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१५२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
अनन्तकीर्तिने जीवसिद्धिकी तरह लघुसर्वज्ञसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ग्रन्थ बनाये हों । सिद्धि विनिश्चयटीकामें अनन्तवीर्यने भी एक अनन्तकीर्तिका उल्लेख किया है । यदि पार्श्वनाथचरितमें स्मृत अनन्तकीर्ति और सिद्धिविनिश्चयटीकामें उल्लिखित अनन्तकीर्ति एक ही व्यक्ति हैं तो मानना होगा कि इनका समय प्रभाचन्द्रके समय से पहिले है; क्योंकि प्रभाचन्द्रने अपने ग्रन्थों में सिद्धिविनिश्चयटीकाकार अनन्तवीर्य का सबहुमान स्मरण किया है । अस्तु । अनन्तकीर्तिके लघुसर्वज्ञसिद्धि तथा बृहत्सर्वज्ञ सिद्धि ग्रन्थोंका और प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रके सर्वज्ञसिद्धि प्रकरणोंका आभ्यन्तर परीक्षण यह स्पष्ट बताता है कि इन ग्रन्थोंमें एकका दूसरेके ऊपर पूरा-पूरा प्रभाव है ।
बृहत्सर्वज्ञ सिद्धि - ( पृ० १८१ से २०४ तक ) के अन्तिम पृष्ठ तो कुछ थोड़ेसे हेरफेरसे न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८३८ से ८४७ ) के मुक्तिवाद प्रकरणके साथ अपूर्व सादृश्य रखते हैं । इन्हें पढ़कर कोई भी साधारण व्यक्ति कह सकता है कि इन दोनोंमेंसे किसी एकने दूसरेका पुस्तक सामने रखकर अनुसरण किया है । मेरा तो यह विश्वास है कि अनन्तकीर्तिकृत बृहत् सर्वज्ञसिद्धिका ही न्यायकुमुदचन्द्रपर प्रभाव है । उदाहरणार्थ
किन्तु अज्ञो जनः दुःखाननुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् सांसारिकेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते । हिताहित विवेकज्ञस्तु तादात्विक सुखसाधनं स्त्र्यादिकं परित्यज्य आत्मस्नेहात् आत्यन्तिकसुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्तते । यथा पथ्यापथ्यविवेकमजानन्नातुरः तादात्विकसुखसाधनं व्याधिविवृद्धिनिमित्तं दध्यादिकमुपादत्ते, पथ्यापथ्यविवेकज्ञस्तु तत्परित्यज्य पेयादा आरोग्यसाधने प्रवर्तते । उक्तञ्च - तदात्व सुखसंज्ञेषु भावेध्वज्ञोऽनुरज्यते । हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परीक्षकाः ॥ - न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ८४२ ।
" किन्त्वतज्ज्ञो जनो दुःखाननुषक्तसुखसाधनमपश्यन् आत्मस्नेहात् संसारान्तः पतितेषु दुःखानुषक्तसुखसाधनेषु प्रवर्तते । हिताहितविवेकज्ञस्तु तादात्विक सुखसाधनं स्त्र्यादिकं परित्यज्य आत्मस्नेहादात्यन्तिक सुखसाधने मुक्तिमार्गे प्रवर्तते । यथा पथ्यापथ्यविवेकम जानन्नातुरः तादात्विकसुखसाधनं व्याधिविवृद्धिनिमित्तं दध्यादिकमुपादत्ते, पथ्यापथ्यविवेकज्ञस्तु आतुरस्तादात्विक सुखसाधनं दध्यादिकं परित्यज्य पेयादावारोग्यसाधने प्रवर्तते । तथा च कस्यचिद्विदुषः सुभाषितम्- तदात्व सुखसंज्ञेषु भावेष्वज्ञोऽनुरज्यते । हितमेवानुरुध्यन्ते प्रपरीक्ष्य परी - क्षकाः ॥ " - बृहत्सर्वज्ञसिद्धि, पृ० १८१ ।
इस तरह यह समूचा ही प्रकरण इसी प्रकारके शब्दानुसरणसे ओतप्रोत है ।
शाकटायन और प्रभाचन्द्र - राष्ट्रकूट वंशीय राजा अमोघवर्षके राज्यकाल ( ईस्वी ८१४-८७७ ) में शाकटायन नामके प्रसिद्ध वैयाकरण हो गए हैं। ये 'यापनीय संघ के आचार्य थे । यापनीयसंघका बाह्य आचार बहुत कुछ दिगम्बरोंसे मिलता जुलता था । ये नग्न रहते थे । श्वेताम्बर आगमोंको आदरकी दृष्टिसे देखते थे । आ० शाकटायनने अमोघवर्षके नामसे अपने शाकटायनव्याकरणपर 'अमोघवृत्ति' नामकी टीका बनाई थी । अतः इनका समय भी लगभग ई० ८०० से ८७५ तक समझना चाहिए । यापनीयसंघ के अनुयायी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंकी कुछ-कुछ बातोंको स्वीकार करते थे । एक तरहसे यह संघ दोनों सम्प्रदायोंके जोड़ने के लिए श्रृंखलाका कार्य करता था । आचार्य मलयगिरिने अपनी नन्दी सूत्रकी टीका ( पृ० १५ ) में शकटायनको 'यापनीययतिग्रामाग्रणी' लिखा है - "शाकटायनोऽपि यापनीययतिग्रामाग्रणीः स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ” । शाकटायन आचार्य ने अपनी अमोघवृत्तिमें छेदसूत्र नियुक्ति कालिकसूत्र आदि श्वे० ग्रन्थोंका १. देखो - पं० नाथूरामप्रेमीका 'यापनीय साहित्यकी खोज' ( अनेकान्त वर्ष ३, किरण १ ) तथा प्रो० ए० एन्० उपाध्यायका 'यापनीयसंघ' ( जैनदर्शन वर्ष ४, अंक ७ लेख |
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