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४ / विशिष्ट निबन्ध : १५५
चार (गाथा नं० ९०९) में तथा भगवतीआराधनामें ( गाथा ४२१) विद्यमान है। यहाँ यह बात खास ध्यान देने योग्य है कि प्रभाचन्द्रने इस गाथाको श्वेताम्बर आगममें आचेलक्यके समर्थनका प्रमाण बतानेके लिए श्वेताम्बर आगमके रूपमें उद्धृत किया है । यह गाथा जीतकल्पभाष्य (गा० १९७२ ) में पाई जाती है । गाथाओंकी इस संक्रान्त स्थितिको देखते हुए यह सहज ही कहा जा सकता है कि कुछ प्राचीन गाथाएँ परम्परासे चली आई है, जिन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों आचार्योंने अपने ग्रन्थोंमें स्थान दिया है।
नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती और प्रभाचन्द्र आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती वीरसेनापति श्री चामुण्डरायके समकालीन थे। चामुण्डराय गंगवंशीय महाराज मारसिंह द्वितीय (९७५ ई० ) तथा उनके उत्तराधिकारी राजमल्ल द्वितीयके मन्त्री थे। इन्हींके राज्यकालमें चामुण्डरायने गोम्मटेश्वरको प्रतिष्ठा ( सन् ९८१ ) कराई थी। आ० नेमिचन्द्रने इन्हीं चामुण्डरायको सिद्धान्त परिज्ञान करानेके लिए गोम्मटसार ग्रन्थ बनाया था। यह ग्रन्थ प्राचीन सिद्धान्तग्रन्थोंका संक्षिप्त संस्करण है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० २५४ ) में 'लोयायासपएसे' गाथा उद्धृत है । यह गाथा जीवकांड तथा द्रव्यसंग्रहमें पाई जाती है। अतः आपाततः यही निष्कर्ष निकल सकता है कि यह गाथा प्रभाचन्द्रने जीवकांड या द्रव्यसंग्रहसे उद्धृत की होगी; परन्तु अन्वेषण करनेपर मालम हुआ कि यह गाथा बहुत प्राचीन है और सर्वार्थसिद्धि (५।३९ ) तथा श्लोकवार्तिक (पृ० ३९९ ) में भी यह उद्धृत की गई है। इसी तरह प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ३०० ) में 'विग्गहगइमावण्णा' गाथा उद्धृत की गई है । यह गाथा भी जीवकांडमें है। परन्तु यह गाथा भी वस्तुतः प्राचीन है और धवलाटीका तथा उमास्वातिकृत श्रावकप्रज्ञप्तिमें मौजूद है।
प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र-रविभद्रके शिष्य अनन्तवीर्य आचार्य, अकलंकके प्रकरणों के ख्यात टीकाकार विद्वान् थे। प्रमेयरत्नमालाके टीकाकार अनन्तवीर्य उनसे पृथक् व्यक्ति हैं; क्योंकि प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र में प्रथम अनन्तवीर्यका स्मरण किया है, और द्वितीय अनन्तवीर्य अपनी प्रमेयरत्नमालामें इन्हीं प्रभाचन्द्रका स्मरण करते हैं । वे लिखते हैं कि प्रभाचन्द्रके वचनोंको ही संक्षिप्त करके यह प्रमेयरत्नमाला बनाई जा रही है। प्रो० ए० एन० उपाध्यायने प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्यके समयका अनुमान ग्यारहवीं सदी किया है, जो उपयुक्त है । क्योंकि आ० हेमचन्द्र (१०८८-११७३ ई०) की प्रमाणमीमांसापर शब्द और अर्थ दोनों दृष्टिसे प्रमेयरत्नमालाका पूरा-पूरा प्रभाव है। तथा प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रका प्रभाव प्रमेयरत्नमालापर है । आ० हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमांसाने प्रायः प्रमेयरत्नमालाके द्वारा ही प्रमेयकमलमार्तण्डको पाया है।
दवसेन और प्रभाचन्द्र- देवसेन श्रीविमलसेन गणीके शिष्य थे । इन्होंने धारानगरीके पार्श्वनाथ मन्दिरमें माघ सुदी दशमी विक्रमसंवत् ९९० ( ई० ९३३ ) में अपना दर्शनसार ग्रन्थ बनाया था। दर्शन१. प्रमेयकमलमात्तंण्डके प्रथम संस्करणके संपादक पं० बंशीधरजी शास्त्री, सोलापुरने प्रमेयक० को प्रस्ता
वनामें यही निष्कर्ष निकाला भी है। २. "प्रभेन्दवचनोदारचन्द्रिकाप्रसरे सति ।
मादृशाः क्व न गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः ॥ तथापि तद्वचोऽपूर्वरचनारुचिरं सताम् ।
चेतोहरं भृतं यद्वन्नद्या नवघटे जलम् ॥" ३. देखो, जैनदर्शन वर्ष ४, अंक ९। ४. नयचक्रकी प्रस्तावना, पृ० ११ ।
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