Book Title: Acharya Prabhachandra aur uska Pramey kamal Marttand
Author(s): Manikyanandi Sutrakar
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 20
________________ १४६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अपने आत्मतत्त्वविवेकमें ज्ञानश्रीके क्षणभंगाध्यायका नामोल्लेखपूर्वक आनुपूर्वीसे खण्डन किया है। उदयनाचार्यने अपनी लक्षणावली तकम्बिरांक ( ९०६ ) शक, ई० ९८४ में समाप्त की थी। अतः ज्ञानश्रीका समय ई०९८४ से पहिले तो होना ही चाहिये । भिक्ष राहुल सांकृत्यायनजीके नोट्स देखनेसे ज्ञात हुआ है किज्ञानश्रीके क्षणभंगाध्याय या अपोहसिद्धि(?)के प्रारम्भमें यह कारिका है _ "अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां न वस्तु विधिनोच्यते ।" विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीमें भी यह कारिका उद्धृत है । आ० प्रभाचन्द्रने भी अपोहवादके पूर्वपक्षमें "अपोहः शब्दलिङ्गाभ्यां" कारिका उद्धृत की है। वाचस्पतिमिश्र ( ई० ८४१ ) के ग्रन्थोंमें ज्ञानश्रीकी समालोचना नहीं हैं पर उदयनाचार्य ( ई० ९८४ ) के ग्रन्थों में है, इसलिए भी ज्ञानश्रीका समय ईसाक १०वीं शताब्दीके बाद तो नहीं जा सकता। जयसिंहराशिभट्ट और प्रभाचन्द्र-भट्ट श्री जयसिंहराशिका तत्त्वोपप्लवसिंह नामक ग्रन्थ गायकवाड सीरीजमें प्रकाशित हुआ है। इनका समय ईसाकी ८वीं शताब्दी है। तत्त्वोपप्लवग्रन्थमें प्रमाण-प्रमेय आदि सभी तत्त्वोंका बहविध विकल्पजालसे खण्डन किया गया है। आ० विद्यानन्दके ग्रन्थों में सर्वप्रथम तत्त्वोपप्लववादीका पूर्वपक्ष देखा जाता है। प्रभाचन्द्रने संशयज्ञानका पूर्वपक्ष तथा बाधकज्ञानका पूर्वपक्ष तत्त्वोपप्लव ग्रन्थसे ही किया है और उसका उतने ही विकल्पों द्वारा खण्डन किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड ( १० ६४८ ) में 'तत्त्वोपप्लववादि' का दृष्टान्त भी दिया गया है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ३३९) में भी तत्त्वोपप्लववादिका दृष्टान्त पाया जाता है। तात्पर्य यह कि परमतके खण्डनमें क्वचित तत्त्वोपप्लववादिकृत विकल्पोंका उपयोग कर लेनेपर भी प्रभाचन्द्रने स्थान-स्थानपर तत्त्वोपप्लववादिके विकल्पोंकी भी समीक्षा को है। कुन्दकुन्द और प्रभाचन्द्र-दिगम्बर आचार्यों में आ० कुन्दकुन्दका विशिष्ट स्थान है। इनके सारत्रय-प्रवचनसार, पञ्चास्तिकायसमयसार और समयसार-के सिवाय बारसअणवेवखा अष्टपाड आदि ग्रन्थ उपलब्ध है। प्रो० ए० एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी भूमिकामें इनका समय ईसाकी प्रथमशताब्दी सिद्ध किया है । कुन्दकुन्दाचार्यने बोधपाहुड ( गा० ३७) में केवलीको आहार और निहारसे रहित बताकर कवलाहारका निषेध किया है। सूत्रप्राभूत ( गा० २३-३६ ) में स्त्रीको प्रव्रज्याका निषेध करके स्त्रीमुक्तिका निरास किया है । कुन्दकुन्दके इस मलमार्गका दार्शनिकरूप हम प्रभाचन्द्र के ग्रन्थों में केवलिकवलाहारवाद तथा स्त्रीमक्तिवादके रूपमें पाते हैं । यद्यपि शाकटायनने अपने केवलिभक्ति और स्त्रीमक्ति प्रकरणों में दिगम्बरोंकी मान्यताका विस्तृत खण्डन किया है। जिससे ज्ञात होता है कि शाकटायनके सामने दिगम्बराचार्योंका उक्त सिद्धान्तद्वयका समर्थक विकसित साहित्य रहा है। पर आज हमारे सामने प्रभाचन्द्र के ग्रन्थ ही इन दोनों मान्यताओंके समर्थकरूपमें समुपस्थित है। आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्रमें प्रवचनसारकी "जियद् य मरद य' गाथा, भावपाहडकी 'एगो मे सस्सदो' गाथा, तथा प्रा० सिद्धभक्तिकी 'पंवेदं वेदन्ता' गाथा उद्धृत की है । प्राकृत दशभक्तियाँ भी कुन्दकुन्दाचार्यके नामसे प्रसिद्ध हैं। समन्तभद्र और प्रभाचन्द्र-आद्यस्तुतिकार स्वामि समन्तभद्राचार्यके बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दी माना जाता है। किन्हीं विद्वानोंका विचार है कि इनका समय विक्रमकी पांचवीं या छठवीं शताब्दी होना चाहिये। प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्रमें बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रसे "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः" "मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान्" "तदेव च स्यान्न तदेव' इत्यादि श्लोक उद्धृत किए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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