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४ / विशिष्ट निबन्ध : १७७ है और वर्धमानमुनिका समय भी १६वीं शताब्दी ही है । शाकटायनन्यासके प्रथम दो अध्यायोंकी प्रतिलिपि स्याद्वादविद्यालयके सरस्वतीभवनमें मौजूद है । उसको सरसरी तौरसे पलटनेपर मुझे इसके प्रभाचन्द्रकृत होने में निम्नलिखित कारणोंसे सन्देह उत्पन्न हुआ है
१ - इस ग्रन्थ में मंगलश्लोक नहीं है जब कि प्रभाचन्द्र अपने प्रत्येक ग्रन्थ में मंगलाचरण नियमित रूपसे करते हैं" ।
२ - सन्धियों के अन्त में तथा ग्रन्थ में कहीं भी प्रभाचन्द्रका नामोल्लेख नहीं है जब कि प्रभाचन्द्र अपने प्रत्येक ग्रन्थ में ' इति प्रभाचन्द्रविरचिते' आदि पुष्पिकालेख या 'प्रमेन्दुजिन: ' आदि रूपसे अपना नामोल्लेख करनेमें नहीं चूकते ।
३ - प्रभाचन्द्र अपनी टीकाओंके प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र शब्दाम्भोजभास्कर आदि नाम रखते हैं जब कि इस ग्रन्थके इन श्लोकोंमें इसका कोई खास नाम सूचित नहीं होता
४- शाकटायन यापनीयसंघके आचार्य थे और प्रभाचन्द्र थे कट्टर दिगम्बर । इन्होंने शाकटायनके स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिप्रकरणों का खंडन भी किया है। अतः शाकटायनके व्याकरणपर प्रभाचन्द्र के द्वारा न्यास लिखा जाना कुछ समझ में नहीं आता ।
५ - इस न्यास में शाकटायनके लिए प्रयुक्त 'संघाधिपति, महाश्रमण संघप' आदि विशेषणोंका समर्थन है । यापनीय आचार्यके इन विशेषणोंके समर्थनकी आशा प्रभाचन्द्र द्वारा नहीं की जा सकती । यथा
"शब्दानां शासनाख्यस्य शास्त्रस्यान्वर्थनामतः । प्रसिद्धस्य महामोघवृत्तेरपि विशेषतः ॥ सूत्राणां च विवृतिर्लिख्यते च यथामति । ग्रन्थस्यास्य च न्यासेति ( ? ) क्रियते नामनामतः ॥"
"एवंभूतमिदं शास्त्रं चतुरध्यायरूपतः, संघाधिपतिः श्रीमानाचार्यः शाकटायनः । महतारभते तत्र महाश्रमणसंघपः, श्रमेण शब्दतत्त्वं च विशदं च विशेषतः ॥
महाश्रमण संघाधिपतिरित्यनेन मनः समाधानमाख्यायते । विषयेषु विक्षिप्तचेतसो न मनः समाधि
· असमाहितचेतसश्च किं नाम शास्त्रकरणम्, आचार्य इति तु शब्दविद्याया गुरुत्वं शाकटायन इति अन्वयबुद्धिप्रकर्षः, विशुद्धान्वयो हि शिष्टैरुपलीयते । महाश्रमणसंघाधिपतेः सन्मार्गानुशासनं युक्तमेव"
६- प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में जैनेन्द्र व्याकरणसे ही सूत्रोंके उद्धरण दिए हैं जिसपर उनका शब्दाम्भोजभास्कर न्यास है । यदि शाकटायनपर भी उनका न्यास होता तो वे एकाध स्थानपर तो शाकटायनव्याकरणके सूत्र उद्धृत करते ।
१. मैसूर यूनि० में न्यासग्रन्थकी दूसरे अध्यायके चौथे पादके १२४ सूत्र तककी कापी है ( नं० A. 605 ) । उसमें निम्नलिखित मंगलश्लोक है
" प्रणम्य जयिनः प्राप्तविश्वव्याकरणाश्रियः । शब्दानुशासनस्येयं वृत्तेविवरणोद्यमः ॥
अस्मिन् भाष्याणि भाष्यन्ते वृत्तयो वृत्तिमाश्रिताः । न्यासा न्यस्ताः कृताः टीकाः पारं पारायणान्ययुः ॥ तत्र वृत्ता ( त्या ) दावयं मंगलश्लोकः श्रीवीरममृतमित्यादि । "
परन्तु इन श्लोकोंकी रचनाशैली प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र आदिके मंगलश्लोकोंसे अत्यन्त
विलक्षण है ।
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