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१४० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
इस तरह न्यायकुमुदचन्द्र के आधारभूत ग्रन्थोंमें न्यायमंजरीका नाम लिखा जा सकता है।
वाचस्पति और प्रभाचन्द्र-षड्दर्शनटीकाकार वाचस्पतिने अपना न्यायसूचीनिबन्ध ई० ८४१ में समाप्त किया था। इनमें अपनी तात्पर्यटीका ( पृ० १६५) मे सांख्योंके अनुमानके मात्रामात्रिक आदि सात भेद गिनाए हैं और उनका खंडन किया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ४६२ ) में भी सांख्योंके अनुमानके इन्हीं सात भेदोंके नाम निर्दिष्ट हैं । वाचस्पतिने शांकरभाष्यकी भामती टीकामें अविद्यासे अविद्याके उच्छेद करनेके लिए "यथा पयः पयोऽन्तरं जरयति स्वयं च जीर्यति, विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति, यथा वा कतकरजो रजोऽन्तराविले पाथ सि प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि भिन्दत् स्वयमपि भिद्यमानमनाविलं पाथः करोति.." इत्यादि दृष्टान्त दिए हैं। प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ६६) मे इन्हीं दृष्टान्तोंको पूर्वपक्षमें उपस्थित किया है। न्यायकुमुदचन्द्रके विधिवादके पूर्वपक्षमें विधिविवेकके साथही साथ उसकी वाचस्पतिकत न्यायकणिका टीकाका भी पर्याप्त सादश्य पाया जाता है। वाचस्पतिके उक्त ई० ८४१ समयका साधक एक प्रमाण यह भी है कि इन्होंने तात्पर्यटीका ( पृ० २१७ ) में शान्तर क्षितके तत्त्वसंग्रह ( श्लो. २०० ) से निम्नलिखित श्लोक उद्धत किया है-'नर्तकीभ्रलताक्षेपो न ह्येकः पारमार्थिकः । अनेकाणुसमहत्वात् एकत्वं तस्य कल्पितम् ।।" शान्तरक्षितका समय ई० ७६२ है।
शबर ऋषि और प्रभाचन्द्र-जैमिनिसूत्रपर शाबरभाष्य लिखनेवाले महर्षि शबरका समय ईसाकी तीसरी सदी तक समझा जाता है। शाबरभाष्यके ऊपर ही कुमारिल और प्रभाकरने व्याख्याएँ लिखी हैं। आ० प्रभाचन्द्रने शब्द-नित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद आदिमें कुमारिलके श्लोकवार्तिकके साथ ही साथ शाबरभाष्यकी दलीलोंको भी पूर्वपक्षमें रखा है। शाबरभाष्यसे ही “गौरित्यत्र कः शब्दः ? गकारौकारविसर्जनीया इति भगवानुपवर्षः'' यह उपवर्ष ऋषिका मत प्रमेयकमळमार्तण्ड ( पृ० ४६४ ) में उद्धृत किया गया है। न्यायकुमुदचन्द्र (१० २७९ ) में शब्दको वायवीय माननेवाले शिक्षाकार मीमांसकोंका मत भी शाबरभाष्यसे ही उद्धृत हुआ है। इसके सिवाय न्यायकुमुदचन्द्रमे शाबरभाष्यके कई वाक्य प्रमाणरूपमें और पूर्वपक्ष में उद्धृत किए गए हैं ।
कुमारिल और प्रभाचन्द्र-भट कुमारिलने शाबरभाष्यपर मीमांसाश्लोकवार्तिक, तन्त्रवार्तिक और दुप्टीका नामकी व्याख्या लिखी है कुमारिलने अपने तन्त्रवार्तिक ( पृ० २५१-२५३ ) में वाक्यपदीयके निम्नलिखित श्लोककी समालोचना की है
___ “अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् ।
अपूर्वदेवतास्वर्गः सममाहुर्गवादिषु ॥" -वाक्यप० २।१२१ इसी तरह तन्त्रवार्तिक (पृ० २०९-१० ) में वाक्यपदीय (१७) के "तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणादृते" अंश उद्धृत होकर खंडित हुआ है। मीमांसाश्लोकवार्तिक ( वाक्याधिकरण श्लो० ५१) में वाक्यपदीय ( २११-२) में निर्दिष्ट दशविध या अष्टविध वाक्यलक्षणोंका समालोचन किया गया है। भर्तृहरिके स्फोटवादको आलोचना भी कुमारिलने मीमांसाश्लोकवातिकके स्फोटवादमें बडी प्रखरता चीनी यात्री इत्सिगने अपने यात्राविवरणमें भर्तृहरिका मृत्युसमय ई० ६५० बताया है अतः भर्तृहरिके समालोचक कुमारिलका समय ईस्वी ७वी शताब्दीका उत्तर भाग मानना समुचित है। आ० प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमात्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में सर्वज्ञवाद, शब्दनित्यत्ववाद, वेदापौरुषेयत्ववाद, आगमादिप्रमाणोंका विचार, प्रामाण्यवाद आदि प्रकरणोंमें कुमारिलके श्लोकवार्तिकसे पचासों कारिकाएँ उद्धृत की है। शब्दनित्यत्ववाद आदि प्रकरणोंमें कुमारिलकी युक्तियोंका सिलसिलेवार सप्रमाण उत्तर दिया गया है। कुमारिलने आत्माको व्यावृत्त्यनुगमात्मक या नित्यानित्यात्मक माना है। प्रभाचन्द्रने आत्माकी नित्यानित्यात्मकताका समर्थन करते
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