Book Title: Acharya Prabhachandra aur uska Pramey kamal Marttand Author(s): Manikyanandi Sutrakar Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf View full book textPage 5
________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १३१ लिखा । पर रणिपद्रपुर रानोद, वर्तमान नारोद ग्रामकी एक वापी प्रशस्ति से इनकी गुरुपरम्परा तथा व्यक्तित्व-विषयक बहुत-सी बातें मालूम होती हैं, जिनका कुछ सार इस प्रकार है "कदम्बगुहाधिवासी मुनीन्द्रके शंखमठिकाधिपति नामक शिष्य थे, उनके तेरम्बिपाल, तेरम्बिपालके आमर्दकतीर्थनाथ और आमर्दकतीर्थनाथके पुरन्दरगुरु नामके अतिशय प्रतिभाशाली तार्किक शिष्य हुए। पुरन्दरगुरुने कोई ग्रन्थ अवश्य लिखा है; क्योंकि उसी प्रशस्ति-शिलालेखमें अत्यन्त स्पष्टतासे यह उल्लेख है कि-'इनके वचनोंका खण्डन आज भी बड़े-बड़े नैयायिक नहीं कर सकते ।"२ स्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रंथोंमें पुरन्दरके नामसे कुछ वाक्य उद्धृत मिलते हैं, सम्भव है वे पुरन्दर ये ही हों । इन पुरन्दरगुरुको अवन्तिवर्मा उपेन्द्रपुरसे अपने देशको ले गया । अवन्तिवर्माने इन्हें अपना राज्यभार सौंपकर शवदीक्षा धारण की और इस तरह अपना जन्म सफल किया। पुरन्दरगुरुने मत्तमयूर में एक बड़ा मठ स्थापित किया । दूसरा मठ रणिपद्रपुरमें भी इन्होंने स्थापित किया था। पुरन्दरगुरुका कवचशिव और कवचशिवका सदाशिव नामक य हुआ, जो कि रणिपद्रपुरके तापसाश्रममें तपःसाधन करता था। सदाशिवका शिष्य हृदयेश और हृदयशका शिष्य व्योमशिव हआ, जो कि अच्छा प्रभावशाली, उत्कट प्रतिभासम्पन्न और समर्थ विद्वान् था।" व्योमशिवाचार्य के प्रभावशाली होनेका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इनके नामसे ही व्योममन्त्र प्रचलित हुए थे। ये सदनुष्ठानपरायण, मृदु-मितभाषी, विनय-नय-संयमके अद्भुत स्थान तथा अप्रतिम प्रतापशाली थे । इन्होंने रणिपद्रपुरका तथा रणिपद्रमठका उद्धार एवं सुधार किया था और वहीं एक शिवमन्दिर तथा वापीका भी निर्माण कराया था। इसी वापीपर उक्त प्रशस्ति खुदी है।। इनकी विद्वत्ताके विषयमें शिलालेखके ये श्लोक पर्याप्त हैं "सिद्धान्तेष महेश एष नियतो न्यायेऽक्षपादो मुनिः। गम्भीरे च कणाशिनस्तु कणभुक्शास्त्रे श्रुतो जैमिनिः ।। सांख्येऽनल्पमतिः स्वयं स कपिलो लोकायते सद्गुरुः । बुद्धो बुद्धमते जिनोक्तिषु जिनः को वाथ नायं कृती ।। यद्भूतं यदनागतं यदधुना किचित्क्वचिद्वधं (त) ते । सम्यग्दर्शनसम्पदा तदखिलं पश्यन् प्रमेयं महत् ।। सर्वज्ञः स्फुटमेष कोपि भगवानन्यः क्षितौ सं (शं) करः । धत्ते किन्तु न शान्तधीविषमदृग्रौद्रं वपुः केवलम् ॥" इन श्लोकोंमें बतलाया है कि 'व्योमशिवाचार्य शैवसिद्धान्तमें स्वयं शिव, न्यायमें अक्षपाद, वैशेषिक शास्त्रमें कणाद, मीमांसामें जैमिनि, सांख्यमें कपिल, चार्वाकशास्त्रमें बृहस्पति, बुद्धमतमें बुद्ध तथा जिनमतमें स्वयं जिनदेवके समान थे। अधिक क्या; अतीतानागतवर्तमानवर्ती यावत् प्रमेयोंको अपनी सम्यग्दर्शनसम्पत्तिसे स्पष्ट देखने जाननेवाले सर्वज्ञ थे। और ऐसा मालम होता था कि मात्र विषमनेत्र (तृतीयनेत्र ) तथा रौद्रशरीरको धारण किए बिना वे पृथ्वीपर दूसरे शंकर भगवान् ही अवतरे थे । इनके गगनेश, व्योमशम्भु, व्योमेश, गगनशशिमौलि आदि भी नाम थे। शिलालेखके आधारसे समय-व्योमशिवके पूर्ववर्ती चतुर्थगुरु पुरन्दरको अवन्तिवर्मा राजा अपने १. प्राचीन लेखमाला, द्वि० भाग, शिलालेख नं० १०८ । २. "यस्याधुनापि विबुधैरतिकृत्यशंसि व्याहन्यते न वचनं नयमार्गविद्भिः ॥" ३. "अस्य व्योमपदादिमन्त्ररचनाख्या ताभिधानस्य च ।" वापीप्रशस्तिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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