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४ / विशिष्ट निबन्ध : १४५
कर्ण गोम और प्रभाचन्द्र - प्रमाणवार्तिकके तृतीयपरिच्छेदपर धर्मकीर्तिकी स्वोपज्ञवृत्ति भी उपलब्ध है । इस वृत्तिपर कर्णकगोमिकी विस्तृत टीका है। इस टीकामें प्रज्ञाकर गुप्तके प्रमाणवार्तिकालङ्कारका 'अलङ्कार' शब्द से उल्लेख । इसमें मण्डन मिश्रकी ब्रह्मसिद्धिका 'आहुविधातृ ' श्लोक उद्धृत है । अतः इनका समय ई० ८वीं सदीका पूर्वार्ध संभव है । न्यायकुमुदचन्द्रके शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद, स्फोटवाद आदि प्रकरणों पर कर्णकगोमिकी स्ववृत्तिटोका अपना पूरा असर रखती है । इसके अवतरण इन प्रकरणों के टिप्पणों में देखना चाहिये ।
शान्तरक्षित, कमलशील और प्रभाचन्द्र - तत्त्वसंग्रहकार' शान्तरक्षित तथा तत्त्वसंग्रहपञ्जिकाके रचयिता कमलशील नालन्दाविश्वविद्यालयके आचार्य थे । शान्तरक्षितका समय ई० ७०५ से ७६२ तथा कमलशीलका समय ई० ७१३ से ७६३ है । शान्तरक्षितकी अपेक्षा कमलशीलकी प्रावाहिक प्रसादगुणमयी भाषाने प्रभाचन्द्रको अत्यधिक आकृष्ट किया है । यों तो प्रभाचन्द्र के प्रायः प्रत्येक प्रकरणपर कमलशोलकी पञ्जिका अपना उन्मुक्त प्रभाव रखती है पर इसके लिए षट्पदार्थ परीक्षा, शब्दब्रह्म परीक्षा, ईश्वरपरीक्षा, प्रकृतिपरीक्षा, शब्दनित्यत्वपरीक्षा आदि परीक्षाएँ खासतौरसे द्रष्टव्य हैं । तत्त्वसंग्रहकी सर्वज्ञपरीक्षामें कुमारिकी पचासों कारिकाएँ उद्धृत कर पूर्वपक्ष किया गया है । इनमेंसे अनेकों का रिकाएँ ऐसी हैं जो कुमारिके श्लोकवार्तिक में नहीं पाई जातीं । कुछ ऐसी ही कारिकाएँ प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में भी उद्धृत है। संभव है कि ये कारिकाएँ कुमारिल के ग्रन्थसे न लेकर तत्त्वसंग्रहसे ही ली गई हों । तात्पर्य यह कि प्रभाचन्द्र के आधारभूत ग्रन्थों में तत्त्वसंग्रह और उसकी पञ्जिका अग्रस्थान पानेके योग्य है ।
अर्चंट और प्रभाचन्द्र - धर्मकीर्ति के हेतुबिन्दुपर अर्चटकृत टीका उपलब्ध है । इसका उल्लेख अनन्तवीर्यंने अपनी सिद्धिविनिश्चयटीका में अनेकों स्थलोंमें किया है । 'हेतुलक्षणसिद्धि' में तो धर्मकीर्ति हेतुबिन्दु के साथही साथ अर्चटकृत विवरणका भी खण्डन है । अटका समय भी करीब ईसाकी ९वीं शताब्दी होना चाहिये | अर्चने अपने हेतुबिन्दुविवरण में सहकारित्व दो प्रकारका बताया है - १ एकार्थकारित्व, २ परस्परातिशयाधायकत्व । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० १० ) में कारकसाकल्यवादकी समीक्षा करते समय सहकारित्वके यही दो विकल्प किये हैं ।
धर्मोत्तर और प्रभाचन्द्र - धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दुपर आ० धर्मोत्तरने टीका रची है। भिक्षु राहुलजी द्वारा लिखित टिबेटियन गुरुपरम्परा के अनुसार इनका समय ई० ७२५ के आसपास है । आ० प्रभाचन्द्र अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० २ ) तथा न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० २० ) में सम्बन्ध, अभिधेय, शक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनरूप अनुबन्धत्रयकी चर्चामें, जो उन्मत्तवाक्य, काकदन्तपरीक्षा, मातृविवाहोपदेश तथा सर्वज्वरहर - तक्षकचूडारत्नालङ्कारोपदेशके उदाहरण दिए हैं वे धर्मोत्तरकी न्यायबिन्दुटीका ( पृ० २ ) के प्रभावसे अछूते नहीं हैं । इनकी शब्दरचना करीब-करीब एक जैसी है । इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० २६ ) में प्रत्यक्ष शब्दकी व्याख्या करते समय अक्षाश्रितत्वको प्रत्यक्षशब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त बताया है और अक्षाश्रितत्वोपलक्षित अर्थसाक्षात्कारित्वको प्रवृत्तिनिमित्त । ये प्रकार भी न्यायबिन्दुटीका ( पृ० ११ ) से अक्षरशः मिलते हैं ।
ज्ञानश्री और प्रभाचन्द्र -- ज्ञानश्रीने क्षणभंगाध्याय आदि अनेक प्रकरण लिखे हैं । उदयनाचार्य ने १. देखो, तत्त्वसंग्रहकी प्रस्तावना, पृ० Xovi
२. देखो, वादम्यायका परिशिष्ट ।
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