खण्डनकी युक्तियों में परस्पर कोई पूर्वोत्तरपक्षता नहीं देखी जाती। अभयदेव, शान्तिसूरि और प्रभाचन्द्र करीब-करीब समकालीन और समदेशीय थे । इसलिए यह अधिक संभव था कि स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति जैसे साम्प्रदायिक प्रकरणोंमें एक दूसरेका खंडन करते । पर हम इनके ग्रन्थोंमें परस्पर खंडन नहीं देखते । इसका कारण मेरी समझमें तो यही आता है कि उस समय दिगम्बर आचार्य यापनीयों के साथ ही इस विषयकी चर्चा करते होंगे। यही कारण है कि जब प्रभाचन्द्रने शाकटायनके स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति प्रकरणोंका ही शब्दशः खंडन किया है तब श्वेताम्बराचार्य अभयदेव और शान्तिसूरिने शाकटायनकी दलीलोंके आधारसे ही अपने ग्रंथोंके उक्त प्रकरण पुष्ट किए है। वादिदेवसूरिने अवश्य ही प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों के उक्त प्रकरणोंको पूर्वपक्षमें प्रभाचन्द्रका नाम लेकर उपस्थित किया है। सन्मतितके सम्पादक श्रीमान् पं० सुखलालजी और बेचरदासजीने सन्मतितर्क प्रथम भाग (पृ० १३) की गुजराती प्रस्तावनामें लिखा है कि-'जी के आ टीकामाँ सैकड़ों दार्शनिकग्रन्थों नु दोहन जणाय छे, १. गुजराती सन्मतितर्क, पृ० ८४ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ छता सामान्यरीते मीमांसककुमारिलभट्टनु श्लोकवार्तिक, नालन्दाविश्वविद्यालयना आचार्य शान्तरक्षितकृत तत्त्वसंग्रह ऊपरनी कमलशीलकृत पंजिका अने दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्रना प्रमेयकमलमार्तण्ड अने न्यायकुमदचन्द्रोदय विगेरे ग्रन्थोंर्ने प्रतिबिम्ब मुख्यपणे आ टोकामाँ छ ।' अर्थात् सन्मतितर्कटीकापर मीमांसाश्लोकवार्तिक, तत्त्वसंग्रहपंजिका, प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकूमदचन्द्र आदि ग्रन्थोंका प्रतिबिम्ब पड़ा है । सन्मतितर्कके विद्वद्रुप सम्पादकोंकी उक्त बातसे सहमति रखते हुए भी मैं उसमें इतना परिवर्धन और कर देना चाहता हूँ कि-'प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका सन्मतितर्कसे शब्दसादृश्य मात्र साक्षात् बिम्बप्रतिबिम्बभाव होनेके कारण ही नहीं है, किन्तु तीनों ग्रन्थोंके बहुभागमें जो अकल्पित सादृश्य पाया जाता है वह तृतीयराशिमूलक भी है । ये तृतीय राशिके ग्रन्थ है-भट्टजयसिंहराशिका तत्त्वोपप्लवसिंह, व्योमशिवको व्योमवती, जयन्तको न्यायमञ्जरी, शान्तरक्षित और कमलशोलकृत तत्त्वसंग्रह और उसकी पंजिका तथा विद्यानन्दके अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमाणपरीक्षा, आप्तपरीक्षा आदि प्रकरण । इन्हों तृतीयराशिके ग्रन्थोंका प्रतिबिम्ब सन्मतिटोका और प्रमेयकमलमार्तण्डमें आया है।" सन्मतितर्कटीका, प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट मालम होता है कि सन्मतितर्कका प्रमेयकमलमार्तण्डके साथ ही अधिक शब्दमादृश्य है । न्यायकुमुदचन्द्रमें जहाँ भी यत्किञ्चित् सादृश्य देखा जाता है वह प्रमेयकमलमार्तण्डप्रयुक्त हो है साक्षात नहीं। अर्थात प्रमेयकमलमार्तण्डके जिन प्रकरणोंके जिस सन्दर्भसे सन्मतितर्कका सादृश्य है उन्हीं प्रकरणोंमें न्यायकूमदचन्द्रसे भी शब्दसादृश्य पाया जाता है । इससे यह तकणा की जा सकती है कि-सन्मतितर्ककी रचनाके समय न्यायकूमदचन्द्रकी रचना नहीं हो सकी थी । न्यायकुमुदचन्द्र जयसिंहदेवके राज्यमें सन् १०५७ के आसपास रचा गया था जैसा कि उसकी अन्तिम प्रशस्तिसे विदित है । सन्मतितर्कटीका, प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमदचन्द्रकी तुलनाके लिए देखो प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रथम अध्यायके टिप्पण तथा न्यायकुमुदचन्द्र के टिप्पणोंमें दिए गए सन्मतिटीकाके अवतरण । वादि देवसूरि और प्रभाचन्द्र-'देवसूरि श्रीमुनिचन्द्रसूरिके शिष्य थे । प्रभावकचरित्रके लेखानुसार मुनिचन्द्रने शान्तिसूरिसे प्रमाणविद्याका अध्ययन किया था। ये प्राग्वाटवंशके रत्न थे। इन्होंने वि० में गर्जर देशको अपने जन्मसे पूत किया था। ये भडोंच नगरमें ९ वर्षकी अल्पवयमें वि० सं० ११५२में दीक्षित हए थे तथा वि० सं० ११७४में इन्होंने आचार्यपद पाया था। राजर्षि कुमारपालके राज्यकालमें वि० सं० १२२६में इनका स्वर्गवास हुआ। प्रसिद्ध है कि-वि० सं० ११८१ वैशाख शुद्ध पूर्णिमाके दिन सिद्धराजकी सभामें इनका दिगम्बरवादी कुमुदचन्द्रसे वाद हुआ था और इसी वादमें विजय पानेके कारण देवसूरि वादि देवसरि कहे जाने लगे थे। इन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार नामक सूत्र ग्रन्थ तथा इसी सूत्रकी स्याद्वादरत्नाकर नामक विस्तृत व्याख्या लिखी है । इनका प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार माणिक्यनन्दिकृत परीक्षामखसूत्रका अपने ढंगसे किया गया दूसरा संस्करण ही है। इन्होंने परीक्षामखके ६ परिच्छेदोंका विषय ठीक उसी क्रमसे अपने सूत्रके आद्य ६ परिच्छेदोंमें यत्किञ्चित् शब्दभेद तथा अर्थभेदके साथ ग्रथित किया है। परीक्षामखके अतिरिक्त इसमें नयपरिच्छेद नामक दो परिच्छेद और जोड़े गए हैं । माणिक्यनन्दिके सूत्रोंके सिवाय अकलंकके स्वविवृतियुक्त लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय तथा विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका भी पर्याप्त साहाय्य इस सूत्रग्रन्थमें लिया गया है। इस तरह भिन्न-भिन्न ग्रन्थोंमें विशकलित जैन-पदार्थोंका शब्द एवं अर्थदृष्टिसे सुन्दर संकलन इस सूत्रग्रन्थमें हुआ है। परीक्षामुखसूत्रपर प्रभाचन्द्रकृत प्रमेयकमलमार्तण्ड नामकी विस्तृत व्याख्या है तथा अकलंकदेवके लघीयस्त्रयपर इन्हीं प्रभाचन्द्रका न्यायकुमुदचन्द्र नामका बृहत्काय टीकाग्रन्थ है । प्रभाचन्द्रने इन मल ग्रंथोंकी १, देखो, जैन साहित्यनो इतिहास, पृ० २४८ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १६१ व्याख्याके साथ ही साथ मलग्रन्थसे सम्बद्ध विषयोंपर विस्तृत लेख भी लिखे हैं। इन लेखोंमें विविध विकल्पजालोंसे परपक्षका खंडन किया गया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के तीक्ष्ण एवं आह लादक प्रकाशमें जब हम स्याद्वादरत्नाकरको तुलनात्मक दृष्टिसे देखते हैं तब वादिदेवसूरिकी गुणग्राहिणी संग्रहदृष्टिकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते । इनकी संग्राहक बीजबुद्धि प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रसे अर्थ शब्द और भावोंको इतने चेतश्चमकारक ढंगसे चुन लेती है कि अकेले स्याद्वादरत्नाकरके पढ़ लेनेसे न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्डका यावद्विषय विशद रीतिसे अवगत हो जाता है। वस्तुतः यह रत्नाकर उक्त दोनों ग्रंथोंके शब्द-अर्थ रत्नोंका सुन्दर आकर ही है । यह रत्नाकर मार्तण्डको अपेक्षा चन्द्र ( न्यायकुमुदचन्द्र ) से ही अधिक उद्वेलित हुआ है । प्रकरणोंके क्रम बौर पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्षके जमानेकी पद्धतिमें कहीं-कहीं तो न्यायकुमुदचन्द्रका इतना अधिक शब्दसादृश्य है कि दोनों ग्रन्थोंको पाठशुद्धि में एक दूसरेका मूलप्रतिकी तरह उपयोग किया जा सकता है । प्रतिबिम्बवाद नामक प्रकरणमें वादि देवसूरिने अपने रत्नाकर (पृ० ८६५ ) में न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४५५) में निर्दिष्ट प्रभाचन्द्रके मतके खंडन करनेका प्रयास किया है। प्रभाचन्द्रका मत है कि-प्रतिबिम्बकी उत्पत्तिमें जल आदि द्रव्य उपादान कारण हैं तथा चन्द्र आदि बिम्ब निमित्तकारण । चन्द्रादि बिम्बोंका निमित्त पाकर जल आदिके परमाणु प्रतिबिम्बाकारसे परिणत हो जाते हैं। वादि देवसूरि कहते हैं कि-मखादिबिम्बोंसे छायापुद्गल निकलते हैं और वे जाकर दर्पण आदिमें प्रतिबिम्ब उत्पन्न करते हैं। यहाँ छायापुद्गलोंका मुखादि बिम्बोंसे निकलनेका सिद्धान्त देवसूरिने अपने पूर्वाचार्य श्रीहरिभद्रसूरिक धर्मसारप्रकरणका अनुसरण करके लिखा है। वे इस समय यह भूल जाते हैं कि हम अपने ही ग्रन्थमें नैयायिकोंके चक्षुसे रश्मियोंके निकलनेके सिद्धान्तका खंडन कर चुके हैं । जब हम भासुररूपवाली आँखसे भी रश्मियोंका निकलना युक्ति एवं अनुभवसे विरुद्ध बताते हैं तब मख आदि मलिन बिम्बोंसे छायापुद्गलोंके निकलनेका समर्थन किस तरह किया जा सकता है ? मजेदार बात तो यह है कि इस प्रकरणमें भी वादि देवसूरि न्यायकुमुदचन्द्र के साथही साथ प्रमेयकमलमार्तण्डका भी शब्दशः अनुसरण करते हैं, और न्यायकूमदचन्द्रमें निदिष्ट प्रभाचन्द्रके मतके खंडनकी धनमें स्वयं ही प्रमेयकमलमासण्डके उसी आशयके शब्दोंको सिद्धान्त मान बैठते हैं। वे रत्नाकरमें (पृ० ६९८ ) ही प्रमेयकमलमार्तण्डका शब्दानु सरण करते हुए लिख जाते हैं कि-"स्वच्छताविशेषाद्धि जल दर्पणादयो मुखादित्यादिप्रतिबिम्बाकारविकारधारिणः सम्पद्यन्ते ।"-अर्थात् विशेष स्वच्छताके कारण जल और दर्पण आदि ही मुख और सूर्य आदि बिम्बोंके आकारवाली पर्यायों को धारण करते हैं । कवलाहारके प्रकरण में इन्होंने प्रभाचन्दके न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड में दी गई दलीलोंका नामोल्लेख पूर्वक पूर्वपक्षमें निर्देश किया है और उनका अपनी दृष्टिसे खंडन भी किया है। इस तरह वादि देवसरिने जब रत्नाकर लिखना प्रारम्भ किया होगा तब उनकी आँखों के सामने प्रभाचन्द्र के ये दोनों ग्रन्थ बराबर नाचते रहे हैं। हेमचन्द्र और प्रभाचन्द्र-विक्रमकी १२वीं शताब्दीमें आ० हेमचन्द्रसे जैनसाहित्यके हेमयुगका प्रारम्भ होता है । हेमचन्द्र ने व्याकरण, काव्य, छन्द, योग, न्याय आदि साहित्यके सभी विभागोंपर अपनी प्रौढ़ संग्राहक लेखनी चलाकर भारतीय साहित्यके भंडारको खूब समृद्ध किया है। अपने बहुमुख पाण्डित्यके कारण ये 'कलिकालमर्वज्ञ' के नामसे भी ख्यात है। इनका जन्म-समय कार्तिकी पूर्णिमा विक्रमसंवत् ११४५ है । वि० सं० ११५४ ( ई० सन् १०९७ ) में ८ वर्षकी लघुवयमें इन्होंने दीक्षा धारण की थी । विक्रमसंवत् ११६६ ( ई० सन् १११० ) में २१ वर्षकी अवस्था सूरिपद पर प्रतिष्ठित हुए। ये महाराज जपसिंह ४-२१ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ सिद्धराज तथा राजर्षि कुमारपालकी राजसभाओंमें सबहमान लब्धप्रतिष्ठ थे। वि० सं० १२२९ ( ई० ११७३ ) में ८४ वर्षकी आयुमें ये दिवंगत हुए। इनकी न्यायविषयक रचना प्रमाणमीमांसा जैनन्यायके ग्रन्थों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है। प्रमाणमीमांसाके निग्रहस्थानके निरूपण और खंडनके समचे प्रकरणमें तथा अनेकान्तमें दिए गए आठ दोषोंके परिहारके प्रसंगमें प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्डका शब्दशः अनुसरण किया गया है। प्रमाणमीमांसाके अन्य स्थलोंमें प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्डकी छाप साक्षात् न पड़कर प्रमेयरत्नमालाके द्वारा पड़ी है। प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यने प्रमेयकमलमार्तण्डको ही संक्षिप्तकर प्रमेयरत्नमालाकी रचना की है। अतः मध्यकदवाली प्रमाणमीमांसामें बहत्काय प्रमेयकमलमार्तण्डका सीधा अनुसरण न होकर अपने समान परिमाणवाली प्रमेयरत्नमालाका अनुसरण होना ही अधिक संगत मालम होता है। प्रमाणमीमांसाके प्रायः प्रत्येक प्रकरणपर प्रमेयरत्नमालाकी शब्दरचनाने अपनी स्पष्ट छाप लगाई है। इस तरह आ० हेमचन्द्रने कहीं साक्षात् और कहीं परम्परया प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्डको अपनी प्रमाणमीमांसा बनाते समय मद्देनजर रखा है। प्रमेयरत्नमाला और प्रमाणमीमांसाक स्थलोंकी तुलना के लिए सिंघी सीरिजसे प्रकाशित प्रमाणमोमांसाके भाषा टिप्पण देखना चाहिए। मलयगिरि और प्रभाचन्द्र-विक्रमकी १२वीं शताब्दीका उत्तरार्ध तथा तेरहवीं शताब्दीका प्रारम्भ जैनसाहित्यका हेमयुग कहा जाता है। इस युगमें आ० हेमचन्द्रके सहविहारी, प्रख्यात टीकाकार आचार्य मलयगिरि हुए थे । मलयगिरिने आवश्यक निर्य क्ति, ओधनियुक्ति, नन्दीसत्र आदि अनेकों आगमिकग्रन्थोंपर संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं । आवश्यक नियुक्तिकी टीका ( पृ० ३७१ A.) में वे अकलंकदेवके 'नयवाक्यमें भी स्यात्पदका प्रयोग करना चाहिए' इस मतसे असहमति जाहिर करते हैं । इसी प्रसंगमें वे पूर्वपक्षरूपसे लघीयस्त्रयस्वविवृति ( का० ६२) का 'नयोऽपि तथैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात' यह वाक्य उद्धत करते हैं । और इस वाक्यके साथ ही साथ प्रभाचन्द्र कृत न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ६९१ ) से उक्त वाक्यकी व्याख्या भी उद्धृत करते हैं । व्याख्याका उद्धरण इस प्रकारसे लिया गया है-"अत्र टीकाकारेण व्याख्या कृता नयोऽपि नयप्रतिपादकमपि वाक्यं न केवलं प्रमाणवाक्यमित्यपिशब्दार्थः, तथैव स्यात्पदप्रयोगप्रकारेणैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात, यथा स्यादस्त्येव जीव इति स्यात्पदप्रयोगाभावे तु मिथ्यकान्तगोचरतया दुर्नय एव स्यादिति ।"