Book Title: Stambhanadhish Prabandh sangraha Bhumika
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीस्तंभनाधीशप्रबन्धसंग्रह : भूमिका ___-विजयशीलचन्द्रसूरि "स्तंभनाधीशप्रबन्धसंग्रह" ए संभवत: नागेन्द्रगच्छीय अने 'प्रबन्धचिन्तामणि' कार श्रीमेरुतुंगाचार्यनी एक विद्वद्भोग्य प्रगल्भ रचना छे. देखीती रोते ज, आ रचनामां ऐतिहासिक करतां पौराणिक विषयवस्तुनुं प्राचुर्य तथा प्राधान्य छे. कर्ता पोते पण "स्तम्भनेन्द्रपुराण" नामथी आने ओळखावे छे ते आ संदर्भमां नोंधवा योग्य छे (प्र. २३), जो के पौराणिक विषयनिरूपणमा पण रसिकता तो भारोभार छलकाय छे. शब्दोनी भभक, भाषानी झमक, स्थळो तथा व्यक्तिओनां नामोनुं वैविध्य-आ बधुं कर्ताना विशद पाण्डित्यनो संकेत आपनाएं छे. वळी, पुराणकथा होवा छतां वर्णित प्रसंगो लगभग अपूर्व छ : अन्य जैन ग्रंथो के पुराणग्रंथोमां भाग्ये ज आ प्रसंगो जोवा मळे. घडीभर शंका थाय के आ रचना निगममतनी तो नहि होय ने ? ए हदे आमां नावीन्य छे. परंतु, नवीन होवा छतां आ वातोने साव अप्रमाणिक मानी लेवानुं साहस करी शकाय तेम नथी. तेनां ३ कारणो छ : १. कर्ता पोते आ रचनाना आधार लेखे जे साधनोनो उल्लेख करे छे ते ध्यानार्ह छे : शंखिनीमत, 'दूषमगण्डिकाबन्ध, भैरवीचरित, 'विद्याकल्प, “मन्त्रसार, 'श्रीबिन्दुसारचूला, “योनिप्राभृतकर्णिका, देवमहिमसागर, प्राभृतपटल; उपरांत, देवेन्द्रस्तव (प्रबन्ध - ३२); आ बधां ग्रंथोनां नामो छे, जेमांना एक-बेने बाद करतां एक पण ग्रंथ आजे कोई स्वरूपे लभ्य लागता नथी. मात्र 'देवेन्द्रस्तव' उपलब्ध छे, अने 'योनिप्राभूत'नी एक खण्डित प्रति ज मात्र (पूना BOIR) उपलब्ध छे. संभव छे के आ बधा ग्रंथ ते समये ग्रंथकारने हाथवगा होय अने कालांतरे कालग्रस्त बन्या होय. जो के कर्ता पासे बीजां पण साधनो छे ज, जे आभ्यंतर वा अंगत गणाय तेवां छे : 'सद्गुरुना मुखे सांभळीने, 'बहुश्रुतो द्वारा प्राप्त 'आदेश' ने आधारे, 'पद्मावतीदेवीनी आराधनाना प्रभावे (प्रबन्ध ३१मां पण जुओ), 'सरस्वतीदेवीनी कृपाथी तथा अन्य वार्ताकार विद्वानोना सहकारथी-एम ५ आधारो आ रचना माटे कर्ताए मेळव्या छे. २. आ रचना नवीन अने पूर्वसूरिओनी ग्रंथपरंपराथी साव भिन्न होवार्नु Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 } तो कर्ता पोते ज आ शब्दों द्वारा कबूल करे छे : 'अभिनवग्रन्थारम्भं चैनं श्रम्यामि' (प्र- १ ) तथा 'श्रीस्तम्भनजिनचरिते, सूरि श्रीमेरूतुङ्गमतिलिखिते ।' (प्र. १, अंत); आम छतां, एक गीतार्थ, शास्त्र तथा परंपराने वफादार, दोषभीरु एवा जैन आचार्य तरीके पोते क्यांय भूलमांय उत्सूत्र--सूत्रविपरीत आलेखन नथी करी नाखता ने ? तेवी तपास - जातनिरीक्षण -पोते वारंवार करता रहे छे, अने पोताथी अजाणपणे पण तेवुं थयुं होय तो ते बदल क्षमाप्रार्थना पण कर्या करे छे, जे तेओनी पारदर्शक प्रमाणिकतानुं द्योतन करे छे. जेम के (१) मदीयं वितथं वाक्यं सत्यं वा वेत्ति कोऽपि किम् ? । प्रायः प्रमादिनां यस्माद्, दुःषमायां वचोऽनृतम् ॥ ( प्र . १ आदि). (२) श्रीमेरुतुङ्गसूरेर्मा भूदुत्सूत्रपातकम् । मा भूदाशातना वार्ता, देवस्तम्भनवर्णने ॥ (प्र. १०) (३) आदिष्टं मद्गुरुणा, मत्पुरतो यद् यथैव चरितमिदम् । श्रीमेरुतुङ्गसूरि- स्तथैव तल्लिखति न परवच: । (प्र. १५) (४) श्रुत्वा केऽपि हसिष्यन्ति, प्रबन्धांस्तलिनाशया । व्रजिष्यन्ति मुदं चाऽन्ये, सूरयो गूणभूरयः ॥ (प्र. १७) (५) उत्सूत्रपातभीतस्य मिथ्यादुः कृतमस्तु मे ॥ (प्र. २७) (६) न देयं दूषणं मह्यं कदा कोऽपि विपर्ययः । दुर्ज्ञेयं चरितं चित्रं, को जानाति महात्मनाम् !! (प्र. २८) (७) यदा प्रवर्त्तमानेषु प्रबन्धेषु वचोऽनृतम् । शोधयन्तु कृपां कृत्वा, तज्ज्ञातारः कृतोऽञ्जलिः ॥ (प्र. ३०) (८) इहोत्सूत्रं भवेत् किञ्चित् प्रमादात्पतितं मम । शोधयन्तु कृपां कृत्वा, तदवद्यं बहुश्रुताः ॥ (प्र. ३२) ३. अने आ रचनाना अंतभागमा कर्ता स्वयं सूचवे छे तेम आ रचना मलधारगच्छना वडा श्रीराजशेखरसूरि ('प्रबन्धकोश' ना प्रणेता) वगेरेए प्रमाणित कर्या पछी ज कर्ताए तेने वहेती मूकी छे; आ रह्यं ए सूचक पद्य : मलधारिगच्छनायकसूरि श्रीराजशेखरप्रमुखैः । गणभृद्भिर्गुणवद्भिर्ग्रन्थोऽयं शोधितः सकृपैः ॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार ए के अनेक साधनांनो आधार लईने रचेलो. समकालीन मान्य पुरुषोए प्रमाणेलो, अने पोताथी जाण्ये अजाण्ये खोटुं न लखाई जाय ते माटे खूब सभान रहेनारा सर्जके सर्जेलो आ ग्रंथ अने तेमांनी चमत्कारिक जणाती वातोने सदंतर अप्रमाणिक मानवानुं साहस करी न शकाय 3 कर्तानो मुख्य सूर श्रीस्तंभनपार्श्वनाथनी प्रतिमानो महिमा गावानो छे. ए प्रतिमा प्रत्ये तेमना चित्तमां अनन्य श्रद्धा-भक्ति छे, ते अहीं सर्वत्र अनुभवी शकाय छे. जो के प्रसंगोपात्त. परंपरागत पद्धतिए, अजैन मान्यताओंने जैन ढांचामा ढाळवानो के तेमनुं जैन अर्थघटन करवानो तेमनो प्रयास जोवा मळे छे, जे केटलेक अंशे घणो मौलिक लागे ( प्र ४, १६ वगेरे). तो २९ मा प्रबन्धमा इतर दर्शनोनी खबर पण तेमणे लई नाखी छे. आम छतां ग्रंथकार अयोनिजेन येनेदं सर्वं सृष्टं चराचरम् । सर्वशक्तिपरीताय तस्मै विश्वात्मने नमः ॥ (प्र. १६) 1 विश्वान्यमूनि विश्वानि येन सृष्टानि शक्तितः । अनादिनिधनो देवः स्वयं सिद्धो मुदेऽस्तु वः ॥ (प्र.२२) आवां पद्यो लखे छे, ते जोईने भारे आश्चर्य उपजे तेम छे. कर्तानी तात्त्विक समन्वयदृष्टिनो ज आ बधामां परिचय मळे छे, एवं तारण काढीए तो ते अयोग्य न गणाय. आ रचना तद्दन पुराणात्मक नथी. आमां इतिहासनां छांटणां पण छे खरा. आने कोई दंतकथा लेखे वर्णवी शके जरूर. परंतु बधी दंतकथा अप्रमाणिक ज होय - एवो निश्चय राखीने चालनार इतिहासशोधक भाग्ये ज विश्वसनीय अने सत्यान्वेषी गणाय, ए पण, अहीं ज, स्पष्ट करवुं पडे. तो इतिहासोपयोगी अंशो आपणे जोईए : १. २७मा प्रबन्धम झंझूवाडा, त्यांना सूर्यमंदिरनी कथा, पंचाश्रय- जे कर्ताना वखतमां पंचासर नामे प्रसिद्ध थई चूकेलुं ते आजनुं पंचासर गाम, तेनी नजीकनुं पाडला गाम-जे आजे पण ए ज नामे विख्यात छे; त्यांनी नेमिनाथनी जीवत्प्रतिमा (नेमिनाथनी विद्यमानतामां ज बनेल तथा प्रतिष्ठित प्रतिमा ) - जे अत्यारे तळाजा तीर्थे पर्वत उपर लावी होवानुं जाणीतुं छे; शंखेश्वरनी मूल Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमाना स्थाने अत्यारे (कर्ताना समयमां) अन्य प्रतिमा होवानुं विधान, -आ बधी वातो इतिहासनी वेरविखेर शृंखला समी छे ज. अने कर्ता स्वयं चोखवट करे छे के - 'आ वात (शंखेश्वरनी प्रतिमानी वात) मने योनिप्राभृतना संकेतथी जाणवा मळी छे, माटे कोईए भ्रांति न करवी.' २. स्सयोगी नागार्जुने रससिद्धि माटे स्तंभनपार्श्वनाथ-प्रतिमानुं आलंबन लीधेलं, त्यारथी ते प्रतिमानुं नाम-रसस्तंभन थवाथी-'स्तंभन' पार्श्वनाथ पडेलुं. ते प्रतिमा द्वारा ज्यां रससिद्धि मेळवी, ते 'सेढी' नदीना कांठाना गामनुं नाम पण त्यारथी स्तंभनपुर पड्यु-एम आ ग्रंथकार वर्णवे छे (प्र.३१). अंने ए स्तंभनपुर ते आजनुं थामणा - उमरेठ पासेनुं गाम. स्तंभन→थंभण→थमण→थामण, (स्तंभनक परथी थामणा). ३. थामणा क्षेत्रमाथी स्तंभनपार्श्वनाथनी ए प्रतिमा कालांतरे खंभातस्तंभनतीर्थे आवी होवानुं तो जगजाहेर छे. पण ते कया वर्षमां अने शा माटे आवी तेनी विगत क्यांय मळती नथी. आ ग्रंथमा प्रथमवार आ विगत आ प्रमाणे मळे छे: १३६८ वर्षे इदं च बिम्बं श्रीस्तम्भतीर्थे समायातं-भविकानुग्रहणाय ।।" (प्र. ३२) अत्यारे सामान्य मान्यता एवी छे के थामणामां देरासर हतुं अने त्यां आ प्रतिमा पूजाती हती, पण मुस्लिम आक्रमणना कारणे प्रतिमा खंभात लई जवाई हती; आ वात हवे ऊपरनो संदर्भ जोतां बिनपायादार ठरे छे. . आ ग्रंथनी मात्र एक ज प्रति अद्यावधि मळी हे जे उपरथी अटकळ थाय छे के आ रचनाने परंपराए बहु आदर के संमति नथी आपी. नवी वात आवे त्यारे तेनो जलदी स्वीकार भाग्ये ज थतो होय छे. एक प्रति मळे छे ते पाटणना श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानभंडारनी छे (डा. ३१२, नं. १४९६५). ९३ पत्रोनी आ प्रति. ग्रंथनी रचना (सं. १४१३) थयाना ११ वर्षे ज (सं. १४२४) लखायेली होवाथी प्रमाणमां शुद्ध छे. आ प्रतिनी प्रेस कोपी आगमप्रभाकर पूज्य मुनिराज श्रीपुण्यविजयजी महाराजे वर्षो अगाऊ करावेली हती, तेना आधारे तेमज पाटणनी प्रतिनी झेरोक्स नकलना आधारे आ ग्रंथ संपादित करी अत्रे रजू को छे. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटणनी प्रतिमा २४ २५, २८ २९, ३२-३३, ४३, ५६. ८२, ८४ एम कुल १० पत्रो नथी. तेथी ग्रंथ त अंशे खंडित छे. बीजी प्रतिओ मेळववा माटे अनक भंडारोमां शोध करी. परंतु आ ग्रंथनी प्रति क्यायथी मळी नहि. हा, आ ग्रंथना सारोद्धाररूप लखायेली कतिनी २ प्रतिओ जरूर मळी पण ते कति आ रचनाना तूटता पाठने सांधवा माटे सक्षम नथी जणाई. पाटण - प्रतिना अंतिम-९३मा पत्र पर "मेरुतुंगसूरिकृतस्तंभनाधीशप्रबन्धाः ३२" आवो उल्लेख होवाथी आ संपादनमां "स्तंभनाधीशप्रबन्धसंग्रह" एवं नाम आपेल छे. पाटणनी प्रतिनी नकल आपवा बदल पाटण हेमचन्द्राचार्य भंडारना कार्यवाहको प्रत्ये, तथा प्रतिनी प्रेस कॉपी आपवा बदल प्राकृत ग्रन्थ परिषद्(PTS) ना कार्यवाहको प्रत्ये आभारनी लागणी दर्शायूँ छु. *** Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ श्री स्तम्भनाधीशप्रबंधसंग्रहः || (प्रबन्धः १) सर्वभीतिविनाशार्थं, सर्वमौख्यैककारणाम् । स्तम्भनेन्द्रमुखं पश्ये(पश्येत्) सर्वदा सर्वतोमुखम् ॥ १ ॥ शासनाचारसूरीणां वैपक्ष्यं यत्र जायते । सूरि श्रीमेरुतुङ्गस्य, मिथ्यादुः कृतमस्तु मे || || २ || मदीयं वितथं वाक्यं सत्यं वा वेत्ति कोऽपि किम् । प्रायः प्रभादिनां यस्माद्, दुःषमायां वचोऽनृतम् ॥ ३॥ अपि च शङ्खिनीमतात् दुसमद( ग ? )ण्डिकाबन्धात् भैरवीचरितात् विद्याकल्पात् मन्त्रसारात् श्रीबिन्दुसारचूलाया योनिप्राभूतकर्णिकाया देवमहिमसागरात् प्राभृतपटलात् श्रीसद्गुरुमुखात् बहुश्रुतादेशात् श्रीपद्मावतीसमाराधनप्रभावात् श्रीभारतीप्रसादात् अन्येषामपि च वार्ताविदुषां सान्निध्याद् अस्यैव श्रीस्तम्भनाय कस्यानुप्रे ( ग्र) हात् स्वयंसमुद्भूतनिबिडतरभक्त भरसमुल्लसितान्त: करणानाहत वचोविलासात् कुण्ठकु (क? ) पोऽपि जडजिह्वोऽपि अमुखरमुखोऽपि तलिनप्रज्ञोऽपि अनतिशयवचनरचनोऽपि अकवियश (श: ? ) स्पृहोऽपि श्रीस्तम्भनेन्द्रप्रबन्धान् इमान् द्वात्रिंशत्प्रमितान् वक्ति । सूरिश्रीमेरुतुङ्गेण, वादिहव्यकृशानुना । वादिवेश्याभुजङ्गेन, श्वेतवस्त्रां हिरेणुना ।। सभाया (यां) बाहुमुद्धृत्य जिनशासनवैरिणः । एकया वेलया सर्वे, त्रियन्ते जयवादिनः ॥ येन सूरश्रीमेरुतुङ्गेत्थं चतुर्दिक्षु गलगर्जिः प्रतन्यते स्वदर्शनप्रसादात् । अन्यच्चाहं चतुर्विधस्य श्रीसङ्गस्य कृतनतिर्बद्धाञ्जलि वार्त (?) सर्वथा निर्जरार्थं देवस्तुतिवाक्यमात्रं अभिनवग्रन्थारम्भं चैनं श्रम्यामि कुब्ज इव नृत्यं वितन्वन् विद्वद्भिरशेषैरुपहास्यमानोऽपि टुण्ट इव कण्डकविमोचनक्रीडादुर्ललितः । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तथाऽपि श्रद्धामुग्धोऽहं, यथा ज्ञातं तथा वचः । रचयामि प्रबन्धेषु, प्रसाद कुरु वाणि । मे ॥" तथाऽत्र प्रारभ्यते - जम्बूनामद्वीपे भरतक्षेत्रे इक्ष्वाकुभुवि विनीतायां पुरि अस्यामंधावसर्पिण्य तृतीयारकसुः(सु)षमदुःषमानाम्नि एकपूर्वकाटिहीने घर्तति पति श्रीनाभिनामसप्तमकुलगुरुकाले युगलरोत्था मरुदेवाकुक्षावधातरत् श्रीधनसार्थवाहजीवः सर्वार्थसिद्धिनामविमानात् च्युत्वा । साधाष्टमदिननवमास(मास ९ दिन ७)गर्भवासदुःखभुक्तेरनन्तरं चैत्रकृष्णाष्टम्यां ऋषभस्य जनुर्जायते स्म । पढमित्थ विमल वाहण च वखुम- जसमं चडत्ध मभिचंदे । तत्तो य पसे जीए, मरु देवे चेव ना भी य ॥ १ ॥ इति श्री आदिनाथकुलगुरवः सप्त भण्यन्ते । ततो मध्यरात्रावेव षट्पञ्चाशद्दिकुमारीभिः कृते सूतिकर्मणि मेरुगिरी च चतुःषष्टिभिरिन्द्रैः सचतुर्विधदेवनिकायैः कृते जन्ममहोत्सवे ववृधे विभुः । क्रमेण पञ्चभिस्ति-थिभिर्बालचन्द्र इव निस्तन्द्रमूर्तिलोल्यमानः सम्पूर्णः सुवृत्तः जीवात्मा(त्म)वत् पञ्चभिरिन्द्रियैः परिभ्राजमानः काले युवराजा संवृत्तः । सुनन्दा-सुमङ्गलाभ्यां कृतपाणिग्रहणः पञ्चभिविषयैरूपसेव्यमाने(नैः?) दै (दे)वोपमान् मानुष्यि(ष्य)कान् भोगान् भुञ्जानो विंशतिपूर्वलक्षमितायां कुमारतायामतीतायामिन्द्रादिभी राज्ये निवेशित: । त्रिषष्टिपूर्वलक्षाणि राज्यं कृत्वा पुत्री सुन्दरी ब्राह्मीं च पुत्रशतं च प्रसूय विभज्य सर्वां वसुमती शतपुत्राय दत्वा च स्वे पदे मूलराज्ये भरतं निवेश्य स्वयं भगवान् नाभेया दीक्षां जग्राह । व्रतदिनादारभ्य जातवर्षोपवासः कारित श्रेयांसकुमारपारणाभ्यास उत्पन्नके वलज्ञानो विजहार वसुंधराम् । धर्मतीर्थमवतारयन् भरतोऽपि चक्रवर्ती जज्ञे यस्य चक्रवर्तितां वर्णयतः सुरगुरोरपि रसना अवैदग्ध्यमधुरेव विभाति । यस्यादिमचक्रिणः प्राज्यराज्यलीला सौधर्मेन्द्रस्यापि स्पृहाकरी विस्मयकरी रत्नखानिरिव । तत्तादशं चक्रवत्तित्वं भुञ्जतस्तस्यार्षभेर्भरतस्य दक्षिणकुक्षौ सू(शू)लं आविरभूत् कृते दिग्विजये कथमपि पूर्वोपचितं मिथ्याहारविहाराभ्याम् । ततः श्रीभरतेशकुशलप्रश्नार्थं मघवा ना(आ)ययौ । वज्रिणा पृष्टं कथाप्रसङ्गे नानारङ्गे प्रवृत्ते-किमद्यापि महती पीडाऽस्ति वोहे (वो देहे) ? । श्रीभरतचक्रिणाऽप्युक्तं दैन्यस्वाजन्यविनयमैत्र्योपरोधनिक्षरं - हे बिडौज (ज:)! Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N समाद्याधुना प्राणानामप्रयाणं भवदास्यसुधांशुवाक्सुधाधारा महदन्तरायं विलसति । वासव उवाच - किमिति चतुर्दश रत्नानि तव भवने, नवापि निधानानि च, देव्यो देवास्तु षट्खण्डनिवासिनः किङ्करत्वकारिणः अन्येषां भूभुजामाज्ञाविधायिता । किमुत दिग्विजयं विदर्भाद्भिर्भवद्भिः किमपि दुष्कर्मापि तादशं कृतमस्ति ? इति श्रुत्वा चक्की वदति भवतां ज्ञानिनां किमपि अज्ञातमस्ति !; धनुर्लीलं सहास्यं सगुणं स्वमाननं कुर्वन्तो भवन्तो मां किं कदर्थयन्ति कृपालवोऽधुना ? । यस्मान्मया "राज्यं नरकान्तं” इति नीतिशास्त्रोपदेशं राजग्रन्थरहस्ये षाड्गुण्यग्रन्थाम्नायं विस्मृत्य कानि कानि पापानि न कृतानि ? 1 तद्यथा पितृपादैर्व्रतं गृह्णद्भि स्वपदाधीशः कृतः कुटुम्बनायकञ्चाहम् । मयाऽपि स्वकुलं प्रति कालस्वरूपं धृतं असुरविजयिनेव तावत् पूर्वं ते बान्धवा महापुरुषा अष्टानवतिप्रमाणा पितृदत्तपृथ्व्यंशभोक्तारोऽपि बलिनोऽपि व्रतं जगृहुः इति मामवगणय्य स्वेच्छाचारिणं पित्राज्ञाभङ्गकारिणं सर्वसंहारिणं पापिनं लोभिनमद्रष्टव्यमुखम् । अन्यच्च स बाहुबलिर्मया चक्रेण रणे कण्ठे स्पृष्ट इदमालप्यालं च । हे इन्द्र ! मां त्वं किं खेदयसे 21 य कमपि तमुपायं विरचय येन नीरुग् भवामि । इत्युक्तप्रान्ते ज्ञानेन ज्ञात्वा हिमाद्रौ पाहूदे सहस्त्रयोजननालपृथ्वीकायकमलोपरि सहस्रपत्रकणिकास्थितं जगदानन्दननामदेवबिम्बं हरिणेगमेषिणा पदात्यनीकेशेन आनाय्य वज्री तत्त्रात्राम्भसा चक्रिणं नीरुजं चकार । जातमाङ्गलिको नाभेयं नत्वा लब्धाशीर्वादश्चकी पार्श्वस्थे शके पप्रच्छ शूलकारणम् । अवदद भगवांश्च - "इतो व्यतीते तृतीये भवे श्रीवज्रसेनतीर्थंकरपुत्रत्वे महाविदेहक्षेत्रे पुष्कलावतीविजये पुण्डरीकिण्यां नगर्यां बाहुनामा जातस्त्वम् । व्रतं जग्राह तस्यैव पितुः पार्श्वे । चतुर्दशपूर्ववर्षलक्षाणि अमुं नियमं पालितवान् पञ्चशतीं साधूनां निजलब्धिलब्धेन विशुद्धभिक्षान्नपानेन पारणकं कारप्याहं भोक्ष्ये नान्यथा । एकदा भिःसटामिश्रिताहारदानपापेन अनालोचितप्रतिक्रान्तेन कर्मोदयेन भरतेश ! ते शूलं जातम् ।" तत् श्रुत्वा प्रमुदितः स चक्री । ततः सर्वेऽपीन्द्रादयो देवा नराश्च कर्ममर्म दुर्भेद्यं प्रतिपद्यन्ते स्म । ततो ऽन्तः पुरे प्राप्तकेवलज्ञानो अभङ्गवैराग्यरङ्गतरङ्गतया व्रतं गृहीत्वा लोकव्यवहारेण -- मोक्षं ययौ । . श्रीस्तम्भनजिनचरिते, सूरिश्रीमेरुतुङ्गमतिलिखिते । रोगोपसंहारी, प्रथमो भस्तप्रबन्धोऽयम् ॥ १ ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति अमन्दजगदानन्ददायिनि आचार्यश्रीपेरुङ्ग विरचिते श्रीदेवाधिदेव-पटले धर्मशास्त्रे श्रीस्तम्भनेश्वरचरित्र पवित्र द्वात्रिंशत्प्रबन्धबन्धुर प्रथमः श्रीभरतेश्वर प्रबन्धः समाप्तः ।। मा कुप्यन्तु कृपावन्तः, प्रति मां कविकचराः । कविकोटकतुल्याऽहं, हन्तव्या नास्यमामता ॥ १ ॥ *** (प्रबन्धः २) यदेकमपि संसारे, नानाकारकरम्बितम् । दर्शनैरपि दुर्लक्ष्यं, तद् ज्योतिः प्रणिदध्महे ।। १ ।। का पि देवा न के सन्ति भक्ता अपि तथाप्यहाँ । सेवकस्वामिता कापि, श्रीमेरु स्तम्भनेन्द्रयोः ॥ २ ॥ अस्मिन्नेत्र जम्बूद्वीपे भरते च वर्षे अन्यो' व्यायां श्रीयुगादिदवनिर्वाण कल्याणकदिनात् सुषमदुःखमारके तृतीय वर्षत्रयसप्तदशपक्षहीन व्यतिक्रान्ते पञ्चाशत्कोटिलक्षसागरोपमेषु गतेषु सगराजितजन्म । सगरस्य चक्रवर्तित्वं व्याख्येयम् । एकदा च तस्मिन् श्रीसगरचक्रवतिनि सभासीने सति अकस्मात् कुतोऽप्यागत्य के नाप्यवधूतवेष धारिणा नरेण निवारकै निवार्य माणे नापि स्वाभ्यादे श न प्रतीहारसहमध्यप्रविष्टनैकं मृतबालकं उपदावद् राज्ञोऽग्रं विमुच्य सभान्तरित्यूदानम्(रित्युदितं) -- हे राजन् ! मुष्टोऽस्मि देवेन, मृताऽकाले मे पुत्रोऽयं, कुरु में प्रसादं यथा जीवत्यसौ । तत् श्रुत्वा राजोवाच- भो पुरुष ! मयि विजयिनि अकालमरणं कुतः सम्भाव्यते अश्रुतपूर्वम् ? । स्वामित्रहं न जाने दैवविलसितम् । इत्युदित तस्मिन् दुःखिते पुरुषे राजवैद्यवृन्दाय सजीवकरणाय तं मृतमभकं ददौ । तेऽपि पालोच्य विदग्धा वैद्याः सपयोचितमुत्तरं विज्ञप्तवन्तः -- हे राजन् ! यत्र गृहे कोऽपि कदापि न मृतोऽस्ति भरतेऽत्र प्रतिगृहं शोधयित्वा तद्गृहरक्षां समानीय सजीव एष विधीयते । तथा कृते न लब्धा । ततः सगर: प्रोवाच . भा प्रत्कारकारक ! कि रोदनशीली भवान् नैवं वेत्ति सर्वेषामपि जीवानां मरणान्तमव जीवितम् ? । ततः किमर्थं क्लिश्यते स्वात्मा विवकविकलैः पुम्भि : ? । राजाक्तं स प्रत्कारवान् विचार्य साक्षेपं वचः प्रोवाच- भो नरेन्द्र ! मयेति न ज्ञातं महाळ्याम इव भवान् संसारस्वरूपं व्याख्यातुं वैराग्यं तरङ्गचित पण्डितत्वं करिष्यति । प्रजानाथ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 इव सेवकदुःखमूलं समूलमुन्मूलयिष्यति भवान् । हे सगरचक्रवर्तिन् ! निजाङ्गजविपत्तिभृशदुःखकारिणी हृदयगता क्षुरिकेव दुःसहा स्यात् । राज्ञेति ब्रूतं ततः, भो! दुःखितशोकोऽयं नित्यबुद्धेर्हदि दार्यं बिभर्ति न तु अनित्यतासम्पन्नस्य अतः कारणाद् रसे रसान्तरसङ्क्रमण वैरस्याय सम्पद्यते । द्रव्याणां परिणतिः परिणामविश्रा स्यात् । राज्ञोऽपि रङ्कस्यापि मृत्युः पुत्रवियोगादिदुःखान्यपि भवन्ति, परं भूभुजो बहुपुत्राः, सामान्योऽयं जनः पुत्रैको वा नैकपुत्रोऽपि स्यात् । यथा मे षष्टिसहस्त्राण्यङ्गजानी तवैकोऽङ्गजन्मा । ततः सोऽवधूतवेषी इति राज्ञा प्रोच्यमाने वचनव्यूहे छलेनान्तः प्रविष्टः - भो द्वितीयचक्रवर्तिन् ! धीरो भव । वीरत्वं अवलम्बस्व । सावधानः शृणु । यथाऽसौ मत्पुत्रो दृष्टस्त्वया तथा तव पुत्रषष्टिसहस्त्राणि मृतानि मया दृष्टानि । इति श्रुत्वा मुमूर्च्छ चकी । पपात सिंहासनात् । भुवं ददर्श । सर्वत्र सरोदनो हाहाकार: प्रससार । विललाप विह्वलं निखिललोकः सशोकः । ततो दक्षैः शीतलोपचारैः स्वस्थीकृतः पृथ्वीनाथः तं पुरुषं पारिपार्श्वकैर्बद्धं कदर्थ्यमानं विलोक्य सुखिनं कृत्वा पप्रच्छ । ततः स शक्रो द्विजरूपधारी प्रगल्भवाक् जजल्प वाचं भो भरतनाथ! ते तव सुतास्तवान्तिकान्निर्गता प्राप्तादेशा नानाश्चर्यधरां धरां भ्रान्त्वा भरतचैत्य परिपार्टी विरचयन्तो निजेच्छां पूरयन्तोऽष्टापदं गत्वा पूर्वजप्रतिष्ठितं देवगृहं च निरीक्ष्य हृष्टाः प्रोचुः भो मन्त्रिणः ! क्वापि विलोकयन्तु ईदशमपरमचलं यत्रास्माभिरपि निजा कीर्तिः प्रतिष्ठीयते देवगृहदेवबिम्बादि सप्तक्षेत्रद्रव्यव्ययेन । तथा कृते न प्राप्तः क्वापि तादृशोऽचलः मन्त्रिभिः । तैः तद्दुःखनिवारणार्थं बहु विपृश्य कृत उपायः । ततः सचिवास्ते प्रोचुः हे कुमाराः ! अतः पश्चान्नृपाः पापिनो लोभिनश्च भविष्यन्ति । तीर्थोपद्रवकारिणः सुवर्णमाणिक्यादिद्रव्यलुण्यकाश्च । ततोऽभियोगः क्रियते । तत् पूर्वजकारिततीर्थरक्षार्थं परितः परिखा खन्यते । दण्डरलेन तथा कृतम् । सहस्रयोजना गर्ता पपात पञ्चशतयोजनपृथुला । ततो व्यन्तरनगरेषु उपद्रुतेषु ज्वलनप्रभनागकुमारराजागमनम्, कुमारविनयभाषणकोपापहरणं, शिक्षादानं, 'मदाज्ञां विना पृथ्वीकर्म न कार्यं दत्वेति च स्वस्थानगमनम् । ततो हे महाराज ! परिखाकण्ठे ये केचिद् जीवा अरण्यचारिण आयान्ति ते सर्वे मूर्छा गत्वा मध्ये पतन्ति । तथा दृष्ट्वा मन्त्रिपार्श्वे कुमारैः पृष्टं - कतिजीवानामस्थिभिः सम्पूर्णा भविष्यत्येषा ? | किमेतत् पापं कारिता भवद्भि: ? । ततस्ते सचिवा: प्रवदन्ति 用 यदि जलापूर्णा भवति न पतन्ति तदा यथा अरण्यान्यां जलाशयेषु । एवं श्रुत्वा दण्डरत्नेन मूलगङ्गाप्रवाहादाकृष्याम्भः पातितवन्तः तस्यां परिखायां कैलाशं Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I परितः । तथाकृते महानुपद्रवो बभूव । उत्वस्तं व्यन्तरकुलम् । अननुभूतपूर्व इव प्रलयकालः संवृत्तः । अवधिज्ञानेन ज्ञात्वा निजाननुलग्नान् 'तात ! मातर् ! भ्रातर् ! त्रात हे शरणवीर ! धीर ! अस्मान शरण्यान् रक्ष रक्ष' इति ब्रुवाणान् मृदुभाषणपृष्टिहस्तदानादिना विशोकान् विद्यायाष्टापदाधत्ति (धित्य) कायां शिबिरान्तः कुमाराणां पटकुटीषु सर्वास्वपि षष्टिसहस्राणि दृष्टिविषसर्परूपाणि वैकियाणि निर्माय शेषपोषपूर्णः स्वयं ज्वलनप्रभस्तम्यां (स्वां) तस्थौ । तेऽपि कुमाराः प्रगे अपनिद्रिता प्रथमोत्थान एव प्रथमाक्षिसन्निपातेनैव तं भुजगेन्द्रं तथारूपं सर्वेऽपि समकालं पश्यन्ति स्म । क्षणाद् भस्मसाद् बभूवुः । सैन्यजननाऽपि काष्ठभक्षविधिः सूत्रितः । ततः सौधर्मेन्द्रासनकम्पेन महदरिष्टमापतितं भरतखण्डे विभाव्य ममेदमाभाव्यं दक्षिणभरतार्धाधिपत्यात् निश्चित्येति सर्वसैन्यलोकं वराकं तथाऽपक्रममाणं गिरेति निवार्य 'भो लोका ! प्राणान् मा त्यजन्तु भवन्तः । राजाग्रे भो लोका ! अहं कथयिष्ये 'मृतास्ते सर्वेऽपि पुत्राः ' । सैन्यं तु सर्वमागतमकुशस्फाटं ते हे भूजाने ! | ततस्तस्यानुलग्नं अयोध्यापुरि प्रविष्टम् । सोऽपि मृतबालकपूत्कारबलेन भूभुजो दर्शनं सुलभं भविष्यति प्रपञ्चेनानेन सर्वं वृत्तान्तं कथितवान् । तमेनं मां शक्रं जानीहि त्वम् । तत्रान्तरे एक (क: ) स्थानपुरुषः पूत्कुर्वन् समेत्य भृता परिखा गङ्गाप्रवाहेण उल्लटिता च प्लाव्यते मध्यप्रदेश: इति विज्ञापनां चकार हे महाराज ! कुरु रक्षाम् । कुमारविलसितं श्रोतमुप्यशक्यम् । ततो जह्नुकुमारनामा पौत्रः पितामहं सगरं तदम्भोरक्षार्थं चलन्तं निवार्य स्वयमेकाकी प्राप्तादेशश्चचाल | रात्रिलब्धतत्ता दृशशुभस्वप्नद्विगुणितोच्छा (त्सा) हबलेन सोऽपि गच्छन् निर्भयं गगने शब्दं दैवं अश्रौषीत् - 'भो जह्रो ! कुमारश्रेष्ठ ! इदं कर्म कुर्वता भवता कस्याप्याशातना न विधेया' इति पितामहदत्तां शिक्षामाशिषमिव मूर्धा (र्ध्ना) वहन् भोः ! कल्ये माकन्दनामसरसि रुक्मिणीवटस्याधो वासवदेवकुलिकायां निवासार्थं रात्रौ स्थेयम्। तत्र विश्वेश्वरनामा देवस्ते मनोरथं पूरयिता । तथा चकार सोऽपि तद्वचः । रात्रौ तस्य कुमारस्य वासार्थं कृतस्थितेरिन्द्रादिदेवैरुपास्यमानो विश्वेश्वरनामा स देवः परितुष्टः देवाधिष्ठायकैः सतिलकाक्षतपूर्वं तस्य जह्नोः कण्ठे वरमाला न्यस्ता पृष्टहस्तश्च दत्तः । उक्तं च-गृहाणैनं दण्डं भो महावीर ! शृणु देवादेशम्- 'आगच्छतो गङ्गाप्रवाहस्य पुरा दण्डेनानेन रेखा प्रकाश्या त्वया । रेखां दष्ट्वा अजल्पिता व्याघुट्य व्रजिष्यति । भवन्नाम्ना जाह्नवी गङ्गेति प्रसिद्धि यास्यति च । तथैव जातं द्वितीयेऽह्नि । ननु अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीगुरुप्रासाददेवताराधनशुभकर्मोदयानां प्रभावः । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 रसो रसायनं योगो, मन्त्रो वत्तिरथाञ्जनम् । सिद्धयन्ति सर्वकर्माणि, प्रसन्ने परमात्मनि ।। १ ।। भ(भा)गीरथिप्रबन्धोऽयं, द्वितीयस्तु समर्थितः । सलिलोपसर्गहारी, चरिते स्तम्भनप्रभोः ।। इति अमन्दजगदानन्ददायिनि आचार्य श्रीमेरुतुङ्गविरचिते श्रीदेवाधिदेवपटले धर्मशास्त्रे श्रीस्तम्भनेश्वरचरित्रे पवित्रे द्वात्रिशतप्रबन्धबन्धुरे द्वितीयः प्रबन्धः !! **** * (प्रबन्धः ३) नमो ममाहते तस्मै, कस्मै भवतु भावतः । यदोजसा तमस्त्रस्तं, स्मरघस्मरकारिणा ॥ १ ॥ जम्बूद्वीपे भरते च दक्षिणस्यां दिशि विदर्भदेशे कुण्डिनपुरे मान्धाता नाम राजा । तत्पत्ती च मन्दोदरी । तयोः पुत्रो मदनदेवराजा राज्यं करोति । स्वभावात् सप्तमनरकतालककुञ्चिकाप्राये पापिनां परमप्रिये परदाराभिलाषरसे स्वभावादेव तस्य लाम्पट्यं वर्वति । तत एकदा तेन राज्ञा तन्नगरनिवासिदेवशर्मनामभूदेवप्रणयिनी रूपश्विनी नाम जलके लिविहारार्थं गतेन ददृशे । साऽप्युद्यानिका दिन निमित्तकृतमज्जना विद्युदिव समुल्लसन्ती विभ्रमेण राज्ञा बलादपहता । श्येनेन चिल्लीव नीयमाना विललाप साऽपि चिरं इति - 'हे राजन् ! हे प्रजानाथ ! राजरक्षितानि धर्मवनानि यस्मात्, वृतौ चिर्भयनि भक्षयितुं समुद्यतायां कस्याग्रे पूत्क्रियते ? । दिनकरकुलादन्धकारप्रसूतिः, सुधांशुमण्डलादङ्गारवर्षणं तदिदं जातं महाराज ! यन्मादश्या वराक्या अनिच्छन्त्या पतिव्रतलोपो विधीयते।' इत्युक्तिप्रान्त एव धर्मशास्त्रकुण्ठैर्वण्ठै राजान्तःपुरक्षिप्ता मुमूर्छ। अथ सोऽपि तत्प्रियो स्वशक्तेरसुसारेण जीवितमपि पणीकृत्य भूपं विज्ञाप्य विज्ञाप्य, सर्वेषां राजवर्गिणां कार्यस्वामिनामग्रे पूत्कृत्य पूत्कृत्य, प्रतिभवनं प्रतिजनं विलप्य विलप्य, ग्रथिलवत् भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा, अलब्धोत्तरराजद्वारप्रवेशप्राप्तार्धचन्द्रोऽपि भस्मोद्धूलिताङ्गोऽपि कृतकौपीनोऽपि एकाक्यपि अनीश्वरत्वं प्राप्तः । ततः स द्विजः प्रियावियोगात्ततॊ जातदेशपट्टो देशान्तर लन् रङ्कवत् बुभुक्षादिमहादुःखवेदनाभिः काष्ठभक्षणेन विपन्नः पश्वादग्निकुमारो देवो जातः । काले समयं प्राप्य तेन वैरेण सर्वं ज्वालयितुं देशं सन्नद्धः । तथा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 सति राज्ञा सप्रधानेन तस्य प्रतिकाराय घनं मन्त्रितं पुनस्तस्य कोऽप्युपायो न लग्नः। यस्माद् दैवे निरुन्धति सति प्रवासपुरुषाणि पौरुषाणि निबन्धनतां न वहन्ति । ततस्तत्र पुरे सीमन्धरसूरिनामकेवली ससङ्घः सुवर्णकमलोपविष्टो धर्म कथयन् राज्ञा बाह्यालीं कर्तुं गतेन सता निरीक्षितः । राज्ञाऽभिवन्द्य च विज्ञप्तः हे प्रभो ! धर्मगुरव एव भवन्तः संसारतारका अबोधबोधदा बोधिपारग्रामदा वा आमुष्मिकं अल्पपुण्यानां मादृशा हितकारि प्रासङ्गिकं निमित्तम् । गुरुराह कि पृच्छसि भो जनपते ! मदन्तिके देशोपद्रवनिदानं रक्षोपायं च प्रष्टुकामोऽसि ?, तत् शृणु भो राजन् ! विप्रभार्याशीललोपकल्पनया दुःखमिदं अनुभवन्नसि, परत्र घोरं च नरकं यास्यसि अकृतप्रतीकारः । ततो मुमोच तत् विप्रकलत्रं स राजा । अङ्गीकृतं स्वदारसन्तोषनाम व्रतम् । अथ श्रीसङ्घोपरोधाद् राजविज्ञापनानन्तरं तद्दुष्टदेवदमनाय गुरुणोक्ता शिक्षा भो भूमिनेतः । दक्षिणदिशि मलयाद्री चन्दनवने पन्थासरसि देवकुले जगज्ज्योतिर्नाम बिम्बं पार्श्वेशस्य समाराधय । तत्र गच्छ । ततस्तद्विम्बं ततः स्थानकात् गृहीत्वा दक्षिणकरकनिष्ठाङ्गुल्यग्रे संस्थाप्य अलग्नस्थलाग्रं पुरेऽत्रसमानय । महता विस्तरेण प्रवेशमहं कुरु । अष्टाह्निकां रचय । देशान्तडिण्डिमडम्बरं रचय | अम्बरं साम्बरं कुरु । लोकानाकार्य सकलधर्मविधौ देवपूजने वितरणे च शिक्षां देहि । आध्वजांतं गर्तापूरात् जिनभवनं हेमस्तम्भं मणिभित्ति रत्नबद्धभूमि सर्वोपहारपूजावस्तुसम्भूतं सर्वदेवपरिचारिजनाकीणं विरचय्य देवपूजापण्डितान् परमार्हतान् महाश्रात्रकान् शान्तिकादिकर्ममर्मनिपुणान् मानय । मान्यान् अग्रे कुरु । धनं निधनं विमृश्य तृणोपमां श्रियं सम्भाव्य वितर दानम् । कारागारं व्यर्थनाम रचय । वैरं मुञ्च । सर्वैः सार्धं विनयं कुरु । मिथ्यादुः कृतं देहि संसाराम्भोधितरणप्रवहणम् । अनया रीत्या महाचैत्ये निवेश्य तत् श्रीजगज्ज्योतिर्नाम देवबिम्बं महापूजनमहामन्त्रस्मरणमहास्त्रात्रकरण श्रीसङ्घ वात्सल्यादिभिरुपायैर्विगलिते कृशानूपद्रवे त्वं सुखी भव हे नृप ! । एवं चानुशिष्टे सति स दुष्टदेवों देशान्तः प्रवेश न कर्ता तद्देवभक्तसुरगणेन भाषितः । पश्चाद् व्याख्या श्रवणागतविद्याधरवृन्देन साधर्मिक वात्सल्यार्थं तत्र सरोवरगमने राज्ञः साहाय्यं चक्रे । एवं विहिते च तत् तथा जातं, राजाऽपि सम्यग्दृष्टिर्जातः प्रपत्रद्वादशव्रतः । महती जिनशासनप्रभावना जाता । तत्र पुरे सर्वदा सुमनोव्रजसम्भृते देवभवने तस्मिन अशेषविशेषगतशोकैः सुश्रावकैर्विरचिताः समयोचिताश्चैत्यपरिपरिपाटयः प्राकट्यमानशिरे अतुच्छ महोत्सवा प्रसश्रुः । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनलोपसर्गहारी, स्तम्भनचरिते तृतीयबन्धोऽयम् । सुजनहृदानन्दकरे, चरितं श्रीमदनदेवस्य ॥ १ ॥ ***** (प्रबन्धः ४) . ये जीवाः कर्मवशतो, मत्तोऽपि जडबुद्धयः । तेषां हिताय गदतः, सफलो मे परिश्रमः ॥ १ ॥ परवस्तुसङ्ग्रहमृते, निर्वाहो नैव चात्र कस्यापि । परपुत्रिभिर्लोकः, करोति पाणिग्रहं यस्मात् ॥ २ ॥ सेवाहेवाकदेवासुरनरनिकरस्फारकोटीरकोटीकोटीव्याटीकमानधुमणिसममणिश्रेणिभा वेणिकानाम् । राजन्नीराजनश्रीचरणनखशिखाद्योतिविद्योतमानः, स्थेय श्रेयः स देयात् तव विशददशाबन्धुरं पार्श्वनाथः ॥ ३ ॥ ये केचिद् विद्वांसो, भुवने विलसन्ति भारतीपुत्राः । गृणामि तत्कवित्वं, मम सर्वे सहोदरा यस्मात् ॥ ४ ॥ अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपनामद्वीपे भरतक्षेत्रे अयोध्यातः पश्चिमायां वाणारसे देशे काश्यां नगर्यां समारोपितकोदण्डाकारनिभायां पञ्चगव्यूतिमात्रक्षेत्रायां हिरण्यनामो राजऽभूत् । तस्य प्रिया कमला । तयोः पुत्री जरत्कुमारीनाम कुमारी । सा प्राप्तवयाः सती सतीशिरोमणिः सखीवृता वनान्तं क्रीडार्थमेकदा गता । प्रविष्टा तामसिकायां वाटिकायां यत्र धारागृहं उल्बणोष्णकालौषधं च । यत्र च मेघमण्डपो निदाघदाघधन्वन्तरिः, यत्र च तापप्रतापप्रशान्तकारिणी अगुडिलबुहल(बहुल)जलकल्लोलाकुला षड्डोषलिकामहाविद्या विद्योतते । तस्मिन् प्रदेशे पुष्पावचयं कुर्वती जातिगह्वरे प्रविष्टा । यावत् करेण पुष्पं चिनोति तावद् दन्दशूकेन दक्षिणकराङ्गुष्टे दष्टा । तया धन्यया सदयया न पूत्कृतं 'माऽस्य कोऽपि पीडां करोतु मम वाचं श्रुत्वा' । स्मृतपञ्चपरमेष्ठिनमस्कारा जातविषापहारा क्षणार्धेन जाता । तुष्टश्चासौ नागकुमारदेवः सर्परूपी । दत्तो वर: 'अहं पातालेशस्य शेषनागस्य मुकुटवर्धननामा पुत्रोऽस्मि, तव पितृगृहं नागलोकोऽद्य प्रभृति, तव रसातले गतिरस्खलिताऽस्तु' । ततो देवः स्वस्थानं ययौ । कुमार्यपि जातप्रमोदा चिरं रत्वा जगाम स्वं वेश्म । