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१७८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
७- प्रभाचन्द्र अपने पूर्वग्रन्थोंका उत्तरग्रन्थों में प्रायः उल्लेख करते हैं । यथा न्यायकुमुदचन्द्र तत्पूर्वकालीन प्रमेयकमलमार्त्तण्डका तथा शब्दाम्भोजभास्कर में न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्त्तण्ड दोनोंका उल्लेख पाया जाता है । यदि शाकटायनन्यास उन्होंने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड आदिके पहिले बनाया होता तो प्रमेयकमलमार्त्तण्ड आदिमें शाकटायनव्याकरणके सूत्रोंके उद्धरण होते और इस न्यासका उल्लेख भी होता । यदि यह उत्तरकालीन रचना है तो इसमें प्रमेयकमल आदिका उल्लेख होना चाहिए था जैसा कि शब्दाम्भोजभास्कर में देखा जाता है ।
८-शब्दाम्भोजभास्कर में प्रभाचन्द्रकी भाषाकी जो प्रसन्नता तथा प्रावाहिकता है वह इस दुख्ह न्यासमें नहीं देखी जाती । इस शैलीवैचित्र्यसे भी इसके प्रभाचन्द्रकृत होने में सन्देह होता है । प्रभाचन्द्रने सन्दाम्भोजकर नामका न्यास बनाया था और इसलिए उनकी न्यासकारके रूपसे भी प्रसिद्धि रही है । मालूम होता कि वर्धमानमुनिने प्रभाचन्द्रकी इसी प्रसिद्धि के आधारसे इन्हें शाकटायनन्यासका कर्ता लिख दिया है। मुझे तो ऐसा लगता है कि यह न्यास स्वयं शाकटायनने ही बनाया होगा । अनेक वैयाकरणोंने अपने ही व्याकरणपर न्यास लिखे हैं ।
शब्दाम्भोजभास्कर - श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० ४० ( ६४ ) में प्रभाचन्द्रके लिये 'शब्दाम्भोज दिवाकरः ' विशेषण भी दिया गया है । इस अर्थगर्भ विशेषणसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र जैसे प्रथिततर्क ग्रन्थोंके कर्ता प्रथिततर्क ग्रन्थकार प्रभाचन्द्र ही शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्र व्याकरण महान्यास के रचयिता हैं । ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वतीभवनकी अधूरी प्रतिके आधारसे इसका टूक परिचय यहाँ दिया जाता है । यह प्रति संवत् १९८० में देहलीकी प्रतिसे लिखाई गई है । इसमें जैनेन्द्रव्याकरणके मात्र तीन अध्यायका ही न्यास है सो भी बीचमें जगह-जगह त्रुटित है । ३९ से ६७ to के पत्र इस प्रतिमें नहीं हैं । प्रारम्भके २८ पत्र किसी दूसरे लेखकने लिखे हैं । पत्रसंख्या २२८ है । एक पत्र में १३ से १५ तक पंक्तियाँ और एक पंक्ति में ३९ से ४३ तक अक्षर हैं । पत्र बड़ी साइजके हैं । मंगला
चरण
“श्रीपूज्यपादमकलङ्कमनन्तबोधम्, शब्दार्थ संशयहरं निखिलेषु बोधम् । सच्छब्दलक्षणमशेषमतः प्रसिद्ध वक्ष्ये परिस्फुटमलं प्रणिपत्य सिद्धम् ॥ १ ॥ सविस्तरं यद् गुरुभिः प्रकाशितं महामतीनामभिधानलक्षणम् । मनोहरैः स्वल्पपदैः प्रकाश्यते महद्भिरुपदिष्टि याति सर्वापिमार्गे ( ? ) ... तदुक्त कृतशिक्ष ( ? ) श्लाध्यते तद्धि तस्य । किमुक्तमखिलज्ञे र्भाषमाणे गणेन्द्रो विविक्तमखिलार्थं श्लाघ्यतेऽतो मुनीन्द्रः ॥ ३ ॥ शब्दानामनुशासनानि निखिलान्याध्यायताहर्निशम्,
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यो यः सारतरो विचारचतुरस्तल्लक्षणांशो गतः । तं स्वीकृत्य तिलोत्तमेव विदुषां चेतश्चमत्कारकः,
सुव्यक्ते रसमैः प्रसन्नवचनैन्य सः समारभ्यते ॥ ४ ॥
श्री पूज्यपादस्वामि ( मी ) विनेयानां शब्दसाधुत्वासाधुत्वविवेक प्रतिपत्त्यर्थं शब्द लक्षणप्रणयनं कुर्वाणो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमात्यादिकमभिलषन्निष्टदेवतास्तुतिविषयं नमस्कुर्वन्नाह - लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य..." यह न्यास अभयनन्दिकृत जैनेन्द्रमहावृत्तिके बाद बनाया गया है। इसमें महावृत्तिके शब्द आनुपूर्वस ले लिए गए हैं और कहीं उनका व्याख्यान भी किया है । यथा
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