Book Title: Acharya Prabhachandra aur uska Pramey kamal Marttand
Author(s): Manikyanandi Sutrakar
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 3
________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : १२२ “लिखित साक्षिणो भुक्तिः" वाक्य कुछ शाब्दिक परिवर्तनके साथ उद्धृत किया है। न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ५७५ ) में मनुस्मृतिका "अकुर्वन् विहितं कर्म" श्लोक उद्धृत है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ६३४ ) में मनुस्मृतिके "यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः” श्लोकका “न हिंस्यात् सर्वा भूतानि” इस कूर्मपुराणके वाक्यसे विरोध दिखाया गया है। पुराण और प्रभाचन्द्र-प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रमें मत्स्यपुराणका "प्रतिमन्वतरश्चैव श्रुतिरन्या विधीयते ।" यह श्लोकांश उद्धृत मिलता है। न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ६३४ ) में कूर्मपुराण ( अ० १६ ) का 'न हिंस्यात् सर्वा भूतानि" वाक्य प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है। व्याम और प्रभाचन्द्र-महाभारत तथा गीताके प्रणेता महर्षि व्यास माने जाते हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ५८० ) में महाभारत वनपर्व ( अ० ३०।२८) से 'अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ....'' श्लोक उद्धृत किया है । प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ३६८ तथा ३०९ ) में भगवद्गीताके निम्नलिखित श्लोक 'व्यासवचन' के नामसे उद्धृत हैं-'यथैधांसि समिद्धोऽग्नि ..." [ गीता ४।३७] "द्वाविमौ पुरुषौ लोके, उत्तमपुरुषस्त्वन्यः..." (गीता १५।१६, १७) इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ३५८ ) में गीता ( २।१६ ) का "नाभावो विद्यते सतः" अंश प्रमाणरूपसे उद्धत किया गया है । पतञ्जलि और प्रभाचन्द्रपाणिनिसूत्रके ऊपर महाभाष्य लिखनेवाले ऋषि पतञ्जलिका समय इतिहासकारोंने ईसवी सनसे पहिले माना है। आ० प्रभाचन्द्रने जैनेन्द्रव्याकरणके साथ ही पाणिनिव्याकरण और उसके महाभाष्यका गम्भीर परिशीलन और अध्ययन किया था। वे शब्दाम्भोजभास्करके प्रारम्भमें स्वयं ही लिखते हैं कि 'शब्दानामनुशासनानि निखिलान्याध्यायताऽहनिशम्" आ० प्रभाचन्द्र का पातञ्जलमहाभाष्यका तलस्पर्शी अध्ययन उनके शब्दाम्भोजभास्करमें पद पदपर अनुभूत होता है। न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० २७५ ) में वैयाकरणोंके मतसे गुण शब्दका अर्थ बताते हुये पात जलमहाभाष्य ( ५।१।११९ ) से “यस्य हि गुणस्य भावात् शब्दे द्रव्यविनिवेशः" इत्यादि वाक्य उद्धृत किया गया है । शब्दोंके साधुत्वासाधुत्व-विचारमें व्याकरणकी उपयोगिताका समर्थन भी महाभाष्यकी ही शैलीमें किया है। भतहार और प्रभाचन्द्र--ईसाकी ७वीं शताब्दीमें भर्तृहरि नामके प्रसिद्ध वैयाकरण हुए हैं। इनका वाक्यपदीय ग्रन्थ प्रसिद्ध है। ये शब्दाद्वैतदर्शनके प्रतिष्ठाता माने जाते हैं। आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में शब्दाद्वैतवादके पूर्वपक्षको वाक्यपदीयकी अनेक कारिकाओंको उद्धृत करके ही परिपुष्ट किया है । शब्दोंके साधुत्व-असाधुत्व विचारमें पूर्वपक्षका खुलासा करने के लिए वाक्यपदीयकी सरणीका पर्याप्त सहारा लिया है। वाक्यपदीयके द्वितीयकाण्डमें आए हए "आख्यातशब्दः" आदि दशविध या अष्टविध वाक्यलक्षणोंका सविस्तार खण्डन किया है। इसी तरह प्रभाचन्द्र की कृति जैनेन्द्रन्यासके अनेक प्रकरणोंमें वाक्यपदीयके अनेक श्लोक उद्धृत मिलते हैं । शब्दाद्वैतवादके पूर्वपक्षमें वैखरी आदि चतुर्विधवाणीके स्वरूपका निरूपण करते समय प्रभाचन्द्रने जो "स्थानेषु विवृते वायौ' आदि तीन श्लोक उद्धृत किये हैं वे मुद्रित वाक्यपदीयमें नहीं हैं । टीकामें उद्धृत है। व्यासभाष्यकार और प्रभाचन्द्र--योगसूत्रपर व्यास ऋषिका व्यासभाष्य प्रसिद्ध है। इनका समय ईसाकी पञ्चम शताब्दी तक समझा जाता है । आ० प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० १०९) में योगदर्शनके आधारसे ईश्वरवादका पूर्वपक्ष करते समय योगसूत्रोंके अनेक उद्धरण दिए है। इसके विवेचनमें व्यास ४-१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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