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 अथैकदा राज्ञा वनवासिने जरत्कुमारनामऋषये सोपरोधं सभासमक्षं दत्ता पादयोनिपत्य उक्त्वेति च - 'पूरय मे पणमीदृशं पुरोक्तं यो मत्पुत्र्या नाम्ना ऋषिर्भविष्यति तस्मै दास्येऽहं स्वसुताम्' । सोऽपि जरत्कुमारनामा अनिच्छत्रपि परिणीय वनान्तं(न्तः) प्रतस्थे । इति सन्मुखं पणं विधाय- 'यदा मदभक्ता एषा तत्र पुत्री भविष्यति तदा त्यक्ष्यामि' । 'अस्तु'-राज्ञोक्तम् । साऽपि च यौवनं सफलं कृतवती पतिरसेन निर्व्याजेन । सोऽपि निजायै तस्यै प्रियायै पञ्चेन्द्रियालादकारि पञ्चधा वैषयिक सुखं उपढौकितवान् । ततो द्वादशे वर्षे आपन्नसत्त्वाऽभवत् । अथैकदा च दिनास्ते सन्ध्याव्रतलोपं विभाव्य सुतं पति जागरयाञ्चकार । 'मयि निद्राभङ्गकारिण्यां एष कोपं कृत्वा शापं दास्यति मत्त्यागं करिष्यति वरमिदमस्तु' इत्यङ्गीकृत्य पादाङ्गष्ठनिपीडनेन सहसोत्थापितः । सोऽप्युत्तस्थौ । दण्डाद् घट्टितभुजङ्ग इव वाग् बुहल(बहुल)रगरलवर्षी केन पापिनोत्थापितोऽस्म्यहम् ? । साऽवोचत्-न केनापि, प्राणेश हे ! मयाऽनया त्वं विनिद्रितः पापिन्या । 'यद्येवं त्यक्तासि रे ! मया दुराचारिणि ! भत्रभक्ते ! स्मर स्वं पणं, दूरे भव, मा स्पृश मां, अद्य प्रभृति स्वेच्छया वानप्रस्थोऽहं तपः करिष्ये' । साऽपि तं प्रति विनयनता विज्ञप्तवतीति'क्षमस्व ममापराधं एनं मत्कृतं, न पुनः करिष्ये, प्राणनाथं(थ!) गच्छत्प्राणत्राणोपायं कुरु' । तत् श्रुत्वा जगौ मुनि: 'हे पुत्रजननी(नि!) मम बीजाधानं तवोदरान्तः प्रधानं निधानं, दास्यति ते समाधानं, मा कुरु खेदं, हे सुन्दरि ! कुकर्मकवचः कालादत्रुटत् तव प्रतिपन्नपितृगृहस्य सकलनागलोकस्य सतक्षकस्य सेन्द्रस्य देवलोकस्यापि च सर्पसत्रसाङ्कट्ये विकटे सति अभयदानदातृतया त्रिभुवनोपकारी पदङ्गजो भविष्यति ।' मुनिरित्युक्त्वा वने तपस्तेपे । साऽपि पितृगृहमागत्य सुखेन दिनान्यतिवाहयति पाताले याति च । पूर्वप्राप्तवरबलेन जातः पुत्रः समये 1 तथा आस्तीक इति नाम दत्तम् । शेषनागप्रभृतीनां भागिनेयतया मान्यः पाताले नागकुमारैः सार्धं निरङ्कुशः क्रीडति । काले च स पठितवान् वेदं धनुर्वेदं च । अथ तत्रान्तरे नर्मदातटे विन्ध्याद्रौ द्वादशशतपल्लीवनमध्ये राजभवननामस्थानके चन्द्रवंशी पाण्डवसन्तानी परीक्षि [ त ] राजपुत्रः जि( ज )न्मेजयनामा सर्पसत्रं कारयन् वर्तते । तत्र च यज्ञवाटके वेदिकायाः पुरो यज्ञस्तम्भे निहिते गाह(ह)पत्याह्व(हव)नीयवेदिनामसु त्रिषु अग्निकुण्डेषु जातवेदःसु सर्वसम्पूर्णसमित्समृद्धेषु याज्ञिकैर्मन्त्रेणाकृष्य सर्वस्मिन् नागलोके जिनप्रमिताङ्गलविश्वयोनिनामश्रुच् शृङ्गाने अवतारिते सति, अग्निकुण्डापरि सेन्द्राय सतक्षकाय नागलोकाय हे द्विजेन्द्र ! Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 आहुति देहि कुरु सर्वं स्वाहाभुक्सात् इति । राजाज्ञया तथा कृते पुरस्तादेव प्रादुरासीत् तावता स आस्तीकनामा कुमारः । ततो वाणारसीक्षेत्रात् केनाप्यानीत उत्थाद्यः (उत्पाट्यः ?) ब्रह्मेव वेदोच्चारं दर्शयन् विशुद्धं सर्वतो विलोक्य निजेनाभयदानामृतवर्षिणा लोचनेनाश्वास्य प्रलयकालरूपिणि धर्मस्य यज्ञे सर्वथा मृतं धर्मं समूलं दयालक्षणं जीवं विधाय सर्वशुभधर्मेषु साम्राज्यमिव संस्थाप्य तथा चेदं सभान्त: पपाठ सोत्साहं सकृपं सविनयं यथा सर्वे याज्ञिकादयः श्लथीकृतस्वकृत्यास्तस्थुः । तैश्च हृदि मीमांसितं चिरं तददृष्टपूर्वकौतुकमिव दृष्ट्वा आः किमेतत् जातम् ?, कौतस्त्योऽयं कोऽप्याकस्मिक एषः कारणपुरुष: प्राप्तः ? 1 अयं पूर्णमनोरथः सन् यज्ञफलोपमः सम्भाव्यते, हतेच्छः पुनर्यज्ञोपप्लवरूपीव विभाति । शापानुग्रहसङ्ग्रहविग्रहग्रहोऽयं यस्मादेष दरीदृश्यते अस्मन्मनस्त्वं पुरुषस्यानुचरवदनुसरीसरीति । बहु किं बम्भण्यते ? अस्य वपुर्वर्चस्तथा परिपोस्फुरीति यथाऽस्य किमप्यसाध्यं महापुरुषस्य नास्ति । ततस्तैः सर्वैः सम्भूय 'सर्वस्याभ्यागतो गुरु' रित्याम्नायं धर्मशास्त्राणां स्मरद्भिः यथोचितं सबहुमानं सविनयं आसनाञ्जलिबन्धादरपूर्वं प्रणिपातादि तस्य चक्रे । निषिद्धस्तु वेदं पठन् न च तिष्ठति । ततः स राजा सविनयं नतशिराः प्राञ्जलिर्जजल्प - 'महापुरुष ! विरम पाठश्रमात् । तवेप्सितं यत् तदहं दास्ये । परं एतां मे विज्ञापनां सावधानोऽवधारय । चिरकालेप्सितं ममेदं यावदद्य पुष्प श्रियमधिरोहति तावद् भवता सुधासमेनापि सा कलिकैव दन्दह्यमाना सम्भाव्यते । अन्यच्च हे महोत्साह! महाबाहो ! कुमार ! मौलक्यस्यास्य याज्ञिकस्य भारद्वाजनाम्नः पिता ममापि च तक्षकेन दष्टौ मृतौ इत्यालप्यालं “ते पुत्राः ये पितुर्भक्ता" इति वाक्यं स्मरन्तौ चावां अमुं क्रतुं कर्तुं उपक्रान्तौ । सर्वनागकुलाहुतिः सतक्षका होतव्या श्रुचोऽग्रे दृश्यते । एष आवयोद्वयोः चिरस्वीकृतो नियमो ऽस्ति । अमुं धर्मं मां प्रति प्रकटयन्तोऽमी द्विजा वेदविदः प्रार्थितयज्ञभागाः सर्वऽपि त्वां बहु मानयन्ति । ततः क्षणार्धं एकं तव मनः पीडयितुं विलम्बेन वयमलम्भूष्णवः । ततः पूर्णमनोरथा महतीं भक्तिं करिष्यामः । अथवा त्वं किं याचसे ? त्वं भण तद् गृहाण पूर्वम् । इत्युक्ते स प्रोवाच दशनद्युतिभिः सर्वतमांसि कण्ठे गृह्णन्निव प्रकृतिसुन्दर: भद्रकभाव: आस्तिकशिरोमणिः सर्वानाहूतसहायः सर्वजीवगणनिष्कारणवत्सलः अतुच्छ: स्वच्छः सकृपः सत्रपः सत्यवाक् परधननिधनदृश्वा सकलशब्दब्रह्मवेदी दाता त्राता च ब्रह्मचारी परोपकारी परमार्हतः यशः शाश्वतः पार्श्वनाथवंशाभरणं पराक्रमी गम्भीरः धीरो वीरव Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 राजत्स्फातिः क्षत्रियजातिः शुभनीतिः प्रदर्शितपुण्यरीतिः दूरीकृतभीतिः रसनेन्द्रियामृतमोचन: दयार्द्रलोचनः सर्वगुणः अनभ्यर्थितसदासर्वसाधुः असम्बन्ध बान्धवरूप: । 'भो ! भो ! शृण्वन्तु सर्व सावधानाः । वाणारसे देशे काश्यां जरत्का ( त्कुमारमहर्षिपुत्रोऽहं जरत्कारी ( त्कुमारी ) कुक्षिसम्भूत आस्तीकनामा । मध्याह्ने गङ्गातटे कृतस्नानः पवनगुंजयोत्पाटितः सुखासनाधिकसुखं अनुभवन् सिन्दूरगिरौ रक्तशृङ्गसानुनि देवदारुवने द्वादशकोटिनामवैश्वानरकुण्डे सिंहासनस्थं सर्वदेवोपासितं सर्वनाथनाथं अमृतेशनामदेवबिम्बमद्राक्षमद्य । ततः स्वामी प्रणाममात्रेण तुष्टः वाक्यसिद्धिर्भवतु भो आस्तीक ! ते वरमिति ददौ मह्यं भगवान् । इत्यादेशं च दत्तवान्-निजमातृपितृगृहस्य सतक्षकस्य नागलोकस्य सेन्द्रस्य च देवलोकस्यापि च जीविताभयदानदानात् तं च जनमेजयं नृपं कुधर्मकर्मशर्मावलोकिनं पापिनं निरापराधजीववधपातकिनं कुशास्त्रप्रणीतकुमार्गान्धकारभारप्रहतनयनं पापनुबन्धिफलेन राज्येन पापानुबन्ध्येव फलं चिन्वन्तं समुद्धर । त्रिभुवनमपि च । ततो राजन् ! भोः ! स देव आशिषं दत्तवानिति च मह्यं सर्वोपासकदेवसमक्षं 'शिवास्ते सन्तु पन्थानः ' | "कुशलं कुशलं नि (?) बिन्दवो मुनिसन्ध्याविधयः सृजन्तु मे I अपि सन्तु शिवा दिवानिशं हविशे हेलिमखा हविर्भुजः ।। " इति खे देववाणी उच्छलिता । पुष्पवृष्टिः शिरसि मे जाता । देवादिष्टं मां प्रति "गच्छ वच्छ(वत्स) शीघ्रं प्रदीयमानां तत्र यज्ञाग्नौ मूलाहुतिं याचस्व श्रुचोऽग्रात्" इत्युक्तान्ते तद्देवप्रभावेण ततः स्थानकात् हुङ्गारोच्चारसमं समेतोस्मि । मूलाहुतिमेनां याचे । मा विलम्बं कुरु भो राजन् ! प्रदीयतां स देवो यदि ते मनसि प्रमाणम् । इति निशम्य वचः सर्वे हताशाः सन्तो वराका इव मृतास्तस्थुः मर्कटा इव परस्परास्यदृश्वानः काकपोता इव खसूचिनः × × × × I १ तु मा मुदिरप्रेक्षामीक्षांचकुस्ते ब्रह्मण्या इति श्रुत्वा मरणमिवोपागतं इति मन्यमानैः सा तस्मै दत्ता मूलाहुतिः । करे दक्षिणे मुक्ता । हुता इवात्मानं मन्यमाना सुधांशुमण्डलशीतलं आस्तीक करतलं कमलकोमलमलञ्चकुः ते विषधराः लब्धचेतना स्वसम्भालितशरीरः कृतपवनाहारा विगतदुर्दशाभाराः सुखसञ्चारा सभागत स्वदीप्तिप्रकारा आस्तीकस्तुतिमुखव्यापारा वरदानोदाराः तमास्तीकं दृष्ट्वा प्रणम्य १. अत्र २२ तम पत्र नास्तीति पाटस्त्रुटितः ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 स्तुत्वा सतारस्वरं वरदानपूर्वं प्रोचुः - सर्पापसर्पभद्रं ते, दूरं गच्छ महाविष । जिन्मेजयस्य सत्रान्ते, आस्तीकवचं स्मरा(र) ॥ १ ॥ आस्तीकवचनं श्रुत्वा, यदि सर्पो न निवर्त्तते । सप्तधा भिद्यते मूर्ध्नि, शंसवृक्षफलं यथा ॥ २ ॥ आस्तीकेनोरुगैः सार्ध, पुरा य: समयः कृतः । स यदा समयः सत्यो, जन्तुं हिंसन्तु माऽहयः ॥ ३ ॥ स मे शरणमास्तीकः, पुत्रो यो जरत्कारयोः । यत्प्रीतिबद्धमनसो, न दशन्ति भुजङ्गमाः ॥ ४ ॥ आस्तीकस्य च यत्राज्ञा, वरदास्तत्र पन्नगाः ।। दयागुरुणा आस्तीकेन सम्भाषिता इति (?) ॥ ५ ॥ प्राणातिपातविरमणव्रता जाताः । ततो नागमतं ज्ञानमतं च कथ्यते । पञ्चमीदिने नागपूजनं ततो लोके प्रसिद्धिमगमत् । आस्तीकेनापि दयाधर्मो व्याख्यातस्तेषामग्रे । दमो देवगुरूपास्तिानमध्ययनं तपः । सर्वमप्येतदफलं,' x xxx ** *** (प्रबन्धः ५) अस्या राजपुत्र्या अपहतालङ्काराया केनापि दुर्दशापतितायाः । ततोऽचीकथत् स विद्याधरेश्वरः सर्वप्रत्यक्षं विमानं निश्चलीकृत्य स्वां प्रियां हे प्रिये ! विद्याधरेश्वरो वैताढ्ये, रथनूपुरे नगरे राजाऽस्ति । तस्य देवतावसरपूज्यमान-जगत्पालनामबिम्बागमनेनाऽत्रास्याः कुमार्याः कार्यसिद्धिरिति उक्त्वा तिरोदधे । कथितांत एव कुमारीमातुलो मणिचूल: समेतो मीलनार्थं तत्र तदा राज्ञाऽपि च मणिचूडमुपरोध्य तद्विम्बं आनायितं चैत्ये स्थापितम् । तत्स्नात्राम्भसा सर्वत्रामृताऽभिषेकः कृतः । पूजनानन्तरारात्रिकसमये तद्विम्बभक्तदेवगणेन शिरःस्थरत्नालङ्कारमोटो(?) गाढं बद्धो मुष्टिभिस्ताड्यमानो भृशमारटन् देवपादमूले क्षिप्तः दिव्यवाचा प्रतिबुद्धो १. अत्र २४-२५ तमपत्रद्वयं नास्ति, अतः पाठः खण्डितः ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1) जिनशासनाराधको जातः । यदुक्तम् .. . त्वां सदाधिगुणधर्मरोपिणं. येऽरिहन्तरभयाय भेजिरे । तान् कदापि न भवाटवीपथे. दस्युवत् प्रतिरुणद्धि मोहराट् ॥ १ ॥ पवित्रः कुन्तलानाम प्रबन्धः पञ्चमः स्मृतः । चरिते स्तम्भनाथस्य, वाञ्छितार्थफलप्रदे ॥ (प्रबन्धः ६) सिद्ध्यन्ति सिद्धयः सर्वाः, स्तम्भनायकनामतः । अवाप्यते न कि यस्मात्, चिन्तामणिपरिग्रहात् ॥ १ ॥ वङ्गदेशे तामलिप्तीपुरे पुष्पशेखरो राजा । पुष्पवती प्रिया । स राजा राज्यं कुर्वन् पापोदयेन सर्वराजकार्येषु प्रमादी जातः । आलस्यत्वात् (अलसत्वात्) सर्वेषां द्विष्टश्च । किं बहु ?, यथा तथा कृत्वा स राजा राज्यान्निर्वासितः । अथ स देशाद्देशं रुलन् काष्ठविक्रयेण जीवं पालयन् एकस्मिन् दिने शमीवृक्षमूल मखनत् । तत्र विवरं विलोक्य प्रविष्टः । तत्र पथि व्रजन् नागपुरमेकमद्राक्षीत् । तत्परिसरे गङ्गापुष्करतडागपालीशिरसि अनेकदेवाराध्यमानं देवगृहमध्यस्थं पुराणपुरुषनाम देवबिम्बं अपश्यत् । स पुरुषः स्नात्रपूजास्तुतिभिराराधयामास त्र्यहं महद्भक्त्या । निराहारश्च कामं सम्भाल्य सर्वभक्तप्रत्यक्षं महता शब्देन घण्टानादपूर्वं सुप्तः । काले प्रबुद्धश्च पुनस्तं देवं प्रणतवान् । ततो देववैयावृत्यकारिभिर्देवैः साधर्मिकवात्सल्येन सबहुमानं स्तुत्यालापपूर्व देवप्रसाद पारिजातपुष्पं "भो भक्त! त्वं गृहाणेदं अजामरं ( अजरामरं) नाम' । "महाप्रसादोऽयं मे" इत्युक्त्वा गृहीतं तेन । देवैश्च तस्येत्यादिष्टं “भो ! देवभक्त ! इदं पुष्पं स्मरणीयं रिपुं दृष्ट्वा, यस्त्वां न मानयिष्यति तस्य मूर्धा स्फिरयिष्यति । स चेति लब्धप्रसादो देवप्रसादीकृतं देवप्रसादनामानमश्वमारुह्य तर्जनेनामुमश्वं वारमेकं हत्वा स्वनगरे स्वे सिंहासने स्वस्मादश्वादुत्तीर्य पुष्पं फेरणीयं गगनगत्या - ऽस्खलितप्रचारोऽस्तु" । ततस्तेन राज्ञा तथैव चक्रे । सर्वेऽपि प्रतीपभूपादयो लोकाश्च तत्पुरो विलपन्तो कुण्ठकण्ठनिहितकुठाराः तं शरणमीयुः । तेनाऽपि च राज्ञा धर्मविजयिना मुक्तास्ते सर्वेऽपि जीवन्तः । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदाह - उपकारिणि वीतमत्सरे, सदयत्वं यदि तत्र कोऽतिरेकः । अहिते सहसाऽपलब्धे, सघृणं यस्य मनः सतां स धुर्यः ॥ १ ॥ तावत् कोपो विलसति, महतां क्रियते न पादयोः प्रणतिः । रामो विभीषणाय, प्रणताय स दत्तवाल्लंकाम् ॥ २ ॥ राजाऽपि जातसुखश्चिरं राज्यं भुक्तवान् । क्रमेणाऽऽर्हतो जातः । काले पण्डितमरणेन समाधिना मृतः स्वर्गे समुत्पन्नः । बुभुजे दिवि सुखम् । उक्तः षष्ठः ।।. (प्रबन्धः ७) 'लोकः यमकिङ्करप्रत्याहतिसञ्जातकाटकभाटकादिकुटकं च ततस्ते यमभक्ताः चण्डादयो दासा यमाग्रे तं पराभवं अवदन्तोऽपि स्वस्य महीमनमुण्डा इव सशिरःस्फोट भग्नाऽस्थिकूटाः झरत् झरं रुधिरं निजैरङ्गैवर्षनश्छन्ना भिन्नाङ्गा आत्मानं तथा पराभूतं दर्शयन्ति स्म । सूर्पणखेव रावणाने अजल्पन्त्यपि श्रीरामगौरवं प्रकटं चकार । यमोऽपि रोषारुणाक्षः तत्र जिनगृहे प्राप्तः । तं त्रिशङ्कं दृष्ट्वा विह्निरिवोषरपतितो विध्यातः, उल्मक इव निर्वाणः, पन्नग इव ताक्ष्याकान्तो निर्विषः, जलधिरिवागस्तिसमाकान्तो व्यतीतजलः, मार्तण्ड इव राहुमुखप्राप्तो वितेजाः जातः । ततः कृतान्तोऽयं तं देवाधिदेवं राजानं च नत्वा स्तुत्वा सर्वप्रत्यक्ष भट्ट इव कीर्तिघोषणां ततान “भो भो भव्यलोका: ! अहं काल: कलयितुमेनमागां राजानम् । नवग्रहपीडाऽपि मम साहाय्यं चकार । यद्येनमुपायं नाकरिष्यदसौ तदा ममैककवलोऽभविष्यः हे राजन् ! त्वं । अतोऽयं देवो ग्रहपीडाशान्तिकारी भवति भविनां भक्तानाम् । अन्यच्च अशुभं कर्म क्षयं याति शुभं च वर्धते । प्रबन्धं एनं उदीर्य जगाम यमः । राजाऽपि दृष्टप्रभावो बहून् जीवान् धर्मे जैने स्थिरीकृत्य स्वस्थाने गत्वा राज्यं प्राज्यं भुक्तवान् । काले व्रतं गृहीत्वा प्राप त्रिदिवम् । प्रबन्धः सप्तमो जातस्त्रिशंकोर्ग्रहशान्तिके । चरिते स्तम्भनाथस्य, महानन्दसखप्रदे ॥ १ ॥ ७ ॥ ******* १. २८-२९ तमपत्रद्वयं न, अतः पाठोऽपि त्रुटितः ।। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रबन्धः ८) दूषयन्ति नव नोकषाबका, दुर्ग्रहा अपि न तं ग्रहा इव । यस्त्वदुक्तविधिना सुरक्षितं, स्वं करोति करुणैकसागर ।। १ ।। राजभययक्षराक्षसभूतप्रताः पिशाचशाकिन्यः । नायान्ति तस्य मूलं, स्तम्भनजिननाम हृदि यस्य ॥ २ ॥ कलिङ्गदेशे काञ्चनपुरे पद्मनाभो राजा । पद्मावती प्रिया । इतश्च : तत्रागतः केवली सुबाहुनामा हमकमलोपविष्टः करोति व्याख्याम् । दृष्टश्च स राज्ञा बाह्ये वाजिक्रीडां वितन्त्रता । नत्वा पृष्टश्च इहागमनकारणम् । अस्मिन् विन्ध्यगिरौ रवातटे हस्तिभुवि चतुर्विशतियोजनपथलशाखाव्यापो द्वादशयोजनोन्नतः कुञ्जरराजनाम वटोऽस्ति तत्रास्ते सर्वदु:खवारणस्य भुवनत्रयतारणनामदेवाधिदेवस्य प्रतिमा ! तां वन्दितुमिहागतोऽस्मि हे राजन् !, तवेति प्रश्नोत्तरम् । इति श्रुत्वा हृष्टा गताः सर्वेऽपि सम्यक्त्वधारिणो जाताः । एकदा तु स राजा वन्यगन्धगजबन्धनक्रीडा) हस्तिभूमौ गजाकरे रराम । तत्रान्तरे अकालजलदजलसिक्तभूमिसुरभिमृत्स्नागन्धाघ्राणे नासिकापुटकुटीकुटुम्बितां गते प्रोन्मत्तगन्धगजवृन्देनाक्रान्तः । पलायिताः पूर्वमेव पदातयः तृणानीव असाराणि पत्रमानेनेव । ततो भटा नेशुः अपण्डितमुखे वचनरसा इव । ततोऽश्वाः पेतुः अविनीतजनगुणा इव । ततो गजाः सैनिका मुमूर्छः सुलोचना सविलासलोचनाञ्चलाचान्ता रागिगणा इव । क्षणात् तत् सैन्यं सर्वम्भवस्वरूपमिव विश्रसापरिणामजातं विगत' . ** *** (प्रबन्धः ९) वेशिते जनवल्लभो राजा नाम्ना परिणामेन च प्रतिष्ठाकूर्मः जगज्जे(ज्ज्ये)ष्ठः वैरवाराह: अरिविदारणनारसिंह: पराक्रमपरशुरामः उन्नतिमेरुः अगाधतासमुद्रः मर्यादामकराकरः क्षमाक्ष्मासमः विवेक श्रीवासुदेवः अरियवासकवारिदावतार: पूर्वजाचारभारगोवर्धनोद्धरणगोविन्दः राजनीतिपार्वतीपरितोषसुखार्धनारीनटेश्वरः समस्तविज्ञान विश्वकर्मावतार: प्रजारक्षणदामोदरः संसारसर्वस्वरङ्गलीलारम्भाभाववासवः अनुजीविदुर्दशादुःखधारणीगिरिश्रेणीदलनदम्भोलिः न्यायान्यायदुग्धनीर १. ३२-३३ तम पत्रद्वयं नास्तीति पाठः खण्डितः ।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेचनराजहंसः चतुरुदधिकाञ्चिवसुमतीमण्डलसितच्छत्रितकीतिमण्डलः गुणमणिरोहण: अद्रोहणः कविरिव कविः वाचस्पतिरिववाक्पतित्वे विद्योतमानः भारतीव भारतिप्रियः दयाजीमूतवाहनः परुषार्थलीलापाकशासनः सत्यवाग्युधिष्ठिरः राज्यं करोति । तत्र देशे दुर्लभो नामा कौटुम्बिकः क्षेत्रं रक्षन् मुनिमेकं जैनं क्षुधात तृषार्तं च भक्तानपानप्रतिलाभनावैयावृत्त्याभ्यां शुश्रूषितवान् । तेनापि सहजसिद्ध नामवीतरागबिम्बे भक्तिः कार्या त्वयेति उपदिष्टम् । स च मुनिर्ययौ । तस्यापि कर्षकस्य सप्तमेऽह्नि अमुत्र मृतनगरेश्वरजनवल्लभराजकुलकमायातामात्याधिवासितपञ्चदिव्याधिष्ठायिकदैवतैः पट्टाभिषेक: कृतः । तथापि तस्याज्ञाविधायी तादृशः कोऽपि न जातः । अन्यच्च प्रतिपक्षराजानस्तस्य पुरं वेष्टितवन्तो मिथश्च मन्त्रयित्वा निर्वास्यते कोऽयमुपविष्टो रङ्कोऽस्ति । एवं व्याकुलीभूते लोके चलितोडुमण्डलनभस्तलोपमे नगरे कल्पान्तकालविशालपवनो तनकचक्रसमुद्रोदरविवरभयङ्करे नगरलोके च इतश्वेतश्चाभ्रंलिहलहरिहेलाविदलितक्षतिद्रमिथोघर्षचूर्णीभवत्तिमिकुलसङ्कुलजलधिजलवैसंस्थल्योपमिते स विद्याचारणो मुनिः विद्यासागरनामानं राजानं वन्दापयितुमियाय । ववन्दे राजा च मुनिम् । ततः प्रोवाचाशी:पूर्वं स साधुः भो राजन् । मा भैषीः, तव सर्वं रम्यं भविष्यति । ज्ञातः सर्वोऽयं व्यतिकर: सर्वथा तेऽधुना स सहजसिद्धनामा देवः शरणं श्रेयस्कारि । इत्युदित्वा जगाम मुनिः । अत्रान्तरे रोदसी वानयन जनमुखारावः प्रोल्ललाव हा हे ति हा हेति किं देव ! भविष्यति ? । तत्रान्तरे नगरबुह(बहु)मध्यदेशभागस्थितात् साधनकूपाच्च तद्देवबिम्बमुद्गतं जलस्योपरि सपरिकरं गगनमलञ्चकार । महामहोत्सवोऽजनि । पुष्पवृष्टिर्नभस्तः पपात । देवदुन्दुभयः प्रणेदुः । दिव्यवाणी प्रससार । वर्धापितः क्षितिपतिः । ततः सपरिवारो राजा समेतस्तत्र । भूमौ लुलोठ। देवभक्तैरुत्थापितः । सर्वसमक्षं प्रणतवान् । हर्षोत्कर्षवशंवदः स्तुतिं चकारेति - किं पीयूषमयी किमुन्नतिमयी किं कल्पवल्लीमयी, किं सौभाग्यमयी किमु(म)द्भुतमयी किं ज्ञानलक्ष्मीमयी । किं वात्सल्यमयी किमुत्सवमयी किं वि[श्वसौख्यावनी ?] [दृष्ट्वे]त्थं विमृशन्ति ते सुकृतिनो मूर्ति जगत्पावनीम् ।। विरचित... प्रभावना । कृता पूजा जगदीशबिम्बे । ततश्च वीरकोटीकोट्यः सहुङ्कारनिर्घोषाः प्रादुरासन् । ततो वैरिणो भीता फुत्काराक्रान्ता अपि जजकारा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रान्तिजानिविषाः पन्नगा इत्र व्यपमदा उपदापूर्वं तं स्वामिनं शरणं ययुः । ये च न नमन्त्येनं नश्यन्ति चक्षुभ्यां न पश्यन्ति ते ततो देवगिरा प्रतिबुद्धा जाताः सेवकाः । तस्य नाम दत्तं देवादेशन देवैः मार्तण्ड इति । राजा प्रसिद्धि गतः । चैत्ये च देवं तं निवेश्य महाभक्त्या पूजयित्वा चाखण्डप्रभावश्चिरं राज्यं चकार : समरभयशान्तिकारी, मार्तण्डनृपेण पूजितो भक्त्या । श्रीस्तम्भनजिननाथस्तच्चरित नवमबन्धोऽयम् ।। १ ।। दुःकषायचतुरङ्गवाहिनी, प्रौढरागतृपकल्पितः कलिः । त्वत्रिशुद्धिकृतभक्तिशक्तिभिर्भासुरैर्यदि नरैः समाप्यते ॥ २ ॥ (प्रबन्धः १०) श्रीमरुतुङ्गसूरेर्मा, भूदुत्सूत्रपातकम् । मा भूदाशातनावार्ता, देवस्तम्भनवर्णने ।। १ ।। सौवीरदेशे वीतभये पत्तने श्रीवीरसेनो नाम राजा । वीरमती भार्याऽस्य च । तत्र श्रीनिवासनामा दरिद्री गोष्ठी घृतकूपं शिरसा वहन् सन्ध्याक्षणे पथि देवनिर्मितभवने लक्ष्मीकान्तनाम बिम्बं विलोक्य ननाम । पूजां कृत्वा निजकूपघृतेन स्वपटी विभिद्य दीपवति विधाय दीपं कृत्वा चाग्रे सुस्वाप(वाप) । तुष्टो देवेन्द्रः । तस्मै वरं दत्वा आदेशं कृतवान् - हे श्रेष्ठिन् ! जलधेस्तीरं याहि । तत्र गतस्त्वं मद्दत्तवरपरप्रा - ततः सोऽपि तथा चकार । इतश्चाऽक्षुब्धाब्धिकल्लोलहस्ताग्रनिषि(ब) ण्णा लक्ष्मीस्तं श्रेष्ठिनं रत्नाकरतीरस्थं समागत्य समालिलिङ्गभुजोपपीडम् । चिरविरहातुरा प्रेयसीव निजं प्रियं प्राप्य सपुलका सुप्तं समुत्थाप्य । द्वितीयस्यां वेलायां द्वितीयालोल कल्लोलाग्राधिरूढा हया गजा आगताः । तथैव तृतीयायां तृतीयोत्तङ्गप्रत्तरङ्गतरङ्गाग्रे रङ्गत्तररत्ननिकरोऽक्षयकोशनामा निधिश्च समागतः । देवा अपि खे स्व(सु)स्थितलवणाधिपप्रमुखाः सभक्तिकं तं स्तुवन्तः । श्रीनिवासस्य स्वपुरं समागतस्य सतः तत्पुरेशेन श्रीवीरसेनेन अपुत्रिणा स्वं राज्यं दत्वा व्रतं जगृहे। गगनवाद्यमानदेवदुन्दुभिक्रियमाणकुसुमवृष्टिनृत्यमानमधुकरीनामनाटक सहर्षगीयमानश्रीकान्तदेवप्रसादावदातपरम्पराप्रकटितसर्वराजमण्डलमहाचमत्काराकरस्य इहभवेऽपि लक्ष्मीकान्तदेवप्रसादन महाराजा(जो) जातः । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 धणओ धत्थियाणं, कामत्थीणं च सव्वकामकरो । सग्गापवग्गसंगमहेऊ जिणदेसिओ धम्मो || १ ।। श्रीनिवासप्रबन्धोऽयं, दशमः कार्मणं श्रियः । स्तम्भनाथचरित्रेऽस्मिन्, वाणीजाड्यविषामृते ।। २ ॥ (प्रबन्धः ११) लीलयाऽपि तव नाम नरा ये, गृह्णते नरकनाशकरस्य । तेभ्य एच नरकैरुचिता भीस्ते तु बिभ्यतु कथं नरकेभ्यः ॥ १ ॥ आजन्ममुद्रदारिद्र(य)समुद्रावर्तपातिनम् । स्तम्भनायक ! मां पाहि, कान्ततीर्थकरश्रियः ।। २ ।। दक्षिणस्यां दिशि मगधदेशे राजगृहे पुरे नरकान्तो नाम राजा । पूर्वकृतनिजपातकोदयेन सर्वराजकार्यमहोद्यतोऽपि मेदुररोगाद् अकिञ्चित्करो जातः । स चैकदा गङ्गायां स्नातुं गतः जलमानुषदम्पती वार्ता कुर्वन्तौ दृष्टवान् । शृणोति स्मेति च - 'कल्ये नन्दीश्वराष्टाह्निकामहं कृत्वाऽत्र विश्रान्ता देवा, जलक्रीडां कुर्वद्भिस्तैर्दैवैश्चान्योन्यं कथितं, नृपोऽसौ नगरेशो वैरिभिर्नगरान्निास्यते लग्न: पराभवपदं भविष्यति । परं हे प्रिये ! नगरेशस्य जयवादविधि निशि कथयिष्ये'। इति निशम्य राजा तत्रैव तथागत्य प्रच्छन्नं स्थित्वा ताभ्यां कथितं जयवादोपायं स(शु) श्रुवे । ततो राजा वटगह्वराद् विनिर्गत्य वटमूलाद् उत्खनित्वा पठितसिद्धां गगनविद्यां पत्रस्थां वाचयित्वा नन्दीश्वरयात्रिकदेवप्रदर्शितजयोपायं कर्तुं गगने चचाल । मलयाचले कङ्कोलीवने कुम्भोद्भवस्याश्रमे अग्निशृङ्गशिखरे सिन्दूरकुण्डान्तः सिद्धैरुपास्यमानं जयपतिनाम जिननाथबिम्बं प्रोत्पाट्य यावदायाति स्वपुरं तावत् तत्पुरं तस्य रिपुराजभिर्वेष्टितं सोऽद्राक्षीत् । पुरमध्ये बाह्ये च कल्पान्तभ्रान्त पाथोधरनिकररवप्रार्थ्यमानप्रताने निश्वाननिश्वाने जगतोऽपि कर्णानुदीर्णे ज्वरयति सति सर्वाङ्ग, जनस्य शब्दाद्वैतमिव यज्ञे अद्वैतवादिनां प्रमाणभाषायामिव । राज्ञाऽपि च स देवोऽन्तःपुर मुक्तः सिंहासने । स्वयं तस्यानुचरो जातः । भणितं चेति च "त्वं राजा हे प्रभो ! मेऽधुना।" अत्रान्तरे प्रतोली स्वयमुद्घटिता । दध्वान देवदुन्दुभिः खे । रिपुकटकं मूकं विकलाङ्गं जातं सत् तस्य राज्ञः पादयोर्निपत्य जीविताऽभयं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 प्राथितवान् । देवभक्त्या तद्दलं जीवन् मुकं अनुचरीभूतं पट्टेऽभिषिक्तः सर्वैः सम्भूय । जातो महाराजा श्रावकश्च । भुक्त्वा राज्यं मृतः स्वर्ग गतः । अद्भुतचरिते चरिते, स्तम्भनाथस्य दत्तजयवाद । नरकान्तनामनृपतेरेकादशमप्रबन्धोऽयम् ।। ***** (प्रबन्धः १२) द्रव्यभावतमसां विनाशनं, द्रव्यभावमहसां प्रकाशनम् । भक्तिभारनतपाकशासनं, तावकं शिरसि मेऽस्तु शासनम् || सा धन्य रसना नृणां, स्तौति या स्तम्भनेश्वरम् । सैव प्रभा रवेः श्लाघ्या. न्या पुष्णाति दिनश्रियम् ।। ।। नक्तमालदेशे श्रीमकुरनगरे श्रीभीमसेनो राजा । हेमासना कलत्रं च । तत्रान्यदा च श्रीबुद्धिसागरसूरिनामानो धर्मगुरवः ऐयरुः । साऽपि राजा वन्दित्वा तं गुरुं धर्म पप्रच्छ । अहं शत्रुञ्जये तीर्थयात्रां कतुं भगवन्नालं, अन्तरा राक्षसदेशमध्यागमनोपद्रवभयेन । तता क्षेमङ्करनामदेवप्रसादबलेन करिष्यसि त्वं तीर्थयात्रां भो राजन् ! । हे भगवनहं कथं तं देवं ज्ञास्यामि ? क्वास्ते स देवः? । राज्ञोक्तेरनन्तरं गुरुरुवाच 'मानुषोत्तरपर्वते सहस्रभुजविराजितया त्रिभुवनस्वामिनी नामदेव्या समुपास्यमानोऽस्ति । कालवशात् श्रीसङ्घकायोत्सर्गबलेन शासनदेवी त्वां तत्र नेष्यति । त्वयि तत्र स्थाने गते श्रीसङ्घस्य निद्रा समेष्यति । इदमभिज्ञानं कार्यसिद्धयै ज्ञातव्यम् । त्वमपि हे पृथ्वीपते ! तत्र स्थानके कृताष्टाह्निकोत्सवः समाराधनप्राप्तदेवप्रसादः प्राप्तवरः सम्पूर्ण मनोरथः तद्देववैयावृत्त्यकरदेवगण निर्मापितद्वादशयोजनप्रमाणप्रलम्बनवपृथुलजङ्गमसुवर्णवप्रमध्यगतः समेत्य स्वपुरे चतुर्विधेन श्रीसङ्घन समं सिद्धक्षेत्रमहातीर्थमहायात्रां महाभक्त्या महाद्रव्यव्ययेन निरन्तरविधीयमा[न]जिनशासनप्रभावनारञ्जितचतुर्विधदेवनिकायबलेन महामहोत्सवेन निरुपद्रवः अन्नपानीयतृणेन्धनादिना सुखी सन् व्याघुट्य स्वनगरमायास्यसि । त्रिभुवनजनकुतुकमिदं अदृष्टपूर्वं करिष्यसि त्वम् । तेनाऽपि भुजा सुगुरूपदशे तत्सर्वं तथा निर्ममे 1 इत्थं कृते श्रीजिनशासनप्रभावना भूतले उद्भताऽभवत् । मिथ्यात्वं सर्वत्राऽपि सम्यक्त्वसहस्रकिरणादयेन हिमवज्जगाल । कल्पद्रुमावतारतुल्येन Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मेण पापं दारिद्रमिव विद्राणं गङ्गाप्रवाहेणेव पङ्कसम्पर्क प्रयाति काऽत्र भ्रान्तिः विदुषां हृदयेषु । सुकृतोपार्जनया दुरितसन्ततिदूरे भवति घूमरीव दिनकरप्रभया । सोऽपि राजघस्तस्येव परमेश्वरस्यादेशेन जगन्मलं नाम पुत्रं पट्टेऽभिषिच्य तद्देवोपासनाप्रजापालनन्यायशिक्षासमादेशदानपूर्व जातवैराग्यरागः सर्वसङ्गविरतो गृहीतपञ्चमहाव्रतः शुक्लध्यानेन सकलकर्मक्षये जाते अन्तकृत्केवलज्ञानोत्पत्तिः द्वादशतया प्रबन्धः पूर्णोऽयं भीमसेनभूपस्य । स्तम्भनजिनपतिचरिते, वाग्जन्मविलासकल्पतरौ ॥ 26 ***** ( प्रबन्धः १३ ) सर्वमङ्गलमये त्वदागमे, सर्वविघ्नहरणे कृतात्मनाम् । नाथ ! दु:शकुनवृद्धिशृङ्खलाः कुर्वते किमु कुतीथिकोक्तयः ॥ १ ॥ " अक्षया प्रतिभातीव, वाणी स्तम्भनवर्णने । अयं देवः परं ब्रह्म प्रदत्ते यदुपासितः ॥ ( २ ) ॥ नर्मदापट्टदेशे शुभनिवेशे श्रीनन्दपुरनामपुरे चन्द्रकान्तापतिः चन्द्रचूडो राजा । तस्य एकविंशतिपूर्वजाः पापदिधव्यापादितमणिबन्धनामसिंहजीवेन प्राप्तव्यन्तरजन्मना मारिताः । अस्याऽपि चन्द्रचूडस्य तत्कुलोद्भवत्वात् स पापधिरसो महीयान् जागतिं । एकदा वनक्रीडां कुर्वन् आखेटकरसेन स राजा विन्ध्यगिरिगह्वरे तोरणमालनामपर्वतान्तरशिखरे आम्रागमे अखाते उदुम्बरनामसरसि नर्मदाजलापूर्णे साजण-गाजए "मानं उदुम्बरवृक्षद्रयं दृष्टवान् । मुनिं च जैनं सलीलं लोचनयुगलेाऽद्राक्षीत् निषेध पन्त्य विलाक्य चेतस्ततो मुनिं तं नत्वा पप्रच्छ-भगवन् ! भोः ! के भवन्तः ? किमत्रागताः ? को हेतुर्वाऽत्रागमने ? किमर्थं भूमिरेषा पदक्षुण्णा ? किं मीमांस्वत ? अन्यच्च उदुम्बरस्याऽधो भूमौ कस्य जीवस्य पदान्यमूर्ति निरीक्ष्यन्ते ? । ततः स सुनिराह कर्णाटदेशस्य विकटोत्कचनापगतः पुत्रोऽहं घटोत्कचनामा । मुनिदर्शनजातपूर्व भवसः कमनिदानस्मृतिसमुत्पन्नवैराग्यां विहाय तृणवत् स्त्रैणं कनकं कनकवत् त्यक्त्वा गृहं प्रेतगृहवद्विभाव्य समाश्रितश्रामण्यः शबरनाथनामदेवं प्रणन्तुमत्रागाम्ः तवेति प्रश्नोत्तरं जानीहि हे राजगजन् ! । ततो राजोवाच- हे मुने । किमिति न पश्येऽहं तां יד -- Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 प्रतिमाम् ? । गुरुणोक्तं ततः उदुम्बरवृक्षस्यान्तः । नृपः प्राह सविस्मयं भगवन भगवन् ! मां अनुगृहाण प्रसादीक्रियतां अनेनोदन्तेन । मुनिनोक्तम्-शृणु राजन् ! गुप्ताद् गुप्ततरं वचनमिदं पुरा शापप्रभावोपलब्धशबररूपेण महादेवेन पार्वतीप्रेरितेन शूकरवधार्थं वृक्षस्याऽस्य मूले शरश्चिक्षेप । शरस्तु तं न पस्पर्श । ईश्वरः क्षतव्रती जातः । तस्य मनसि च शान्तरसः सङ्क्रान्तः पूर्वमस्पृष्टोऽपि । ततः सोऽचिन्तयच्च नवीनं कुतुकमिदं प्रोल्लसति स्पृशास्म(स्पर्शाश्म)सम्पर्कादिवायसि कलधौतत्वं परिस्फो(पोस्फु)रीति । सत्यं मत्तस्याऽपि महिषस्य शिरसि भारत्या स्वकरे दत्ते चानाहतः सारस्वतोलासो वरीवर्ण्यते । तत् किं क्वापि देवादिदेवश्रीवीतरागप्रतिमा मादृशामविवेकिनां तारणी महानरकनिपातनिवारणी आसन्नैव सम्भाव्यते । यन्मम चित्ते हिंसारसनिष्ठुरेऽपि सकरुणा शान्ति(न्त)रसश्रीः सर्वाङ्गमनुसरीसरीति स्म ! तदुक्तेरन्त एव पुरः प्रादुरभूत् प्रभुप्रतिमा । प्रणता च ताभ्याम् । मुनिर्वक्ति पुन:भो राजन् ! तदा प्रभृति शबररूपधारिणा महेश्व[रेण स्थापितोऽयं देवोऽत्र कारणेनानेन च शबरनाथ नाम जा' (प्रबन्धः १४) तारका अपि गण्यन्ते, गण्यन्ते वाद्धिबिन्दवः । स्तम्भनेन्द्रगुणश्चैको, गण्यते नामरैरपि ।। तिलङ्गदेशे हंसपत्तने ढोरसमुद्रनामसरोवरशोभिते नरविभ्रमापतिः नरविभ्रमो नाम राजा । एकदा च राजपार्टी विनोदेन भ्रमन् वने तृषार्तो जातः । वैद्यैान्त्रिकैर्गणकैश्चोपचारविधिः कृतः, सर्वोऽपि विफलोऽजनि । नृपोऽपि वैकल्येन च एकाकी सन् गृहाद्विनिर्गत्य गङ्गातटे चिञ्चाद्वयान्तरे निषसाद । एतावत्यवसरे समकालमेव एकस्यां भुजङ्गमोऽपरस्यां चिञ्चायां भेको नि:ससार । ततस्तौ मिथ: सवैर जल्पतः स्म । भेकेनोक्तम्- भो भोः । कोऽप्यस्ति य एनं साधर्म मारयति? मारयित्वा चास्य शिरोमणि गृह्णाति ? । इत्युक्ते सक्रोधं रोषारुणलोचनः सर्पः प्राह-हं हो ! दर्दुर हत्वा अस्यैवाधनस्तनभूमिस्थं अक्षयं रत्ननिधि गृह्णाति यः स कोऽपि नास्ति ? किं दर्दुरस्यापि व्यापादने कस्याऽपि हत्या लगति ? । इत्युक्त्वा इन्द्रजालवत् तद्युगं विलीनं स्वयमेव । ततश्चैकतो राक्षसः अन्यतो राक्षसी गगने १. ४३ तम पत्र तास्त्यतः पाठचुटितः ।