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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व / १२५
रंजन की 'सीमाएँ', रवीन्द्र कालिया की 'त्रास' आदि कहानियाँ इसी कोटि में आती हैं ।
४- चरम सीमा पर जाकर कथानक के सूत्र स्पष्ट होते हैं और वहाँ जाकर सारी कहानी समझ में आती है । आज की कहानी में यह प्रवृत्ति भी बहुत लोकप्रिय है और कथानक के ह्रास के इस रूप को अनेक कहानीकारों ने अपनाया है । धर्मवीर भारती की 'हरिनाकुश का बेटा', मोहन राकेश की 'मंदी', राजेन्द्र यादव की 'सिलसिला', निर्मल वर्मा की ' लवर्स', नरेश मेहता की 'वह मर्द थी', फणीश्वरनाथ 'रेण’ की 'टेबुल', सुरेश सिनहा की 'सोलहवें साल की बधाई' आदि इसी प्रकार की कहानियाँ हैं जिनमें प्रारम्भ में कोई भी कथा - सूत्र स्पष्ट नहीं होता और बड़े विशृंखलित ढंग से 'कहानी' आगे बढ़ती है । पात्रों की भी कोई सुनिश्चित गति प्राप्त नहीं होती । पर चरमोत्कर्ष पर पहुँच कर अप्रत्याशित रूप से सारे रहस्य खुलने लगते हैं और 'कहानी' वहीं समाप्त हो जाती है ।
५ – विचारोत्तेजक प्रलाप (रैंबलिंग) या चितंनशील सूत्रों को लेकर भी कथानक के ह्रास की प्रवृत्ति लक्षित होती है । पर इस रूप में कम कहानियाँ देखने में आई हैं और यह अभी बहुत लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सकी है। धर्मवीर भारती की 'सावित्री नम्बर दो', नरेश मेहता की 'अनबीता व्यतीत' राजेन्द्र यादव की 'नए-नए आने वाले', सुरेश सिनहा की 'उदासी के टुकड़े' आदि कहानियों में इस प्रवृत्ति का किंचित् आभास मिलता है |
जहाँ तक पात्रों का सम्बन्ध है, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता हैं कि आज की कहानी ने काल्पनिक पात्रों या गढ़े हुए पात्रों को लेकर कहानी लिखने की प्रवृत्ति का पूर्णतया तिरस्कार किया हैं । इस सम्बन्ध में आज की कहानी प्रेमचन्द-यशपाल की परम्परा से सम्बद्ध है । जैनेन्द्र'अज्ञेय' की परम्परा में अपनी पलायनवादी मनोवृत्तियों की अभिव्यक्ति के लिए पात्रों को गढ़ा गया, जो कुंठित, विभ्रान्त, अस्वस्थ एवं टूटे