-इस अवतरणसे यह निश्चित हो जाता है कि मलयगिरिके सामने लघीयस्त्रयकी न्यायकुमुदचन्द्र नामको व्याख्या थी। अकलंकदेवने प्रमाण, नय और दुर्नयकी निम्नलिखित परिभाषाएँ की हैं-अनन्तधर्मात्मक वस्तुको अखंडभावसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रमाण है। एकधर्मको मुख्य तथा अन्यधर्मोंको गौण करनेवाला, उनको अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान नय है। एकधर्मको ही ग्रहण करके जो अन्य धर्मोंका निषेध करता है-उनकी अपेक्षा नहीं रखता वह दुर्नय कहलाता है । अकलंकने प्रमाणवाक्यकी तरह नयवाक्यमें भी नयान्तरसापेक्षता दिखाने के लिए 'स्यात्' पदके प्रयोगका विधान किया है। आ० मलयगिरि कहते हैं कि जब नयवाक्यमें स्यात्पदका प्रयोग किया जाता है तब 'स्यात्' शब्दसे सूचित होनेवाले अन्य अशेषवर्मोंको भी विषय करनेके कारण नयवाक्य नयरूप न होकर प्रमाणरूप ही हो जायगा । इनके मतसे जो नय एक धर्मको अवधारणपूर्वक विषय करके इतरनयसे निरपेक्ष रहता है वही नय कहा जा सकता है । इसीलिए इन्होंने सभी नयोंको मिथ्यावाद कहा है। मलयगिरिके कोषमें सुनय नामका कोई शब्द ही नहीं है । जब स्यात्पदका प्रयोग किया जाता है तब वह प्रमाणकोटिमें पहुँचेगा तथा जब नयान्तरनिरपेक्ष रहेगा तब वह नयकोटिमें जाकर मिथ्यावाद हो जायगा। इन्होंने अकलंकदेवके इस तत्त्वको मद्दे Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १६३ नजर नहीं रखा कि-नयवाक्यमें स्यात् शब्दसे सूचित होनेवाले अशेषधर्मोंका मात्र सद्भाव ही जाना जाता है, सो भी इसलिए कि कोई वादी उनका ऐकान्तिक निषेध न समझ ले। प्रमाणवाक्यकी तरह नयवाक्यमें स्याच्छब्दसे सूचित होनेवाले अशेषधर्म प्रधानभावसे विषय नहीं होते । यही तो प्रमाण और नयमें भेद है कि-जहाँ गणमें अशेष ही धर्म एकरूपसे-अखण्डभावसे विषय होते हैं वहाँ नयमें एकधर्म मुख्य होकर अन्य अशेषधर्म गौण हो जाते हैं, 'स्यात्' शब्दसे मात्र उनका सद्भाव सूचित होता रहता है । दुर्नयमें एकधर्म ही विषय होकर अन्य अशेषधर्मोंका तिरस्कार हो जाता है। अतः दुर्नयसे सुनयका पार्थक्य करनेके लिए सुनयवाक्यमें स्यात्पदका प्रयोग आवश्यक है। मलयगिरिके द्वारा की गई अकलंककी यह समालोचना उन्हीं तक सीमित रही। हेमचन्द्र आदि सभी आचार्य अकलंकके उक्त प्रमाण, नय और दुर्नयके विभागको निर्विवादरूपसे मानते आए हैं। इतना ही नहीं, उपाध्याय यशोविजयने मलगिरिकी इस समालोचनाका सयुक्तिक उत्तर गुरुतत्त्वविनिश्चय (पृ० १७ B. ) में दे ही दिया है । उपाध्यायजी लिखते हैं कि यदि नयान्तरसापेक्ष नयका प्रमाणमें अन्तर्भाव किया जायगा तो व्यवहारनय तथा शब्दनय भी प्रमाण ही हो जायँगे । नयवाक्यमें होनेवाला स्यात्पदका प्रयोग तो अनेक धर्मोका मात्र द्योतन करता है, वह उन्हें विवक्षितधर्मकी तरह नयवाक्यका विषय नहीं बनाता । इसलिए नयवाक्यमें मात्र स्यात्पदका प्रयोग होनेसे वह प्रमाण कोटिमें नहीं पहुँच सकता। देवभद्र और प्रभाचन्द्र-देवभद्रसूरि मलधारिगच्छके श्रीचन्द्रसूरिके शिष्य थे। इन्होंने न्यायावतारटीकापर एक टिप्पण लिखा है। श्रीचन्द्रसूरिने वि० संवत् ११९३ ( सन् ११३६) के दिवालीके दिन 'मनिसुव्रतचरित्र' पूर्ण किया था । अतः इनके साक्षात् शिष्य देवभद्रका समय भी करीब सन् १९५० से १२०० तक सुनिश्चित होता है। देवभद्रने अपने न्यायावतार टिप्पगमें प्रभाचन्द्रकृत न्यायकूमदचन्द्रके निम्नलिखित दो अवतरण लिए हैं १-“परिमण्डलाः परमाणवः तेषां भावः "पारिमण्डल्यं वर्तुलत्वम्, न्यायकुमुदचन्द्रे प्रभाचन्द्रेणाप्येवं व्याख्यातत्वात् ।" ( पृ० २५) २-'प्रभाचन्द्रस्तु न्यायकुमुदचन्द्रे विभाषा सद्धर्मप्रतिपादको ग्रन्थविशेषः तां विदन्ति अधीयते वा वैभाषिकाः इत्युवाच ।" (पृ० ७९) ये दोनों अवतरण न्यायकुमुदचन्द्रमें क्रमशः पृ० ४३८ पं० १३ तथा पृ० ३९० पं० १ में पाए जाते है। इसके सिवाय न्यायावतारटिप्पणमें अनेक स्थानोंपर न्यायकुमुदचन्द्रका प्रतिबिम्ब स्पष्टरूपसे झलकता है। मल्लिषेण और प्रभाचन्द्र-आ० हेमचन्द्रकी अन्ययोगव्यवच्छेदिकाके ऊपर मल्लिषेणकी स्याद्वादमंजरी नामकी टीका मुद्रित है । ये श्वेताम्बर सम्प्रदायके नागेन्द्रगच्छीय श्रीउदयप्रभसूरिके शिष्य थे । स्याद्वादमंजरीके अन्तमें दी हुई प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि-इन्होंने शक संवत् १२१४ (ई. १२९३ ) में दीपमालिकाका शनिवारके दिन जिनप्रभसूरिकी सहायतासे स्याद्वादमंजरी पूर्ण की थी। स्याद्वादमंजरीकी शब्दरचनापर न्यायकुमुदचन्द्रका एक विलक्षण प्रभाव है। मल्लिषणने का० १४की व्याख्या विधिवादकी चर्चा की है। इसमें उन्होंने विधिवादियोंके आठ मतोंका निर्देश किया है। साथही साथ अपनी ग्रन्थमर्यादाके विचारसे इन मतोंके पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्षोंके विशेष परिज्ञानके लिए न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थ देखनेका अनुरोध निम्नलिखित शब्दोंमें किया है-"एतेषां निराकरणं सपूर्वोत्तरपदं न्यायकुमुदचन्द्रादवसेयम् ।" इस वाक्यसे स्पष्ट हो जाता है कि मल्लिषेण न केवल न्यायकुमुदचन्द्रके विशिष्ट अभ्यासी ही थे किन्तु वे स्याद्वादमंजरीमें १. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० २५३ । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अचचित या अल्पचित विषयोंके ज्ञानके लिए न्यायकुमुदचन्द्रको प्रमाणभूत आकरग्रन्थ मानते थे । न्यायकुमुदचन्द्रमें विधिवादकी विस्तृत चरचा १० ५७३ से ५९८ तक है। गुणरत्न और प्रभाचन्द्र-विक्रमकी १५वीं शताब्दीके उत्तरार्धमें तपागच्छमें दिवसुन्दरसूरि एक प्रभावक आचार्य हुए थे। इनके पट्टशिष्य गुणरत्नसूरिने हरिभद्रकृत 'षड्दर्शनसमुच्चय' पर तर्करहस्यदीपिका नामकी बृहद्वृत्ति लिखी है। गुणरत्नसूरिने अपने क्रियारत्नसमुच्चय रन्थको प्रतियोंका लेखनकाल विक्रम संवत् १४६८ दिया है । अतः इनका समय भी विक्रमकी १५वीं सदीका उत्तरार्ध सुनिश्चित है। गुणरस्लसरिने षड्दर्शनसमुच्चय टीकाके जैनमत निरूपणमें मोक्षतत्त्वका सविस्तर विशद विवेचन किया है । इस प्रकरणमें इन्होंने स्वाभिमत मोक्षस्वरूपके समर्थनके साथही साथ वैशेषिक, साख्य, वेदान्ती तथा बौद्धोंके द्वारा माने गए मोक्षस्वरूपका बड़े विस्तारसे निराकरण भी किया है । इस परखंडनके भागमे न्यायकुमुदचन्द्रका मात्र अर्थ और भावकी दृष्टिसे ही नहीं, किन्तु शब्दरचना तथा युक्तियोंके कोटिक्रमकी दृष्टिसे भी पर्याप्त अनुसरण किया गया है । इस प्रकरणमें न्यायकुमुदचन्द्रका इतना अधिक शब्दसादृश्य है कि इससे न्यायकुमुदचन्द्रके पाठकी शब्दशद्धि करने में भी पर्याप्त सहायता मिली है। इसके सिवाय इस वृत्ति के अन्य स्थलोंपर खासकर परपक्ष खंडनके भागोंपर न्यायकूमदचन्द्रकी शभ्रज्योत्स्ना जहाँ-तहाँ छिटक रही है। यशोविजय और प्रभ।चन्द्र--उपाध्याय यशोविजयजी विक्रमको १८वीं सदीके युगप्रवर्तक विद्वान् थे । इन्होंने विक्रम संवत १६८८ (ईस्वी १६३१ ) में पं० नयविजयजीके पास दीक्षा ग्रहण की थी। इन्होंने काशीमें नव्यन्यायका अध्ययनकर वादमें किसी विद्वान पर विजय पानेसे 'न्यायविशारद' पद प्राप्त किया था । श्रीविजयप्रभसूरिने वि० सं० १७१८ में इन्हें 'वाचक-उपाध्याय' का सम्मानित पद दिया था। उपाध्याय यशोविजय वि० सं० १७४३ ( सन् १६८६ ) में अनशन पूर्वक स्वर्गस्थ हुए थे । दशवीं शताब्दीसे ही नव्यन्यायके विकासने भारतीय दर्शनशास्त्रमें एक अपूर्व क्रान्ति उत्पन्न कर दो थी। यद्यपि दसवीं सदीके बाद अनेकों बुद्धिशाली जैनाचार्य हए पर कोई भी उस नव्यन्यायके शब्दजालके जटिल अध्ययनमें नहीं पड़ा। उपाध्याय यशोविजय ही एकमात्र जैनाचार्य है जिन्होंने नव्यन्यायका समग्र अध्ययनकर उसो नव्यपद्धतिसे जैनपदार्थोंका निरूपण किया है। इन्होंने सैकड़ों ग्रन्थ बनाए है। इनका अध्ययन अत्यन्त तलस्पर्शी तथा बहुमुखी था। सभी पूर्ववर्ती जैनाचार्योंके ग्रन्थोंका इन्होंने विधिवत् पारायण किया। इनकी तोक्ष्ण दृष्टिसे धर्मभूषणयतिकी छोटीसी पर सुविशद रचनावाली न्यायदीपिका भी नहीं छटी। जैनतर्कभाषामें अनेक जगह न्यायदीपिकाके शब्द आनुपूर्वीसे ले लिए गए है। इनके शास्त्रवासिमच्चयटोका आदि बहद्ग्रन्थों खंडनयाले अंशोंमें प्रभाचन्द्रके विविध विकल्पजाल स्पष्टरूपसे प्रतिबिम्बित है । इन्होंने प्रभाचन्द्रका केवल अनुसरण ही नहीं किया है किन्तु साम्प्रदायिक स्त्रीमुक्ति और कवलाहार जैसे प्रकरणोंमे प्रभाचन्द्र के मन्तव्योंकी समालोचना भी की है। __उपरिलिखित वैदिक-अवैदिकदर्शनोंकी तुलनासे प्रभाचन्द्र के अगाध, तलस्पर्शी, सूक्ष्म दार्शनिक अध्ययनका यत्किञ्चित आभास हो जाता है। बिना इस प्रकारके बहश्रत अवलोकनके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे जैनदर्शनके प्रतिनिधि ग्रन्थोंके प्रणयनका उल्लास ही नहीं हो सकता था। जैनदर्शनके मध्ययुगीन ग्रन्थोंमें प्रभाचन्द्र के ग्रन्थ अपमा विशिष्ट स्थान रखते हैं। ये पूर्वयुगीन ग्रन्थोंका प्रतिबिम्ब लेकर भी पारदर्शी दर्पणकी तरह उत्तरकालीन ग्रन्थोंके लिए आधारभूत हुए हैं, और यही इनकी अपनी विशेषता है। बिना इस आदान-प्रदानके दार्शनिक साहित्यका विकास इस रूप में तो हो ही नहीं सकता। १. देखो-न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ८१६ में ८४७ तकके टिप्पण । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १६५ प्रभानन्द्रा आयुर्वेदज्ञान-प्रभाचन्द्र शुष्क तार्किक ही नहीं थे; किन्तु उन्हें जीवनोपयोगी का भी परिज्ञान था। प्रमेयकमलमार्तण्ड (५० ४२४ ) में वे बधिरता तथा अन्य कर्णरोगोंके लिए बलातैलका उल्लेख करते है । न्यायकुमुदचन्द्र (१०६६९ ) में छाया आदिको पौद्गलिक सिद्ध करते समय उनमें गणोंका सदभाव दिखानेके लिए उनने वैद्यकशास्त्रका निम्नलिखित श्लोक प्रमाणरूपसे उद्धत किया है 'आतपः कटुको रुक्षः छाया मधुरशोतला। कषायमधुरा ज्योत्स्ना सर्वव्याधिहरं (करं ) तमः ॥ यह श्लोक राजनिघण्टु आदिमें कुछ पाठभेदके साथ पाया जाता है। इसी तरह वैशेषिकोंके गुणपदार्थका खंडन करते समय ( न्यायकु०, पृ० २७५ ) वैद्यकतन्त्रमें प्रसिद्ध विशद, स्थिर, खर, पिच्छलत्व आदि गुणोंके नाम लिए हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. ८) में नड्वलोदक-तृणविशेषके जलसे पादरोगकी उत्पत्ति बताई है। प्रभाचन्द्रको कल्पनाशक्ति-सामान्यतः वस्तुकी अनन्तात्मकता या अनेकधर्मांधारताकी सिद्धिके लिए अकलंक आदि आचार्योने चित्रज्ञान, सामान्य विशेष, मेचकज्ञान और नरसिंह आदिके दृष्टान्त दिए हैं । पर प्रभाचन्द्रने एक ही वस्तुकी अनेकरूपताके समर्थनके लिए न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ३६९ ) में 'उमेश्वर' का दृष्टान्त भी दिया है । वे लिखते हैं कि जैसे एक ही शिव वामाङ्ग में उमा-पार्वतीरूप होकर भी दक्षिणाङ्गमें विरोधी शिवरूपको धारण करते है और अपने अर्धनारीश्वररूपको दिखाते हुए अखंड बने रहते हैं उसी तरह एक ही वस्तु विरोधी दो या अनेक आकारोंको धारण कर सकती है। इसमें कोई विरोध नहीं होना चाहिए। उदारविचार-आ० प्रभाचन्द्र सच्चे तार्किक थे । उनकी तर्कणाशक्ति और उदार विचारोंका स्पष्ट परिचय ब्राह्मणत्व जातिके खण्डनके प्रसङ्गमें मिलता है। इस प्रकरणमें उन्होंने ब्राह्मणत्व जातिके नित्यत्व और एकत्वका खण्डन करके उसे सदृशपरिणमन रूप ही सिद्ध किया है। वे जन्मना जातिका खण्डन बहुविध विकल्पोंसे करते हैं और स्पष्ट शब्दोंमें उसे गुणकर्मानुसारिणी मानते हैं। वे ब्राह्मणत्वजातिनिमित्तक वर्णाश्रमव्यवस्था और तप दान आदिके व्यवहारको भी क्रियाविशेष और यज्ञोपवीत आदि चिहसे उपलक्षित व्यक्ति-विशेषमें ही करनेकी सलाह देते है __ "ननु बाह्मणत्वादिसामान्यानभ्युपगमे कथं भवतां वर्णाश्रमव्यवस्था तन्निबन्धनो वा तपोदानादिव्यवबार स्यात? इत्यप्यचोद्यमः क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तव्यवस्थायाः तद्वयवहारस्य चोपपत्तेः । तन्न भवत्कल्पितं नित्यादिस्वभावं ब्राह्मण्यं कुतश्चिदपि प्रमाणात प्रसिदध्यतीति क्रियाविशेषनिबन्धन एवायं ब्राह्मणादिव्यवहारो युक्तः ।" -न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ७७८ । प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ४८६ "प्रश्न-यदि ब्राह्मणत्व आदि जातियाँ नहीं है तब जनमतमे वर्णाश्रमव्यवस्था और ब्राह्मणत्व आदि जातियोंसे सम्बन्ध रखनेवाला तप दान आदि व्यवहार कैसे होगा? उत्तर-जो व्यक्ति यज्ञोपवीत आदि चिह्नोंको धारण करें तथा ब्राह्मणोंके योग्य विशिष्ट क्रियाओंका आचरण करें उनमें ब्राह्मणत्व जातिसे सम्बन्ध रखनेवालो वर्णाश्रमव्यवस्था और तप दान आदि व्यवहार भलीभाँति किये जा सकते है। अतः आपके द्वारा माना गया नित्य आदि स्वभाववाला ब्राह्मणत्व किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता, इसलिये ब्राह्मण आदि व्यवहारोंको क्रियानुसार ही मानना युक्तिसंगत है।" Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ वे प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ४८७ ) में और भी स्पष्टतासे लिखते हैं कि-"ततः सदृश क्रियापरिणामादिनिबन्धनैवेयं ब्राह्मणक्षत्रियादिव्यवस्था-इसलिये यह समस्त ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि व्यवस्था सदश क्रिया रूप सदृश परिणमन आदिके निमित्तसे ही होती है।" बौद्धोंके धम्मपद और श्वेताम्बर आगम उत्तराध्ययनसूत्रमें स्पष्ट शब्दोंमें ब्राह्मणत्व जातिको गुण और कर्मके अनुसार बताकर उसकी जन्मना माननेके सिद्धान्तका खण्डन किया है "न जटाहिं न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो । जम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ।। न चाहं ब्राह्मणं ब्र मि योनिज मत्तिसंभवं ।"-धम्मपद गाथा ३९३ "कम्मुणा बंभणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ। वईसो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥"-उत्तरा० २५।३३ दिगम्बर आचार्यों में वराङ्गचरित्रके कर्ता श्री जटासिहनन्दि कितने स्पष्ट शब्दोंमें जातिको क्रियानिमित्तक लिखते हैं "क्रियाविशेषाद् व्यवहारमात्रात् दयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥" -वराङ्गचरित २५।११ "शिष्टजन इन ब्राह्मण आदि चारों वर्गों को 'अहिंसा आदि व्रतोंका पालन, रक्षा करना, खेती आदि करना, तथा शिल्पवृत्ति' इन चार प्रकारकी क्रियाओंसे ही मानते हैं। यह सब वर्णव्यवस्था व्यवहारमात्र है। क्रियाके सिवाय और कोई वर्णव्यवस्थाका हेतु नहीं है।" ऐसे ही विचार तथा उद्गार पद्मपुराणकार रविषेण, आदिपुराणकार जिनसेन, तथा धर्मपरीक्षाकार अमितगति आदि आचार्योंके पाए जाते हैं। आ० प्रभाचन्द्रने, इन्हीं वैदिक संस्कृति द्वारा अनभिभूत, परम्परागत जैनसंस्कृतिके विशुद्ध विचारोंका, अपनी प्रखर तर्कघारासे परिसिंचनकर पोषण किया है । यद्यपि ब्राह्मणत्वजातिके खण्डन करते समय प्रभाचन्द्रने प्रधानतया उसके नित्यत्व और ब्रह्मप्रभवत्व आदि अंशोंके खण्डनके लिए इस प्रकरणको लिखा है और इसके लिखने में प्रज्ञाकर गुप्तके प्रमाणवार्तिकालङ्कार तथा शान्तरक्षितके तत्त्वसंग्रहने पर्याप्त प्रेरणा दी है परन्तु इससे प्रभाचन्द्रकी अपनी जाति विषयक स्वतन्त्र चिन्तनवृत्तिमें कोई कमी नहीं आती । उन्होंने उसके हर एक पहलपर विचार करके ही अपने उक्त विचार स्थिर किए । प्रभाचन्द्रका समय कार्यक्षेत्र और गुरुकुल-आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदिको प्रशस्तिमें 'पद्मनन्दि सिद्धान्त' को अपना गुरु लिखा है । श्रवणबेल्गोलाके शिलालेख ( नं० ४० ) में गोल्लाचार्यके शिष्य पद्मनन्दि सैद्धान्तिकका उल्लेख है। और इसी शिलालेखमें आगे चलकर प्रथिततर्कग्रन्थकार, शब्दाम्भोरुहभास्कर प्रभाचन्द्रका शिष्यरूपसे वर्णन किया गया है। प्रभाचन्द्र के प्रथिततर्क ग्रन्थकार और शब्दाम्भोरुहभास्कर ये दोनों विशेषण यह स्पष्ट बतला रहे हैं कि ये प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड १. देखो-न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ७७८, टि० ९ । २. जैन शिलालेखसंग्रह माणिकचन्द्रग्रन्थमाला । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १६७ जैसे प्रथित तर्कग्रन्थोंके रचयिता थे तथा शब्दाम्भोजभाराम जनेन्द्र न्यामके कर्ता भी थे। इसी शिलालेखमें पद्मनन्दि सैद्धान्तिकको अविद्धकर्णादिक और कौमारदेवव्रती लिखा है। इन विशेषणोंसे ज्ञात होता है कि-पद्मनन्दि सैद्धान्तिकने कर्ण वेध होनेके पहिले ही दीक्षा धारण की होगी और इमीलिए ये कौमारदेवव्रती कहे जाते थे । ये मूलसंघान्तर्गत नन्दिगण के प्रभेदरूप देशीगणके श्रीगोल्लाचार्यके शिष्य थे । प्रभाचन्द्र के सधर्मा श्रीकुलभूषणमुनि थे । कुलभूषण मुनि भी मिद्धान्त शास्त्रों के पारगामी और चारित्रसागर थे । इस शिलालेखमें कुलभूषणमुनिकी शिष्यपरम्पराका वर्णन है, जो दक्षिणदेशमें हुई थी। तात्पर्य यह कि आ० प्रभाचन्द्र मलसंघान्तर्गत नन्दिगणकी आचार्यपरम्परामें हए थे । इनके गुरु पद्मनन्दिसैद्धान्त थे और सधर्मा थे कुलभषणमुनि । मालम होता है कि प्रभाचन्द्र पद्मनन्दिसे शिक्षा-दीक्षा लेकर धारानगरीमें चले आए, और यहीं उन्होंने अपने ग्रन्थोंकी रचना की । ये धाराधीश भोजके मान्य विद्वान थे । प्रमेयकमलमार्तण्डकी "श्रीभोजदेवराज्ये धारानिवासिना" आदि अन्तिम प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ धारानगरीमें भोजदेवके राज्यमें बनाया गया है। न्यायकूमदचन्द्र, आराधनागद्यकथाकोश और महापुराण टिप्पणकी अन्तिम प्रशस्तियोंके "श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना" शब्दोंसे इन ग्रन्थोंकी रचना भोजके उत्तराधिकारी जयसिंहदेवके राज्यमें हुई ज्ञात होती है । इसलिए प्रभाचन्द्र का कार्यक्षेत्र धारानगरी ही मालम होता है । संभव है कि इनकी शिक्षा-दीक्षा दक्षिणमें हुई हो । श्रवणवेल्गोलाके शिलालेख नं० ५५ में मलसंघके देशीगणके देवेन्द्रसैद्धान्तदेवका उल्लेख है। इनके शिष्य चतुर्मुखदेव और चतूमखदेवके शिष्य गोपनन्दि थे। इसी शिलालेखमें इन गोपनन्दिके सधर्मा एक प्रभाचन्द्रका वर्णन इस प्रकार किया गया है"अवर सधर्मरुश्रीधाराधिपभोजराजमुकटप्रोताश्मरश्मिच्छटा च्छायाकुङ्कमपङ्कलिप्तचरणाम्भोजातलक्ष्मीधवः । न्यायाब्जाकरमण्डने दिनमणिश्शब्दाब्जरोदोमणिः, स्थेयात्पण्डितपुण्डरीकतरणिः श्रीमान् प्रभाचन्द्रमाः ।। १७॥ श्रोचतुर्मुखदेवानां शिष्योऽधृष्यः प्रवादिभिः । पण्डितश्रीप्रभाचन्द्रो रुद्रवादिगजाङ्कुशः ॥ १८॥" इन इलोकोंमें वर्णित प्रभाचन्द्र भी धाराधीश भोजराजके द्वारा पूज्य थे, न्यायरूप कमलसमह (प्रमेयकमल ) के दिनमणि ( मार्तण्ड ) थे, शब्दरूप अब्ज ( शब्दाम्भोज ) के विकास करनेको रोदोमणि (भास्कर) के समान थे। पंडित रूपी कमलोंके प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य थे, रुद्रवादि गजोंको वश करने के लिए अंकुशके समान थे तथा चतुर्मखदेवके शिष्य थे। क्या इस शिलालेखमें वणित प्रभाचन्द्र और पद्मन न्दि सैद्धान्तके शिष्य, प्रथिततर्क ग्रन्थ कार एवं शब्दाम्भोजभास्कर प्रभाचन्द्र एक ही व्यक्ति हैं ? इस प्रश्नका उत्तर 'हाँ' में दिया जा सकता है, पर इसमें एक ही बात नयी है। वह है-गुरुरूपसे चतुर्मखदेवके उल्लेख होनेकी । मैं समझता हूँ कि-यदि प्रभाचन्द्र धारामें आनेके बाद अपने ही देशीयगणके श्री चतुर्मखदेवको आदर और गुरुकी दृष्टिसे देखते हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पर यह सुनिश्चित है कि प्रभाचन्द्र के आद्य और परमादरणीय उपास्य गुरु पद्मनन्दि सैद्धान्त ही थे । चतुर्मखदेव द्वितीय गुरु या गुरुसम हो सकते हैं। यदि इस शिलालेखके प्रभाचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयिता एक ही व्यवित है तो यह निश्चितरूपसे कहा जा सकता है कि प्रभाचन्द्र धाराधीश भोजके समकालीन थे। इस शिलालेखमें प्रभाचन्द्र को गोपनन्दिका सधर्मा कहा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ गया है । हलेबेल्गोलके एक शिलालेख ( नं० ४९२, जैन शिलालेखसंग्रह ) में होय्सलनरेश एरेयङ्ग द्वारा गोपनन्दि पण्डितदेवको दिए गए दानका उल्लेख है । यह दान पौष शुद्ध १३, संवत् १०१५ में दिया गया था । इस तरह सन् १०९४ में प्रभाचन्द्र के सधर्मा गोपनन्दिकी स्थिति होनेसे प्रभाचन्द्रका समय सन् १०६५ तक माननेका पूर्ण समर्थन होता है । समयविचार - आचार्य प्रभाचन्द्र के समय के विषयमें डॉ० पाठक, प्रेमीजी " तथा मुख्तार सा० आदिका प्रायः सर्वसम्मत मत यह रहा है कि आचार्य प्रभाचन्द्र ईसाको ८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध एवं नवीं शताब्दो के पूर्वार्धवर्ती विद्वान् थे । और इसका मुख्य आधार है जिनसेनकृत आदिपुराणका यह श्लोक - “चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं स्तुवे । जगत् ॥” अर्थात् - ' जिनका यश चन्द्रमाकी किरणोंके समान धवल है उन प्रभाचन्द्रकविकी स्तुति करता हूँ । जिन्होंने चन्द्रोदयकी रचना करके जगत्को आह्लादित किया था।' इस श्लोक में चन्द्रोदयसे न्यायकुमुदचन्द्रोदय ( न्यायकुमुदचन्द्र ) ग्रन्थका सूचन समझ गया है। आ० जिनसेनने अपने गुरु वीरसेनकी अधूरी जयधवला टीकाको शक सं० ७५९ ( ईसवी ८३७ ) की फाल्गुन शुक्ला दशमी तिथिको पूर्ण किया था । इस समय अमोघवर्षका राज्य था । जयधवलाकी समाप्तिके अनन्तर ही आ० जिनसेनने आदिपुराणकी रचना की थी। आदिपुराण जिनसेनकी अन्तिम कृति है । वे इसे अपने जीवन में पूर्ण नहीं कर सके थे । उसे इनके शिष्य गुणभद्र ने पूर्ण किया था । तात्पर्य यह कि जिनसेन आचार्यने ईसवी ८४० के लगभग आदिपुराणकी रचना प्रारम्भ की होगी। इसमें प्रभाचन्द्र तथा उनके न्यायकुमुदचन्द्र का उल्लेख मानकर डॉ० पाठक आदिने निर्विवाद रूप से प्रभाचन्द्रका समय ईसाकी ८वीं शताब्दीका उत्तरार्ध तथा नवींका पूर्वार्ध निश्चित किया है । सुहृद्वर पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना ( पृ० १२३ ) में डॉ. पाठक आदि मतका निरास करते हुए प्रभाचन्द्रका समय ई० ९५० से १०२० तक निर्धारित किया है । इस निर्धारित समयकी शताब्दियाँ तो ठीक हैं पर दशकों में अन्तर है । तथा जिन आधारोंसे यह समय १. श्रीमान् प्रेमीजीका विचार अब बदल गया है । अपने "श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र" लेख ( अनेकान्त वर्ष ४ अंक, १) में महापुराण टिप्पणकार प्रभाचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और गद्यकथाकोश आदिके कर्त्ता प्रभाचन्द्रका एक ही व्यक्ति होना सूचित करते हैं । वे अपने एक पत्र में मुझे लिखते हैं कि हम समझते हैं कि प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के कर्त्ता प्रभाचन्द्र ही महापुराण टिप्पणके