Book Title: Acharya Prabhachandra aur uska Pramey kamal Marttand
Author(s): Manikyanandi Sutrakar
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
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४ / विशिष्ट निबन्ध : १६९ निश्चित किया गया है वे भी अभ्रान्त नहीं हैं । पं० जीने प्रभाचन्द्र के ग्रन्थोंमें व्योमशिवाचार्यकी व्योमवती टीकाका प्रभाव देखकर प्रभाचन्द्रकी पूर्वावधि ९५० ई० और पुष्पदन्तकृत महापुराणके प्रभाचन्द्रकृत टिप्पणको वि० सं० २०८० ( ई० १०२३ ) में समाप्त मानकर उत्तरावधि १०२० ई० निश्चित की है। मैं ' व्योमशिव और प्रभाचन्द्र' की तुलना करते समय व्योमशिवका समय ईसाकी सातवीं शताब्दीका उत्तरार्ध निर्धारित कर आया हूँ । इसलिए मात्र व्योमशिव के प्रभाव के कारण ही प्रभाचन्द्रका समय ई० ९५० के बाद नहीं जा सकता। महापुराणके टिप्पणकी वस्तुस्थिति तो यह है कि- पुष्पदन्तके महापुराणपर श्रीचन्द्र आचार्यका भी टिप्पण है और प्रभाचन्द्र आचार्यका भी । बलात्कारगणके श्रीचन्द्रका टिप्पण भोजदेवके राज्य में बनाया गया है। इसकी प्रशस्ति निम्नलिखित है-
"श्री विक्रमादित्य संवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्रे महापुराण विषमपदविवरणं सागरसेनसैद्धान्तान्
हैं । यदि प्रभाचन्द्र भी ईसाकी नवीं शताब्दीके विद्वान् होते, तो भी वे अपने समकालीन विद्यानन्द आदि आचार्योंका स्मरण करके भी आदिपुराणकार द्वारा स्मृत हो सकते थे । ( २ ) ' जयन्त और प्रभाचन्द्र' की तुलना करते समय मैं जयन्तका समय ई० ७५० से ८४० तक सिद्ध कर आया हूँ । अतः समकालीनवृद्ध जयन्तसे प्रभावित होकर भी प्रभाचन्द्र आदिपुराणमें उल्लेख्य हो सकते हैं । (३) गुणभद्रके आत्मानुशासन से 'अन्धादयं महानन्धः श्लोक उद्धृत किया जाना अवश्य ऐसी बात है जो प्रभाचन्द्रका आदिपुराण में उल्लेख होनेकी बाधक हो सकती है । क्योंकि आत्मानुशासन के “जिनसेनाचार्यपादस्मरणाधीनचेतसाम् । गुणभद्रभदन्तानां कृतिरात्मानुशासनम् ||" इस अन्तिमश्लोकसे ध्वनित होता है कि यह ग्रन्थ जिनसेन स्वामीको मृत्युके बाद बनाया गया है; क्योंकि वही समय जिनसेनके पादोंके स्मरण के लिए ठीक जँचता है । अतः आत्मानुशासनका रचनाकाल सन् ८५० के करीब मालूम होता है । आत्मानुशासनपर प्रभाचन्द्रकी एक टीका उपलब्ध है । उसमें प्रथम श्लोकका उत्थान वाक्य इस प्रकार है - "बृहद्धर्मं भ्रातुर्लोकसेनस्य विषयव्या मुग्धबुद्धः सम्बोधनव्याजेन सर्वसत्त्वो - कारक सन्मार्गमुपदर्शयितुकामो गुणभद्रदेवः " अर्थात् गुणभद्र स्वामीने विषयोंकी ओर चंचल चित्तवृत्तिवाले बड़े धर्मभाई (?) लोकसेनको समझाने के बहाने आत्मानुशासन ग्रन्थ बनाया है । ये लोकसेन गुणभद्र प्रियशिष्य थे । उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें इन्हीं लोकसेनको स्वयं गुणभद्रने 'विदितसकलशास्त्र, मुनीश, कवि अविकलवृत्त' आदि विशेषण दिए हैं। इससे इतना अनुमान तो सहज ही किया जा सकता है कि आत्मानुशासन उत्तरपुराणके बाद तो नहीं बनाया गया; क्योंकि उस समय लोकसेन मुनि विषयव्यामुग्धबुद्धि न होकर विदितसकलशास्त्र एवं अविकलवृत्त हो गए थे । अतः लोकसेनकी प्रारम्भिक अवस्था में, उत्तरपुराणकी रचनाके पहिले ही आत्मानुशासनका रचा जाना अधिक संभव है । पं० नाथूरामजी प्रेमीने विद्वद्रत्नमाला ( पृ० ७५ ) में यही संभावना की है । आत्मानुशासन गुणभद्रकी प्रारम्भिक कृति ही मालूम होती है । और गुणभद्रने इसे उत्तरपुराणके पहिले जिनसेनकी मृत्यु के बाद बनाया होगा । परन्तु आत्मानुशासनकी आन्तरिक जाँच करनेसे हम इस परिणामपर पहुँचे हैं कि इसमें अन्य कवियों के सुभाषितोंका भी यथावसर समावेश किया गया है । उदाहरणार्थ - आत्मानुशासनका ३२ वाँ पद्य 'नेता यस्य बृहस्पतिः ' भर्तृहरिके नीतिशतकका ८८वां श्लोक है, आत्मानुशासनका ६७ वाँ पद्य 'यदेतत्स्वच्छन्द' वैराग्यशतकका ५०वाँ श्लोक है । ऐसी स्थितिमें 'अन्धादयं महानन्धः ' सुभाषित पद्य भी गुण भद्रका स्वरचित ही है यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते । तथापि किसी अन्य प्रबल प्रमाणके अभाव में अभी इस विषय में अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता !
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