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४ / विशिष्ट निबन्ध : १५७ म्बराचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमणने किया था । अंगग्रंथोंके सिवाय कुछ अंगबाह्य या अनंगात्मक श्रुत भी हैं । छेदसूत्र अनंगश्रुतमें शामिल है। आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८६८ ) के स्त्रीमुक्तिवादके पूर्वपक्ष में कल्पसूत्र ( ५।२० ) से "नो कप्पइ णिग्गंथीए अचेलाए होत्तए" यह सूत्रवाक्य उद्धृत किया है।
तत्त्वार्थ भाष्यकार और प्रभाचन्द्र - तत्त्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ प्रचलित हैं। एक तो वह, जिसपर स्वयं वाचक उमास्वातिका स्वोपज्ञभाष्य प्रसिद्ध हैं, और दूसरा वह जिसपर पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि है । दिगम्बर परम्परामें पूज्यपादसम्मत सूत्रपाठ और श्वेताम्बरपरम्परामें भाष्यसम्मत सूत्रपाठ प्रचलित है ।
उमास्वातिके स्वोपज्ञभाष्यके कर्तृत्व के विषयमें आजकल विवाद चल रहा । मुख्तारसा० आदि कुछ विद्वान् भाष्यकी उमास्वातिकर्तृकताके विषयमें सन्दिग्ध हैं । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें दिगम्बर सूत्रपाठसे ही सूत्र उद्धृत किए हैं। उन्होंने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८५९ ) के स्त्रीमुक्तिवादके पूर्वपक्ष में तत्त्वार्थ भाष्यको सम्बन्धकारिकाओं में से "श्रूयन्ते चानन्ताः सामायिक मात्र संसिद्धाः" कारिकांश उद्धृत किया है । तत्त्वार्थ राजवार्तिक ( पृ० १० ) में भी " अनंता: सामायिकमात्र सिद्धाः " वाक्य उद्धृत मिलता है । इसी तरह तत्त्वार्थभाष्य के अन्त में पाई जानेवाली ३२ कारिकाएँ राजवार्तिकके अन्त में 'उक्तञ्च' लिखकर उद्धत है । पृ० ३६ में भाष्यकी 'दग्धे बीजे' कारिका उद्धृत की गई है । इत्यादि प्रमाणों के आधारसे यह निःसङ्कोच कहा जा सकता है कि प्रस्तुत भाष्य अकलङ्कदेव के सामने भी था । उनने इसके कुछ मन्तव्योंकी समीक्षा भी की है।
सिद्धसेन और प्रभाचन्द्र - आ० सिद्धसेन के सन्मतितर्क, न्यायावतार, द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशतिका ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इनके सन्मतितर्कपर अभयदेवसूरिने विस्तृत व्याख्या लिखी है । डॉ० जैकोबी न्यायावतारके प्रत्यक्ष लक्षण में अभ्रान्त पद देखकर इनको धर्मकीर्तिका समकालीन, अर्थात् ईसाकी ७वीं शताब्दीका विद्वान् मानते हैं । पं० सुखलाल जी इन्हें विक्रमकी पाँचवीं सदीका विद्वान् सिद्ध करते थे । पर अब उनका विश्वास है कि "सिद्धसेन ईसाकी छठीं या सातवीं सदीमें हुए हों और उन्होंने संभवतः धर्मकीर्तिके ग्रन्थों को देखा हो ।" न्यायावतारकी रचनायें न्यायप्रवेशके साथ ही साथ न्यायबिन्दु भी अपना यत्किञ्चित् स्थान रखता ही । आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ४३७ ) में पक्षप्रयोगका समर्थन करते समय 'धानुष्क'
दृष्टान्त दिया है । इसकी तुलना न्यायावतारके श्लोक १४-१६ से भलीभाँति की जा सकती हैं । न केवल मूलश्लोक से ही, किन्तु इन श्लोकोंकी सिद्धर्षिकृत व्याख्या भी न्यायकुमुदचन्द्र की शब्दरचनासे तुलनीय है ।
धर्मदासगण और प्रभाचन्द्र - श्वे० आचार्य धर्मदासगणिका उपदेशमाला ग्रन्थ प्राकृतगाथा निबद्ध है । प्रसिद्धि तो यह रही कि ये महावीरस्वामीके दीक्षित शिष्य थे । पर यह इतिहासविरुद्ध है; क्योंकि इन्होंने अपनी उपदेशमाला में वज्रसूरि आदिके नाम लिए हैं । अस्तु । उपदेशमालापर सिद्धर्षिसूरिकृत प्राचीन टीका उपलब्ध है । 3 सिद्धर्षिने उपमितिभवप्रपञ्चाकथा वि० सं० ९६२ ज्येष्ठ शुद्ध पंचमीके दिन समाप्त की थी । अतः धर्मदासगणिकी उत्तरावधि विक्रमकी ९वीं शताब्दी माननेमें कोई बाधा नहीं है । प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० ३३० ) में उपदेशमाला ( गा० १५ ) की वरिससय दिक्खयाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू' इत्यादि गाथा प्रमाणरूपसे उद्धृत की है ।
हरिभद्र और प्रभाचन्द्र - आ० हरिभद्र श्वे० सम्प्रदायके युगप्रधान आचार्योंमेंसे हैं । कहा जाता
१. देखो, गुजराती सन्मतितर्क, पृ० ४० ।
२. इंग्लिश सन्मतितर्ककी प्रस्तावना ।
३. जैन साहित्यनो इतिहास, पृ० १८६ ।
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