कर्त्ता हैं । और तत्त्वार्थवृत्तिपद ( सर्वार्थसिद्धि के पदोंका प्रकटीकरण ), समाधितं त्रटीका, आत्मानुशासन तिलक, क्रियाकलापटीका, प्रवचनसारस रोजभास्कर ( प्रवचनसारकी टीका) आदिके कर्ता, और शायद रत्नकरण्डटीका कर्ता भी वही हैं ।" २. पं० कैलाशचन्द्रजीने आदिपुराणके 'चन्द्रांशुशुभ्रयशसं' श्लोक में चन्द्रोदयकार किसी अन्य प्रभाचन्द्रक विका उल्लेख बताया है, जो ठीक है । पर उन्होंने आदिपुराणकार जिनसेनके द्वारा न्यायकुमुदचन्द्रकार प्रभाचन्द्रके स्मृत होने में बाधक जो अन्य तीन हेतु दिए हैं वे बलवत् नहीं मालूम होते । यत: (१) आदिपुराणकार इसके लिए बाध्य नहीं माने जा सकते कि यदि वे प्रभाचन्द्रका स्मरण करते हैं तो उन्हें प्रभाचन्द्र के द्वारा स्मृत अनन्तवीर्यं और विद्यानन्दका स्मरण करना ही चाहिए । विद्यानन्द और अनन्तवीर्यंका समय ईसाकी नवीं शताब्दीका पूर्वार्ध है, और इसलिए वे आदिपुराणकारके समकालीन होते Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १६९ निश्चित किया गया है वे भी अभ्रान्त नहीं हैं । पं० जीने प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंमें व्योमशिवाचार्यकी व्योमवती टीकाका प्रभाव देखकर प्रभाचन्द्रकी पूर्वावधि ९५० ई० और पुष्पदन्तकृत महापुराणके प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणको वि० सं० २०८० ( ई० १०२३ ) में समाप्त मानकर उत्तरावधि १०२० ई० निश्चित की है। मैं ' व्योमशिव और प्रभाचन्द्र' की तुलना करते समय व्योमशिवका समय ईसाकी सातवीं शताब्दीका उत्तरार्ध निर्धारित कर आया हूँ । इसलिए मात्र व्योमशिव के प्रभाव के कारण ही प्रभाचन्द्रका समय ई० ९५० के बाद नहीं जा सकता। महापुराणके टिप्पणकी वस्तुस्थिति तो यह है कि- पुष्पदन्तके महापुराणपर श्रीचन्द्र आचार्यका भी टिप्पण है और प्रभाचन्द्र आचार्यका भी । बलात्कारगणके श्रीचन्द्रका टिप्पण भोजदेवके राज्य में बनाया गया है। इसकी प्रशस्ति निम्नलिखित है- "श्री विक्रमादित्य संवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्रे महापुराण विषमपदविवरणं सागरसेनसैद्धान्तान् हैं । यदि प्रभाचन्द्र भी ईसाकी नवीं शताब्दीके विद्वान् होते, तो भी वे अपने समकालीन विद्यानन्द आदि आचार्योंका स्मरण करके भी आदिपुराणकार द्वारा स्मृत हो सकते थे । ( २ ) ' जयन्त और प्रभाचन्द्र' की तुलना करते समय मैं जयन्तका समय ई० ७५० से ८४० तक सिद्ध कर आया हूँ । अतः समकालीनवृद्ध जयन्तसे प्रभावित होकर भी प्रभाचन्द्र आदिपुराणमें उल्लेख्य हो सकते हैं । (३) गुणभद्रके आत्मानुशासन से 'अन्धादयं महानन्धः श्लोक उद्धृत किया जाना अवश्य ऐसी बात है जो प्रभाचन्द्रका आदिपुराण में उल्लेख होनेकी बाधक हो सकती है । क्योंकि आत्मानुशासन के “जिनसेनाचार्यपादस्मरणाधीनचेतसाम् । गुणभद्रभदन्तानां कृतिरात्मानुशासनम् ||" इस अन्तिमश्लोकसे ध्वनित होता है कि यह ग्रन्थ जिनसेन स्वामीको मृत्युके बाद बनाया गया है; क्योंकि वही समय जिनसेनके पादोंके स्मरण के लिए ठीक जँचता है । अतः आत्मानुशासनका रचनाकाल सन् ८५० के करीब मालूम होता है । आत्मानुशासनपर प्रभाचन्द्रकी एक टीका उपलब्ध है । उसमें प्रथम श्लोकका उत्थान वाक्य इस प्रकार है - "बृहद्धर्मं भ्रातुर्लोकसेनस्य विषयव्या मुग्धबुद्धः सम्बोधनव्याजेन सर्वसत्त्वो - कारक सन्मार्गमुपदर्शयितुकामो गुणभद्रदेवः " अर्थात् गुणभद्र स्वामीने विषयोंकी ओर चंचल चित्तवृत्तिवाले बड़े धर्मभाई (?) लोकसेनको समझाने के बहाने आत्मानुशासन ग्रन्थ बनाया है । ये लोकसेन गुणभद्र प्रियशिष्य थे । उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें इन्हीं लोकसेनको स्वयं गुणभद्रने 'विदितसकलशास्त्र, मुनीश, कवि अविकलवृत्त' आदि विशेषण दिए हैं। इससे इतना अनुमान तो सहज ही किया जा सकता है कि आत्मानुशासन उत्तरपुराणके बाद तो नहीं बनाया गया; क्योंकि उस समय लोकसेन मुनि विषयव्यामुग्धबुद्धि न होकर विदितसकलशास्त्र एवं अविकलवृत्त हो गए थे । अतः लोकसेनकी प्रारम्भिक अवस्था में, उत्तरपुराणकी रचनाके पहिले ही आत्मानुशासनका रचा जाना अधिक संभव है । पं० नाथूरामजी प्रेमीने विद्वद्रत्नमाला ( पृ० ७५ ) में यही संभावना की है । आत्मानुशासन गुणभद्रकी प्रारम्भिक कृति ही मालूम होती है । और गुणभद्रने इसे उत्तरपुराणके पहिले जिनसेनकी मृत्यु के बाद बनाया होगा । परन्तु आत्मानुशासनकी आन्तरिक जाँच करनेसे हम इस परिणामपर पहुँचे हैं कि इसमें अन्य कवियों के सुभाषितोंका भी यथावसर समावेश किया गया है । उदाहरणार्थ - आत्मानुशासनका ३२ वाँ पद्य 'नेता यस्य बृहस्पतिः ' भर्तृहरिके नीतिशतकका ८८वां श्लोक है, आत्मानुशासनका ६७ वाँ पद्य 'यदेतत्स्वच्छन्द' वैराग्यशतकका ५०वाँ श्लोक है । ऐसी स्थितिमें 'अन्धादयं महानन्धः ' सुभाषित पद्य भी गुण भद्रका स्वरचित ही है यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते । तथापि किसी अन्य प्रबल प्रमाणके अभाव में अभी इस विषय में अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता ! ४-२२ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ परिज्ञाय मूलटिप्पणिकाञ्चालोक्य कृतमिदं समुच्चयटिप्पणम् अज्ञपातभीतेन श्रीमद्बला (त्कार ) गणश्रीसंघाचार्य सत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डाभिभूतरिपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य ।। १०२ ।। इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्य (?) विरचितं समाप्तम् । " प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण जयसिंहदेवके राज्यमें लिखा गया है। इसकी प्रशस्तिके श्लोक रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रस्तावनासे न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना ( पृ० १२० ) में उद्धृत किये गये हैं । श्लोकोंके अनन्तर - "श्रीजयसिहदेवराज्ये श्रीमद्वारानिवासिना परापरपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्य निराकृताखिलमलकलङ्केन श्रीप्रभाचन्द्रपण्डितेन महापुराणटिप्पण के शतत्र्यधिकसहस्रत्रयपरिमाणं कृतमिति" यह पुष्पिकालेख है । इस तरह महापुराणपर दोनों आचार्योंके पृथक-पृथक टिप्पण हैं । इसका खुलासा प्रेमीजीके लेख 'से स्पष्ट हो ही जाता है । पर टिप्पण लेखकने श्रीचन्द्रकृत टिप्पणके 'श्रीविक्रमादित्य' वाले प्रशस्तिलेखके अन्त में भ्रमवश ' इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्यविरचितं समाप्तम्' लिख दिया है । इसीलिए डॉ० पी० एल० वैद्य, प्रो० हीरालालजी तथा पं० कैलाशचन्द्रजीने भ्रमवश प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणका रचनाकाल संवत् १०८० समझ लिया है । अतः इस भ्रान्त आधारसे प्रभाचन्द्र के समयकी उत्तरावधि सन् १०२० नहीं ठहराई जा सकती । अब हम प्रभाचन्द्रके समयकी निश्चित अवधिके साधक कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं. -- १ - प्रभाचन्द्रने पहिले प्रमेयकमलमार्त्तण्ड बनाकर ही न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना की है। मुद्रित प्रमेयकमलमार्त्तण्ड के अन्तमें "श्री भोजदेवराज्ये श्रीमद्वारानिवासिना परापरपरमेष्ठिपदप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमकङ्कन श्रीमत्प्रभाचन्द्र पण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपो द्योतिपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति ।" यह पुष्पिकालेख पाया जाता है । न्यायकुमुदचन्द्रको कुछ प्रतियोंमें उक्त पुष्पिकालेख 'श्रीभोजदेव - राज्य' की जगह 'श्रीजयसिंहदेवराज्य' पदके साथ जैसाका तैसा उपलब्ध है । अतः इस स्पष्ट लेखसे प्रभाचन्द्रका समय जयसिंहदेव के राज्य के कुछ वर्षों तक, अन्ततः सन् १०६५ तक माना जा सकता है । और यदि प्रभाचन्द्रने ८५ वर्षकी आयु पाई हो तो उनकी पूर्वावधि सन् ९८० मानी जानी चाहिए । 3 श्रीमान् मुख्तारसा ० ३ तथा पं० कैलाशचन्द्र जी प्रमेयकमल० और न्यायकुमुदचन्द्र के अन्तमें पाए जानेवाले उक्त 'श्रीभोजदेवराज्य और जयसिंहदेव राज्ये' आदि प्रशस्तिलेशखोंको स्वयं प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानते । मुख्तारसा० इस प्रशस्तिवाक्यको टीकाटिप्पणकार द्वितीय प्रभाचन्द्रका मानते हैं तथा पं० कैलाशचन्द्रजी इसे पीछे किसी व्यक्तिकी करतूत बताते हैं । पर प्रशस्तिवाक्यको प्रभाचन्द्रकृत नहीं माननेमें दोनोंके आधार जुदे - जुदे हैं । मुख्तारसा० प्रभाचन्द्रको जिनसेनके पहिलेका विद्वान् मानते हैं, इसलिए 'भोजदेवराज्य' आदिवाक्य वे स्वयं उन्हीं प्रभाचन्द्रका नहीं मानते। पं० कैलाशचन्द्रजी प्रभाचन्द्रको ईसाकी १०वीं और ११वीं शताब्दीका विद्वान् मानकर भी महापुराणके टिप्पणकार श्रीचन्द्र के टिप्पण के अन्तिमवाक्यको भ्रमवश प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणका अन्तिमवाक्य समझ लेनेके कारण उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानना चाहते । मुख्तारसा० ने एक हेतु यह भी दिया है" कि - प्रमेयकमलमार्त्तण्डकी कुछ प्रतियोंमें यह अन्तिमवाक्य नहीं पाया जाता । और इसके लिए भाण्डारकर इन्स्टीट्युटको प्राचीन प्रतियोंका हवाला दिया है। मैंने भी इस १. देखो पं० नाथूरामजी प्रेमी लिखित 'श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र' शीर्षक लेख अनेकान्त वर्ष ४, किरण १ । २. महापुराणकी प्रस्तावना, पृ० XIV | ३. रत्नकरण्ड प्रस्तावना, पृ० ५९ ६० । ४. न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना, पृ० १२२ । ५. रत्नकरण्ड० प्रस्तावना, पृ० ६० । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १७१ ग्रन्थका पुनः सम्पादन करते समय जैन सिद्धान्तभवन, आराकी प्रतिके पाठान्तर लिए हैं । इसमें भी उक्त 'भोजदेवराज्ये' वाला वाक्य नहीं है । इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र के सम्पादन में जिन आ०, ब०, श्र०, और भां० " प्रतियों का उपयोग किया है, उनमें आ० और ब० प्रतिमें 'श्रीजयसिहदेवराज्य' वाला प्रशस्ति लेख नहीं है । हाँ, भां० और श्र० प्रतियाँ, जो ताड़पत्रपर लिखी हैं, उनमें 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' वाला प्रशस्तिवाक्य है । इनमें भां० प्रति शालिवाहनशक १७६४ की लिखी हुई है । इस तरह प्रमेयकमलमार्त्तण्डकी किन्हीं प्रतियोंमें उक्त प्रशस्तिवाक्य नहीं है, किन्हीं में श्रीपद्मनन्दि' श्लोक नहीं है तथा कुछ प्रतियोंमें सभी श्लोक और प्रशस्ति वाक्य हैं । न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियों में 'जयसिंहदेव राज्ये' प्रशस्तिवाक्य नहीं है । श्रीमान् मुख्तारसा० प्रायः इसीसे उक्त प्रशस्तिवाक्यों को प्रभाचन्द्रकृत नहीं मानते । इसके विषय में मेरा यह वक्तव्य है कि-लेखक प्रमादवश प्रायः मौजूद पाठ तो छोड़ देते हैं पर किसी अन्यकी प्रशस्ति अन्यग्रन्थ में लगानेका प्रयत्न कम करते हैं । लेखक आखिर नकल करनेवाले लेखक हो तो हैं, उनमें इतनी बुद्धिमानीकी भी कम संभावना है कि वे 'श्री भोजदेवराज्ये' जैसी सुन्दर गद्य प्रशस्तिको स्वकपोलकल्पित करके उसमें जोड़ दें। जिन प्रतियों में उक्त प्रशस्ति नहीं है तो समझना चाहिए कि लेखकों के प्रमादसे उनमें वह प्रशस्ति लिखी ही नहीं गई । जब अन्य अनेक प्रमाणोंसे प्रभाचन्द्रका समय करीब-करीब भोजदेव और जयसिंह राज्यकाल तक पहुँचता है तब इन प्रशस्तिवाक्योंको टिप्पणकारकृत या किसी पीछे होने वाले व्यक्तिकी करतूत कहकर नहीं टाला जा सकता । मेरा यह विश्वास है कि 'श्रीभोजदेवराज्ये' या श्री जयसिंहदेवराज्ये' प्रशस्तियाँ सर्वप्रथम प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके रचयिता प्रभाचन्द्रने ही बनाई हैं । और जिन-जिन ग्रन्थों में ये प्रशस्तियाँ पाई जाती हैं वे प्रसिद्ध तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्रके ही ग्रन्थ होने चाहिए । २- यापनीयसंघाग्रणी शाकटायनाचार्यने शाकटायन व्याकरण और अमोघवृत्तिके सिवाय केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरण लिखे हैं । शाकटायनने अमोघवृत्ति, महाराज अमोघवर्ष के राज्यकाल ( ई० ८१४से ८७७ ) में रची थी । