Book Title: Acharya Prabhachandra aur uska Pramey kamal Marttand
Author(s): Manikyanandi Sutrakar
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 27
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १५३ बड़े आदरसे उल्लेख किया है । आचार्य शाकटायनते केवलिकवलाहार तथा स्त्रीमुक्ति के समर्थन के लिए स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति नामके दो प्रकरण बनाए हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके परस्पर बिलगाव में ये दोनों सिद्धान्त ही मुख्य माने जाते हैं। यों तो दिगम्बर ग्रन्थों में कुन्दकुन्दाचार्य, पूज्यपाद आदिके ग्रन्थोंमें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिका सूत्ररूपसे निरसन किया गया है, परन्तु इन्हीं विषयोंके पूर्वोत्तरपक्ष स्थापित करके शास्त्रार्थका रूप आ० प्रभाचन्द्रने हो अपने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र में दिया है । श्वेताम्बरों के तर्कसाहित्य में हम सर्वप्रथम हरिभद्रसूरिकी ललितविस्तरामें स्त्रीमुक्तिका संक्षिप्त समर्थन देखते हैं, परन्तु इन विषयोंको शास्त्रार्थका रूप सन्मतिटीकाकार अभयदेव, उत्तराध्ययन पाइयटीकाके रचयिता शान्तिसूरि तथा स्याद्वादरत्नाकरकार वादिदेवसूरिने ही दिया है। पीछे तो यशोविजय उपाध्याय तथा मेघविजयगणि आदिने पर्याप्त साम्प्रदायिक रूपसे इनका विस्तार किया है। इन विवादग्रस्त विषयोंपर लिखे गए उभयपक्षीय साहित्यका ऐतिहासिक तथा तात्त्विक दृष्टिसे सूक्ष्म अध्ययन करनेपर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता कि स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति विषयोंके समर्थनका प्रारम्भ श्वेताम्बर आचार्योकी अपेक्षा यापनीयसंघवालोंने ही पहिले तथा दिलचस्पी के साथ किया है । इन विषयोंको शास्त्रार्थका रूप देनेवाले प्रभाचन्द्र, अभयदेव तथा शान्तिसूरि करीब-करीब समकालीन तथा समदेशीय थे । परन्तु इन आचार्योंने अपने पक्ष के समर्थन में एक दूसरेका उल्लेख या एक दूसरेकी दलीलोंका साक्षात् खंडन नहीं किया । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिका जो विस्तृत पूर्वपक्ष लिखा गया है वह किसी श्वेताम्बर आचार्य के ग्रन्थका न होकर यापनीयाग्रणी शाकटायनके केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंसे ही लिया गया है। इन ग्रन्थोंके उत्त रपक्षमें शाकटायनके उक्त दोनों प्रकरणों की एक-एक दलीलका शब्दशः पूर्वपक्ष करके सयुक्तिक निरास किया गया है। इसी तरह अभयदेवको सन्मतितर्कटीका और शान्तिसूरिको उत्तराध्ययन पाइयटीका और जैनतर्कवार्तिक में शाकटायन के इन्हीं प्रकरणों के आधारसे ही उक्त बातोंका समर्थन किया गया है । हाँ, वादिदेवसूरि रत्नाकरमें इन मतभेदोंमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सामने- सामने आते हैं । रत्नाकरमें प्रभाचन्द्रकी दलीलें पूर्वपक्ष रूपमें पाई जाती हैं । तात्पर्य यह कि - प्रभाचन्द्रने स्त्रीमुक्तिवाद तथा केवलिकवलाहारवाद में श्वेताम्बर आचार्योंकी बजाय शाकटायन के केवलिक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरणोंको ही अपने खंडनका प्रधान लक्ष्य बनाया है। न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ८६९ ) के पूर्वपक्ष में शाकटायन के स्त्रीमुक्ति प्रकरणकी यह कारिका भी प्रमाण रूपसे उद्धृत की गई है— "गार्हस्थ्येऽपि सुमत्त्वा विख्याताः शीलवत्तया जगति । सीतादयः कथं तास्तपसि विशोला विसत्त्वाश्च ॥ स्त्रीमु० श्लो० ३१ अभयनन्दि और प्रभाचन्द्र -- जैनेन्द्रव्याकरणपर आ० अभयनन्दिकृत महावृत्ति उपलब्ध है । इसी महावृत्ति आधारसे प्रभाचन्द्र ने 'शब्दाम्भोजभास्कर" नामका जैनेन्द्रव्याकरणका महान्यास बनाया है । पं० नाथूरामजी प्रेमोने अपने 'जैनेन्द्रव्याकरण और आचार्य देवनन्दी' नामक लेखमें जैनेन्द्रव्याकरणके प्रचलित दो सूत्र पाठोंमेंसे अभयन न्दिसम्मत सूत्रपाठको ही प्राचीन और पूज्यपादकृत सिद्ध किया है। इसी पुरातनसूत्रपाठ - पर प्रभाचन्द्र ने अपना न्यास बनाया है । प्रेमीजीने अपने उक्त गवेषणापूर्ण लेखमें महावृत्तिकार अभयनन्दिको चन्द्र प्रभचरित्रकार वीरनन्दिका गुरु बताया है और उनका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीका पूर्वभाग १. ये प्रकरण जैनसाहित्यसंशोधक खंड २, अंक ३-४ में मुद्रित हुए हैं । २. इसका परिचय 'प्रभाचन्द्र के ग्रंथ' शीर्षक स्तम्भमें देखना चाहिए ! ३. जैन साहित्यसंशोधक भाग १, अंक २ ४-२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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