Book Title: Acharya Prabhachandra aur uska Pramey kamal Marttand Author(s): Manikyanandi Sutrakar Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf View full book textPage 8
________________ १३४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ ' के "नवानामात्म विशेषगुणानां सन्तानोऽत्यन्तमुच्छिद्यते सन्तानत्वात् यथा प्रदीपसन्तानः ।" इस अनुमानको 'तार्किकाः' तथा 'आचार्याः' शब्दके साथ उद्धृत किया हैं । कन्दली ( पृ० २० ) में व्योमवती ( पृ० १४९ ) के 'द्रव्यत्वोपलक्षितः समवायः द्रव्यत्वेन योग:' इस मतकी आलोचना की गई। । इसी तरह कन्दली ( पृ० १८ ) में व्योमवती ( पृ० १२९ ) के 'अनित्यत्वं तु प्रागभाव प्रध्वंसाभावोपलक्षिता वस्तुसत्ता इस अनित्यत्वके लक्षणका खण्डन किया है । कन्दली ( पृ० २०० ) में व्योमवती ( पृ० ५९३ ) के 'अनुमान - लक्षणमें विद्या के सामान्यलक्षणकी अनुवृत्ति करके संशयादिका व्यवच्छेद करना' तथा स्मरण के व्यवच्छेदके लिये 'द्रव्यादिषु उत्पद्यते' इस पदका अनुवर्त्तन करना' इन दो मतोंका समालोचन किया है । कन्दलीकार श्रीधरका समय कन्दलीके अन्तमें दिए गए " त्र्यधिकदशोत्तरनवशतशकाब्दे" पदके अनुसार ९१३ शक अर्थात् ९९१ ई० है । और उदयनाचार्य का समय ९८४ ई० है । वादिराज अपने न्यायविनिश्चय-विवरण ( लिखित पृ० १११ B तथा १११ A ) में व्योमवतीसे पूर्वपक्ष करते हैं । वादिदेवसूरि अपने स्याद्वादरत्नाकर ( पृ० ३१८ तथा ४९८ ) में पूर्वपक्षरूपसे व्योमवतीका उद्धरण देते हैं । सिद्धषि न्यायावतारवृत्ति ( पृ० ९) में, हेमचन्द्र प्रमाणमीमांसा ( पृ० ७ ) में तथा गुणरत्न अपनी षड्दर्शनसमुच्चयकी वृत्ति ( पृ० ११४ A ) में व्योमवती के प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम रूप प्रमाणत्रित्वकी - वैशेषिकपरम्पराका पूर्वपक्ष करते हैं । इस तरह व्योमवतीकी संक्षिप्त तुलनासे ज्ञात हो सकता है कि व्योमवतीका जैन ग्रन्थोंसे विशिष्ट सम्बन्ध है । इस प्रकार हम व्योमशिवका समय शिलालेख तथा उनके ग्रन्थके उल्लेखोंके आधारसे ईस्वी सातवीं शताब्दीका उत्तर भाग अनुमान करते हैं । यदि ये आठवीं या नवमी शताब्दीके विद्वान् होते तो अपने समसामयिक शंकराचार्य और शान्तरक्षित जैसे विद्वानोंका उल्लेख अवश्य करते । हम देखते हैं कि - व्योमशिव शांकरवेदान्तका उल्लेख भी नहीं करते तथा विपर्यय ज्ञानके विषय में अलौकिकार्थख्याति, स्मृतिप्रमोष आदिका खण्डन करनेपर भी शंकरके अनिर्वचनीयार्थख्यातिवादका नाम भी नहीं लेते । व्योमशिव जैसे बहुश्रुत एवं सैकड़ों मतमतान्तरोंका उल्लेख करनेवाले आचार्य के द्वारा किसी भी अष्टमशताब्दी या नवम शताब्दीवर्त्ती आचार्य मतका उल्लेख न किया जाना ही उनके सप्तमशताब्दीवर्ती होने का प्रमाण है । अतः डॉ० कीथका इन्हें नवमी शताब्दीका विद्वान् लिखना तथा डॉ० एस० एन० दासगुप्ताका इन्हें छठी शताब्दीका विद्वान् बतलाना ठीक नहीं जँचता । श्रीधर और प्रभाचन्द्र - प्रशस्तपाद भाष्यकी टीकाओंमें न्यायकन्दली टीकाका भी अपना अच्छा स्थान है । इसकी रचना श्रीधरने शक ९१३ ( ई० ९९१ ) में की थी । श्रीधराचार्य अपने पूर्व टीकाकार व्योमशिवका शब्दानुसरण करते हुए भी उनसे मतभेद प्रदर्शित करने में नहीं चूकते । व्योमशिव बुद्धयादि विशेष गुणोंकी सन्ततिके अत्यन्तोच्छेदको मोक्ष कहते हैं और उसकी सिद्धि के लिए 'सन्तानत्वात्' हेतुका प्रयोग करते हैं ( प्रश० व्यो०, पृ० २० क ) । श्रीधर आत्यन्तिक अहितनिवृत्तिको मोक्ष मानकर भी उसकी सिद्धि के लिए प्रयुक्त होनेवाले 'सन्तानत्वात्' हेतुको पार्थिवपरमाणुकी रूपादिसन्तानसे व्यभिचारी बताते हैं। ( कन्दली, पृ० ४ ) | आ० प्रभाचन्द्रने भी वैशेषिकों को मुक्तिका खण्डन करते समय न्यायकुमुद० ( पृ ८२६ ) और प्रमेयकमल० ( पृ० ३१८ ) में 'सन्तानत्वात्' हेतुको पाकजपरमाणुओंकी रूपादिसन्तानसे व्यभिचारी बताया है । इसी तरह और भी एकाधिकस्थलोंमें हम कन्दलीकी आभा प्रभाचन्द्रके ग्रन्थोंपर देखते हैं । वात्सायन और प्रभाचन्द्र - न्यायसूत्र के ऊपर वात्सायनकृत न्यायभाष्य उपलब्ध है । इनका समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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