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में शाकटायनके इन दोनों प्रकरणों का खंडन आनुपूर्वीसे किया है । न्यायकुमुदचन्द्र में स्त्रीमुक्तिप्रकरणसे एक कारिका भी उद्धृत की है । अतः प्रभाचन्द्रका समय ई० ९०० से पहिले नहीं माना जा सकता । १. देखो, इनका परिचय न्यायकु० प्र० भागके सम्पादकीय में । २. पं० नाथूरामजी प्रेमी अपनी नोटबुक के आधारसे सूचित करते हैं कि - " भाण्डारकर इन्स्टीट्यूटकी नं० ८३६ ( सन् १८७५-७६ ) की प्रतिमें प्रशस्तिका 'श्रीपद्मनन्दि' वाला श्लोक और 'भोजदेवराज्ये, वाक्य नहीं । वहींकी नं० ६३८ ( सन् १८७५-७६ ) वाली प्रतिमें 'श्री पद्मनन्दि' श्लोक है पर 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं है । पहिली प्रति संवत् १४८९ तथा दूसरी संवत् १७५५ की लिखी हुई है ।" वीरवाणीविलास भवन के अध्यक्ष पं० लोकनाथ पार्श्वनाथशास्त्री अपने यहाँकी ताडपत्रकी दो पूर्ण प्रतियोंको देखकर लिखते हैं कि - " प्रतियोंकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुद्रितपुस्तकानुसार प्रशस्ति श्लोक पूरे हैं और 'श्री भोजदेवराज्ये श्रीमद्वारानिवासिना' आदि वाक्य हैं। प्रमेयकमलमार्त्तण्डकी प्रतियोंमें बहुत शैथिल्य है, परन्तु करीब ६०० वर्ष पहिले लिखित होगी। उन दोनों प्रतियों में शकसंवत् नहीं हैं ।" सोलापुरकी प्रतिमें "श्रीभोजदेवराज्ये" प्रशस्ति नहीं है। दिल्लीको आधुनिक प्रतिमें भी उक्तवाक्य नहीं है । अनेक प्रतियों में प्रथम अध्यायके अन्तमें पाए जानेवाले “सिद्धं सर्वजनप्रबोध" श्लोककी व्याख्या नहीं है । इन्दौरी तुकोगंजवाली प्रतिमें प्रशस्तिवाक्य है और उक्त श्लोककी व्याख्या भी है । खुरईकी प्रतिमें 'भोजदेवराज्य' प्रशस्ति नहीं है, पर चारों प्रशस्ति श्लोक हैं । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ ३- सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारपर सिद्धर्षिगणिकी एक वृत्ति उपलब्ध है। हम 'सिद्धर्षि और प्रभाचन्द्र' की तुलनामें बता आए हैं कि प्रभाचन्द्रने न्यायावतार के साथही साथ इस वृत्तिको भी देखा है । सिद्धर्षिने ई०९०६ में अपनी उपमितिभवप्रपञ्चाकथा बनाई थी । अतः न्यायावतारवृत्तिके द्रष्टा प्रभाचन्द्रका समय सन् ९१० के पहिले नहीं माना जा सकता । ४ -भासर्वज्ञका न्यायसार ग्रंथ उपलब्ध है । कहा जाता है कि इसपर भासर्वज्ञकी स्वपोज्ञ न्यायभूषणा नामकी वृत्ति थी । इस वृत्तिके नामसे उत्तरकालमें इनकी भी 'भूषण' रूपमें प्रसिद्धि हो गई थी । न्यायलीलावतीकारके कथनसे' ज्ञात होता है कि भूषण क्रियाको संयोग रूप मानते थे । प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुद - चन्द्र ( पृ० २८२ ) में भासर्वज्ञके इस मतका खंडन किया है । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड के छठवें अध्यायमें जिन विशेष्यासिद्ध आदि हेत्वाभासोंका निरूपण है वे सब न्यायसारसे ही लिए गए है । स्व० डॉ० शतीशचन्द्र रे विद्याभूषण इनका समय ई० ९०० के लगभग मानते हैं । अतः प्रभाचन्द्रका समय भी ई० ९०० के बाद ही होना चाहिए । ५-आ० देवसेनने अपने दर्शनसार ग्रन्थ ( रचनासमय ९९० वि० ९३३ ई० ) के बाद भावसंग्रह ग्रन्थ बनाया हैं । इसकी रचना संभवतः सन् ९४० के आसपास हुई होगी । इसकी एक 'नोकम्मकम्महारो' गाथा प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र में उद्धृत है । यदि यह गाथा स्वयं देवसेनकी है तो प्रभाचन्द्रका समय सन् ९४० के बाद होना चाहिए । ६-आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमल० और न्यायकुमुद० बनानेके बाद शब्दाम्भोजभास्कर नामका जैनेन्द्रन्यास रचा था । यह न्यास जैनेन्द्रमहावृत्तिके बाद इसके आधारसे बनाया गया है । मैं 'अभयनन्दि और प्रभाचन्द्र' की तुलना करते हुए लिख आया हूँ कि नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के गुरु अभयनन्दिने ही यदि महावृत्ति बनाई है तो इसका रचनाकाल अनुमानतः ९६० ई० होना चाहिए। अतः प्रभाचन्द्रका समय ई० ९६० से पहिले नहीं माना जा सकता । ७- पुष्पदन्तकृत अपभ्रंशभाषा के महापुराणपर प्रभाचन्द्रने एक टिप्पण रचा है । इसकी प्रशस्ति रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावना ( पृ० ६१ ) में दी गई है । यह टिप्पण जयसिंहदेव के राज्यकालमें लिखा गया है । पुष्पदन्तने अपना महापुराण सन् ९६५ ई० में समाप्त किया था । टिप्पणकी प्रशस्तिसे तो यही मालूम होता है कि प्रसिद्ध प्रभाचन्द्र ही इस टिप्पणकर्ता हैं । यदि यही प्रभाचन्द्र इसके रचयिता हैं, तो कहना होगा कि प्रभाचन्द्रका समय ई० ९६५ के बाद ही होना चाहिए । यह टिप्पण इन्होंने न्यायकुमुदचन्द्रकी रचना करके लिखा होगा । यदि यह टिप्पण प्रसिद्ध तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्रका न माना जाय तब भी इसकी प्रशस्तिके श्लोक और पुष्पिकालेख, जिनमें प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के प्रशस्तिश्लोकोंका एवं पुष्पिकालेखका पूरा-पूरा अनुकरण किया गया है, प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधि जयसिंहके राज्यकाल तक निश्चित करने में साधक तो हो ही सकते 1 ८- श्रीधर और प्रभाचन्द्रकी तुलना करते समय हम बता आए हैं कि प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंपर श्रीधरकी कन्दली भी अपनी आभा दे रही है । श्रीधरने कन्दली टीका ई० सन् ९९१ में समाप्त की थी । अतः १. देखो, न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० २८२, टि० ५ । २. न्यायसार प्रस्तावना, पृ० ५ । ३. देखो, महापुराणकी प्रस्तावना । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १७३ प्रभाचन्द्रकी पूर्वावधि ई० १९० के करीब मानना और उनका कार्यकाल ई० १०२० के लगभग मानना संगत मालम होता है। ९-श्रवणबेल्गोलाके लेख नं० ४० ( ६४ ) में एक पद्मनन्दिसैद्धान्तिकका उल्लेख है और इन्हींके शिष्य कुलभूषणके सधर्मा प्रभाचन्द्रको शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथिततर्क ग्रन्थकार लिखा है "अविद्धकर्णादिकपद्मनन्दिसैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके। कौमारदेवव्रतिताप्रसिद्धिर्जीयात्तु सो ज्ञाननिधिस्स धोरः ॥ १५ ॥ तच्छिष्यः कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारांनिधि, सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तत्सधर्मो महान् । शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथिततर्कग्रन्थकारः प्रभा चन्द्राख्यो मुनिराजपण्डितवरः श्रीकुन्दकुन्दान्वयः ॥ १६ ॥" उस लेखमें वर्णित प्रभाचन्द्र, शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथिततर्कग्रन्थकार विशेषणोंके बलसे शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्रन्यास और प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थोंके कर्ता प्रस्तुत प्रभाचन्द्र टीका, पु० २ को प्रस्तावनामें ताडपत्रीय प्रतिका इतिहास बताते हुए प्रो० हीरालालजीने इस शिलालेखमें वर्णित प्रभाचन्द्र के समयपर सयुक्तिक ऐतिहासिक प्रकाश डाला है। उसका सारांश यह है-"उक्त शिलालेखमें कुलभूषणसे आगेकी शिष्यपरम्परा इस प्रकार है-कुलभूषणके सिद्धान्तवारांनिधि सद्वत्त कुलचन्द्र नामके शिष्य हुए, कुलचन्द्रदेवके शिष्य माघनन्दि मुनि हुए, जिन्होंने कोल्लापुरमें तीर्थ स्थापन किया। इनके श्रावक शिष्य थे-सामन्तकेदार नाकरस, सामन्त निम्बदेव और सामन्त कामदेव । माघनन्दिके शिष्य हुए-गण्डविमुक्तदेव, जिनके एक छात्र सेनापति भरत थे, व दूसरे शिष्य भानुकीर्ति और देवकीर्ति, आदि । इस शिलालेखमें बताया है कि महामण्डलाचार्य देवकीर्ति पंडितदेवने कोल्लापुरकी रूपनारायण वसदिके अधीन केल्लंगरेय प्रतापपुरका पुनरुद्धार कराया था, तथा जिननाथपुरमें एक दानशाला स्थापित की थी। उन्हीं अपने गुरुकी परोक्ष विनयके लिए महाप्रधान सर्वाधिकारि हिरिय भंडारी, अभिनवगङ्गदंडनायक श्री हुल्लराजने उनकी निषद्या निर्माण कराई, तथा गुरुके अन्य शिष्य लक्खनन्दि, माधव और त्रिभुवनदेवने महादान व पूजाभिषेक करके प्रतिष्ठा की। देवकीतिक समयपर प्रकाश डालनेवाला शिलालेख नं० ३९ है । इसमें देवकीर्तिकी प्रशस्तिके अतिरिक्त उनके स्वर्गवासका समय शक १०८५ सुभानु संवत्सर आषाढ शुक्ल ९ बुधवार सूर्योदयकाल बतलाया गया है। और कहा गया है कि उनके शिष्य लक्खनन्दि माधवचन्द्र और त्रिभुवनमल्लने गुरुभक्तिसे उनकी निषद्याकी प्रतिष्ठा कराई । देवकीर्ति पद्मनन्दिसे पाँच पीढी तथा कुलभूषण और प्रभाचन्द्रसे चार पीढी बाद हुए हैं। अतः इन आचार्योंको देवकीर्तिके समयसे १००-१२५ वर्ष अर्थात् शक ९५० ( ई० १०२८ ) के लगभग हुए मानना अनुचित न होगा। उक्त आचार्योंके कालनिर्णयमें सहायक एक और प्रमाण मिलता है-कुलचन्द्र मुनिके उत्तराधिकारी माघनन्दि कोल्लापुरीय कहे गए हैं। उनके गहस्थ शिष्य निम्बदेव सामन्तका उल्लेख मिलता है जो शिलाहारनरेश गंडरादित्यदेवके एक सामन्त थे। शिलाहारं गंडरादित्यदेवके उल्लेख शक सं० १०३० से १०५८ तकके लेखोंमें पाए जाते है । इससे भी पूर्वोक्त कालनिर्णयकी पुष्टि होती है।" यह विवेचन शक सं० १०८५ मे लिखे गए शिलालेखों के आधारसे किया गया है। शिलालेखकी वस्तओंका ध्यानसे समीक्षण करनेपर यह प्रश्न होता है कि जिस तरह प्रभाचन्द्रके सधर्मा कलभषणकी शिष्यपरम्परा दक्षिण प्रान्तमें चली उस तरह प्रभाचन्द्रकी शिष्य परम्पराका कोई उल्लेख क्यों नहीं मिलता? मझे तो इसका संभाव्य कारण यही मालम होता है कि पद्मनन्दिके एक शिष्य कुलभूषण तो दक्षिणमें ही रहे और Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ दूसरे प्रभाचन्द्र उत्तर प्रांतमें आकर धारा नगरीके आसपास रहे हैं। यही कारण है कि दक्षिणमें उनकी शिष्य परम्पराका कोई उल्लेख नहीं मिलता। इस शिलालेखीय अंकगणनासे निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि प्रभाचन्द्र भोजदेव और जयसिंह दोनोंके समयमें विद्यमान थे । अतः उनकी पूर्वावधि सन् ९९० के आसपास मानने में कोई बाधक नहीं है। १०-वादिराजसूरिने अपने पार्श्वचरितमें अनेकों पूर्वाचार्योंका स्मरण किया है। पार्श्वचरित शक सं० ९४७ (ई० १०२५) में बनकर समाप्त हुआ था। इन्होंने अकलंकदेवके न्यायविनिश्चय प्रकरणपर न्यायविनिश्चयविवरण या न्यायविनिश्चयतात्पर्यावद्योतनी व्याख्यानरत्नमाला नामकी विस्तृत टोका लिखी है। इस टीकामें पचासों जैन-जनेतर आचार्योंके ग्रन्थोंसे प्रमाण उद्धत किए गए हैं । संभव है कि वादिराजके समयमें प्रभाचन्द्रकी प्रसिद्धि न हो पाई हो, अन्यथा तर्कशास्त्रके रसिक वादिराज अपने इस यशस्वी ग्रन्थकारका नामोल्लेख किए बिना न रहते । यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाण स्वतन्त्रभावसे किसी आचार्यके समयके साधक या बाधक नहीं होते फिर भी अन्य प्रबल प्रमाणोंके प्रकाशमें इन्हें प्रसङ्गसाधनके रूपमें तो उपस्थित किया ही जा सकता है। यही अधिक संभव है कि वादिराज और प्रभाचन्द्र समकालीन और सम-व्यक्तित्वशाली रहे हैं अतः वादिराजने अन्य आचार्यों के साथ प्रभाचन्द्रका उल्लेख नहीं किया है । अब हम प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधिके नियामक कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं १-ईसाकी चौदहवीं शताब्दीके विद्वान अभिनवधर्मभषणने न्यायदीपिका (पृ०१६) में प्रमेयकमलमार्तण्डका उल्लेख किया है। इन्होंने अपनी न्यायदीपिका वि० सं० १४४२ ( ई० १३८५ ) में बनाई थी। ईसाकी १३वीं शताब्दीके विद्वान मल्लिषणने अपनी स्याद्वादमञ्जरी ( रचना समय ई० १२९३ ) में न्यायकूमदचन्द्रका उल्लेख किया है। ईसाकी १२वीं शताब्दीके विद्वान आ० मलयगिरिने आवश्यकनियुक्तिटीका (पृ० ३७१ A.) ने लघीयस्त्रयकी एक कारिकाका व्याख्यान करते हुए 'टीकाकारके' नामसे न्यायकुमुदचन्द्र में की गई उक्त कारिकाकी व्याख्या उद्धृत की है। ईसाकी १२वीं शताब्दीके विद्वान् देवभद्रने न्यायावतारटीकाटिप्पण (पृ० २१, ७६ ) में तथा माणिक्यचन्द्रने काव्यप्रकाशकी टीका (पृ० १४ ) में प्रभाचन्द्र और उनके न्यायकुमुदचन्द्रका नामोल्लेख किया है। अतः इन १२वीं शताब्दी तकके विद्वानों के उल्लेखोंके आधारसे यह प्रामाणिकरूपसे कहा जा सकता है कि प्रभाचन्द्र ई० १२वीं शताब्दीके बादके विद्वान् नहीं हैं। २-रत्नकरण्डश्रावकाचार और समाधितन्त्रपर प्रभाचन्द्रकृत टीकाएँ उपलब्ध हैं। