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१५६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
सारके बाद इन्होंने भावसंग्रह ग्रंथ की रचना की थी; क्योंकि उसमें दर्शनसारकी अनेकों गाथाएँ उद्धृत मिलती हैं। इनके आराधनासार, तत्त्वसार, नयचक्रसंग्रह तथा आलापपद्धति ग्रन्थ भी हैं । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० ३०० ) तथा न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८५६ ) के कवलाहारवाद में देवसेन के भाव संग्रह ( गा० ११० ) की यह गाथा उद्धृत की है
“णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो । ओज मणोवि य कमसो आहारो छव्विहो यो ।” यद्यपि देवसेनसूरिने दर्शनसार ग्रन्थके अन्तमें लिखा है
"पुव्वायरियकयाई गाहाई संचिऊण एयत्थ । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ रइयो दंसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवए । सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धं माहसुद्धदसमोए ॥ "
अर्थात् पूर्वाचार्यकृत गाथाओं का संचय करके यह दर्शनसार ग्रन्थ बनाया गया है। तथापि बहुत खोज करनेपर भी यह गाथा किसी प्राचीन ग्रंथ में नहीं मिल सकी है। देवसेन धारानगरीमें ही रहते थे, अतः धारानिवासी प्रभाचन्द्रके द्वारा भावसंग्रहसे भी उक्त गाथाका उद्धृत किया जाना असंभव नहीं है । चूँकि दर्शनसारके बाद भावसंग्रह बनाया गया है, अतः इसका रचनाकाल संभवतः विक्रम संवत् ९९७ ( ई० ९४०) के आसपास ही होगा ।
श्रुतकीर्ति और प्रभाचन्द्र -- जैनेन्द्रके प्राचीन सूत्रपाठपर आचार्य श्रुतकीर्तिकृत पंचवस्तुप्रक्रिया उपलब्ध है।" श्रुतकीर्तिने अपनी प्रक्रियाके अन्तमें श्रीमद्वृत्तिशब्दसे अभयनन्दिकृत महावृत्ति और न्यासशब्द से संभवतः प्रभाचन्द्रकृत न्यास, दोनोंका ही उल्लेख किया है । यदि न्यासशब्द पूज्यपाद के जैनेन्द्र न्यासका निर्देशक हो तो 'टीकामाल' शब्दसे तो प्रभाचन्द्रकी टीकाका उल्लेख किया ही गया है । यथा
" सूत्रस्तम्भसमुद्धृतं प्रविलसन्न्यासोरुरत्नक्षिति, श्रीमद्वृत्तिकपाटसंपुटयुतं भाष्यौघशय्यातलम् । टीकमाल महारुरुक्षुरचितं जैनेन्द्रशब्दागमम्, प्रासादं पृथुपञ्च वस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् ॥”
कनडी भाषाके चन्द्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविने श्रुतकीर्तिको अपना गुरु बताया है
" इति परमपुरुनाथ कुलभूभृत्समुद्भूतप्रवचनसरित्स रिन्नाथश्रुतकीर्तित्रैविद्यचक्रवर्तिपदपद्मनिधानदीपवति श्रीमदग्गलदेव विरचिते चन्द्रप्रभचरिते" । यह चरित्र शक संवत् १०११, ई० १०८९ में बनकर समाप्त हुआ था | अतः श्रुतकीर्तिका समय लगभग १०८० ई० मानना युक्तिसंगत है । इन श्रुतकीर्तिने न्यासको जैनेन्द्र व्याकरण रूपी प्रासादकी रत्नभूमि की उपमा दी है। इससे शब्दाम्भोजभास्करका रचना समय लगभग ई० १०६० समर्थित होता है ।
श्वे० आगमसाहित्य और प्रभाचन्द्र - भ० महावीरकी अर्धमागधी दिव्यध्वनिको गणधरोंने द्वादशांगी रूपमें गूंथा था । उस समय उन अर्धमागधी भाषामय द्वादशांग आगमोंकी परम्परा श्रुत और स्मृत रूपमें रही, लिपिबद्ध नहीं थी । इन आगमोंका आखरी संकलन वीर सं० ९८० ( वि० ५१० ) में श्वेता१. देखो, प्रेमीजीका 'जैनेन्द्रव्याकरण और आचार्यदेवनन्दी' लेख जैनसा० सं० भाग १, अंक २ ।
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