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४/ विशिष्ट निबन्ध : १६१
व्याख्याके साथ ही साथ मलग्रन्थसे सम्बद्ध विषयोंपर विस्तृत लेख भी लिखे हैं। इन लेखोंमें विविध विकल्पजालोंसे परपक्षका खंडन किया गया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के तीक्ष्ण एवं आह लादक प्रकाशमें जब हम स्याद्वादरत्नाकरको तुलनात्मक दृष्टिसे देखते हैं तब वादिदेवसूरिकी गुणग्राहिणी संग्रहदृष्टिकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते । इनकी संग्राहक बीजबुद्धि प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रसे अर्थ शब्द और भावोंको इतने चेतश्चमकारक ढंगसे चुन लेती है कि अकेले स्याद्वादरत्नाकरके पढ़ लेनेसे न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्डका यावद्विषय विशद रीतिसे अवगत हो जाता है। वस्तुतः यह रत्नाकर उक्त दोनों ग्रंथोंके शब्द-अर्थ रत्नोंका सुन्दर आकर ही है । यह रत्नाकर मार्तण्डको अपेक्षा चन्द्र ( न्यायकुमुदचन्द्र ) से ही अधिक उद्वेलित हुआ है । प्रकरणोंके क्रम बौर पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्षके जमानेकी पद्धतिमें कहीं-कहीं तो न्यायकुमुदचन्द्रका इतना अधिक शब्दसादृश्य है कि दोनों ग्रन्थोंको पाठशुद्धि में एक दूसरेका मूलप्रतिकी तरह उपयोग किया जा सकता है ।
प्रतिबिम्बवाद नामक प्रकरणमें वादि देवसूरिने अपने रत्नाकर (पृ० ८६५ ) में न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४५५) में निर्दिष्ट प्रभाचन्द्रके मतके खंडन करनेका प्रयास किया है। प्रभाचन्द्रका मत है कि-प्रतिबिम्बकी उत्पत्तिमें जल आदि द्रव्य उपादान कारण हैं तथा चन्द्र आदि बिम्ब निमित्तकारण । चन्द्रादि बिम्बोंका निमित्त पाकर जल आदिके परमाणु प्रतिबिम्बाकारसे परिणत हो जाते हैं।
वादि देवसूरि कहते हैं कि-मखादिबिम्बोंसे छायापुद्गल निकलते हैं और वे जाकर दर्पण आदिमें प्रतिबिम्ब उत्पन्न करते हैं। यहाँ छायापुद्गलोंका मुखादि बिम्बोंसे निकलनेका सिद्धान्त देवसूरिने अपने पूर्वाचार्य श्रीहरिभद्रसूरिक धर्मसारप्रकरणका अनुसरण करके लिखा है। वे इस समय यह भूल जाते हैं कि हम अपने ही ग्रन्थमें नैयायिकोंके चक्षुसे रश्मियोंके निकलनेके सिद्धान्तका खंडन कर चुके हैं । जब हम भासुररूपवाली आँखसे भी रश्मियोंका निकलना युक्ति एवं अनुभवसे विरुद्ध बताते हैं तब मख आदि मलिन बिम्बोंसे छायापुद्गलोंके निकलनेका समर्थन किस तरह किया जा सकता है ? मजेदार बात तो यह है कि इस प्रकरणमें भी वादि देवसूरि न्यायकुमुदचन्द्र के साथही साथ प्रमेयकमलमार्तण्डका भी शब्दशः अनुसरण करते हैं, और न्यायकूमदचन्द्रमें निदिष्ट प्रभाचन्द्रके मतके खंडनकी धनमें स्वयं ही प्रमेयकमलमासण्डके उसी आशयके शब्दोंको सिद्धान्त मान बैठते हैं। वे रत्नाकरमें (पृ० ६९८ ) ही प्रमेयकमलमार्तण्डका शब्दानु सरण करते हुए लिख जाते हैं कि-"स्वच्छताविशेषाद्धि जल दर्पणादयो मुखादित्यादिप्रतिबिम्बाकारविकारधारिणः सम्पद्यन्ते ।"-अर्थात् विशेष स्वच्छताके कारण जल और दर्पण आदि ही मुख और सूर्य आदि बिम्बोंके आकारवाली पर्यायों को धारण करते हैं । कवलाहारके प्रकरण में इन्होंने प्रभाचन्दके न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्ड में दी गई दलीलोंका नामोल्लेख पूर्वक पूर्वपक्षमें निर्देश किया है और उनका अपनी दृष्टिसे खंडन भी किया है। इस तरह वादि देवसरिने जब रत्नाकर लिखना प्रारम्भ किया होगा तब उनकी आँखों के सामने प्रभाचन्द्र के ये दोनों ग्रन्थ बराबर नाचते रहे हैं।
हेमचन्द्र और प्रभाचन्द्र-विक्रमकी १२वीं शताब्दीमें आ० हेमचन्द्रसे जैनसाहित्यके हेमयुगका प्रारम्भ होता है । हेमचन्द्र ने व्याकरण, काव्य, छन्द, योग, न्याय आदि साहित्यके सभी विभागोंपर अपनी प्रौढ़ संग्राहक लेखनी चलाकर भारतीय साहित्यके भंडारको खूब समृद्ध किया है। अपने बहुमुख पाण्डित्यके कारण ये 'कलिकालमर्वज्ञ' के नामसे भी ख्यात है। इनका जन्म-समय कार्तिकी पूर्णिमा विक्रमसंवत् ११४५ है । वि० सं० ११५४ ( ई० सन् १०९७ ) में ८ वर्षकी लघुवयमें इन्होंने दीक्षा धारण की थी । विक्रमसंवत् ११६६ ( ई० सन् १११० ) में २१ वर्षकी अवस्था सूरिपद पर प्रतिष्ठित हुए। ये महाराज जपसिंह
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