Book Title: Aasan Pranayam Mudra Bandh
Author(s): Satyanand Sarasvati
Publisher: Bihar Yog Vidyalay

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Page 391
________________ सारांश . भोजन में महत्वपूर्ण सभी मूल तत्व यदि न्यून मात्रा में भी उपस्थित हों तो स्वस्थ शरीर अपनी आवश्यकतानुसार उन्हें एक तत्व से दूसरे तत्व में परिवर्तन करने की महान क्षमता रखता है / यौगिक अभ्यास, विशेषकर सूर्य नमस्कार एवं प्राणायाम शरीर की इस क्षमता में वृद्धि करते हैं। इस क्रिया में नियंत्रण-प्राप्ति के उपरांत योगी सामान्य भोजन ग्रहण करते हये स्वस्थ जीवन बिता सकता है, क्योंकि आवश्यकतानुसार भोजन का विभिन्न तत्वों में परिवर्तन आंतरिक रूप से होता रहता है / श्वसन संस्थान पृथ्वी के सजीव प्राणियों की प्रथम आवश्यकता है-'ओषजन वाय / ' इसके बिना कोई जीवित नहीं रह सकता / बिना श्वसन के शरीर की कोशायें नष्ट हो जायेंगी, अर्थात् निर्जीव हो जायेंगी। रक्त द्वारा उन्हें ओषजन प्राप्त होती है एवं कोशाओं की कार्बन द्वि ओषिद इसी माध्यम से शरीर से निष्कासित होती है / बाह्य वायु की ओषजन को कोशाओं तक पहुँचाना एवं कार्बन द्वि ओषिद को बाहर निकालना ही श्वसन क्रिया है। वास्तविक ओषजन का उपयोग फेफड़ों में नहीं, वरन धमनियों एवं कोशाओं में होता है। जीवित कोशाओं के भीतर अविरल रूप से ओषजन का उपयोग या उसकी दाह-क्रिया होती रहती है। इस क्रिया को ओषिदीकरण या उपयुक्त 'जीवन - ज्वाला' कहते हैं क्योंकि पदार्थों की ज्वलन क्रिया वैसी ही होती है, जैसी कि खुली हवा में होती है। ओषजन के नियमित प्रवाह के लिये शरीर में अनुकूल नलिका की आवश्यकता है / इसे श्वास नलिका कहते हैं। वायु बाहर भेजने एवं भीतर खींचने के लिये विशेष यंत्र-रचना आवश्यक है / हृदय एवं उदर के प्रसारण एवं संकुचन से वायु का मंद प्रवाह भीतर-बाहर बना रहता है। श्वास नलिका का प्रारंभ स्वर यंत्र से होता है / हृदय के पास इसकी दो शाखायें हो जाती हैं। एक शाखा दाहिने फेफड़े को तथा दूसरी शाखा बायें फेफड़े को जाती है / इन्हें श्वास-वाहिनियाँ कहते हैं / प्रत्येक श्वास वाहिनी की शाखायें एवं उपशाखायें हो जाती हैं जिन्हें वायु वाहिनियाँ कहते हैं | 374

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