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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व / ७६
जीवन-दृष्टिकोण का प्रतिपादन करने के लिए दार्शनिकता का मुखौटा लगा लेते हैं । मज़े की बात यह है कि वे न तो पूरे रूप में लेखक - कलाकार ही रह पाते हैं और न दार्शनिक ही । उन्होंने सेक्स के सम्बन्ध में अपनी कहानियों में स्वतन्त्रता लेनी चाही है और जाने-अनजाने सामाजिक प्रतिबंधों को कृत्रिम स्वीकार कर उनकी निन्दा करते हुए सेक्स सम्वन्धी स्वतन्त्रता की माँग की है । इन अस्वस्थ प्रवृत्तियों तथा मानव-जीवन के विकार पक्ष को छोड़कर उन्हें कुछ दृष्टिगत ही नहीं होता और प्रत्येक व्यक्ति सेक्स से आक्रान्त लगता है - यह अपने आपमें बड़ी मनोरंजक बात है ।
जैनेन्द्र जी ने शिल्प- सम्बन्धी कई अभिनव प्रयोग अवश्य किए हैं और डायरी शैली, आत्म-कथात्मक शैली, चेतन प्रवाह शैली आदि नवीतम शैलियों में कहानियाँ लिखकर हिन्दी कहानी साहित्य के कलात्मक पक्ष को समृद्ध करने का यथासंभव प्रयास किया है, यह स्वीकारना ही होगा । उनकी कहानियों में प्रतीकों की योजना बड़े ही कुशल ढंग से की गई है और जिस किसी बात को उन्होंने कहना चाहा है, उसके लिए सार्थक प्रतीकों का ही प्रयोग किया है- यह बात अन्यथा है कि उन बातों का महत्व व्यापक दृष्टि से क्या है । नाटकीयता के गुणों और चरमोत्कर्ष को अधिकाधिक रोचक बनाने की सायास प्रयत्नशीलता जैनेन्द्र जी में लक्षित होती है । इसके साथ ही प्रवाह को तमाम बौद्धिकता एवं जटिलता के बावजूद बनाए रखने में वे अपार रूप से सफल रहे हैं और यह प्रौढ़ शिल्प के कारण ही सम्भव हो सका है । जैनेन्द्र कुमार कदाचित् पहले हिन्दी कहानीकार हैं, जिन्होंने कहानियों में उपसंहार देने की प्रवृत्ति को ही समाप्त नहीं किया, वरन् भूमिका देने की प्रवृत्ति को भी समाप्त किया । इससे कहानी का कलेवर कम हुआ और उसमें संश्लिष्ट गुणों की अभिवृद्धि हुई । अब कहानी वहाँ से प्रारम्भ होने लगी 'जहाँ वह समाप्त होती है - यह शिल्प की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण सफलता थी ।