Book Title: Acharya Prabhachandra aur uska Pramey kamal Marttand
Author(s): Manikyanandi Sutrakar
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 21
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : १४७ आ० विद्यानन्दने आप्तपरीक्षाका उपसंहार करते हुए यह श्लोक लिखा है कि "श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुत सलिलनिधेरिद्वरत्नोद्भवस्य, प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत्, विद्यानन्दः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थ सिद्ध्यै ।। १२३ ।।” अर्थात् तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रसे दीप्तरत्नोंके उद्भव के प्रोत्थानारम्भकाल - प्रारम्भिक समयमें, शास्त्रकारने, पापों का नाश करनेके लिए, मोक्षके पयको बतानेवाला, तीर्थस्वरूप जो स्तवन किया था और जिस स्तवनकी स्वामीने मीमांसा की है, उसीका विद्यानन्दने अपनी स्वल्पशक्ति के अनुसार सत्यवाक्य और सत्यार्थी सिद्धिके लिए विवेचन किया है । अथवा, जो दीप्तरत्नोंके उद्भव - उत्पत्तिका स्थान है उस अद्भुत सलिलनिधिके समान तत्त्वार्थशास्त्र के प्रोत्थानारम्भकाले उत्पत्तिका निमित्त बताते समय या प्रोत्थानउत्थानिक भूमिका बाँधनेके प्रारम्भिक समयमें शास्त्रकारने जो मंगलस्तोत्र रचा और जिस स्तोत्र में वर्णित आप्तकी स्वामीने मीमांसा की उसीकी मैं ( विद्यानन्द ) परीक्षा कर रहा हूँ । वे इस श्लोक में स्पष्ट सूचित करते हैं कि स्वामी समन्तभद्रने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मंगलश्लोकमें वर्णित जिस आप्तकी मीमांसा की है उसी आप्तकी मैंने परीक्षा की है। वह मंगलस्तोत्र तत्त्वार्थशास्त्ररूपी समुद्रसे दीप्त रत्नोंके उद्भव के प्रारम्भिक समय में या तत्त्वार्थशास्त्रकी उत्पत्तिका निमित्त बताते समय शास्त्रकारने बनाया था । यह तत्त्वार्थशास्त्र यदि तत्त्वार्थसूत्र है तो उसका मंथन करके रत्नोंके निकालनेवाले या उसकी उत्थानिका बाँधनेवाले उसकी उत्पत्तिका निमित्त बतानेवाले आचार्य पूज्यपाद हैं । यह 'मोक्षमार्गस्य नेतारं ' श्लोक स्वयं सूत्रकारका तो नहीं मालूम होता, क्योंकि पूज्यपाद, भट्टाकलङ्कदेव और विद्यानन्दने सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक में इसका व्याख्यान नहीं किया है । यदि विद्यानन्द इसे सूत्रकारकृत हो मानते होते तो वे अवश्य ही श्लोकवार्तिकमें उसका व्याख्यान करते । परन्तु यहो विद्यानन्द आप्तपरीक्षा ( पृ० ३ ) के प्रारम्भ में इसी श्लोकको सूत्रकारकृत भी लिखते हैं । यथा— ...33 " किं पुनस्तत्परमेष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति निगद्यते - मोक्षमार्गस्य नेतारं इस पंक्ति में यही श्लोक सूत्रकारकृत कहा गया है । किन्तु विद्यानन्दकी शैलीका ध्यानसे समीक्षण करने पर यह स्पष्टरूपसे विदित हो जाता है कि वे अपने ग्रन्थोंमें किसी भी पूर्वाचार्यको सूत्रकार और किसी भी पूर्वग्रंथको सूत्र लिखते हैं । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( पृ० १८४ ) में वे अकलंकदेवका सूत्रकार शब्दसे तथा राजवार्तिकका सूत्र शब्दसे उल्लेख करते हैं- " तेन इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणम्' इत्येतत्सूत्रोपात्तमुक्तं भवति । ततः, प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् ॥ ४ ॥ सूत्रकारा इति ज्ञेयमाकलंकावबोधने" इस अवतरण में 'इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष' वाक्य राजवार्तिक ( पृ० ३८ ) का है तथा 'प्रत्यक्षलक्षणं' श्लोक न्यायविनिश्चय ( श्लो० ३ ) का है । अत: मात्र सूत्रकारके नामसे 'मोक्षमार्गस्य नेतारं" श्लोकको उद्धृत करनेके कारण हम 'विद्यानन्दका झुकाव इसे मूल सूत्रकारकृत माननेकी ओर है' यह नहीं समझ सकते । अन्यथा वे इसका व्याख्यान श्लोकवार्तिकमें अवश्य करते । अतः इस पंक्ति में सूत्रकार शब्दसे भी इद्धरत्नोंके उद्भवकर्ता या तत्त्वार्थशास्त्रकी भूमिका बाँधने वाले आचार्यका ही ग्रहण करना चाहिए। आप्तपरीक्षाके--- " इति तत्त्वार्थशास्त्रादी मुनीन्द्रस्तोत्रगोचरा । प्रणीताप्तपरीक्षेयं कुविवादनिवृत्तये ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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