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४ / विशिष्ट निबन्ध : १४१ समय कुमारिलकी "तस्मादुभवहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मकः " आदि कारिकाएँ अपने पक्ष के समर्थनमें भी उद्धृत की हैं । इसी तरह सृष्टिकर्तृत्वखंडन, ब्रह्मवादखंडन आदि में प्रभाचन्द्र कुमारिलके साथ-साथ चल
। सारांश यह है कि प्रभाचन्द्र के सामने कुमारिलका मीमांसाश्लोकवार्तिक एक विशिष्ट ग्रन्थके रूपमें रहा है । इसीलिए इसकी आलोचना भी जमकर की गई। । श्लोकवार्तिककी भट्ट उम्बेककृत तात्पर्यटीका अभी
प्रकाशित हुई है । इस टीकाका आलोडन भी प्रभाचन्द्रने खूब किया है । सर्वज्ञवादमें कुछ कारिकाएँ ऐसी उद्धृत हैं जो कुमारिलके मौजूदा श्लोकवार्तिकमें नहीं पाईं जाती । संभव है ये कारिकाएँ कुमारिलकी बृहट्टीका या अन्य किसी ग्रंथ की हों ।
मंडन मिश्र और प्रभाचन्द्र - आ० मंडनमिश्रके मीमांसानुक्रमणी, विधिविवेक, भावनाविवेक, सिद्धि, ब्रह्मसिद्धि, स्फोटसिद्धि आदि यन्थ प्रसिद्ध हैं । इनका समय' ईसाकी ८वीं शताब्दीका पूर्वभाग है | आचार्य विद्यानन्दने ( ई० ९वीं शताब्दीका पूर्वभाग ) अपनी अष्टसहस्रीमें मण्डन मिश्रका नाम लिया है । यतः मण्डन मिश्र अपने ग्रन्थोंमें सप्तमशतकवर्ती कुमारिलका नामोल्लेख करते हैं । अतः इनका समय ई० की सप्तमशताब्दीका अन्तिमभाग तथा ८वीं सदीका पूर्वार्ध सुनिश्चित होता है । आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० १४९ ) में मंडन मिश्र की ब्रह्मसिद्धिका " आहुविधातृ प्रत्यक्ष" श्लोक उद्धृत किया है । न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ५७२ ) में विधिवादके पूर्वपक्ष में मंडनमिश्र के विधिविवेक में वर्णित अनेक विधिवादियोंका निर्देश किया गया है। उनके मतनिरूपण तथा समालोचनमें विधिविवेक ही आधारभूत मालूम होता है ।
प्रभाकर और प्रभाचन्द्र - शाबरभाष्यकी बृहती टीकाके रचयिता प्रभाकर करीब-करीब कुमारिल - के समकालीन थे । भट्ट कुमारिलका शिष्य परिवार भाट्टके नामसे ख्यात हुआ तथा प्रभाकरके शिष्य प्राभाकर या गुरुमतानुयायी कहलाए । प्रभाकर विपर्ययज्ञानको स्मृतिप्रमोष या विवेकाख्याति रूप मानते हैं । ये अभावको स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानते । वेदवाक्योंका अर्थ नियोगपरक करते हैं । प्रभाचन्द्रने अपने ग्रन्थों में प्रभाकरके स्मृतिप्रमोष, नियोगवाद आदि सभी सिद्धान्तोंका विस्तृत खंडन किया है ।
शालिकनाथ और प्रभाचन्द्र - प्रभाकरके शिष्योंमें शालिकनाथका अपना विशिष्ट स्थान है । इनका समय ईसाकी ८वीं शताब्दी है । इन्होंने बृहतीके ऊपर ऋजुविमला नामकी पञ्जिका लिखी है । प्रभाकरगुरुके सिद्धान्तोंका विवेचन करनेके लिए इन्होंने प्रकरणपञ्जिका नामका स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखा है । ये अन्धकारको स्वतन्त्र पदार्थ नहीं मानते किन्तु ज्ञानानुत्पत्तिको ही अन्धकार कहते हैं । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ( पृ० २३८ ) तथा न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ६६६ ) में शालिकनाथ के इस मतकी विस्तृत समीक्षा की है ।
शङ्कराचार्य और प्रभाचन्द्र - आद्य शङ्कराचार्य के ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य, गीताभाष्य, उपनिषद्भाष्य आदि अनेकों ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । इनका समय ई० ७८८ से ८२० तक माना जाता है । शाङ्करभाष्य में धर्मकीर्तिके 'सहोपलम्भनियमात् ' हेतुका खण्डन होनेसे यह समय समर्थित होता है । आ० प्रभाचन्द्रने शङ्करके अनिर्वचनीयार्थख्यातिवादकी समालोचना प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें की है। न्यायकुमुदचन्द्रके परमब्रह्मवादके पूर्वपक्ष में शाङ्करभाष्यके आवारसे हो वैषम्य नैर्ऋग्य आदि दोषोंका परिहार किया गया है ।
सुरेश्वर और प्रभाचन्द्र - शङ्कराचार्य के शिष्यों में सुरेश्वराचार्यका नाम उल्लेखनीय है । इनका
१. देखो बृहती द्वि० भागकी प्रस्तावना ।
२. द्रष्टव्य-अच्युतपत्र वर्ष ३, अङ्क ४ में म० म० गोपीनाथ कविराजका लेख ।
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