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४ / विशिष्ट निबन्ध : १४३ का भी सारगर्भ विवेचन किया है। आ० प्रभाचन्द्रने शून्यनिर्वाणवादका खंडन करते समय पूर्वपक्ष में ( प्रमेयक० पृ० ६८७ ) सौन्दरनन्दकाव्यसे निम्नलिखित दो श्लोक उद्धृत किए हैं
"दीपो यथा निर्बुणिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद विदिशं काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।।"
-सौन्दरनन्द १६।२८, २९ नागार्जुन और प्रभावन्द्र-नागार्जुनकी माध्यमिककारिका और विग्रहव्यावर्तिनी दो ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । ये ईसाकी तीसरी शताब्दीके विद्वान् हैं। इन्हें शून्यवादके प्रस्थापक होनेका श्रेय प्राप्त है । माध्यमिककारिकामें इन्होंने विस्तृत परीक्षाएँ लिखकर शन्यवादको दार्शनिक रूप दिया है। विग्रहव्यावर्तिनी भी इसी तरह शन्यवादका समर्थन करनेवाला छोटा प्रकरण है। प्रभाचन्द्रने न्यायकूमदचन्द्र (१० १३२ ) में माध्यमिकके शून्यवादका खंडन करते समय पूर्वपक्ष में प्रमाणवातिककी कारिकाओंके साथ ही साथ माध्यनिककारिकासे भी 'न स्वतो नापि परतः' और 'यथा मया यथा स्वप्नो' ये दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं ।
वसुबन्धु और प्रभावन्द्र-वसुबन्धुका अभिधर्मकोश ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इनका समय इ० ४०० के करीब माना जाता है। अभिधर्मकोश बहुत अंशोंमें बौद्धदर्शनके सूत्रग्रन्थका कार्य करता है। प्रभाचन्द्रने न्यायकुमदचन्द्र (१० ३९० ) में वैभाषिक समस्त द्वादशाङ्ग प्रतीत्यसमुत्पादका खंडन करते समय प्रतीत्यसमत्पादका पूर्वपक्ष वसूबन्धके अभिधर्मकोशके आधारसे ही लिखा है। उसमें यथावसर अभिधर्मकोशसे २-३ कारिकाएँ भी उद्धृत की है । देखो न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ३९५ ।
दिङ्नाग और प्रभाचन्द्र-आ० दिग्नागका स्थान बौद्धदर्शनने विशिष्ट संस्थापकोंमें है। इनके न्यायप्रवेश और प्रमाणसमच्चय प्रकरण मुद्रित हैं। इनका समय ई० ४२५ के आसपास माना जाता है। प्रमाणसमुच्चयमें प्रत्यक्षका कल्पनापोढ लक्षण किया है। इसमें अभ्रान्तपद धर्मकीर्तिने जोड़ा है। इन्हींके प्रमाणसमुच्चय पर धर्मकीर्तिने प्रमाणवातिक रचा है। भिक्ष राहुलजीने' दिग्नागके आलम्बनपरीक्षा, त्रिकालपरोक्षा और हेतुचक्रडमरु आदि ग्रन्थोंका भी उल्लेख किया है। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (१०८० ) में 'स्तुतश्च अद्वैतादिप्रकरणानामादौ दिग्नागादिभिः सद्भिः ' लिखकर प्रमाणसमुच्चयका 'प्रमाणभूताय' इत्यादि मंगलश्लोकांश उद्धृत किया है। इसी तरह अपोहबादके पूर्वपक्ष ( प्रमेयक० पृ० ४३६ ) में दिग्नागके नामसे निम्नलिखित गद्यांश भी उद्धृत किया है-"दिग्नागेन विशेषणविशेष्यभावसमर्थनार्थम 'नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानांनाहुः' इत्युक्तम् ।
धर्मकीति और प्रभाचन्द्र-बौद्धदर्शनके युगप्रधान आचार्य धर्मकीर्ति ईसाकी ७वीं शताब्दी में नालन्दाके बौद्धविद्यापीठके आचार्य थे । इनकी लेखनीने भारतीय दर्शनशास्त्रों में एक युगान्तर उपस्थित कर दिया था। धर्मकीर्तिने वैदिक-स्कृतिपर दढ प्रहार किए है। यद्यपि इनका उद्धार करने के लिए व्योमशिव, जयन्त, वाचस्पतिमिश्र, उदयन आदि आचार्योंने कुछ उठा नहीं रखा । पर बौद्धोंके खंडनमें जितनो कुशलता तथा सतर्कतासे जैनाचार्योने लक्ष्य दिया है उतना अन्यने नहीं। यहो कारण है कि अकलङ्क, हरिभद्र, अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, अभयदेव, वादिदेवसरि आदिके जैनन्यायशास्त्रके ग्रन्थोंका बहभाग बौद्धोंके खंडनने ही रोक रखा है। धर्मकीतिके समयके विषयमें मैं विशेष ऊहापोह "अकलङ्कग्रन्थ त्रय" की प्रस्तावना १. वादन्याय परिशिष्ट पृ० VI,
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