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने इन दोनों टीकाओंको एक ही प्रभाचन्द्रके द्वारा रची हुई सिद्ध किया है। आपके मतसे ये प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिके रचयितासे भिन्न हैं। रत्नकरण्डटीकाका उल्लेख पं० आशाधरजी द्वारा अनागारधर्मामृत टीका (अ०८, श्लो० ९३ ) में किये जानेके कारण इस टीकाका रचनाकाल वि० सं० १३०० से पहिलेका अनुमान किया गया है; क्योंकि अनागारधर्मामृत टीका वि० सं० १३०० में बनकर समाप्त हुई थी। अन्ततः मुख्तारसा० इस टीकाका रचनाकाल विक्रमकी १३वीं शताब्दीका मध्यभाग मानते है । अस्तु, फिलहाल मुख्तारसा० के निर्णयके अनुसार इसका रचनाकाल वि० १२५० ( ई० ११९३ ) ही मानकर प्रस्तुत विचार करते हैं । १. स्वामी, समन्तभद्र, पृ० २२७ । २. रत्नकरण्डश्रावकाचार भूमिका, पृ० ६६ से । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १७५ रत्नकरण्ड श्रावचार ( पृ० ६ ) में केवलिकवलाहारके खंडनमें न्यायकुमुदचन्द्रगत शब्दावलीका पूरा-पूरा अनुसरण करके लिखा है कि- "तदलमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमार्त्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे प्रपञ्चतः प्ररूपणात् ।" इसी तरह समाधितन्त्र टीका ( १७१५ ) में लिखा है कि- "यैः पुनर्योगसांख्यैः मुक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्त्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः प्रत्याख्याताः । " इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थ इन टीकाओंसे पहिले रचे गए हैं । अतः प्रभाचन्द्र ईसाकी १२वीं शताब्दी के बादके विद्वान् नहीं हैं । ३ - वादिदेवसूरिका जन्म वि० सं० ११४३ तथा स्वर्गवास वि० सं० १२२२ में हुआ था । ये वि० सं० १९७४ में आचार्यपदपर प्रतिष्ठित हुए थे । संभव है इन्होंने वि० सं० १९७५ ( ई० १११८ ) के लगभग अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ स्याद्वादरत्नाकरकी रचना की होगी । स्याद्वादरत्नाकरमें प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका न केवल शब्दार्थानुसरण हो किया गया है किन्तु कवलाहारसमर्थन प्रकरण में तथा प्रतिबिम्ब चर्चा में प्रभाचन्द्र और प्रभांचन्द्रके प्रमेयकमलमार्त्तण्डका नामोल्लेख करके खंडन भी किया गया है । अतः प्रभाचन्द्र के समयकी उत्तरावधि अन्ततः ई० ११०० सुनिश्चित हो जाती / ४ - जैनेन्द्रव्याकरण के अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठपर श्रुतकीर्तिने पंचवस्तुप्रक्रिया बनाई है। श्रुतकीर्ति कनड़ीचन्द्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविके गुरु थे । अग्गलकविने शक १०११ ई० १०८९ में चन्द्रप्रभचरित पूर्ण किया था । अतः श्रुतकीर्तिका समय भी लगभग ई० १०७५ होना चाहिए । इन्होंने अपनी प्रक्रिया में एक न्यास ग्रन्थका उल्लेख किया है। संभव है कि यह प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्कर नामका ही न्यास हो । यदि ऐसा है तो प्रभाचन्द्रकी उत्तरावधि ई० १०७५ मानी जा सकती है। शिमोगा जिलेके शिलालेख नं० ४६ से ज्ञात होता है कि पूज्यपादने भी जैनेन्द्र न्यासकी रचना की थी । यदि श्रुतकीर्तिने न्यास पदसे पूज्यपादकृत न्यासका निर्देश किया है तब 'टीकामाल' शब्दसे सूचित होनेवाली टीकाकी माला में तो प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्करको पिरोया हो जा सकता है। इस तरह प्रभाचन्द्र के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती उल्लेखों के आधारसे हम प्रभाचन्द्र का समय सन् ९८० से १०६५ तक निश्चित कर सकते हैं । इन्हीं उल्लेखों के प्रकाशमें जब हम प्रमेयकमलमार्त्तण्डके 'श्री भोजदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेख तथा न्यायकुमुदचन्द्रके 'श्री जयसिंहदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलेखको देखते हैं तो वे अत्यन्त प्रामाणिक मालम होते हैं । उन्हें किसी टीका टिप्पणकारका या किसी अन्य व्यक्तिकी करतूत कहकर नहीं टाला जा सकता । उपर्युक्त विवेचनसे प्रभाचन्द्र के समय की पूर्वावधि और उत्तरावधि करीब-करीब भोजदेव और जयसिंह देवके समय तक ही आती है । अतः प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें पाए जानेवाले प्रशस्ति लेखोंकी प्रामाणिकता और प्रभाचन्द्रकर्तुतामें सन्देहको कोई स्थान नहीं रहता । इसलिए प्रभाचन्द्रका समय ई०९८० से १०६५ तक माननेमें कोई बाधा नहीं है। १. देखो, इसी लेखका "श्रुतकीर्ति और प्रभाचन्द्र" अंश । २. प्रमेयकमलमार्त्तण्डके प्रथमसंस्करण के सम्पादक पं० बंशीधरजी शास्त्री, सोलापुरने उक्त संस्करणके उपोद्घातमें श्रीभोजदेवराज्ये प्रशस्तिके अनुसार प्रभाचन्द्रका समय ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सूचित किया है । और आपने इसके समर्थन के लिए 'नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी गाथाओंका प्रमेयकमलमार्त्तण्डमें उद्धृत होना' यह प्रमाण उपस्थित किया है। पर आपका यह प्रमाण अभ्रान्त नहीं है; प्रमेयकमलमार्त्तण्डमें 'farmersमावण्णा' और 'लोयायासपऐसे' गाथाएँ उद्धृत हैं। पर ये गाथाएँ नेमिचन्द्रकृत नहीं हैं । पहिली गाथा धवलाटीका ( रचनाकाल ई० ८१६ ) में उद्धृत है और उमास्वातिकृत श्रावकप्रज्ञप्ति में भी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ प्रभाचन्द्र के ग्रन्थ आ० प्रभाचन्द्रके जितने ग्रन्थोंका अभी तक अन्वेषण किया गया है उनमें कुछ स्वतन्त्र ग्रन्थ है तथा कुछ व्याख्यात्मक । उनके प्रमेयकमलमार्तण्ड ( परीक्षामुखव्याख्या ), न्यायकुमुदचन्द्र ( लघीयस्त्रय व्याख्या ), तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण ( सर्वार्थसिद्धि व्याख्या ), और शाकटायनन्यास ( शाकटायनव्याकरणव्याख्या ) इन चार ग्रन्थोंका परिचय न्यायकुमुदचन्द्रके प्रथमभागकी प्रस्तावनामें दिया जा चुका है । यहाँ उनके शब्दाम्भोजभास्कर ( जैनेन्द्रव्याकरण महान्यास ); प्रवचनसारसरोजभास्कर (प्रवचनसारटीका ) और गद्यकथाकोशका परिचय दिया जाता है। महापुराणटिप्पण आदि भी इन्हींके ग्रन्थ हैं। इस परिचयके पहिले हम 'शाकटायनन्यास' के कर्तृत्वपर विचार करते है भाई पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने शिलालेख तथा किंवदन्तियोंके आधारसे शाकटायनन्यासको प्रभाचन्द्रकृत लिखा है। शिमोगा जिलेके नगरताल्लुकेके शिलालेख नं० ४६ ( एपि० कर्ना० पु०८, भा० २, पु० २६६-२७३ ) में प्रभाचन्द्रकी प्रशंसापरक ये दो श्लोक है "माणिक्यनन्दिजिनराजवाणीप्राणाधिनाथः परवादिमर्दी । चित्रं प्रभाचन्द्र इह क्षमायां मार्तण्डवृद्धौ नितरां व्यदीपित ।। रसुखि 'न्यायकुमुदचन्द्रोदयकृते नमः । शाकटायनकृत्सूत्रन्यासकरें व्रतीन्दवे ॥" जैनसिद्धान्तभवन, आरामें वर्धमानमुनिकृत दशभक्त्यादिमहाशास्त्र है । उसमें भी ये श्लोक हैं। उनमें 'सूखि....' की जगह 'सुखीशे' तथा 'व्रतीन्दवे' के स्थानमें 'प्रभेन्दवे' पाठ है । यह शिलालेख १६ वीं शताब्दीका पाई जाती है। दूसरी गाथा पूज्यपाद (ई० ६वीं ) कृत सर्वार्थसिद्धि में उद्धत है। अतः इन प्राचीन गाथाओंको नेमिचन्द्रकृत नहीं माना जा सकता। अवश्य ही इन्हें नेमिचन्द्रने जीवकाण्ड और द्रव्यसंग्रहमें संग्रहीत किया है। अतः इन गाथाओंका उद्धृत होना ही प्रभाचन्द्रके समयको ११वीं सदी नहीं साध सकता। १. न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना, पृ० १२५ । इस शिलालेखके अनुवादमें राइस सा० ने आ० पूज्यपादको ही न्यायकुमुदचन्द्रोदय और शाकटायनन्यासका कर्ता लिख दिया है। यह गलती आपसे इसलिये हुई कि इस श्लोकके बाद ही पूज्यपादकी प्रशंसा करनेवाला एक श्लोक है, उसका अन्वय आपने भूलसे "सुखि" इत्यादि श्लोकके साथ कर दिया है। वह श्लोक यह है "न्यासं जैनेन्द्रसंज्ञं सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो, न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्त्वार्थस्य टोकां व्यरचयदिह तां भात्यसौ पूज्यपाद, स्वामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्बोधवृत्तः ॥" थोड़ी-सी सावधानीसे विचार करनेपर यह स्पष्ट मालूम होता है कि 'सुखि' इत्यादि श्लोकके चतुर्थ्यन्त पदोंका 'न्यास' वाले श्लोकसे कोई भी सम्बन्ध नहीं है । ब्र० शीतलप्रसादजीने 'मद्रास और मैसूरप्रान्तके स्मारक' में तथा प्रो० हीरालालजीने 'जैन शिलालेख संग्रह' की भूमिका (पृ० १४१ ) में भी राइस सा० का अनुसरण करके इसी गलतीको दुहराया है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १७७ है और वर्धमानमुनिका समय भी १६वीं शताब्दी ही है । शाकटायनन्यासके प्रथम दो अध्यायोंकी प्रतिलिपि स्याद्वादविद्यालयके सरस्वतीभवनमें मौजूद है । उसको सरसरी तौरसे पलटनेपर मुझे इसके प्रभाचन्द्रकृत होने में निम्नलिखित कारणोंसे सन्देह उत्पन्न हुआ है १ - इस ग्रन्थ में मंगलश्लोक नहीं है जब कि प्रभाचन्द्र अपने प्रत्येक ग्रन्थ में मंगलाचरण नियमित रूपसे करते हैं" । २ - सन्धियों के अन्त में तथा ग्रन्थ में कहीं भी प्रभाचन्द्रका नामोल्लेख नहीं है जब कि प्रभाचन्द्र अपने प्रत्येक ग्रन्थ में ' इति प्रभाचन्द्रविरचिते' आदि पुष्पिकालेख या 'प्रमेन्दुजिन: ' आदि रूपसे अपना नामोल्लेख करनेमें नहीं चूकते । ३ - प्रभाचन्द्र अपनी टीकाओंके प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र शब्दाम्भोजभास्कर आदि नाम रखते हैं जब कि इस ग्रन्थके इन श्लोकोंमें इसका कोई खास नाम सूचित नहीं होता ४- शाकटायन यापनीयसंघके आचार्य थे और प्रभाचन्द्र थे कट्टर दिगम्बर । इन्होंने शाकटायनके स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिप्रकरणों का खंडन भी किया है। अतः शाकटायनके व्याकरणपर प्रभाचन्द्र के द्वारा न्यास लिखा जाना कुछ समझ में नहीं आता । ५ - इस न्यास में शाकटायनके लिए प्रयुक्त 'संघाधिपति, महाश्रमण संघप' आदि विशेषणोंका समर्थन है । यापनीय आचार्यके इन विशेषणोंके समर्थनकी आशा प्रभाचन्द्र द्वारा नहीं की जा सकती । यथा "शब्दानां शासनाख्यस्य शास्त्रस्यान्वर्थनामतः । प्रसिद्धस्य महामोघवृत्तेरपि विशेषतः ॥ सूत्राणां च विवृतिर्लिख्यते च यथामति । ग्रन्थस्यास्य च न्यासेति ( ? ) क्रियते नामनामतः ॥" "एवंभूतमिदं शास्त्रं चतुरध्यायरूपतः, संघाधिपतिः श्रीमानाचार्यः शाकटायनः । महतारभते तत्र महाश्रमणसंघपः, श्रमेण शब्दतत्त्वं च विशदं च विशेषतः ॥ महाश्रमण संघाधिपतिरित्यनेन मनः समाधानमाख्यायते । विषयेषु विक्षिप्तचेतसो न मनः समाधि · असमाहितचेतसश्च किं नाम शास्त्रकरणम्, आचार्य इति तु शब्दविद्याया गुरुत्वं शाकटायन इति अन्वयबुद्धिप्रकर्षः, विशुद्धान्वयो हि शिष्टैरुपलीयते । महाश्रमणसंघाधिपतेः सन्मार्गानुशासनं युक्तमेव" ६- प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में जैनेन्द्र व्याकरणसे ही सूत्रोंके उद्धरण दिए हैं जिसपर उनका शब्दाम्भोजभास्कर न्यास है । यदि शाकटायनपर भी उनका न्यास होता तो वे एकाध स्थानपर तो शाकटायनव्याकरणके सूत्र उद्धृत करते । १. मैसूर यूनि० में न्यासग्रन्थकी दूसरे अध्यायके चौथे पादके १२४ सूत्र तककी कापी है ( नं० A. 605 ) । उसमें निम्नलिखित मंगलश्लोक है " प्रणम्य जयिनः प्राप्तविश्वव्याकरणाश्रियः । शब्दानुशासनस्येयं वृत्तेविवरणोद्यमः ॥ अस्मिन् भाष्याणि भाष्यन्ते वृत्तयो वृत्तिमाश्रिताः । न्यासा न्यस्ताः कृताः टीकाः पारं पारायणान्ययुः ॥ तत्र वृत्ता ( त्या ) दावयं मंगलश्लोकः श्रीवीरममृतमित्यादि । " परन्तु इन श्लोकोंकी रचनाशैली प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र आदिके मंगलश्लोकोंसे अत्यन्त विलक्षण है । ४-२३ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ ७- प्रभाचन्द्र अपने पूर्वग्रन्थोंका उत्तरग्रन्थों में प्रायः उल्लेख करते हैं । यथा न्यायकुमुदचन्द्र तत्पूर्वकालीन प्रमेयकमलमार्त्तण्डका तथा शब्दाम्भोजभास्कर में न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्त्तण्ड दोनोंका उल्लेख पाया जाता है । यदि शाकटायनन्यास उन्होंने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड आदिके पहिले बनाया होता तो प्रमेयकमलमार्त्तण्ड आदिमें शाकटायनव्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण होते और इस न्यासका उल्लेख भी होता । यदि यह उत्तरकालीन रचना है तो इसमें प्रमेयकमल आदिका उल्लेख होना चाहिए था जैसा कि शब्दाम्भोजभास्कर में देखा जाता है । ८-शब्दाम्भोजभास्कर में प्रभाचन्द्रकी भाषाकी जो प्रसन्नता तथा प्रावाहिकता है वह इस दुख्ह न्यासमें नहीं देखी जाती । इस शैलीवैचित्र्यसे भी इसके प्रभाचन्द्रकृत होने में सन्देह होता है । प्रभाचन्द्रने सन्दाम्भोजकर नामका न्यास बनाया था और इसलिए उनकी न्यासकारके रूपसे भी प्रसिद्धि रही है । मालूम होता कि वर्धमानमुनिने प्रभाचन्द्रकी इसी प्रसिद्धि के आधारसे इन्हें शाकटायनन्यासका कर्ता लिख दिया है। मुझे तो ऐसा लगता है कि यह न्यास स्वयं शाकटायनने ही बनाया होगा । अनेक वैयाकरणोंने अपने ही व्याकरणपर न्यास लिखे हैं । शब्दाम्भोजभास्कर - श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० ४० ( ६४ ) में प्रभाचन्द्रके लिये 'शब्दाम्भोज दिवाकरः ' विशेषण भी दिया गया है । इस अर्थगर्भ विशेषणसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे प्रथिततर्क ग्रन्थोंके कर्ता प्रथिततर्क ग्रन्थकार प्रभाचन्द्र ही शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्र व्याकरण महान्यास के रचयिता हैं । ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वतीभवनकी अधूरी प्रतिके आधारसे इसका टूक परिचय यहाँ दिया जाता है । यह प्रति संवत् १९८० में देहलीकी प्रतिसे लिखाई गई है । इसमें जैनेन्द्रव्याकरणके मात्र तीन अध्यायका ही न्यास है सो भी बीचमें जगह-जगह त्रुटित है । ३९ से ६७ to के पत्र इस प्रतिमें नहीं हैं । प्रारम्भके २८ पत्र किसी दूसरे लेखकने लिखे हैं । पत्रसंख्या २२८ है । एक पत्र में १३ से १५ तक पंक्तियाँ और एक पंक्ति में ३९ से ४३ तक अक्षर हैं । पत्र बड़ी साइजके हैं । मंगला चरण “श्रीपूज्यपादमकलङ्कमनन्तबोधम्, शब्दार्थ संशयहरं निखिलेषु बोधम् । सच्छब्दलक्षणमशेषमतः प्रसिद्ध वक्ष्ये परिस्फुटमलं प्रणिपत्य सिद्धम् ॥ १ ॥ सविस्तरं यद् गुरुभिः प्रकाशितं महामतीनामभिधानलक्षणम् । मनोहरैः स्वल्पपदैः प्रकाश्यते महद्भिरुपदिष्टि याति सर्वापिमार्गे ( ? ) ... तदुक्त कृतशिक्ष ( ? ) श्लाध्यते तद्धि तस्य । किमुक्तमखिलज्ञे र्भाषमाणे गणेन्द्रो विविक्तमखिलार्थं श्लाघ्यतेऽतो मुनीन्द्रः ॥ ३ ॥ शब्दानामनुशासनानि निखिलान्याध्यायताहर्निशम्, यो यः सारतरो विचारचतुरस्तल्लक्षणांशो गतः । तं स्वीकृत्य तिलोत्तमेव विदुषां चेतश्चमत्कारकः, सुव्यक्ते रसमैः प्रसन्नवचनैन्य सः समारभ्यते ॥ ४ ॥ श्री पूज्यपादस्वामि ( मी ) विनेयानां शब्दसाधुत्वासाधुत्वविवेक प्रतिपत्त्यर्थं शब्द लक्षणप्रणयनं कुर्वाणो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमात्यादिकमभिलषन्निष्टदेवतास्तुतिविषयं नमस्कुर्वन्नाह - लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य..." यह न्यास अभयनन्दिकृत जैनेन्द्रमहावृत्तिके बाद बनाया गया है। इसमें महावृत्तिके शब्द आनुपूर्वस ले लिए गए हैं और कहीं उनका व्याख्यान भी किया है । यथा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १७९ "सिद्धिरनेकान्तात् प्रकृत्यादिविभागेन व्यवहाररूपा श्रोत्रग्राह्यतया परमार्थतोपेता प्रकृत्यादिविभागेन च शब्दानां सिद्धिरनेकान्ताद् भवतीत्यर्थाधिकार आशास्त्रपरिसमाप्तेर्वेदितव्यः । अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वसामान्य सामानाधिकरण्य विशेषणविशेष्यादिकोऽनेकः अन्तः स्वभावो यस्मिन् भावे सोऽयमनेकान्तः अनेकात्मा इत्यर्थ: " - महावृत्ति, पृ० २ । " द्विविधा व शब्दानां सिद्धिः व्यवहाररूपा परमार्थरूपा चेति । तत्र प्रकृतीत्य ( ? ) विकारागमादिविभागेन रूपा तत्सिद्धिः तद्भेदस्यात्र प्राधान्यात् । श्रोत्रग्राह्यौ ( ह्या ) परमार्थतो ये प्रकृत्यादिविभागाः प्रमाणनयादिभिरभिगमोपायैः शब्दानां तत्त्वप्रतिपत्तिः परमार्थरूपा सिद्धिः तद्भेदस्यात्र प्राधान्यात्, सामयितेषां सिद्धिरमेकान्ताद्भवतीत्येषोऽधिकारः आशास्त्रपरिसमाप्तेर्वेदितव्यः । अथ कोऽयमनेकान्तो नामेत्याहअस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यत्वसामान्यसामानाधिकरण्य विशेषण विशेष्यादिकोऽनेकान्तः स्वभावो यस्यार्थस्यासावकान्तः अनेकान्तात्मक इत्यर्थः - शब्दाम्भोजभास्कर, पृ० २ A इस तुलनासे तथा तृतीयाध्यायके अन्त में लिखे गये इस श्लोकसे अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि यह म्यास जैमेन्द्र महावृत्ति के बाद बनाया गया है— " नमः श्रीवर्धमानाय महते देवनन्दिने । प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभयनन्दिने ॥ " इस श्लोक में अभयनन्दिको नमस्कार किया गया है। प्रत्येक पादकी समाप्तिमें " इति प्रभाचन्द्रविर - चिते शब्दाम्भोजभास्करे जैनेन्द्रव्याकरणमहान्यासे द्वितीयाध्यायस्य तृतीयः पादः " इसी प्रकारके पुष्पिकालेख है। तृतीय अध्यायके अन्त में निम्नलिखित पुष्पिका तथा श्लोक है " इति प्रभाचन्द्रविरचिते शब्दाम्भोजभास्करे जैनेन्द्रव्याकरणमहान्या से तृतीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ॥ श्रीवर्धमानाय नमः ॥ सन्मार्ग प्रतिबोधको बुधजनैः संस्तूयमानो हठात् । अज्ञानान्धतमोपहः क्षितितले श्रोपूज्यपादो महान् ॥ सार्वः सन्ततसत्रिसन्धिनियतः पूर्वापरानुक्रमः । शब्दाम्भोज दिवाकरोऽस्तु सहसा नः श्रेयसे यं च वै ॥ नमः श्रीवर्धमानाय महते देवनन्दिने । प्रभाचन्द्राय गुरुवे तस्मै चाभयनन्दिने ॥ छ ॥ श्री वासुपूज्याय नमः | श्री नृपतिविक्रमादित्यराज्येन संवत् १९८० मासोत्तममासे चैत्रशुक्लपक्षे एकादश्यां ११ श्री महावीर संवत् २४४९ । हस्ताक्षर छाजूराम जैन विजेश्वरी लेखक पालम ( सूबा देहली ) " जैनेन्द्रव्याकरणके दो सूत्रपाठ प्रचलित हैं- एक तो वह जिसपर अभयनन्दिने महावृत्ति, तथा श्रुतकीर्तिने पञ्चवस्तु नामकी प्रक्रिया बनाई है; और दूसरा वह जिसपर सोमदेवसूरिकृत शब्दार्णवचन्द्रिका है । पं० नाथूरामजी प्रेमीने' अनेक पुष्ट प्रमाणोंसे अभयनन्दिसम्मत सूत्रपाठको ही प्राचीन तथा पूज्यपादकृत मूलसूत्रपाठ सिद्ध किया है । प्रभाचन्द्रने इसी अभयनन्दिसम्मत प्राचीन सूत्रपाठपर ही अपना यह शब्दाम्भोजभास्कर नामका महान्यास बनाया है । १. देखो - 'जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी' लेख, जैनसाहित्य संशोधक भाग १, अंक २ । २. पंडित नाथूलालजी शास्त्री, इन्दौर सूचित करते हैं कि तुकोगंज, इन्दौरके ग्रन्थभण्डारमें भी शब्दाम्भोजभास्करके तीन ही अध्याय हैं । उसका मंगलाचरण तथा अन्तिम प्रशस्तिलेख बम्बईकी प्रतिके ही समान Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ आ० प्रभाचन्द्रने इस ग्रन्थको प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रकी रचनाके बाद बनाया है। जैसा कि उनके निम्नलिखित वाक्यसे सूचित होता है “तदात्मकत्वं चार्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा सिद्धयति तथा प्रपञ्चतः प्रमेयकमलमार्त्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च प्ररूपितमिह द्रष्टव्यम् ।" प्रभाचन्द्र अपने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ३२९ ) में प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ग्रन्थ देखनेका अनुरोध इसी तरहके शब्दोंमें करते हैं- " एतच्च प्रमेयकमलमार्त्तण्डे सप्रपञ्चं प्रपञ्चितमिह द्रष्टव्यम् ।" व्याकरण जैसे शुष्क शब्दविषयक इस ग्रन्थ में प्रभाचन्द्रकी प्रसन्न लेखनीसे प्रसूत दर्शनशास्त्रकी क्वचित् अर्थप्रधान चर्चा इस ग्रन्थके गौरवको असाधारणतया बढ़ा रही है। इसमें विधिविचार, कारकविचार, लिंगविचार जैसे अनूठे प्रकरण हैं जो इस ग्रन्थको किसी भी दर्शन ग्रन्थकी कोटिमें रख सकते हैं । इसमें समन्तभद्रके युक्त्यनुशासन तथा अन्य अनेक आचार्योंके पद्योंको प्रमाण रूपसे उद्धृत किया है । पृ० ९१ में 'विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो जनिता' प्रयोगका हृदयग्राही व्याख्यान किया है । इस तरह क्या भाषा, क्या विषय और क्या प्रसन्नशैली, हर एक दृष्टिसे प्रभाचन्द्रका निर्मल और प्रौढ़ पाण्डित्य इस ग्रन्थ में उदात्तभाव से निहित है । प्रवचनसारसरोजभास्कर --- यह प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलको विकसित करनेके लिए मार्त्तण्ड बनानेके पहिले प्रवचनसारसरोजके विकासार्थ भास्करका उदय किया हो तो कोई अनहोनी बात न होकर अधिक संभव और निश्चित बात मालूम होती है । ( प्रमेय ) कमलमार्त्तण्ड, ( न्याय ) कुमुदचन्द्र, ( शब्द ) अम्भोजभास्कर जैसे सुन्दर नामोंकी कल्पिका प्रभाचन्द्रीय बुद्धिने हो ( प्रवचनसार ) सरोजभास्करका उदय किया है। इस ग्रन्थको संवत् १५५५ की लिखी हुई जीर्ण प्रति हमारे सामने है । यह प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बईकी है । इसका परिचय संक्षेपमें इस प्रकार है पत्रसंख्या ५३, श्लोकसंख्या १७४६, साइज १३x६ । एक पत्र में १२ पंक्तियाँ तथा एक पंक्ति में ४२-४३ अक्षर हैं । लिखावट अच्छी और शुद्ध प्राय है । प्रारम्भ "ओं नमः सर्वज्ञाय शिष्याशयः । वीरं प्रवचनसारं निखिलार्थं निर्मलजनानन्दम् । वक्ष्ये सुखावबोधं निर्वाणपदं प्रणम्याप्तम् ॥ श्री कुन्दकुन्दाचार्यः सकललोकोपकारकं मोक्षमार्ग मध्ययन रुचिविनेयाशयवशेनोपदर्शयितुकामो निर्विघ्नः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं शास्त्रस्यादौ नमस्कुर्वन्नाह ॥ छ | एस सुरासुर ।” अन्त—“इति श्रीप्रभाचन्द्रदेवविरचिते प्रवचनसारसरोजभास्करे शुभोपयोगाधिकारः समाप्तः ॥ छ ॥ संवत् १५५५ वर्षे माघमासे शुक्लपक्षे पून्य ( णि ) मायां तिथौ गुरुवासरे गिरिपुरे व्या० पुरुषोत्तम लि० ग्रन्थसंख्या षट्चत्वारिंशदधिकानि सप्तदशशतानि ।। १७४६ ॥ " मध्यकी सन्धियों का पुष्पिकालेख - " इति श्रीप्रभाचन्द्रदेवविरचिते प्रवचनसारस रोजभास्करे...” 'है । इस टीकामें जगह-जगह उद्धृत दार्शनिक अवतरण, दार्शनिक व्याख्यापद्धति एवं सरल प्रसन्न शैली है। पं० भुजबलीजी शास्त्रीके पत्रसे ज्ञात हुआ है कि कारकलके मठमें भी इसकी प्रति है । इस प्रतिमें भी तीन अध्यायका न्यास है । प्रेमीजी सूचित करते हैं कि बंबईके भवनमें इसकी एक प्राचीन प्रति है उसमें चतुर्थ अध्यायके तीसरे पादके २११वें सूत्र तकका न्यास है, आगे नहीं है । हो सकता है कि यह प्रभाचन्द्रकी अन्तिम कृति ही हो और इसलिए पूर्ण न हो सकी हो । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १८१ इसे न्यायकुमुदचन्द्रादिके रचयिता प्रभाचन्द्र की कृति सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त हैं । अवतरण - ( गा० २।