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१३० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
भाष्यकी पर्याप्त सहायता ली गई है। अणिमादि अष्टविध ऐश्वर्यका वर्णन योगभाष्यसे मिलता जुलता है । न्यायकुमुदचन्द्र में योगभाष्यसे “चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्" "चिच्छक्तिरपरिणामिन्य प्रतिसङ्क्रमा" आदि वाक्य उद्धृत किये गये हैं ।
ईश्वरकृष्ण और प्रभाचन्द्र — ईश्वरकृष्णकी सांख्यसप्तति या सांख्यकारिका प्रसिद्ध है । इनका समय साकी दूसरी शताब्दी समझा जाता है। सांख्यदर्शनके मूलसिद्धान्तोंका सांख्यकारिकामें संक्षिप्त और स्पष्ट विवेचन है। आ० प्रभाचन्द्रने सांख्यदर्शन के पूर्वपक्ष में सर्वत्र सांख्यकारिकाओंका ही विशेष उपयोग किया है। न्यायकुमुदचन्द्रमें सांख्योंके कुछ वाक्य ऐसे भी उद्धृत हैं जो उपलब्ध सांख्यग्रन्थों में नहीं पाये जाते । यथा"बुद्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते" "आसर्ग-प्रलयादेका बुद्धिः" "प्रतिनियतदेशा वृत्तिरभिव्यज्येत" "प्रकृतिपरिणामः शुक्लं कृष्णञ्च कर्म" आदि । इससे ज्ञात होता है कि ईश्वरकृष्णकी कारिकाओंके सिवाय कोई अन्य प्राचीन सांख्य ग्रन्थ प्रभाचन्द्रके सामने था जिससे ये वाक्य उद्धृत किये गए हैं ।
माठराचार्य और प्रभाचन्द्र - सांख्यकारिकाकी पुरातन टीका माठरावृत्ति है। इसके रचयिता माठराचार्य ईसाकी चौथी शताब्दी के विद्वान् समझे जाते हैं । प्रभाचन्द्रने सांख्यदर्शन के पूर्वपक्ष में सांख्यकारिकाओंके साथ ही साथ माठरवृत्तिको भी उद्धृत किया है । जहाँ कहीं सांख्यकारिकाओंकी व्याख्याका प्रसंग आया है, माठरवृत्तिके हो आधारसे व्याख्या की गई है ।
प्रशस्तपाद और प्रभाचन्द्र - कणादसूत्रपर प्रशस्तपाद आचार्यका प्रशस्तपादभाष्य उपलब्ध है । इनका समय ईसाकी पाँचवीं शताब्दी माना जाता है। आ० प्रभाचन्द्रने प्रशस्तपादभाष्यकी "एवं धर्मेविना धर्मिणामेव निर्देशः कृतः” इस पंक्तिको प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० ५३१ ) में 'पदार्थ प्रवेशकग्रन्थ' के नाम उद्धृत किया है । न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्त्तण्ड दोनोंको षट्पदार्थपरीक्षाका यावत् पूर्वपक्ष प्रशस्तपादभाष्य और उसकी पुरातनटीका व्योमवतीसे ही स्पष्ट किया गया है । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० २७० ) के ईश्वरवादके पूर्वपक्ष में 'प्रशस्तमतिना च' लिखकर "सर्गादौ पुरुषाणां व्यवहारो" इत्यादि अनुमान उद्धृत हैं । यह अनुमान प्रशस्तपादभाष्यमें नहीं है । तत्त्वसंग्रहकी पंजिका ( पृ० ४३ ) में भी यह अनुमान प्रशस्तमति नामसे उद्धृत है । ये प्रशस्तमति, प्रशस्तपादभाष्यकारसे भिन्न मालूम होते हैं, पर इनका कोई ग्रन्थ अद्यावधि उपलब्ध नहीं है ।
व्योमशिव और प्रभाचन्द्र - प्रशस्तपादभाष्य के पुरातन टीकाकार आ० व्योमशिवकी व्योमवती टीका उपलब्ध है । आ० प्रभाचन्द्रने अपने दोनों ग्रन्थोंमें, न केवल वैशेषिकमतके पूर्वपक्ष में ही व्योमवतीको अपनाया है किन्तु अनेक मतोंके खंडन में भी इसका पर्याप्त अनुसरण किया है। यह टीका उनके विशिष्ट अध्ययनकी वस्तु थी। इस टीकाके तुलनात्मक अंशोंको न्यायकुमुदचन्द्रकी टिप्पणीमें देखना चाहिए । आ० व्योमशिवके समय के विषयमें विद्वानोंका मतभेद चला आ रहा है । डॉ० कीथ इन्हें नवमशताब्दीका कहते हैं। तो डॉ० दासगुप्ता इन्हें छठवीं शताब्दीका । मैं इनके समयका कुछ विस्तारसे विचार करता हूँ —
राजशेखरने प्रशस्तपादभाष्यकी 'कन्दली' टीकाकी 'पंजिका' में प्रशस्तपादभाष्यकी चार टीकाओंका इस क्रमसे निर्देश किया है— सर्वप्रथम 'व्योमवती' ( व्योम शिवाचार्य ), तत्पश्चात् 'न्यायकन्दली' ( श्रीधर ), तदनन्तर 'किरणावली' ( उदयन ) और उसके बाद 'लीलावती' ( श्रीवत्साचार्य ) । ऐतिह्यपर्यालोचनासे भी राजशेखरका यह निर्देशक्रम संगत जान पड़ता है । यहाँ हम व्योमवतीके रचयिता व्योमशिवाचार्य के विषय में कुछ विचार प्रस्तुत करते हैं ।
व्योमशिवाचार्य शैव थे । अपनी गुरु-परम्परा तथा व्यक्तित्वके विषयमें स्वयं उन्होंने कुछ भी नहीं
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