१० ) "नाशोत्पादौ समं यद्वन्नामोन्नासौ तुलान्तयोः " ( गा० २२८ ) " स्वोपात्तकर्मवशाद्भवाद् भवान्तरावाप्तिः संसार:" इनमें दूसरा अवतरण राजवार्तिकका तथा प्रथम किसी बौद्ध ग्रन्थका है । ये दोनों अवतरण प्रमेय - कमल और न्यायकुमुद० में भी पाए जाते हैं । इस व्याख्याकी दार्शनिक शैलीके नमूने ( गा० २।१३ ) " यदि हि द्रव्यं स्वयं सदात्मकं न स्यात् तदा स्वयमसदात्मकं सत्तातः पृथग्वा ? तत्राद्यः पक्षो न भवति; यदि सत् सद्रूपं द्रव्यं तदा असद्रूपं ध्रुवं निश्चयेन न तं तत् भवति । कथं केन प्रकारेण द्रव्यं खरविषाणवत् । हवदिपुणो अण्णं वा । अथ सत्तातः पुनरन्यद्वा पृथग्भूतं द्रव्यं भवति तदा अतः पृथग्भूतस्यापि सत्त्वे सत्ताकल्पना व्यर्था । सत्तासम्बन्धात्सत्त्वे चान्योन्याश्रयः सिद्धे हि तत्सत्त्वे सत्तासम्बन्धसिद्धिः तस्याञ्च सम्बन्धसिद्धौ सत्यां तत्सत्त्व सिद्धिरिति । तत्सत्त्वसिद्धिमन्तरेणापि सत्तासम्बन्धे खपुष्पादेरपि तत्प्रसङ्गः । तस्मात् द्रव्यं स्वयं सत्ता स्वयमेव सदभ्युपगन्तव्यम् ।" ( गा० २।१६ ) तथाहि - द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रवत्तांस्तान् गुणपर्यायान् गुणपर्यायैर्वा द्रोष्यते द्रुतं वा द्रव्यमिति । गम्यते उपलभ्यते द्रव्यमनेनेति गुणः । द्रव्यं वा द्रव्यान्तरात् येन विशिष्यते स गुणः । इत्येतस्मादर्थं विशेषात् यद् द्रव्यस्य गुणरूपे गुणरूपेण गुणस्य वा द्रव्यरूपेणाभवनं एसो एष हि अतद्भावः ।" इन गाथाओंकी अमृतचन्द्रीय और जयसेनीय टीकाओंसे इस टीकाकी तुलना करनेपर इसकी दार्शनिकप्रसूतता अपने आप झलक मारती है। इस टीकाका जयसेनीयटीकापर प्रभाव है और जयसेनीयटीकासे यह निश्चय ही पूर्वकालीन है । अमृतचन्द्राचार्यने प्रवचनसारकी जिन ३६ गाथाओंकी व्याख्या नहीं की है प्रायः वे गाथाएँ प्रवनसारसरोजभास्करमें यथास्थान व्याख्यात हैं । जयसेधीय टीकामें प्रभाचन्द्रका अनुसरण करते हुए इन गाथाओंकी व्याख्या की गई है । हाँ, जयसेनीयटीकामें दो-तीन गाथाएँ अति रिक्त भी हैं। इस टीकाका लक्ष्य गाथाओंका संक्षेपसे खुलासा करना । परन्तु प्रभाचन्द्र प्रारम्भ से ही दर्शनशास्त्र के विशिष्ट अभ्यासी रहे हैं इसलिए जहाँ खास अवसर आया वहाँ उन्होंने संक्षेपसे दार्शनिक मुद्दोंका भी निर्देश किया है । प्रो० ए० एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी भूमिकामें भावत्रिभंगीकार श्रुतमुनिके 'सारत्रयनिपुण प्रभाचन्द्र' के उल्लेखसे प्रवचनसारसरोजभास्करके कर्त्ताका समय १४वीं सदीका प्रारम्भिक भाग सूचित किया है | परन्तु यह संभावना किसी दृढ़ आधारसे नहीं की गई है। जयसेनीय टीकापर इसका प्रभाव होनेसे ये उनसे प्राक्कालीन तो हैं ही । आ० जयसेन अपनी टीकामें ( पृ० २९ ) केवलिकवलाहारके खंडनका उपसंहार करते हुए लिखते हैं कि - " अन्येपि पिण्डशुद्धिकथिता बहवो दोषाः ते चान्यत्र तर्कशास्त्रे ज्ञातव्या अत्र चाध्यात्मग्रन्थत्वान्नोच्यन्ते ।" सम्भव है यहाँ तर्कशास्त्रसे प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड आदिको विवक्षा हो । अस्तु, मुझे तो यह संक्षिप्त पर विशद टीका प्रभाचन्द्राचार्यकी प्रारम्भिककृति मालूम होती है । गद्यकथाकोश - यह ग्रन्थ भी इन्हीं प्रभाचन्द्रका मालूम होता है । इसकी प्रतिमें ८९वीं कथाके बाद "श्रीजयसिंहदेवराज्ये" "प्रशस्ति है । इसके प्रशस्ति श्लोकोंका प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र आदिके प्रशस्तिश्लोकोंसे पूरा-पूरा सादृश्य है । इसका मंगलश्लोक यह है १. न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना, पृ० १२२ “राराध्य चतुर्विधामनुपमामाराधनां निर्मलाम् । प्राप्तं सर्वसुखास्पदं निरुपमं स्वर्गापवर्गप्रदा ( ? ) । - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ प्रणम्य मोक्षप्रदमस्तदोषं प्रकृष्टपुण्यप्रभवं जिनेन्द्रम् | वक्ष्येऽत्र भव्य प्रतिबोधनार्थं माराधनासत्सुकथाप्रबन्धः ॥” ८९वीं कथाके अनन्तर "जयसिंहदेवराज्ये" प्रशस्ति लिखकर ग्रन्थ समाप्त कर दिया है। इसके अनन्तर भी कुछ कथाएँ लिखीं हैं । और अन्तमें "सुकोमलैः सर्वसुखावबोधः " श्लोक तथा " इति भट्टारकप्रभाचन्द्रकृतः कथाकोशः समाप्तः " यह पुष्पिकालेख है । इस तरह इसमें दो स्थलोंपर ग्रन्थसमाप्तिको सूचना है जो खासतौर से विचारणीय है । हो सकता है कि प्रभाचन्द्रने प्रारम्भकी ८९ कथाएँ ही बनाई हों और बादकी कथाएँ किसी दूसरे भट्टारकप्रभाचन्द्रने । अथवा लेखकने भूलसे ८९वीं कथाके बाद ही ग्रन्थ समाप्ति - सूचक पुष्पिकालेख लिख दिया हो। इसको खासतौरसे जाँचे बिना अभी विशेष कुछ कहना शक्य नहीं है । मेरे विचारसे प्रभाचन्द्रने तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण और प्रवचनसारसरोजभास्कर भोजदेव के राज्यसे पहिले अपनी प्रारम्भिक अवस्था में बनाए होंगे यही कारण है कि उनमें 'भोजदेवराज्ये' या 'जयसिंहदेव राज्ये ' कोई प्रशस्ति नहीं पाई जाती और न उन ग्रन्थोंमें प्रमेयकमलमार्त्तण्ड आदिका उल्लेख ही पाया जाता है । इस तरह हम प्रभाचन्द्रकी ग्रन्थरचनाका क्रम इस प्रकार समझते हैं-तत्त्वार्थ वृत्तिपदविवरण, प्रवचनसारसरोजभास्कर, 'प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, शब्दाम्भोजभास्कर, महापुराणटिप्पण और गद्यकथाकोश । श्रीमान् प्रेमीजीने रत्नकरण्डटीका, समाधितन्त्रटीका क्रियाकलापटीका, आत्मानुशासन तिलका * तेषां स्थे यात् सुकोमलैः सर्वसुखावबोधः पदैः प्रभाचन्द्र कृतः प्रबन्धः । कल्याणकालेऽथ जिनेश्वराणां सुरेन्द्रदन्तीव विराजतेऽसौ ।। २ ।। श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्वारानिवासिना परापरपञ्चपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिल - धर्मकथाप्रपञ्च रचनास्वाराधना संस्थिता । कर्मविशुद्धिहेतुरमला चन्द्रार्कतारावधि ॥ १ ॥ मलकलङ्केन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन आराधनासत्कथा प्रबन्धः कृतः ।" १. योगसूत्रपर भोजदेवकी राजमार्त्तण्ड नामक टीका पाई जाती है। संभव है प्रमेयकमळमार्त्तण्ड और राजमार्त्तण्ड नाम परस्पर प्रभावित हों । २. पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रस्तावना में रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी टीका और समाधितन्त्रटीकाको एकही प्रभाचन्द्र द्वारा रचित सिद्ध किया है; जो ठीक है । पर आपने इन प्रभाचन्द्रको प्रमेयकमलमार्त्तण्ड आदिके रचयिता तर्कग्रन्थकार प्रभाचन्द्रसे भिन्न सिद्ध करनेका जो प्रयत्न किया है वह वस्तुतः दृढ़ प्रमाणोंपर अवलम्बित नहीं है। आपके मुख्यप्रमाण हैं कि-' 'प्रभाचन्द्रका आदिपुराणकारने स्मरण किया है इसलिए ये ईसाकी नवमशताब्दीके विद्वान् हैं, और इस टीकामें यशस्तिलकचम्पू ( ई० ९५९), वसुनन्दिश्रावकाचार ( अनुमानतः वि० की १३वीं शताब्दीका पूर्व भाग तथा पद्मनन्दि उपासकाचार ( अनुमानतः वि० सं० १९८० ) के श्लोक उद्धृत पाए जाते हैं, इसलिए यह टीका प्रमेयकमलमार्त्तण्ड आदिके रचयिता प्रभाचन्द्रकी नहीं हो सकती ।" इनके विषय में मेरा यह वक्तव्य है कि जब प्रभाचन्द्रका समय अन्य अनेक पुष्ट प्रमाणोंसे ईसाकी ग्यारहवीं शताब्दी सिद्ध होता है तब यदि ये टोकाएँ भी उन्हीं प्रभाचन्द्रकी ही हों तो भी इसमें यशस्तिलकचम्पू और नीतिवाक्यामृत के वाक्योंका उद्धृत होना अस्वाभाविक एवं अनैतिहासिक नहीं है । वसुनन्दि और पद्मनन्दिका समय भी विक्रमकी १२ वीं और तेरहवीं सदी अनुमानमात्र है, कोई दृढ़ प्रमाण इसके साधक नहीं दिए गए हैं । पद्मनन्दि शुभचन्द्रके शिष्य थे यह बात पद्मनन्दिके ग्रन्थसे तो नहीं मालूम होती । वसुनन्दिकी 'पडिगह Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १८३ आदि ग्रन्थोंकी भी प्रभाचन्द्रकृत होनेकी संभावना की है, वह खास तौरसे विचारणीय है। मुच्चट्ठाणं' गाथा स्वयं उन्हींकी बनाई है या अन्य किसी आचार्यकी यह भी अभी निश्चित नहीं है। पद्मनन्दिश्रावकाचारके 'अध्रुवाशरणे' आदि श्लोक भी रत्नकरण्डटीकामें पद्मनन्दिका नाम लेकर उद्धृत नहीं है और न इन श्लोकोंके पहिले 'उक्तं च, तथा चोक्तम्' आदि कोई पद ही दिया गया है जिससे इन्हें उद्धत हो माना जाय । तात्पर्य यह कि मुख्तार सा० ने इन टीकाओंके प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकृत न होने में जो प्रमाण दिए है वे दढ़ नहीं हैं। रत्नकरण्डटीका तथा समाधितन्त्रटीकामें प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका एक साथ विशिष्टशैलीसे उल्लेख होना इसकी सूचना करता है कि ये टीकाएँ भी प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकी ही होनी चाहिए। वे उल्लेख इस प्रकार है 'तदलमतिप्रसङ्गेन प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे प्रपञ्चतः प्ररूपणात्"-रत्नक० टी०, पृ०६। "यः पुनर्योगसांख्यर्मक्तौ तत्प्रच्युतिरात्मनोऽभ्युपगता ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च मोक्षविचारे विस्तरतः प्रत्याख्याताः ।"-समाधितन्त्रटी०, पृ० १५ । इन दोनों अवतरणोंकी प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्करके निम्नलिखित अवतरणसे तुलना करनेपर स्पष्ट मालम हो जाता है कि शब्दाम्भोजभास्करके कर्त्ताने ही उक्त टीकाओंको बनाया है "तदात्मकत्वं चार्थस्य अध्यक्षतोऽनुमानादेश्च यथा सिद्धयति तथा प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्र च प्ररूपितमिह द्रष्टव्यम् ।'-शब्दाम्भोजभास्कर । प्रभाचन्द्रकृत गद्यकथाकोशमें पाई जानेवाली अञ्जनचोर आदिकी कथाओंसे रत्नकरण्डटीकागत कथाओंका अक्षरशः सादृश्य है। इति । ३. क्रियाकलापटीकाकी एक लिखित प्रति बम्बईके सरस्वती भवनमें है। उसके मंगल और प्रशस्ति श्लोक निम्नलिखित हैमंगल- "जिनेन्द्रमुन्मूलितकर्मबन्धं प्रणम्य सन्मार्गकृतस्वरूपम् ।। अनन्तबोधादिभवं गुणौघं क्रियाकलापं प्रकटं प्रवक्ष्ये ॥" प्रशस्ति- "वन्दे मोहतमोविनाशनपटुस्त्रैलोक्यदीपप्रभुः, संसृतिसमन्वितस्य निखिलस्नेहस्य संशोषकः । सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्रकिरणः श्रीपद्मनन्दिप्रभुः, तच्छिष्यात्प्रकटार्थतां स्तुतिपदं प्राप्तं प्रभाचन्द्रतः॥१॥ यो रात्रौ दिवसे पृथि प्रयतां ( ? ) दोषा यतीनां कुतो प्योपाताः (?) प्रलये तु""रमलस्तेषां महादर्शितः। श्रीमद्गौतमनाभिभिर्गणधरैर्लोकत्रयोद्योतकैः, सव्यकृ ( ? ) सकलोऽप्यसौ यतिपतेर्जातः प्रभाचन्द्रतः ॥ २॥ यः ( यत् ) सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितौष्ठद्वयम्, नो वाञ्छाकलितन्न दोषमलिनं न श्वासतुद्व ( रुद्ध ) क्रमम् । शान्तामर्थविषयैः ( मर्षविषैः ) समं परशु ( पशु ) गणैराकणितं कर्णतः, तद्वत् सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्व वकः ॥ ३॥" इन प्रशस्तिश्लोकोंसे ज्ञात होता है कि जिन प्रभाचन्द्रने क्रियाकलापटीका रची है वे पद्मनन्दिसैद्धान्तिकके शिष्य थे । न्यायकूमदचन्द्र आदिके कर्ता प्रभाचन्द्र भी पद्मनन्दिसैद्धान्तिकके ही शिष्य थे, अतः Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ क्रियाकलापटीका और प्रमेयकमलमार्त्तण्ड आदिके कर्ता एक ही प्रभाचन्द्र हैं इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता । प्रशस्तिश्लोकोंकी रचनाशैली भी प्रमेयकमल० आदिकी प्रशस्तियोंसे मिलती-जुलती है । ४. आत्मानुशासन तिलककी प्रति श्री प्रेमीजीने भेजी है। उसका मंगल और प्रशस्ति इस प्रकार हैमंगल - "वीरं प्रणम्य भववारिनिधिप्रपोतमुद्द्योतिताखिलपदार्थमनल्पपुण्यम् । निर्वाणमार्गमनवद्यगुणप्रबन्धमात्मानुशासनमहं प्रवरं प्रवक्ष्ये || " प्रशस्ति "मोक्षोपायमनल्पपुण्यममलज्ञानोदयं निर्मलम्, भव्यायं परमं प्रभेन्दुकृतिना व्यक्तैः प्रसन्नैः पदैः । व्याख्यानं वरमात्मशासनमिदं व्यामोहविच्छेदतः । सूक्तार्थेषु कृतादरै रहरहश्चेतस्यलं चिन्त्यताम् ॥ १ ॥ इतिश्री आत्मानुशासन ( नं ) सतिलक ( कं प्रभाचन्द्राचार्यविरचित ( तं ) सम्पूर्णम् ।”