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 रणं कर्तुमुद्यतौ । स राजा तत्रासीनो विलोक्यति स्म । क्षणेन गगनात् तो दम्पती पतित्वा राज्ञोऽग्रे मृतौ । अत्रान्तरे विमानस्थो विद्याधरेश्वरोऽवोचत्.. भो राजन् ! दुर्मना इव किं लक्ष्यसे ? । भो महाराज ! जगामाऽदैवं तव, प्राप्तं त्वया सर्व समीहितं, ननाश विकलत्वं पूर्वभवश्रमणाभ्याख्यानदानफलम् । अन्यच्च गङ्गावेलाजलस्थाप्यमानदक्षिणमधुचिञ्चामूलाधस्थितपुरुषोत्तमनामबिम्बस्नात्रजलं पिब । तदाकर्ण्य राज्ञा तद्विद्याधरवचनं तथा चक्रे । तज्जलं देवद्रव्यमपि सत् "सव्वसमाहिवत्तीयागारेणं" इत्यागारपदबलेन "महत्तरागारेणं" च अस्यापि पदस्य बलेन सर्वसङ्केन मिलित्वा कृतानुग्रह: पपौ देवस्त्रात्रमपि । ततो वाक्पटुताऽभवत्। जज्ञे कल्याणम् । सर्वदेशे महोत्सवः प्रसस्त्रे । जानपदिकाः सोत्साहाः कृतस्नाना सपुष्पशिरसः कण्ठदामाभिरामा सनन्दनाः सचन्दनाः गतरोगाः कृतभोगाः परिधृतविचित्राम्बराः प्रतिगृहप्रतिपाटकप्रतिरथ्यामुखप्रतिचत्वरत्रिकतूर्या - स्फालननिनादप्रतिनिनदिताम्बराः सगीताः स्फीताः सनृत्यारम्भां वीतशङ्का विगतातङ्का लक्ष्मीवन्तः सपक्षाः दक्षा अविषादाः प्राप्तराजप्रसादा; घनदानाः स्थूलहस्ता जबादिजलहरा बीटिकावज्राकराः सूत्कटीसमुद्रा वैरिवैरकरणवाराहाः प्रतिष्ठानिष्ठा वरिष्ठाः पण्डिताः अखण्डिताः बद्धनिजनिजजातिटोला विकसत्कपोला ताम्बलोत्फुल्लगल्लमुखारविन्दाः सानन्दाः गजगतयः सुमतयः कृतमनोवाञ्छितभोजना याचकजनदीयमानसमीहाधिकधनभरविगलितजिनाः सन्मार्जितनगररथ्यासञ्चाराः पवित्राचारा मार्गणप्रवेशबोहनिका निर्गमशम्बलविरदाः सर्वाङ्गविरचिताभरणाः सर्वशरणाः गृहस्थाः स्वस्था अदुःस्थाः शान्ता लक्ष्मीकान्ता उदाराः परोपकारसाराः सबलाः निजनिजव्यवसायप्राप्तफलाः सर्वतोऽपि खेलन्ति स्म । अन्यतश्च राजन्यका राजकुलाश्च सामन्ता मण्डलिकाः शल्यहस्ता दण्डनायका दलपतयश्चमूसाधनिका राजपुत्राः सेनान्यः पदातयश्च श्रीकरणा व्ययकरणा मध्यकरणा अङ्गलेखकाः सूणलेखका मन्त्रिणः अधिकारिणः वसिष्ठाः श्रेष्ठिनः नायका महत्तरा महत्तमा अन्येऽपि च सामान्यलोकाः चत्वारो वर्णाः षडपि दर्शनानि चतुरशीतिमहाजना अष्टदशप्रकृतयः षट्त्रिशद् राजकुल्यः षट्त्रिंशत् प्रवण्यः षण्णवतिराजरीतिका षण्णवतिपाखण्डानि विंशत्यधिकसप्तशतमतानि च स्वेच्छया राजप्रसादनिरर्गलं रमन्ति स्म । गायनानि स्वरशुद्धिमाधुर्यरसेन विश्वावसुं हसन्ति स्म । नर्तकीगणा देवनर्तकी रम्भाप्रमुखी स्वतालशुद्धिसमनखादिनर्तनसूक्ष्मशुद्धिवैद'ध्येन तर्कयन्ति स्म । वादित्रोपाध्यायाः शिववाडशक्तिवाडहस्तवाणिप्रमुखाक्षरशुद्धि Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 ध्वनिमानज्ञानाविर्भावेन इन्द्रमार्दङ्गिकान् मामामूमूमुख्यान् विडम्बयन्ति स्म । इत्थमष्टाह्निकं वर्धापनं जातं देशे राजकुले च । ततो राजा तं देवं महाद्रव्यव्ययनिर्मिते चैत्ये निवेश्य षण्मासीं यावत् महामहोत्सवं चकार । एवं श्रावकत्वं शुद्धं पालयित्वा सुगुरूपदेशेन प्रान्ते च व्रतं गृहीत्वा पुनर्गृहीतसंस्तारकदीक्षाविहितचतुः शरणगमनः कृतदुःकृतगर्हः विहितसुकृतानुमादनः विशुद्धभूमण्डलबद्धपर्यङ्कासनः विहितदेववन्दनः " सव्वलोए अरिहंतचेईयाणं" इत्यादि दण्डकोच्चारणपूर्व सर्वजीवान् प्रति मिथ्यादुः कृतं दत्वा क्षमयामि सर्वान् सत्त्वान्, सर्वे क्षाम्यन्तु ते मयि । मैत्रयस्ति तेषु सर्वेषु त्वदेकशरणस्य मे ॥ १ ॥ इति क्षामणकपूर्व योगाभ्यासेन समावर्जितप्राणायामपरिस्फन्दो नाशा(सा)ग्रन्यस्तदृग्द्वन्द्वो श्रीनिरञ्जनाप्तोपदेशाभ्यस्तपरब्रह्ममर्मोपचीयमानैकान्तान्तः करणशरणः इति पपाठ पाठम् - सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । मध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ! | एकेन्द्रियाद्या यदि देव ! देहिनः, प्रमादिन सञ्चरता यतस्ततः । क्षता विभिन्ना मलिता निपीडितास्तदस्तु मिथ्यादुरनुष्ठितं प्रभो ! ॥ २ ॥ अतिक्रमं यं विमतिर्व्यतिक्रमं जिनातिचारं स्वचरित्रकर्मणः । व्यधामनाचारमपि प्रमादतः, प्रतिक्रमन्तस्य करोमि शुद्धये ॥ ३ ॥ J इत्यादि पण्डितमरणचेष्टया प्रतलीकुर्वन् कर्माणि क्षपक श्रेणीं प्रविष्टः शुक्लध्यानान्त्यभेदयुगलीं विहितघातिकर्मक्षयो विश्रम्य शेषे समयद्वये निद्राद्या प्रकृती: क्षयं नीत्वा केवली भूतः सन् पूर्वकोट्यायुः प्रमितं च त्रयोदशमगुणस्थानं सयोगिनाम मुक्त्वा अपूर्वकरणप्रयोगेण चरमं गुणस्थानं अयोगिनाम स्पृष्ट्वा लघुपञ्चाक्षरप्रमाणं मुक्तिं गतः । एवं चोभयथा महामोहव्यामोहसन्दोहहन्ताऽयं परमेश्वरश्रीपार्श्वनाथनामा | नरवर्ममहीपालप्रबन्धोऽयं समर्थितः । चतुर्दशतया श्रीमत्स्तम्भेन्द्रचरिते हि ॥ १ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ( प्रबन्धः १५ ) आदिष्टं मद्गुरुणा, मत्पुरतो यद् यथैव चरितमिदम् । श्रीमेरुतुङ्गसूरिस्तथैव तल्लिखति न परवचः ॥ १ ॥ गौडदेशे कोलापुरे नारायणो राजा । नरदेवाऽस्य च राज्ञी । राजा स्वभावादेव दर्शनभक्तः । एकदा च नास्तिकेनैकेन भूताकर्षणपूर्वं भूताकर्षणविद्या प्रदत्ता च ( चु?) कोपाराधनवेलायां ग्रथिलो जातः । मध्यार्धपतितगृहगो धावत् निमीलिताक्षः उभयोष्ठाग्रनिपीडिताग्ररसनस्तिष्ठति । स च एकदा निर्ययौ । अवन्त्यामगच्छत् । गजेन्द्रपदनामस्मशाने शिप्रानदीतीरे सिद्धवटसमीपे रामसागरनामानमेकं मुनिं दृष्टवान् । प्रणनाम स च तं मुनिम् । तस्यापि च मुनेर्ज्ञानमुत्पादि तदैव निशि । तस्य विकलस्य राज्ञः पश्यत एव तत्र सुराः केवलज्ञानोत्सवार्थमीयुः । ततौ देवैः स राजा मुनिसमक्षं पृष्टः स्ववृत्तान्तमाचख्यौ । मुनिसेवकोऽयं चिरन्तन इति विमृश्य साधर्मिकबुद्ध्या मण्डपदुर्गे गच्छद्भिः सद्भिः स राजा सार्धं नीतः । तत्र तु मण्डकेश्वरादिदेवगणैः पूज्यमानं भद्रगर्तोपरि मणिकर्णकशृङ्गे कुण्डपञ्चकसमीपे सिद्धायतनस्थं निरञ्जननामदेवं नयनयोरतिथीचकार । देवा अपि शतसहस्रलक्ष कोटिकोटीकोटिबिन्दुनामकुण्डेभ्यो जलं गृहीत्वा ते देवं असिस्त्रपन् । प्रत्यक्षा षडपि ऋतवः स्वैः स्वैः कुसुमैस्तं देवमानर्चुः । इत्थं कृत्वा जग्मुस्ते प्रभावनाम् । स राजा वैकल्यात् तथैव तस्थौ षण्मासान् यावत् कृतोपवासः दत्तदेवास्यदृष्टिः । मासषट्कान्ते तुष्टो देवश्च षट्पञ्चाशत्कोटिफणिफणावलीतलस्पर्शमानपदकमलतलः नवकुलनागनाथसनाथोभयपार्श्वः मिलदलिकज्जलगवलकालकालाम्बुदनिर्मलः कुवलयतालतमालबालकुन्तलसमपुद्गलः । ततस्तद्देवेन तस्य पुरो सकुरणां (सकरुणां ) दृशं विधाय रत्नत्रयं व्याख्यातम् । स राजा च सज्जो जातः । महामाया जगाल । देवसेवाकारिभिरमरैरुत्पाट्य स राजा राज्ये नीतः । पट्टेऽभिषिक्तः । दिव्यं अस्त्रः औषधीर्दिव्याः चिन्तामणि च देवास्तस्मै तुष्टा ददुः । तेन तद्विम्बं स्वपुरे समानिन्ये तद्देवप्रभावेण स त्रिखण्डाधिपतिर्जज्ञे । नियदव्त्रमडव्वजिणंदभवणजिणबिंबवरपय(इ) ट्ठासु । वियर पसत्पुत्थयसुतित्थतित्थयरजत्तासु ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 इति सिद्धान्तप्रणीतेषु सप्तसु क्षेत्रेषु वित्तव्ययं निर्ममे । स महीपालः दुष्टान् दण्डयन् साधून् प्रतिपालयन् कोशवृद्धि न्यायेन कुर्वन् परोपकारेण च यथायोग्यं सर्वजीवान् प्रति उपकुर्वन् निजं देशं सर्वथा विविधोपद्रवेभ्यां रक्षन् अनय (या) राजरीत्या राज्यं कृत्वा राज्यं नरकान्तं विमुच्य प्रान्ते कृतसंयमशरणो विहितमरण: सञ्जातः स्वर्गी | नारायणस्य क्ष (क्षि) तिपस्य जज्ञे, रसालयः पञ्चदशः प्रबन्धः । अस्मिज्जिनस्तम्भपतेश्चरित्रे प्रभावरत्नोद्गमरोहणस्य ॥ ( प्रबन्ध : १६ ) अवन्ध्यं तद्धाम त्वमसि भगवन् ! यत्र न नमो (तमो ?) न चालोकः कश्चित् फलमिह न जाने स्तुतिगिराम् । तथापि स्तोतुं मां त्वरयति मुहुर्भक्तिजडता जडः किं कुर्वाणः फलवदफलं वा कलयति ॥ १ ॥ अयोनिजेन येनेदं सर्वं सृष्टं चराचरम् । सर्वशक्तिपरीताय तस्मै विश्वात्मने नमः || 11 पञ्चालदेशे काम्पिल्यपुरे ब्रह्मबन्धुनाम राजा । तत्कलत्रं तारादेवी क्षायिकसम्यक्त्वधारणी महाश्रमणोपासिका शीलवती गुणवती रूपवती दयावती सुदती चतुःषष्टियुवतिजनजन्मविज्ञानवेदिनी । अथ भीष्मे ग्रीष्मे व्यतीते समेते च वर्षाकाले तत्र पुरे एकः प्रभाचन्द्रनामा मुनिर्नद्या एव मध्ये कायोत्सर्गेण तस्थौ 1 प्रावृषि चाखिल भूतलबुहल (बहुल) जलविलसितायां सा नदी न पपाट । तस्यां राजगर्तानामध्यनद्यां(?) नीरं समापतत् । देव्या जिनशासनसम्बन्धिन्या निषिद्धं मनेम्तस्योपसर्गसम्भवत्वात् । देवता च तन्नगरोपरि स्फटिकरत्नशिलां निर्मितवती I तस्यां तारकादि सर्वं प्रत्यक्षमेव विलोक्यते । नगरोपरि पतितं जलं वप्रबाह्ये पतति तया रत्नदृषदाच्छन्नरूपिण्या । अन्यच्च रासभस्योपमितोऽयं तन्निवासी निष्कारणवैरी अपशब्दकुक्षिम्भरिः तदुद्रिरणशीलः अश्लीलभाषी अनाथविद्याविनोदो जिनदर्शनदर्शनसमुत्पन्नमत्सरभरो लोकोऽनेकानुपसर्गांश्चकार तस्य नद्यां स्थितस्य प्रभाचन्द्रनाममुनेः । ततो निरङ्कुशैः पापभिर्लोकै " नायं तपस्वी किन्तु कौटिल्यकलापात्रं Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाम्भिक एष कौतस्त्य" इति प्रघोषणां कृत्वा समकालमेव एकलोष्टवधः कृतः स मुनिः । पाणच्चए वि पावं, अवि जे एगिदियस्स निच्छंति । ते कह जई अपावा, पावाई करंति अन्नस्स ।। १ ।। जिणपहअपंडियाणं, पाणहराणंपि पहरमाणाणं । न करंति य पावाइ, पावस्स फलं वियाणंता ।। इति सर्वविरतिप्रत्याख्यानस्य तत्त्वमुष्टिमाकलय्य सर्वथा कर्मबाहल्यात् तत्परीषहोपसर्गवेदनासमुद्धातं नितान्तमनुभूय पण्डितमरणविधीन् सर्वान् स्पृष्टवा च शैलेशी प्रतिपद्य लेश्यां गतकर्मा जातः, सिद्धिं गतः, लोकमस्तकाग्रस्थः सिद्धोऽभवत् । धर्मास्तिकायबलेन गतिपूर्वप्रयोगेणापि च कर्मरहितोऽपि आत्मा सप्तरज्जुप्रमाणं लोकाकाशमुत्पतति इत्यागममर्म । अपि च स मुनिर्जानपदिकैस्तथा वध्यमानो राज्ञा न निषिद्धः । राज्ञी च पश्चात्तापं ययौ । यतो वारिदो नाश्वासयति वसुधां स्वाम्बुना यदा तदा लोकस्य कां प्रीति जनयति विद्युत् स्वेन स्फुरणेन । ततश्चुकोप धर्मदेवी "ववर्ष महाजल !" । ततो मेघवृष्ट्या प्लावितं तन्नगरं सर्वम् । राज्ञी च स्वगृहाने वटमारुरोह । "नमो अरिहंताणं" इत्युक्त्वा शीलवत्यास्तस्याः पुण्यातिशयेन सफलसर्वधर्मायाः काबेरीनर्मदासङ्गमे कपिलानामनद्याश्च तटे स वट: स्थितः । तदादि स तत्रस्थो वट: प्रसिद्धिमगमत् । __अथ तारादेव्या स्वप्नादेशप्रमाणेन तस्यैव वटस्याधस्तात् आदिरूपनाम देवबिम्बं खनाप्य बिम्बं मण्डापितं स्वनाम्ना ताराविहारश्च कारितः । स्वनाम्ना तारापुरं च । खन्यकर्मणि प्रारब्धे रत्ननिधिरक्षयश्च प्राप्तः । देवस्याग्रे स्वमूर्तिः कारिता । तारानाथनाम्ना स देवाधिदेवो जातः । द्रव्यव्ययेन शासनप्रभावना तारया चक्रे । काले गच्छति सा देवी तारामूर्तिस्तारादेवी जाता । बौद्धमते साऽद्यापि सर्वार्थकामसिद्धिदा बौद्धदर्शनाधिष्ठायिका प्रसिद्धा । "ध्यात्वा भक्तिजुषस्तरन्ति विपदस्तारां तु तोयप्लवे ॥" इत्याम्नायप्रमाणात् । तारादेव्यपि व्रतं गृहीत्वा मुक्तिं गता । चित्रे चरित्रेऽतिशयैः पवित्रे, स्तम्भेशितुः सर्वसुखङ्करस्य । ताराप्रबन्धः खलु षोडशोऽयं, श्रीमेरुतुङ्गण मुदा प्रबद्धः ।। १ ।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 ( प्रबन्धः १७ ) विश्वरूपकृतविश्व ! कियत् ते, वैभवाद्भुतमणौ हृदि कुव । हेम नह्यति कियन्त्रजचीरे, काञ्चनाद्रिमधिगत्य दरिद्रः || १ || श्रुत्वा केऽपि हसिष्यन्ति प्रबन्धांस्तलिनाशया । वजिष्यन्ति मुदं चान्ये, सूरयो गुणभूरयः || || हस्तिपुरे हरिश्चन्द्रो राजा रात्रौ निद्रां गतः स्वप्नं ददर्श " कोऽपि महादेवता श्वेतवामाः सु( स ) प्रसादं जगादेति - हे राजन् ! प्रभाते तव वाह्यालीं गतस्य कोऽपि पुमान्नेत्रातिथिर्भवति तेन साकं मैत्र्यं जागर्यं भवता " । स्वप्नान्ते च गतनिद्रः प्रातरुत्थितः श्रुतबन्दिजनमाङ्गलिककलकलः मङ्गलपाठकाहमहमिकापठ्यमानबिरुद श्रेणीनि श्रेणीसमधरोहितकीर्तिनटीपराक्रमनट-तद्रूपार्धनारीनरेश्वरनाटकरञ्जितचमत्कृतत्रिभुवनजनः कृतदेवगुरुस्मरण: क्लि (क्लू) - सपञ्चपरमेष्ठिपञ्चपदीच्चरण: दिनोदयसार्धसमारब्धकनकवितरणः प्रकटित-षट्त्रिंशद्दण्डायुधपराक्रमः परुली - भूमण्डलान्तरालानेकशैक्षकोपर्नामतराजन्य कुमारप्रदर्शितयुद्धाङ्गणरङ्गतरङ्गपराहतिस्वाङ्गरक्षाद्व्याश्रयकथाव्यवहारविचार: स्वेदबिन्दकितगोधिरधीरस्त्रा (वा) स: ( ? ) सञ्जात-सर्वाङ्गप्रयासः कृतदन्तपावनः विलोकितदर्पणवदनः किङ्करदूरीकृतपरिग्रहः जवनिकान्तरितः त्यक्तचरणः नमदत्यक्तचरणः परिधृतजलार्द्रः चतुर्विधविश्रामणाविदग्धजनविहितमर्दनः प्राक्कुरङ्ग मदमीलितमौलिः यक्षकर्दममृदून्मृदिताङ्गोऽङ्गनाभिराप्लवनेच्छुर्गन्धवारिभिरभिषिक्तः राजा । ततो गन्धकाषायत्राससा शोषितसर्वाङ्गजलबिन्दुवृन्दः समाश्रितारक्ताम्बरखेषधरः कृतकनकमणिमौक्तिकाभरणशृङ्गारः कृतदेवाधिदेवपूजनः विहितोत्तरासङ्गः प्रमदोत्तरङ्गः प्रदत्तदानीयजनदानवितानः एवं प्राभातिककृतकृत्यः देवगृहात् समास्वादित ससाक्षिकताम्बूलः समाश्रितसर्वावसरः प्रपञ्चितपञ्चाननासनासनः शिर उपरि धृतश्वेतातपत्रः सकादर्श सदृशवीज्यमानो भयपक्षचामरः सनान्दीनिर्घोष जातनीराजनाविधिः वामाङ्गविलसितषाड्गुण्यपुस्तकः लोचनाग्रजाग्रत्सकल धर्मशास्त्रः नीतिग्रन्थसनाथदक्षिणाङभागः विविधविदेशागत प्रतीपभूपालप्रधानजनक्रियमाणोपदाविचित्रीयमाणसभ्यहृदयः सभाभर्ता पुरोऽभवत् नानास्फीतसङ्गीतकविलसद्रससमाप्तसकलदुर्दशादुःखसमुदयः क्षितिपाल इच्छया काले लोकं विसृज्य प्रतीहारमुखेन पल्लययनिकैर्हयमानीयाश्ववारैरश्ववारतां काराप्य वासव इवोच्चैः श्रवसं स्वयं Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 तुरगमारुरोह पश्चात् । अथ स राजा एकं नृपं तृषार्त भूपतितं दृष्ट्वा समीपस्थस पल्लययनाश्वं च स्वभावोपकृतिबुद्ध्या जलेन छायया वातव्यजनादिना सज्जीकृत्य स्वगृहं नीत्वा मैत्रीं चकार । तावत्यन्तरे समेतं तस्य सैन्यम् । विराटदेशाधिपोऽयं जने विश्रुतं (तः ) स प्रद्युम्नो नाम राजा । विराटेश्वर ( : ) स्वगृहं प्रति ययौ । महोपरोधेन हरिचन्द्रं विसर्ज्येति चोक्त्वा राजन् ! सखे ! हरिश्चन्द्र ! तत्रानृणी भवितुं नास्म्यलम् । परं अस्पद्देशं झाडमण्डलमध्ये रत्नापुरभूमण्डलबद्धगन्धमादनगिरौ गजकुण्डसिद्धायतने सर्वार्थसिद्धिनामानं देवं वन्दापयामि त्वं यदि एष्यसि । तथैव चक्रे राजा । ववन्दे च तं देवम् । तत्र स षण्मासां स्तस्थौ नित्यकृतलक्षव्ययधनपूजनः । प्रसन्नो देवः । स वरं ददौ " यत्ते समीहितं तदास्ये तुभ्यम्" । राजोवाच नाथ ! सत्यं में हितं ममान्त: करणात् प्राणान्तेऽपि नायातु । तत् सत्यं इति वरं प्राप्य स्वं गृहे गत्वा चिरं चिक्रीड । अपि च स एकदा राजा * नृपचर्यया वने गतः विपरीतशिक्षिताश्वेन वने क्षिप्तो भूमौ पारापतपल्लीसमीपे चौरवटे । तत्र च रत्ननिधानं एकं कूपं ददर्श । स च राजा परिभ्रमन् एतावति क्षणे चौरपदप्रमाणेन तत्र वाहरा समेता । “चौरोऽयं " भणित्वा स राजा तत्रस्थो बद्धः सज्जनपुरेशस्य नरदेवनाम्नः पदमूले क्षिप्तः । ततः स राजा नरदेवेन पृष्टः किमपि नोत्तरं ददौ । राज्ञा खेदं गतेन चारक्षकपार्श्वत् सूलायां प्रोतव्योऽयं वधार्थमित्यादिष्टः । स राजा हरिश्चन्द्रो न म्रियते केनाप्युपायेन । तथाकृतेऽपि तमेकं देव * ( प्रबन्धः १८ ) मं पूजानन्तरं देववाणी जाता - भो नृप ! शृणु । असौ मन्त्रिसूः परभवे भूनागमेकमवधत् दण्डाग्रेण क्रीडया । तत्पातकेन मारिनामा कसरोगः सञ्जातः । ततो राज्ञोक्तं - हे जिनेन्द्र ! अद्य प्रभृति मया प्राणिप्राणातिपातो न कार्यः । विशेषेण चाऽनाथानां कृते मया स्वप्राणा अपि दातव्या इति व्रतं मे । इति स्तुत्वा जगाम राजा देवालयात् स्वगृहं । एकदा च गु ( ग ) रुडचु(च) ञ्झुपुत्रोट्यमानं वध्यशिलायां यमदंष्ट्राभिधानायां पातितं पातालदाकृष्य स गच्छन् राजऽपश्यत् नागेन्द्रम् । राज्ञाऽपि च स्वशरीरं मांसपणं कृत्वा स नागनाथो मोचितः । दिव्यवाण्या स्तुतिर्जाता १. ५६ तमं पत्रं नास्ति अतः पाठः खण्डितः || Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्य जीमूतवाहनस्य परप्राणैर्निजप्राणान्, सर्वे रक्षन्ति जन्तवः । निजप्राणैः परप्राणानेको जीमूतवाहनः ।। १ ।। देवाः स्वयम्भूनामदेवस्य भक्तास्तत्र प्रकटीबभूवुः । राज्ञो मांगलिकानि विदधुः । अष्टादशप्रबन्धोऽयं, चरिते स्तम्भनप्रभोः । जीमूतवाहनकथा, कथिता मेरुसूरिणा ।। (प्रबन्धः १९) पुराणानि पुराणानि, तृणानीव यदग्रतः । एक: स जीयात् सिद्धान्त, एकैकाक्षरमुक्तिदः ॥ १ ॥ दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो, नरके वा नरकात(न्त)कप्रकामम् ॥ अवधीरितशारदारविन्दौ, चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि ।। वाणारसे देशे वाराणस्यां नगर्यां कपिलब्राह्मणेनाश्वमेधश्चके । सोऽश्वो मृत्वा गौर्जातः । स द्विजोऽप्यन्तजोऽजनि कालाभिधानः । तेन कालाभिधानेन जनङ्गमेन सा घोटकजीवगौः कम्बिता । दैवयोगेन स चण्डालस्तन्मांसादनात् विभावर्यां ममार | शुभमनुष्यानुपुर्वीसमुदयेन लेश्यावशात् समुपचितमनुष्यगतिः सहजसञ्जातकर्मनिर्जराबलात् बीजउरदेशे महन्तकपुरे कालसेनो नाम राजा जातः । गोजीवोऽपि तस्यैव राज्ञो महादेवनामा मन्त्री जातः । परमन्योन्यं महाविरोधेन राज्यकर्माणि कुरुतस्तौ । एकदा च राज्ञा केनापि छलेन धृतः स मन्त्री सूल्यां दापितो मृतः शुभभावाद्वयन्तरो जातः । प्रस्तावं प्राप्य स्वं वैरं विधातुं लग्नः स पातकी व्यन्तरापसद: खादयितुं लोकान् । ततो देशे डिण्डिमो दापितो राज्ञा -यो जानाति मान्त्रिको मन्त्रवादं विधातुं एनं स व्यन्तरं वशीकरोतु । इत्यर्थे मदीयादेशोऽस्ति । ततो मण्डलमुद्दृत्य स बलादाकृष्टः नस्तितवृष इवाययौ । मान्त्रिकैश्च छलेनाक्रम्य वाक्त्रितयेन बद्धः नित्यं मनुष्यमेकं तुभ्यं देयं इति पणे स्थापितः । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थं दिनेषु गच्छत्सु सर्वेश्वरनामा सूरिवधिज्ञानी तत्रागतः । राजापि च तं वनपालपर्धावनिकाद्वारेण तत्र समवसृतं ज्ञात्वा समेत्य च नत्वा च पप्रच्छ तर तद्व्यन्तरमारिकारणम् । गुरुणोक्तं तत्सर्वं पूर्वभववक्तव्यं, कथान्ते च सोऽप्यागतः । तत्रोपविष्टयोरुभयोमिथ्यादुःकृतं जातम् । गुरुदृष्ट्या क्षमामृतवर्षिण्या तयोः कोपप्रलयोऽभवत् । अत्रान्तरे तस्य सूरेरपि केवलज्ञानं प्रादुरास सकल - घातिकर्मक्षयात् । ततो देवैः केवलमहोत्सवश्चके । तत: सर्वप्रत्यक्षं तेन भूतानन्दनाम्ना व्यन्तरेण पृष्टं गुरुसमीपे, कथमहं नि:पापो भवेयम् ? । गुरुरपि चाह- अविरतिगुणस्थानक्यपि भवान् सम्यग्दष्टिर्भवतु । सर्वपापापहारनामानं देवं आनीय स्थापयित्वाऽत्र नगरे समाराधय पूजया । तेन चोक्तम् - वास्ते तद्देवबिम्बम् ? । महाकुरलदेशे मानससर:समीपे कालकूटगिरौ मदनोन्मादकुण्डतीरस्थस्याशोकवृक्षस्याधः । पुनस्तब्दिम्बं कामकुञ्जरनाम्ना कामकेलिदुर्ललितेन ग्रस्तं देवेनाऽस्ति । अन्यच्च सोऽपि कामकुञ्जरनामा देवो विहितपरदारास्वीकारविकाराद हतौजा बाहुबलिनामदेवेन तदपहतस्त्रीपतिना स्व(श्व)स्तनदिने प्रभाते 'युद्धं देहि मे रे पाप!' इत्युक्तः स्कन्धलगुडाहतो लुलितदृष्टिगतिस्खलितो भविष्यति । तस्मिन्नवसरे हे भूतानन्द ! व्यन्तरेश्वर ! तत्र गत्वा बुद्धिसूत्रेणैव तद्विम्बमत्रानय, श्री जिनशासनप्रभावनां विरचय । एतन्निशम्य तेन तत्कर्म तथा कृतं बिम्बमुत्पाट्यानीतं पादुकायुगं अग्रस्थं तत्रैव स्थाने तस्थौ । अद्यापि तत्र देशे सर्वपापहरपादुकायुगं सर्वलोकदैवतं प्रसिद्ध अस्ति । राज्ञाऽपि च श्रावकत्वं प्रपेदे । व्यन्तरस्तु राज्ञः सखा जातः । राज्ये(ज्यं) कुर्वन् काले मृत्वा दिवं ययौ । एष कृष्णमहीपालप्रबन्धः कथितो मया । एकोनविंशतिमितः, चरिते स्तम्भनप्रभोः ।। (प्रबन्धः २०) विराजन्ते न शास्त्राणि, सत्तत्त्वार्थोज्झितानि च । अजलानि सरांसीवाऽजीवानीव वपूंष्यपि ॥ १ ॥ मालवदेशे अवन्त्यां त्रिविक्रमो राजा । रत्नादेवी प्रिया । तस्य पुत्रः शार्दूलनामा सर्वव्यसनाकरो जातः । राज्ञा निर्वासितः स्वदेशात्स पुत्रः । रुलन गजपुरे स गतः । तत्र द्यूतादिसप्तकुत्र्यसनकोटिभिः कदर्थ्यमानो लब्धव्यसनाकरा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 I परनामा निर्गत्य गतां देशान्तरं अन्यत् । ततो मलयाचलं प्राप्तः तत्र परिभ्रमन् हंसं सरोऽपश्यत् । जलं पीत्वा पालिविश्रान्तः अकस्मादागतं तत्र कुरंङ्गीद्वयं शृङ्गाभ्यां तं घ्नतः । तेनाप्युक्तं यदीत्थं रमणीद्वयं मदङ्गं स्तनाभ्यां स्पृशति तदा तत्सुखाकरोति वचनान्ते तदिन्द्रजालवद् विलीनम् । ततः प्रोत्थाय लग्नोऽग्रे गन्तुम् । विवरं विलोक्य प्रविष्टः । ततोऽग्रे चलितो युवतीद्वयं शिरो धुतिकारकं स्तनाभ्यां हन्तुं लग्नं तं प्रति । कथितमिति च तेन युवतियुगलेन " भो व्यसनाकर ! यत् प्रार्थितं त्वया क्षणार्धात् पूर्व तल्लब्धम् । ततः स जगाम शीघ्रपदम् । तथा क्रीडाकदर्थितोऽग्रे अजगिरिणाऽत्तुमारब्धः नंष्ट्वा तरुमधिरुढः । पुनरुत्तीर्य गन्तुम् प्रवृत्तो हस्तिना - ऽऽक्रान्तः । हस्त्यपि च पुरः समुत्थित: (त) सिंहभयात् त्रस्तः । सिंहोऽपि च तमग्रे दण्डवत् भूपतितं विलोक्यं धूर्ततया च "मां खाद मातुल हे !" इति भणन्तं शिरसा प्रणमन्तं च 'एककवलमात्रमसि मे तव घाते में पराक्रमः समरसण्टङ्ककोटिटीकां नाटीकते' । अन्यच्च , उत्कटकरिकटिकटस्फटपाटनसुपुटकोटिभिः कुटिलैः । खेलेऽपि न खलु नखरैः उल्लिखति हरिः खुरैराखुम् ॥ १ ॥ अपि च सिंहः करोति विक्रममलिकुलझङ्कारसूचिते करिणि । न पुनर्नखमुखविल (लि) खितभूतलविवरस्थितेनकुले ॥ ततो राजकुमारो गिरिशिखरं गतः । राहुमुखमुक्तो दिनपतिरिव उदयाचलचूलावलम्बी तत्रस्थः किञ्चिन्मनुष्यादिकं न पश्यति यावत्, तावद् गिरिपातेच्छुर्जातः । निषिध्दस्तु चारुदत्तनाम्ना मुनिना गह्वरस्थेन वास्त्रयं "मा पतेति" । ततो भ्रान्त्वा विलोकितो वन्दितश्च सः । देशना कृता तस्याग्रे । आलापः सञ्जातः । मिथो धर्मगोष्ठीरसः प्रवृत्तः । “भगवन् ! कस्माद्रक्षितोऽहं मरणं कुर्वन् ? किं कोऽपि दास्यति मे राज्यम् ?" । मुनिनोक्तम् – “काञ्चनतारणनाम चैत्यै पारगतेश्वरं पथाऽनेन गत्वा समाराधय" । तुष्टो देवः सप्तोपवासैः । तद्देवभक्तैरुत्पाट्य सुप्तः सन् निशि नीतोऽवन्त्याम् । पितरि रात्रिमृते प्रगे पट्टेऽभिषिक्तः । काले जातो महाविक्रमी श्रावकश्च गृहीतव्रतो मृतश्च माहेन्द्रे देवो जातः । नरशार्दूलनाम दत्तं देवैस्तस्य राज्यं कुर्वतः । - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरशार्दूलमहीपप्रबन्ध एष प्रभावपरिपूर्णे । श्रीमेरुतुङ्गलिखिते, स्तम्भचरित्रे द्विदशकम(मि)तः ।। १ ।। (प्रबन्ध- २१) धमांगमार्थयुक्तेभ्य सज्जनेभ्यः सदा नमः । नमो मे दुर्जनेभ्योऽपि, यत्प्रसादाद्विचक्षणः ॥ १ ॥ कास्मीरदेशे उत्पलभट्टानगरे नरवाहनो नाम विशांपतिरभूत् । तस्यान्तःपुरीमल्लिका वनमालाऽभूत् । तयोरङ्गजो मेघरथो दौर्भाग्येन भोगान्तरायनामकर्मणा च सहस्रवारं यावत् मेलितपाणिग्रहणोऽपि न परिणीतः । ततो लोकलज्जया निशि मरणोद्यतः प्रतस्थे । जगाम क्वापि महारण्ये । आरुरोह भीमभीषणनामानं गिरिम् । निधनार्थं झम्पां दातुमनाः निषिध्दो देवाधिष्ठायकेन । शब्दानुसारात् यावत् सर्वा दिशो विलोकयति तावत् पुरः प्रादुरासीत् दिव्यदेहो नरः । तेन च स ददृशे । तत इत्यवोचत् कुमारः स तं प्रति - "भो महाबाहो ! वृन्दारकोत्तम ! किमर्थं त्वयाऽहं निषिद्धः पञ्चत्वं स्वस्य तन्वन् ? त्वं किं मह्यं ददासि मनोगतम् ?" इत्युक्ते बभाण सोऽमरः कुमारं तं - "तुभ्यं मनीषां पूरयिष्यति देवोऽयं प्रभावसागरनामा शिखरिशिखरमध्यमध्याधिरूढः, तस्मान्मया साकमेहि देवायतने, देवं वन्दस्व" । ततः स कुमारस्तत्र गतः। ववन्दे देवाधिदेवम् भग्नान्यन्तरायाणि । भोगोपभोगस्य परिणामविशेषभक्तिशक्त्या समाराधनबुद्ध्या च तुतोष स प्रभुः । वैयावृत्त्यकरमुखेन ददौ वरं इच्छारूपनामानं परकायाप्रवेशं च । ततः कतिचिद्दिनानि तत्र तस्थौ देवोपास्तिपरायणः । अत्रान्तरे गौडदेशेशो गङ्गाधरनामा रत्नपुरात् तत्र गिरिसमीपे उपत्ति(त्य)कायां कटकनिवेशेनावधिष्ठितः महाराष्ट्रदेशाधिपतैलपदेवस्य पुत्री विश्वविभ्रमां नाम परिणेतुमनाः । निशीथे च दैवात् ममार स राजा । मेघरथस्तु देवाधिष्ठायकसमादेशेन वृत्तान्तमेनं परिज्ञाय मृतां राजगङ्गाधरतुनं (तनुं) वरविद्याबलेन प्रविश्य स्वां तनुं च तस्यैव देवस्याग्रे देवं वन्दमानां विमुच्य तां कन्यां परिणीय गौडदेशे रत्नपुरनामनगरे गत्वा राज्यं चकार । प्रस्तावे च प्रभावसागरं देवं वन्दित्वा पूर्वमुक्तां देवं वन्दमानां निजां तनुं प्रविश्य गङ्गाधरतनुं च तत्र मुक्त्वा मेघरथः स्वनगरं ययौ । पित्रा च राज्यं Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 दत्तं द्वात्रिंशत्कन्या राजभिरपरैर्दत्ता । इत्थं कृतवान् राज्यं चिरम् । जिनायतनमण्डनमण्डितां समुद्रकान्तां कृत्वा काले सद्गुरुश्रीधर्मशेखरपदपङ्कजमूले श्रितसंयमः पञ्चत्वं प्रपन्नः पञ्चमगतिं शिश्राय केवलात्मैव बभूव । एकादशदशसङ्ख्यः स्तम्भनचरितान्तरे प्रबन्धोऽयम् । नृपतेर्मेघरथस्य प्राभृतवस्तूपमे च सङ्घस्य ॥ ( प्रबन्धः २२ ) वचनानि मदुक्तानि प्राज्ञाज्ञप्रियविप्रियाणि सहजेन । दिनकरकिरणानि यथा सुकमलकुमुदव्रजस्य संसारे ॥ १ ॥ विश्वान्यमूनि विश्वानि येन सृष्टानि शक्तितः । अनादिनिधनो देवः स्वयं सिद्धो मुदेस्तु वः ॥ २ ॥ सुराष्ट्रमण्डले उषामण्डलाधिपतिः सुमित्राप्राणनाथो राजा सुमित्रो नामाऽभूत् । तत्पुत्रश्च मुञ्जलक्षणो मुञ्जघोषाभिधानो निजराजकेलिकलाविकलः सकलकुलकलङ्कशीलः सर्वकुलक्षणकोशागारतया निर्वासितो राज्ञा महत्यरण्ये पपात । पिपासापिशाची सङ्क्रान्ता वपुषि । अत्रान्तरे, हंसमिथुनेन स्वपत्रच्छाया चक्रे तस्योपरि छत्रवत् । पक्षव्रजेन चामरलीलाप्यनुचक्रे 1 शीतलोपचारार्थं च जलभिन्नपतत्रविगलद्वारिबन्दुजलपानेनापि च क्षणार्धेन मधुरेण निजेन कलरावालप्तिसुखोदयकर्ण श्रुतिपातेन स्वस्थीकृतः नीतस्तेन राजहंसयुगलेन स्वाश्रयवृक्षकुत्तायं स राजकु | शर्करानामवटमूले मुक्तः ताभ्यां द्राभ्यां निजात् पृष्ठादुत्तीर्य माणिभद्रसरस्तीरे । ततः कमलकन्दैः शर्करावटफलैरपि अन्यैरपि च नीवारतुंदलैर्विविधरसपेशलैर्बुह (बहु) लै: फलै सुखीकृतः । क्रमेण च ताभ्यां तत्पृष्टियुगलाधिरूढः पृथ्वीं पर्यटति । सर्वत्र पश्यति नानाश्चर्याणि । एकदा चस ऊर्मिलनामा राजहंसः स्वप्रियाधमिल्लानाम्नो राजहंस्या दोहदपूरणाय प्रतस्थे स्वर्णकमलसम्बलसबलः । ततो मार्गे गच्छता पृष्टं मुञ्जघोषेण “भो ! मित्राद्यव गम्यते गगनाध्वना ?" हंसेनापि चोक्तं- देवस्योपयाचितं देयं अस्ति यत्प्रभावादावां मानवीं भाषां ब्रुवन्तौ वर्तावहे; तस्य पूजयाऽद्य दोहद: सम्पूर्णो भविष्यति । इति कथनवसाने ते प्राप्ता नीलगिरिं कुमारसागरतयकान्तिके तालीवने । तत्र प्रभावाकरं Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 नाम देवं वन्दित्वा गतं हंसमिथुनं तत् । तत्रैव स मुञ्जघोषः स्थितो देवाराधनार्थं महादुः खार्दितः । चतुःषष्टिउपवासैः कृतैर्लाभोदये समुद्घटिते तुष्टो देवः । वरो लब्धः " राज्यं प्राप्नुहि भो भक्त !" एवं स सुखी जातः । तेन हंसेन पूरिताः पूजोपहारा: । सान्निध्यं च कृतम् । हंसबलेन गतः स्वं देशम् । पित्राभिषिक्तः पट्टे स्वे । तेन राज्ञा हंसमिथुनं आत्मवत् आत्मसमीपे स्थापितम् । प्रत्यहं हंसयुगलासनवाहनेन देवं वन्दयितुं गगने गच्छन् हंसासनो नाम राजा जातः । कालेन तत् मिथुनं मृत्वा हंसस्य तस्यैव मुञ्जघोषस्य राज्ञो गृहे पुत्रद्वयं जातम् । कालेन तद्युगले ज्येष्ठं अभयशेखरं नाम पुत्रं राज्ये निवेश्य स्वयं जग्राह दीक्षां जैनीं जैनाचार्यान्तिके । कृतसंलेखनः प्रपन्नोऽनशनं समाश्रितसंस्तारकः कृतदुः कृतगर्हः सुकृतानुमोदनाप्रधानः प्रदत्तसर्वजीवमिथ्यादुः कृतः अशुभकर्मक्षयाकाङ्क्षी अन्तःकरणेन प्राप्तकेवलः शैलेशीं अवस्थां गत्वा चतुर्भिः समयैः कर्माणि हत्वा चतुर्दशमान्ते सिद्धिं गतः । द्वाविंशतिसङ्ख्योऽयं, मेरुतुङ्गेण सूरिणा । प्रबन्धो मुञ्जघोषस्य स्तम्भेशचरिते कृतः ॥ १ ॥ ( प्रबन्धः २३ ) धन्यानां ते नरा धन्या, ये रता जिनशासने । तद् द्विषन्ति पुनर्ये च का तेषां भाविनी गतिः ॥ १ ॥ 1 जालन्धरदेशे चन्द्रवटे पुरे रुक्मिणीपतिः मेघनादो राजा । अन्यदा स राजा चौरं व्यापादयितुं दत्तवानादेशं नगररक्षकाय । चौरेण मार्यमाणेन च विद्याद्वयं दत्तं राज्ञे । ततो मुक्तश्चौरः । पद्मिनीनाम तस्य प्रियाऽस्ति । लक्षणेनाऽपि पद्मिनी । सा राज्ञो विद्याराधनकाले अग्नौ आहुतीर्दत्तवती । तुष्टा विद्या । एकदा च तस्य राज्ञो जलकीडां कुर्वतो नद्यां शबमागतम् । निर्विषीकृत्य परिणीता सा कुमारी दक्षिणकराङ्गलीन्यस्तमुद्रालिखितनामप्रमाणेन सर्वं व्यतिकरं ज्ञात्वा तया सह ससैन्यो गतो नेपालदेशे हरिचन्द्रपुरीश्वरेऽमृतचन्द्राप्राणनाथवेष्टितः । जातं युद्धम् । रणे जितः स्वसुरः । प्रदत्तं च राज्यम् । व्रतं गृहीतं नरसुन्दरेण । मोक्षं गतः । मेघनादोऽपि नरसुन्दरपुत्र्या तया चन्द्रलेखया पट्टराज्या शुशुभे ललाटस्थया Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 चन्द्रकलया तारकेश्वरकिशोरशेखर इव । स मेघनादो राजा एकदाऽरण्यानीं नीतो विपरीतशिक्षितेनाश्वेन विश्रान्तस्तापसाश्रमे तैः सार्धं गतः स राजा कृपाकोशागारनाम देवं वन्दितुम् । स तस्थौ राजा तद्देवाने यावत् योजिताञ्जलिरेव - "गगनगमने शक्तिरस्तु ते" इति तुष्टेन देवेन वरो दत्तस्तस्मै । स च जगाम स्वगृहं गगनमार्गेण । जातं माङ्गलिकम् । राज्यं च वैरिभिराक्रान्तम् । नगरबाह्य एव पारणकविधिश्चक्रे । ततस्तद्देवप्रभावेण सर्वेप्यरातयः पदातयः समभूवन् । नश्यन्तो न पश्यन्ति पदौ न चलतः । वैरिराजानो जीवितयाचितारो जाताः । ततः स सम्राट् जातः । नित्याभिनवविमानरचनया वर्षलक्षं यावद्देवमित्थं ववन्दे । स मृतश्च माहेन्द्रे देवो जातः । अयं त्रयोविंशतिमप्रबन्धः, श्रीमेघनादस्य गुरूपदेशात् । श्रीस्तम्भनाथप्रभुसच्चरित्रे, श्रीमेरुतुङ्गेण मुदा प्रबद्धः ।। (प्रबन्धः २४) पदवाक्यप्रमाणानि, विद्यन्ते कस्य नानने । नमोऽर्हते वदत्युच्चैर्यदास्यं तद्वयं स्तुमः ॥ १ ॥ हीमउरदेशे हीरपुरे हरिदत्तो राजा । हरिकान्ता नाम प्रिया । एकदा च स नृपो निशीथे बालामेकां रुदतीं श्रुत्वा स्वाश्रयात् सहसा समायातो बहिः तस्याः समीपे । पृष्टवान् राजा स्वरूपं - "हे कल्याणि ! कल्या(नि) तवङ्गकानि?" सा प्राह तं च प्रति - "हे महाभाग ! अहं कोकणदेशस्याधिपतेः कुमारेश्वरस्य पुत्री भवनमञ्जरी नाम हरिदत्तानुरागिणी सती गदाधरनामविद्याधरेण अत्राहमानीतास्मि । स चाद्य सन्ध्यायां सिद्धविद्यो मां परिणेष्यति" । इति श्रुत्वा तेन हरिदत्तेन वंशीजालमध्यो विद्यां साधयन् गदाधरो लब्धः । जातमुभयो रणम् । रणे जितो गदाधरः । हरिदत्तेनापि सा परिणीता तत्रैव । ततो दम्पती तौ गृहं जग्मतुः । सोऽपि गदाधरः सञ्जातो विलक्षः प्राप्त: स्वसद्य । अन्यदा च स हरिदत्तःस्वप्रासादचन्द्रशालाससिंहासनगतो विद्याधर्या चैकया समुत्पाट्य नीतो वैताळ्यगिरौ नागपुरं नाम नगरम् । तन्नगरेशेन विद्युन्मालिनामविद्याधरेश्वरेण परिणायितो नागदत्तां निजां पुत्रीम् । कतिचिद्दिनान्ते विद्युन्मालिना स जामाता हरिदत्तो राजा महत्या विभूत्या Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरङ्गदलसबलः गगनपुरेशस्य रत्नचूडस्य विजयार्थं दक्षिणश्रेण्यां प्रहितः । हरिदत्तेन रणे स्वशक्त्या पराजितो रत्नचूडः । ततो रत्नचूडेनापि कन्याशतं हरिदत्तो विवाहितः । करमोचने प्रज्ञप्ती नाम महाविद्या दत्ता राज्ञा हरिदत्ताय । सहस्त्रं च हस्तिनां वाजिनां च लक्षं पदातिकोटि च अयुतं ग्रामाणां च प्रयुतं च दासीनां अर्धप्रयुतं च दासानाम् । इत्थं परिणीय नागपुरं पुनरायातः । तत्र महासुखं कियन्त्यहानि स्थित्वा सबलवाहनः प्राप स्वगृहं विमानेन । अपि चेत्थं राजसुखं भुञ्जानस्य तस्य जलशोषोऽग्निनाशश्व भाग्यक्षयात् यज्ञे (जते) देशमध्ये । कल्पान्तकालोपमा जाता । ततो हाहाकारे प्रसरति बुम्बारवेण रोदसी विवरं दलायति (?) । पूत्कारभारनिर्भर भवनान्तरं प्रसरति कृतस्नानः कृतदेवगुरुस्मरणस्तुति मन्त्रपाठपरायणः समावजितदेवव्रजः समाह्वाननपूर्वं समाकर्षितदेवीवृन्दः कृ तवा (स्वा)ङ्गरक्षः स्वां कुलदेवीमाराधयामास । ततस्तस्या आदेशेन "कुरुक्षेत्रमण्डले पञ्चहूदाददूरवर्तिनि विचित्रकूटगिरी त्रिकूटशृङ्गे स्थितं परमेश्वरनाम जिनबिम्बं आनीय महाशान्तिकार्थकृतस्नात्रजलधारया सर्वं लोकं सुखीकुरु" । कृतमित्थं च तेन राज्ञा । इत्थं शरदां लक्षं यावद् भक्त्या पूजितः । इत्थं धर्ममनेकधा विधाय सुराङ्गानानां नयनातिथिर्बभूव । हरिदत्तप्रबन्धोऽयं द्विदादशतया मितः । स्तम्भनेन्द्रचरित्रेऽस्मिन्नघौघघस्मरापहे ।। (प्रबन्धः २५) निरञ्जनो निराकारो, मुक्तिस्थोऽपि हि सर्वगः । अग्राह्यश्चेन्द्रियाणां यः स देवो हृदि मे सदा ॥१॥ हस्तिनागपुरे कामसेनो राजा । कामपताकानामवामाङ्गलक्ष्मी: चास्य । तत्पुरे अष्टौ सहस्राणि नैगमानां अष्टासु दिक्षु व्यवसायार्थं प्रसरन्ति यस्य स कार्तिकनामा धनद इव धनदो निवसति महा श्रेष्ठी । गरीयः सुगरिष्ठः श्रीमुनिसुव्रतस्वामिचरणाम्भोजभृङ्गराजः परमार्हतः विशुद्धसम्यग्दर्शनः । अन्यच्चोच्यते शास्य-कार्तिकश्रेष्ठिमित्रं गङ्गदत्तनामा संसारविरक्तकमलाघवतया संयम जग्राह । स च कार्तिकनामा तेन गङ्गदत्तेन षण्मासी यावद Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. महासंवेगरसोदाहरणैनित्यवैरिभिः अनेकैश्च निर्वेदजनकै: श्रीभरतादिकथाप्रपञ्चैः प्रतिबोधितोऽपि संयमभारधुरं उद्वोढुं न प्रोत्सहते पदमे कमपि गौर्गलिरिव प्रनोददुविनोदतोदविडम्बितोऽपि महालस्यविषयलालस्यदुर्ललिततया । गङ्गदत्तोऽपि निरतिचारं चारित्रं समाचचार 1 त्रिदिवविमानवासं ववास काले पराशुः(सुः) सन् मरणाराधनया च गङ्गदत्तोऽपि। कार्तिकश्रेष्ठी सावधं सोपक्लेशं सम्बन्धं बहुसाधारणकामभोगं असातबहुलं गृहस्थवासं समासाद्य विवर्तमानो व्यवहारमार्ग यावदस्ति तावदन्तरे राज्ञासो परोधमभ्यथितः श्रेष्ठी - "असौ महर्षिः पारणकदिने अड्डनिकास्थाने तव पृष्ठे स्थालं दत्वा भोजनचिकीरस्ति । दैवात् मयापि स्वीकृतमेतदुक्तम् । अधुना सा वेला । हे महाश्रेष्ठिन् ! कृतार्थय । चेदन्यथा करिष्यसि मदुक्तं तदाऽसौ कोपवान् शापमपि दास्यति ।" श्रुत्वेति कार्तिको राजोक्तं तत् तथा चकार । "रायाभिओगो य गणाभिओगो" इत्यागारं जिनोक्तं राजादिसङ्कटं पतितानां हृदि स्मरन् । ततो गतो गेहं विचिन्त्य सर्वं परिग्रहमुत्सृज्य नैगमसहस्राष्टक परिवृतः श्रीमुनिसुव्रतपार्वे गृहीतव्रतो जातः । मासं यावत्कृतकायोत्सर्गः काकादिदुष्टपक्षिव्यूहैस्तत्तापसभिक्षुकृततप्त: रेयीभाजनतलदग्धस्फटितमांसभक्ष्यमाणपृष्टपीठफलकः श्रद्धासोढमहोपसर्गो मृत्वा जातः सौधर्मे शक्रः । सोऽपि तापस: सतामसोऽज्ञानकष्टेन मृतोऽस्य इन्द्रस्य वाहनं ऐरावणनामा जातः । तेन श्रावकपराभवलक्षणेन पापेन यद्वबद्धं नीचैर्नामगोत्रकर्म तत् फलितम् । अन्यत्कारणं शृणु हे भव्य ! येन कर्मणा शक्रत्वं प्राप्तं. अश्रुत्वा कोऽपि न विदग्धः स्यात् । यदाहुः श्रीशय्यम्भवस्वामिपादाः मणकनामशिष्यपुत्रं प्रति - "सुच्चा जाणइ कल्लाणं, सुच्चा जाणइ पावगं ।।" अनेन श्रेष्ठिना दर्शनप्रतिमानाम प्रथमा श्रावकप्रतिमा शतवारं व्यूढा ! श्रीपरमेष्ठिनामजिनबिम्बे त्रिकालं रचिता पूजा । तेन पुण्योदयेन सौधर्मेन्द्रो जातः । आधुनिक इन्द्रः श्रीस्तम्भनायकपरिपूजाफलाज्जातः । प्रबन्धः कार्तिकस्यायं, पञ्चविंशतिसम्मितः । श्रीमेरुतुङ्गरचिते, स्तम्भनाथकथानके ॥ ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 (प्रबन्धः २६) काले गच्छति हस्तिनागपुरात् तत् श्रीजिनराजबिम्बं समुत्पाट्य शक्रेण देवलोके नीतं तत्र पूजितभक्त्या पूर्वभववात्सल्यात् इन्द्रस्य महती भक्तिरभूत् । अयमेव महाधर्मः इदमेव परं तपः । इदमेव परं ब्रह्म यद्भक्तिजिनशासने । श्रीरामचरित्रे कथोल्लेखोऽयं - विशेषकार्येण श्रीरामेण दण्डकारण्ये गतेन चिन्तितं चेति सीतया सार्धम् - "यदि सामग्री स्यात् बिम्बस्य तदा पूज्यते जिनेन्द्रः हे प्रिये ! ।" इत्युक्तेरन्त एव वज्रिणा सार्मिकगौरवेण अवधिज्ञाने[न] तन्महापुरुषमनोरथं ज्ञात्वा तत्रिजं बिम्बं सर्वदुःखनिवारणं नाम देवतावसरात् स्वस्मात् आनीयार्पितम् । सप्तमासदिननवकं पूजितम् । व्याघुट्य जिगमिषातरलतया श्रीरामेण सीतया च समर्पितं इन्द्रस्य । सीताऽपि तृतीये दिने तद्दिनाद् रावणेन जहे। श्रीरामस्य प्रबन्धोऽयं, द्वित्रयोदशसंख्या । स्तम्भनेन्द्रपुराणेऽस्मिन्, सर्वोपप्लवहारिणि ।। ॥ ***** (प्रबन्धः २७) बोधिः समाधिः परिणामशुद्धिः, स्वात्मोपलब्धिः शिवसौख्यसिद्धिः । चिन्तामणि चिन्तितवस्तुदाने, त्वां वन्दमानस्य ममास्तु देव ! ॥ १ ॥ द्वारकानाथस्य चरित्रोल्लेखो ज्ञेयः । तथा च कृष्णो राजा नवमो वासुदेवः नवमप्रतिवासुदेवरणे सञ्जाते सति स्वसैन्यजीवनार्थं शक्रादेशेन चमरेन्द्रेण समर्पितं कृष्णमहाराजस्य पार्श्वनाथबिम्बम् । आसनं च कृत्वा स्थापितम् । तस्य स्नानाम्भसा नीरुक् समजनि सर्वं यादवेन्द्रसैन्यम् । गूर्जरदेशमध्ये तदा प्रभृति शङ्केश्वरनगरं प्रतिष्ठितम्, यत्र भूमौ स्थित्वा जरासिन्धुचक्रेणैव प्रतिमुक्तेन जरासिन्धुशीर्षं छिन नारायणेन । जाते जयवादे हरिणा पूर्वं करचटितः पाञ्चयज्ञः(जन्यः) पूरितः । जिते सति कृष्णेन द्वारकायां पुरी आत्मसमं नीतम् । तत्र प्रासादे पूजितम् । मूलस्थानकं तत्रैव । स्थटकं सपादुकायुग्मं तत्रैव पञ्चालदेशमध्ये स्थितम् । तदद्यापि सर्वलोकस्य दैवतं जातम् । मूलथाणनामा देवः कुष्टादिरोगहन्ता निर्मलदेहदाता प्रथितः श्रूयते । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 श्रीपार्श्वनाथबिम्बे हरिणा गृहीतेऽपि दुःस्पर्शद्युतिभ्रंशादिरोगोपद्रुतः सूर्यः समेतस्तत्र मूलस्थानके प्रभुं प्रणन्तुम् । लोकाशाः पूरिताः इत्युक्तं च "स्वामी पार्श्वनाथोऽत्रैव स्थितो मान्यः सर्वैः मम देहमनेन प्रियाप्रियं कृतं देवेन च सुरूपं सुखस्पर्श मृदु, भो लोकाः ! विशेषात् तत्त्वमिदं च ममादित्यस्योपदेशेन आदित्यवारे यात्रा विधेया।" इत्थमस्योपासनेन समुदयो जायते । कुष्टानि यान्ति । दुष्टानि विलीयन्ते । सूर्यः स्वयं समेत्य तत्र प्रभावनां कृत्वा पादयुगस्य पुरो भक्त्या बद्धाञ्जलिः स्तुत्वा च लोकस्य देवाशाकारकस्य मनोवाञ्छितानि दत्वा ययौ स्वस्थानम् । इत्थं पञ्चसप्तवारमागत्याऽऽदित्येन तीर्थस्थापना कृता । गच्छति काले तत्र सूर्यप्रतिमा निर्माय प्रासादं स्थापिता देवाराधनजातप्रसादविगतकुष्टेन देवपालदेवनामराज्ञा पश्चिमाशानाथेन । तत्र झंझूवाडानामा ग्रामो जातः । कृष्णस्य शल्यहस्तो झंझूनामा यत्रोत्तीर्णोऽभूत् । कटके अवाधिष्ठिते सति तस्य नाम्ना वाटकं प्रसिद्धिमगमत् सैन्यान्तः । पञ्चाद् लोकमध्येऽपि च पाण्डवानामाश्रयोऽभूत् तत्र स्थानके पञ्चास्त्ररयो नाम ग्रामो जातोऽद्यापि पंचासरः कथ्यते । यत्र च लोकैर्जीवनस्वामी श्रीनेमीशः प्रणम्यते स्म । स्थानके तत्र पाडलाग्रामो जातः जीवच्छ्रीनेमिबिम्बं लेपमयं प्रतिष्ठितं इन्द्रेण । धरणेन्द्रेणापि च पूर्वं पाटला पुष्पमाला कण्ठे न्यस्ता प्रभोः । तदैव भव्या पाटला मालेयं सवैलोकैरुच्चरति मुखेन अत एवायं पाडलाग्रामो जातः । अन्यच्च यदा पूर्व प्रतिवासुदेवसैन्येन हतान् निजान् क्षत्रियभटान् दृष्ट्वा म्रियमाणान् विधुरो नारायणो जयश्रियं दुरापां विचिन्त्य श्रीनेमि व्युपपद(?) ज्ञपयति स्म - "हे प्रभो ! कथं जेतव्योऽयं अविनाश्य स्वसैन्यम् ? ।" ततः श्रीनेमिरुपायं जयस्यादिदेश हरे: । "सौधर्माधिपतिना चमरचञ्चायां राजधान्यां चमरेन्द्रस्य पूजार्थं समर्पितं बिम्बमस्ति भाविजिनपार्श्वनाथस्य । तस्मादिन्द्रमाराधय त्रिभिरुपवासैस्त्वम् । इत्थं कृते इन्द्रादेशेन स चमरो भवते दास्यति बिम्बम् ।" इति प्राप्याम्नायं हरिस्तथैव विललास । यत्र सर्वेऽपि यादवा ननर्तुः जयश्रीमदेन तत्र देशे आनन्दपुरं जातं तत् नगरम् । जातं च झीलाणंदनाम कुण्डं यत्र सर्वेषां मध्यगतानां नृणां स्त्रीणां वा उच्चानां नीचानां वा कण्ठसमं जलं गात्रतश्च भवति, यत्र कुण्डे सर्वे हरिप्रभृतयो यादवा अन्येऽपि च राजानो लोकाश्च क्षत्रिया मिथोऽविश्वसन्ते निजविश्वासोत्पादनार्थं दिव्यं चक्रुः । ये कूटा भवन्ति ते मज्जन्ति । अन्येषां च गलदध्नमेव जलं स्यात् दिव्यवेलायाम् । यदा च बिम्बं सह नीतं Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 I हरिणा तदा लोकैरिति कथितं देवो देवेन सार्धं ययौ । पुनरिहैव मूलस्थानं तस्थौ अतोऽस्माकं मूलस्थाननामा देव एष जातः । शङ्खश्वरे यदधुना बिम्बं पूज्यते पुण्यवद्भिः एतत् स्तम्भनायक बिम्बपरावर्तेन हरेरुपरोधेन धरणेन्द्रेण स्वदेवालयात मुक्तं ज्ञातव्यं तत्त्ववेदिभिः नात्र भ्रान्तिर्विचार्या । "जोणीपाहुडभणिओ संकेओ एस मे नेयो।" इतीदमस्ति मोक्तं तत्त्वं पुनः केवलिनो विदन्ति ॥ सूरिगणा भूरिगुणा, क्षन्तव्यं दुर्वचो मम । उत्सूत्रपात भीतस्य, मिध्यादुः कृतमस्तु मे ॥ १ ॥ नारायणप्रबन्धोऽयं सप्तविंशतिमोऽजनि । गभीरे चार्थगहने, स्तम्भेशचरितेऽन्तय ॥ २ ॥ ***** ( प्रबन्धः २८ ) यः परमात्मा परं ज्योतिः परमः परमेष्ठिनाम् । आदित्यवर्णस्तमसः, पुरस्ताद् यः पुनातु वः || १ ॥ सुराष्ट्रादेशमध्ये द्वारमत्यां दग्धायां रामकृष्णयोर्निर्गतयोर्द्वारकादाघात् जीवमानयोः पुनरब्धिनीरेण द्वादशयोजनप्रमाणायां नगरभूमौ प्लावितायां एकार्णवीभूते भूतले नगरमध्यस्थितराजप्रासादस्थो न जज्वाल देवोऽयं, पयसाऽपि च प्लावितो नासौ देवः । तत्र समये वरुणः प्रतीचीपतिस्तं देवं गृहीत्वा स्वगेहे देवालये एकं दिनं अपूजयत् । पुनरपि देवादेशाद् देवालयाद् द्वारकापुरीमध्यगते कृष्णकारिते प्रासादे जलान्तः स्वेन करेण मुक्त: वरुणेन । अपि च एनमेव बिम्बं पूर्वं एकादशलक्षाणि वर्षाणां वरुणः पूजयामास । अन्यच्च अशीतिसहस्राणि वर्षाणां तक्षकोऽचितवान् एनं देवम् । षष्टिसहस्रवर्षाणि पद्मावती आराधयामास च । दशसहस्त्राधिकानि षष्टिवर्षसहस्राणि सुस्थितलवणाधिपतिः समुद्रस्य नाथः पूजयति स्म परमेश्वरं चैनम् । किं बहुना ? सकलपाताललोके हटकेश्वरीकलानाथः हटकेश्वरनाम लिङ्गं चतुरशीतिपत्तनेषु नागमते प्रसिद्धं तत्रापि देवोऽयं समाराधितो नागलोकनिवासिभिः इत्थमनेके पूजाप्रबन्धाश्चास्य प्रभोः । न देयं दूषण मह्यं, कदा कोऽपि विपर्ययः । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 दुर्ज्ञेयं चरितं चित्रं, को जानाति महात्मनाम् ॥ १ ॥ निसर्गदुर्बोधमबोधविक्लवः क्वाहं क्व वा तीर्थपतेश्चरित्रम् । तस्य प्रभावोऽयमवेदि तन्मया, निगूढतत्त्वं चरितं त्वदीयम् ॥ २ ॥ + वरुणादिप्रबन्धोयं, स्तम्भेशातिशयागमे । अष्टाविंशतिमो जातो, बहुभक्तकथान्वितः || ३ || ***** ( प्रबन्धः २९ ) द्रवः सङ्घातकठिन:, स्थूलः सूक्ष्मो लघुर्गुरुः । व्यक्तो व्यक्तेतरचापि, यो न कोऽपि स मे प्रभुः ॥ १ ॥ वाराणस्यां श्रीपार्श्वनाम कुमारी राजपार्टी कृत्वा पुनरायातो राजवर्त्मनि राजचतुः प : पथे पारतीर्थिकं त्रिपरुषप्रासादे पञ्चाग्निनाम तपस्तपस्यन्तं ददर्श चैकं तपस्विनम् । चतुर्षु दिक्षु चत्वारि स्वाहापतिकुण्डानि ज्वलन्ति । पञ्चमं कठोरकिरणमण्डलं उपरि ज्वलत्कुण्डं अधोमुखः ऊर्ध्वपादः ज्वालाज्वाल कवलनविह्वलः अज्ञानक्रियः पापाधिकरणसञ्चरणप्रवणचण: मिथ्यादृष्टिः सत्यद्वेषी गाढकषायः दुष्कर्मकर्मठः कमठनामा शैत्रः धूर्ततया सर्वं जनपदं वशीकर्तुं अनुरञ्जयितुं लग्नोऽस्ति । तदग्निकुण्डज्वलत्शुषिरमहाकाष्ठस्थं पन्नगं गतप्राणप्रायं श्रीपार्श्वः किङ्करैर्लब्धादेशैराचकर्षः । स सर्पश्चन्दनादिना स्वस्थीकृतः प्रतिबुद्धः सुधासोदरया जगद्गुरुगिरा प्रपन्नसमरसः सम्यक्त्वं प्रतिपद्य सर्वां तद्वेलोचितां क्रियां संलेखनादिसंस्तारकारा धनपूर्व अनशनप्रतिपत्ति सर्वसंसारनिस्तारव्यापारकारिण निष्केवलं त्रिधा विश्रान्तां महाभक्ति चाहतीं स्वीकृत्य शुभलेश्यारसेन मृत्वा पद्मावतीपतिर्धरणेन्द्रो जातः । तदा प्रभृति स पूजयामास एनं द्वारकाजलमध्यस्थं विज्ञायावधिना बिम्बं पार्श्वनाथनाम्ना अनागतनिः पत्रं भवनपतीन्द्रः । अहो ! अज्ञानिनां असत्क्रियाकाण्डताण्डवाडम्बरः पाखण्डडिण्डिमबिधिरिति ( ? ) तत्त्वशून्यहृदय रोदसीस्फोटकानां इति तत्र क्षणे सर्वैरास्तिकलौ कै : श्रीपार्श्वदर्शितजीवदयाधर्मोदयेन त्रुट्यत्कर्ममर्मभिः महता रवेण समुच्चरितं आः । कोऽयं धर्म: ? यत्र दर्शने देवोऽप्यज्ञानी विद्यते । एतदपि न ज्ञातं तेन यद् इत्थं तपसि प्रपञ्चिते कवणिजानामिव नीवीहानिर्भविष्यति ? । मुमुक्षूणां कुतो देहव्यये Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 . अपुनर्भवपदफललाभः स्यात् अनेन व्रतेन जीवहिंसानृशंसेन तपसाऽपि च ? । अथवा - अहो ! देवा अपि खण्डज्ञानतया जनं भक्तं विप्रतारयन्ति, तदा किं भक्ता तद्देवा श्रवाः सन्तो विवेकविकला:? | अथवा किमनया कथया? सर्वं सदेवमनुजासुरं विषयविडम्बितं कामदेवकारागारस्थं कामिनीकिङ्करं तावत् पूर्वं श्रवणशीताशनं उच्यते वचनम् । स्वामी तं श्रीपार्श्व उदासीनतया तत्कमठप्रतिबोधवचनं स्वभावमृदूक्त्वा तदग्निदग्धतद्भुजगसद्गतिकारणं धर्ममुपदिश्य च पुरस्थान् जनान अमृततरङ्गिण्या दृशा क्षीरास्त्रवमुचा वाचा च विलोकयन् जल्पन् सुखासनासीनो यावदास्ते तावदेके सभापतयो भूत्वा पक्षं स्वीकृत्य तर्कसम्पर्क वृन्दारकवाण्या आरेकाकन्दकृपाण्या उपन्यासाभ्यासेन स्पृशन्ति स्म । केचनाऽपि च सभ्या भूयः शृण्वन्ति स्म । “भो ! भो ! तत्त्वातत्त्वविचारचतुरा ! अनातुरा ! हिंसारसाव्यामृताशयाः ! शुभाशयाः ! विशुद्धवृषवासना ! नव्यनव्या ! महाभव्या ! हृदयदेवालये भावनाप्रदीपे अस्मद्वचनं सुरचनं मूलनायकता नेतव्यं यदि चेतनाः स्थ यूयम् । 'नद्यास्तीरेऽद्य प्रगे गुडशकटमुत्कटपर्य स्तं धावत धावत डिम्भका' इत्यादि विप्रतारकपुरुषवचनश्रवणात् प्रवर्तमाना विप्रलम्भभाजो जायन्ते तथेदमस्माकं वचनं नाऽङ्गीकार्यम् । यूयमपि श्रोतारस्तादृशा न स्थ ! वयमपि वक्तारो न तादृशाः स्मः । अन्यच्च - अन्येषां खण्डदृष्टीनां, सर्वज्ञवचनादृते । वचनेषु न विश्वासो, विधेयो मोक्षमिच्छुना ॥ १ ॥ अत्रान्तरे प्रत्यूहकारः पक्षे सम्प्रति चकाराऽऽक्षेपं "हं हो ! सुविचारसभाशृङ्गार ! उदारवचनव्यापार ! कृतप्रत्यक्षपरोक्षनामप्रमाणयुगलीस्वीकार ! यत्त्वया पक्षोऽयं स्वीकृतः कृतज्ञ हे ! श्रीसर्ववेदी स्यात् देवाधिदेवः सर्ववेदित्वात्, परमात्मवत् । तस्मादयं प्रपञ्चः सर्वः । किं हे सर्वग्रन्थपन्थपथिकदेवाः । पञ्च पूर्व तदादिष्टानि दर्शनानि, पञ्च तदाश्रवा दर्शनिनः, पञ्च तदुक्तानि पञ्च शास्त्राणि ।" मूलवाग्मी प्राह - "भो ! आन्तरमयं चक्षुः समुन्मील्य अनाद्यविद्यातिमिरभरध्वस्ततेजः प्रसरं नवप्रबोधकृतमद्वाक्यदिनकरोदयस्पृष्टं विलोक्य अनेन धूर्तपञ्चकेनालम् । एतावतैव प्राप्ताऽस्माभिर्जयश्रीः तावकीनपञ्चकप्रपञ्चनेन धृतोऽसि रे बाहौ मया । सभ्याध्यक्षं व गमिष्यसि ? | पदमेकमपि वक्तुं न शक्तः भारतीभूरिप्रसादप्रभावेण त्वं मया वचननिगडेन निविडं निबद्धोऽसि । विचारय, यदि ते पञ्च देवाः Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 1 स्वस्वमतप्रतिष्ठातार तदा ते मिथो विभिन्नाः, नो चेत् पञ्चापि मे एकाध्वादिष्टारस्तर्हि निजेन पञ्चकत्वेन लज्जिता आपा (अपि) पञ्चानामेकत्वं प्रत्यक्षविरुद्धं बम्भण्यते । वेषेण आचारेण ग्रासग्रहणेन तत्त्वोपदेशेन मुक्त्वापि च प्रतिदर्शनमेवं द्वात्रिंशता भेदैवैभिण्यं (त्र्यं) परिस्फोरीति । अत एव निजेच्छाजल्पनात् पञ्चकत्वं प्रसिद्धं पञ्चत्वं तेषां स्वप्रतिष्ठापञ्चत्वाय बभूव । येन देवेन यावन्मात्रं यावत् स्वेन ज्ञानेन दृष्टं ज्ञातं च तावन्मात्रं स्वशिष्येभ्यः समादिष्टम् । अत एव तं नैकमता नैकाचारा नैकसिद्धान्ता नैकवेषा नैकदेवा नैकतत्त्वा नैकप्रमाणा नैकभिक्षारीतयः नैकरीतिदेवोपासना नैकविधिभिक्षाग्राहिणः । अनेन तवोदितेन पञ्चात्मकेन हेतुना सर्ववेदित्वमसिद्धं सर्ववेदितायां असिद्धायां खण्डज्ञानिनां दर्शनस्वामिनां पञ्चानामपि प्रसिद्धा एतस्यां वपुः स्थायां च पूज्यतादृग्विकलस्य दर्पणार्पणप्रतिमा सम्भाव्यते । खण्डज्ञानितायां जाग्रद्रूपायां अविवेकितैव पदे पदे प्राणिनः प्रादुर्भवति । तदिदं अविवेकिताया मूललक्षणं वर्वर्ति । यतः तैः स्वमते मांसादनं दयावृक्षसमूलोन्मूलनं स्वीकृतं स्वयं च कृतम् । जिनपति जिनभक्तं च विहाय सर्वे देवा प्रजापति - कल्पितयज्ञभागाः, अन्यथा च कृतमांसभक्षणनियमा जिनाश्रवाश्च ते ज्ञेयाः । यदुक्तं तेषां मते अत एव पुरकार्यो, वेदपाठः प्रयत्नतः । ततो धर्मस्य जिज्ञासा, स्वः कामोऽग्नि यथा यजेत् ।। १ ।। हे ! प्रत्यूहेन तत्त्वं विलोकय, अस्मिन्नेव श्लोके व्यङ्गयं दुर्ज्ञेयं स्वः कामपदेनेति क्रतुकर्मणो मुक्तिदातृत्वं अनुचितम् । तथा चान्यत् उदगीथः प्रणवो यासां न्यायैस्त्रिभिरुदीरणम् । कर्मयज्ञः फलं स्वर्गस्तासां त्वं प्रभवो गिराम् ॥ अत्रापि च फलं स्वर्गः इति पदोल्लेखेन यज्ञाज्ञाया आचरणेन कृतेन अपुनर्भवपदप्राप्तिः प्राणिनो न स्यात् । एतेन यज्ञादिकर्माणि स्वार्थसार्थप्रतिपूर्तये स्वादिभिर्मिथ्यात्वादिभिर्नास्तिकगुरुभिः पातकमूलानि महारम्भाणि सन्त्यपि समाद्रियन्ते । यथा क्षत्रियैराहवो विधीयते स्वार्थसिद्धये, यथा गृहमेधिभिर्विवाहाद्या क्रिया महारम्भाऽपि सती वल्लभेत्र वल्लभा स्वीकृता, नास्ति एवं यज्ञक्रिया याज्ञिकैरङ्गीकृता । वेदस्थानां धूममार्गानुभवः सम्भवति, अतो हेतोर्जल्पते चेत्थं Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 "पञ्च शूना गृहस्थस्य तेन स्वर्गं न गच्छति ।" अतो द्विजानां गार्हथ्यं सम्भाव्यते। तेऽपि यदा शिखासूत्रदूरतरा ज्योतिर्मागिगामिन उक्तास्तदा ते भगवन्तो न मांसाशिनः, जटाधरा अपि मांसाशिनो न प्रतीताः । यदि पिशिताशिनस्तेऽपि यज्ञे पुरोडाशमिषेण द्विजा इव तदा नमतिनां च तेषां च किमन्तरं प्रतिभाति । भो ! प्रतिपक्षकक्षादक्ष ! जागृहि, विनष्टं च ते मतम् । दुर्मते ! भवदर्शनडिण्डिकगृहमध्यार्धे प्रदीपनं अदिदीपत् । कथं मध्याद् बहिर्भविष्यसि । विलोकय । भो ! ये देवा भवन्मतेऽङ्गीकृताः सन्ति परमाप्तबुद्ध्या तान् निरूपय । यो वे शघनः केवलात्मा वर्ण्यते तद्ध्यानान्मुक्तिरेव यदुक्तं - वीतरागं स्मरन् योगी, वीतरागत्वमश्नुते । सरागं ध्यायतस्तस्य, सरागत्वं तु निश्चितम् । यो भवन्मते दशावतारावतारितोऽपि विष्णुर्गीयते मुक्तिदः प्रतिभवं भवचेष्टया विचरन् विडम्बयति स्म य: स्वं मीनाग्रस्ता बुमुक्षितेन । अन्यद् यदि स विश्वोद्धर्ता दैत्यहन्ता भुक्तिमुक्तिदाता तदा स मीनादिभवेषु स्वं दुर्दशामनुभवन्तं किं न रक्ष । यानि क्रूरकर्माणि तेन हरिणा दशसु भवेषु कृतानि तानि वयं श्रोतुमक्षमा: । एके पुनः पण्डिताः सभान्तः क्षणे लोकानां पुरः प्रकाश्यतानि हिंसात्मकानि चरितानि देवबुद्ध्या देवपङ्क्तौ देवः संस्थाप्यते । अहो वावदूकानां पाष्टर्यं द्योतते । अहो ! यस्मिन् धर्मे हरितिथौ पक्षद्वये जागरणक्षणे राधादिपारदारिकविलासलीलायितपुष्पकाण्डजयडिण्डिमाडम्बर: कल्प्यते । ननु भो ! अनेन वीतरागत्वेन परस्याप्तान भवितुं इच्छन्ति ते कामविडम्बिताः । यो भवतामाप्तः परगृहे प्रोषा भूत्वा पुत्रद्वयमजीजनत् । अन्यत् यः कृष्णो महाभारतगोत्रकदननिबन्धनमुच्यते उभयपक्षहिताहितचिन्तनात् "कृष्णो मूलमनर्थानां" इति बालावबोधपाठनात् तस्य सद्धर्ममतिर्न समपादि क्व वीतरागत्वं तादृशां संसारशूकराणां कटपूतनादिनानामहापातकोद्यतस्य यः कामकिकरण व्रतं विहाय परिग्रहश्चके स्वस्य भस्मेति नाम कृतं यदपत्यं स सेनानी भस्माङ्कर इति प्रसिद्धः यो रुद्र इतिनामा सन् प्रियाप्रीत्यै सन्ध्याद्वये नर इव ताण्डवाडम्बरं वितनोति लल्लिपल्लिवचनैः स्वां प्रेयसीमनु[न]यन् जगाल १. ८२ तमं पत्रं नास्तीति पाठलुटितः ।। २. ८४ तमं पत्रं नास्तीति पाठः खण्डितः ।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुद्रत्वं तस्यान्त:करणात् । इत्थं सर्वे स्त्रीदासा देवाः । यदुक्तं ये स्त्रीशस्त्राक्षसूत्रादिरागाद्यङ्ककलङ्किता । निग्रहानुग्रहपरास्ते देवाः स्युन मुक्तये ।। १ ।। नाट्याट्टहाससङ्गीताद्युपप्लवविसंस्थुलाः । लम्भयेयुः पदं शांतं, प्रपन्नान् प्राणिनः कथम् ।। २ ।। कोदण्डदण्डचक्रासिशूलशक्तिधरा अपि । हिंसका अपि पूज्यन्ते, देवबुद्ध्या दुरात्मभिः ॥ ३ ॥ इति वदतः पक्षेशस्य सरस्वती सान्निध्यं चकार । वाक्पतिरपि च वचनानुप्रवेशं करोति स्म । अपरे सर्वेऽपि तत्रस्था जना इत्यूचुः - "साधु भोः ! साधु भोः सत्यमुक्तम् । तेऽपि मिथ्यादृशः प्रतिवादिनः सकम्पाः सस्वेदा मुद्रितमुखास्तस्थुः ।" हतं सेन्यमनायकम् “इति नीतितत्त्वं विचिन्त्य को वादोऽस्माकं यदर्थं वादस्ते देवा मोक्षदातारो न स्युः । अत्रान्तरे धर्मदेवता महती प्रभावनां चकार। आकाशदुन्दुभिकुसुमवृष्ट्यादि श्रीपार्श्वमूर्धनि तद्भक्तानां च सर्वेषां शिरःसु । सर्वे ततः स्वाश्रयं जग्मुः । सोऽपि कमठः स्वपक्षहानि निरीक्ष्य विलक्षास्यो दुःखान्यनुभूय मृतोऽजनि मेघः कुमार: प्रस्तावेऽवधिना विज्ञाय पूर्वभववैरेण तेन छद्मस्थपर्यायस्थितं प्रभुं श्रीपाश्र्वं महावृष्टिजलोपसर्गादिना पीडितं धरणेन्द्रो अध आधाररूपेण ऊर्ध्वं छत्राकारफणरुपेण जिनं कायोत्सर्गस्थं सुखाकरोति स्म । सोऽपि च प्रतिबोधितो भगवता । यदाहुः श्रीमानतुङ्गसूरिपादाः - उवसग्गंते कमठासुरेण झाणाओ जो न संचलिओ । सो सुरनरकिन्नरजुवईहि संथुओ जयउ पासजिणो || इति कमठेनाऽपि पूजितः पार्श्वनाथनाम्ना एष स्तम्भनप्रभुः । धरणेन्द्रप्रबन्धोऽयं, चरिते स्तम्भनप्रभोः । एकोनत्रिंशत्तमतामाश्रितोऽतिशयाश्रितः ॥ १ ॥ (प्रबन्धः ३०) जगद्योनिरयोनिस्त्वं, जगदीशोप्यनीश्वरः । जगदादिरनादिस्त्वं, जगदन्तोप्यनन्तकः ।। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यालमालस्तुतिभिः स्तुतोऽनेकैरनेकधा । तमेकं परमात्मानं शरण्यं शरणं श्रि(श्र) ये ॥ यदा प्रवर्तमानेषु, प्रबन्धेषु वचोऽनृतम् । शोधयन्तु कृपां कृत्वा तद्ज्ञातारः कृतोऽञ्जलिः ॥ द्रविडदेशे कान्त्यां धनेश्वरनामव्यवहारिणो वाहनपञ्चशती परतीसत् निजतीरमागच्छन्ती जलधेरन्तः कुवायुना जलमार्गादन्यत्र क्षिप्ता पर्वतोभयान्तरे स्खलिता सर्वमाकुलं जज्ञे । विललास खेवाणी । “अन्यच्च यक्षकर्दमसम्भृता कचोलिकैका वारिधेरम्भसः प्रकटीजाता । श्रेष्ठिन् ! गृहाण चैनां, पुनर्मुञ्च । समुद्रे यत्र पतति दोरकेन सह स्वेन हस्तेन तस्माद्विम्बमुद्धृत्य सुखेन वाहनैः सार्धं कान्त्यां व्रज । अस्याऽप्रतिमल्लनामपार्श्वस्य पूजया पुत्री (त्रो ?) भविष्यसि ।" तथा जातं पुत्रवर्धापनकदिने देववाणी जाताऽन्तरिक्षे तव हस्तान्मां कोऽपि गृहीत्वा यास्यति । तत्र देशे विख्यातं जातं तीर्थम् । धनेश्वरप्रबन्धोयं, सञ्जातो दशभिस्त्रिभिः । सर्वपापापहाराय, श्रीस्तम्भचरितस्तवे ।। ३० ।। (प्रबन्धः ३१) मालवदेशे सारङ्गपुरे जयपालनामा । तस्य पुत्रः सिंहनामा सिंहस्वप्नसूचितः जयनश्रीकुक्षिसम्भूतः सिंह इव पराक्रमी । पित्रोः परिवारस्यापि भयङ्करः । ततः पित्रा भयेन ग्रामस्त्यक्तः । तत्रापि राजहस्ती वशीकृतो यत्र गतोऽभूत् । एकदा च सिंहेन सिंहो मारितः पापद्धिरसेन सर्वजनसमक्षं पित्रा कालाक्षरितः त्यक्तश्च । निर्गतो देशान्तरं भ्रमन् कनकगिरिनामयोगिनः शिष्यो नागार्जुननामा जातः । शिष्यपञ्चशतीमध्ये सर्वगुणोत्कृष्टः उत्कटश्च । एकदा गुरुणा "समूलं वटमानयन्तु हे शिष्याः ।" इत्यादेशं प्राप्य छित्त्वा समूलो वटः समानीतः शिष्यैस्तैः सर्वैः सम्भूय। नागार्जुनेनापि च वटबीजमेकमानीय दत्तं गुरवे । इति विज्ञप्ताः पूज्यपादाः "हे आदेश्यपादाः ! समूलोऽयं वट" इति विचार्य गुरुणा तद्वचः श्रुत्वा इदं मीमांसितं अतीवान्तर्मुखं च क्षोदक्षमं च एतस्याहो वचः । महायोगीन्द्रो भविताऽयम् । काले अन्यदा "शाकं मधुरमानय रे !'' गुरूक्तं श्रुत्वा नागार्जुनी ययौ भिक्षायां । अन्धाया वेश्याया गृहे शब्द: क्षिप्तः । सा अक्का Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.3 द्वाराग्रहस्तिनीस्था अन्धा भिक्षा अनोकरत् साधुकिङ्कर्या । योगिनाऽपि स्वार्थलोभिना शाकं ययाचे । कुट्टिन्या प्रोक्तं हे योगिन् ! तत्र मनोरथमहं पूर्णीकरिष्यामि । त्वमपि ममोनं यत् तहिं । एकने मूल्येन शाकं दास्ये । गृहीतं नेत्रं दत्तं योगिना, निजायाश्चटाङ्गल्या स्वनेत्रात् कनीनिकां निष्काश्य नखाग्रेण शाकं प्राप्य दत्तं गुरोः । गुरुणा प्रोक्तं "पुनरप्यानय हे शिष्य ! मधुरमिदं शाकम्" । सोऽपि गतस्तस्या गृहे । तथैवानीयार्पितं शाकं बालिकहस्ताग्रलग्नं दष्ट्वाऽचिन्तयदिति गुरुस्तं शिष्यम् । " किमिति" गुरुरुवाच "हे शिष्य ! किमिदममङ्गलं तव दृश्यते" । शिष्य उवाच - "हे गुरो | वारद्वयं शाकमानीतवान् निजनेत्रद्वयं दत्वा अन्धायै एकस्यै अक्कायै । गुरुप्रीत्यर्थं कर्णेन जङ्घायां वज्रतुण्डकृमिव्यथा सेहे । भगवन् ! नेत्रयोः का कथा ? शिरोऽपि तृणमात्रं तस्मात् " " त्वं वत्स ! चलितुमशक्तोऽसि तिष्ठाऽस्मिन् गिरनारगिरौ । काले त्वं च दिव्यलोचनी महापात्रं भविष्यसि " । स स्थितस्तत्र सहाजाभ्यासयोगसिद्धिसमृद्ध्या समुत्पन्ने दिव्यं नेत्रे तेनाऽपि च नागार्जुनेन श्रीपादलिप्ताचार्याराधनप्रसादात् आकाशगामिनी विद्या प्राप्ता । अपि चाग्नेयदिशि हंसरसालदेशे हंसकूटपुरे तिन्दूसकवने अमरगुफायां चिर्पटिनाथप्रसादात् प्राप्ता धूम्रवेधविद्या । चिर्पटिनामरससिद्धिर्नागार्जुनेन येन चिर्पटिनाथनाम्ना योगिना कुक्कुटेश्वरपुरे हंसशेखरराजा कौतुकार्थं काष्ठग्रावमृत्स्रासतधातुनिर्मितमण्डपा द्वादशद्वादशयोजनप्रमाणा दश मण्डपा एकचिर्पटिधूम्रवेधयोगेन कल्केन सुवर्णराशयः कृताः । ततो मयूरगिरिपर्वते साऽभ्यस्ता नागार्जुनेन विद्या । पुनर्न सिद्धा । रसः सण्डो जातः । ततो जातविषादः श्रीपादलिप्ताचार्यपादयोः पतित्वा रुरोद । पृष्टः कारणं । कथितं अरससिद्धिलक्षणण् । ततो गुरुप्रसादप्राप्तादेशः कान्तीपुरात् श्रीपार्श्वनाथबिम्बमानीतं गगनमार्गेण । मुक्तः प्रभुः महीयदेशे महेन्द्रीनामनदीतटे सेडनदीतीरे च पुरग्रामसमीपे तस्य बिम्बस्याग्रे योगी रसं साधयितुं लग्नः । प्राचीपतिनक्तमालपत्न्या सौभाग्यमञ्जरीनाम्ना वीरकान्त - वीरधवलजनन्या पद्मिनीस्त्रिया सर्वमौषधं वर्तिनं उपहारा मृदादयः कृताश्च औषधीनां रसा आकर्षिताः । निष्पत्रो रसः । षण्मास्यन्ते तत्पुत्राभ्यां "व्यापादितः स योगी" इति जल्पन् सन् हे कल्याणि ! अतीव सलवणमद्यमन्नं हे कल्याणि ! कल्याणसिद्धिगुरुपदेशकारिके ! । तेनाऽपि मार्यमाणेन कूपाः पदाग्रेणाहत्य निपतता भग्नाः तो ये रसा यत्र भूमण्डले वातवशेन गतास्तेषां वेधस्तत्र समजनि । बिम्बस्य स्तम्भननाम Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 जातम् . ग्रामोऽप्यनेन नाम्ना विख्यातो जातः इति श्रूयते । आनन्त्यादिह कालस्य, प्रबन्धानामनन्तता । तथाऽप्यमी प्रबन्धास्तु, द्वात्रिंशत् प्रकटीकृताः ॥ घटितस्त्वं न केनाऽपि, खानिमध्यान्न चोद्धृतः । स्वयं सिद्धः पुरा पञ्चधनुःशततनून्नतः ॥ वितस्तिमात्रो भविता, श्री पार्श्वः स्तम्भनायकः । युगप्रधाने सूरिश्रीदुःप्रसभे प्रवर्तति ॥ पद्मनाभोदये जाते, पुनर्वपुःसमुन्नतिः । धनुःपञ्चशतीगात्रः पुनरेष भविष्यति ।। भरते प्रलयाक्रान्तेऽङ्गुष्ठमात्रतनुः प्रभुः । कृतमालनाट्यमालाभ्यां, पूजावान्भविष्यति ।। वार्तेयं घट्यमानापि, दुर्घटा घटतां कथ् । पद्मावतीप्रभावेण, सत्यं सम्भाव्यतेऽखिलम् ॥ निरवद्या महाविद्याः, पार्षद्याः ! श्रूयतामिदम् । देवेन्द्रस्तवसङ्केताद्रहस्यं प्रकटीकृतम् ।। नागार्जुनप्रबन्धोऽयमेकत्रिंशत्तमोऽजनि । चरिते स्तम्भनाथस्य, सर्वकल्याणकारिणि || || ***** (प्रबन्धः ३२) अमेयगुण ! वामेय ! प्रभावविभवः (व!) प्रभुः(भो!) । अदम्भस्तम्भसंरम्भस्तम्भनायक ! पाहि माम् ।। १ ।। कलिकालकालियाहिकालकूटामृताकर ! परिभूतमरित्रातैः, पाहि मां स्तम्भनायक ! ॥ २ ॥ आजन्मामुद्रदारिद्यसमुद्रावर्तपातिनम् । कान्ततीर्थकृतो लक्ष्म्याः पाहि मां स्तम्भनायक ! || ३ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 प्रभावकपरम्परायां श्रीचन्द्रगच्छे श्रीसुविहितशिरोऽवंतसवर्धमानसूरिनामा वढवाणनगरे विहारं कुर्वनाययौ । लब्धसोमेश्वरस्वप्न(प्न:) सोमेश्वरनामा द्विजाति: प्रभाते वर्धमानसूरिरूप ईश्वरोऽयं साक्षादेष भगवानाचार्यः इति स्वप्नादेशप्रमाणेन प्रतिपद्य स्वां यात्रा सम्पूर्णां मन्यमानो आचार्यान्तिके शिष्यो जातः । पदेऽभिषिक्तः । काले जाते जिनेश्वरसूरिनामा तस्य शिष्यः श्रीमदभयदेवसूरिनवाङ्गवृत्तिकारः । सोऽपि कर्मोदयेन कुष्ठी जातः । श्रुतदेवतादेशात् दक्षिणदिग्विभागात् धवलिक्के समागत्य सङ्घ यात्रया श्रीस्तम्भनायकं प्रणन्तुं स सूरिरागतः । ११३१ वर्षे श्रीस्तम्भनायकः प्रकटीकृतः । प्रतिदिनग्रामभट्टकपिलया गवा निजोधस्य क्षरत्पयोधारया सञ्जायमानस्नपनस्वरूपोऽभूत् । तदा च श्रीमदभयदेवसूरिणा जयतिहुयणद्वात्रिंशतिका सर्वजिनशासनभक्तदैवतगणप्रौढप्रतापोदयात् गुप्तमहामन्त्राक्षरा पेठे । षोडशे च काव्ये स सूरिरशोकबालकुन्तलसमपुद्गलश्रीरजनि | स्वामी च पलाशवृक्षमूलात् आविरास । ततः शासनप्रभावको जातः । १३६८ वर्षे इदं च बिम्बं श्रीस्तम्भतीर्थे समायातं भविकानुग्रहणाय । इत्थं कालापेक्षया नानाभक्तैः नानानामग्राहं नाना भक्त्या पूजितोऽयं परमेश्वरः सर्वार्थसिद्धिदाता जातस्तेषाम् । द्वात्रिंशता प्रबन्धैर्बद्धं श्रीस्तम्भनाथचरितमिदम् । यत्र द्विषोडशोऽभूद्, बन्धोऽभयदेवसूरिकथा ॥ इत्थं अमन्दजगदानन्ददायिनी आचार्य श्रीमेरुतुङ्गविरचिते देवाधिदेवमाहात्म्यशास्त्रे श्रीस्तम्भनाथचरित्रे द्वात्रिंशत्प्रबन्धबन्धुरे द्वात्रिंशत्तमः प्रबन्धः समर्थितः । समाप्तं चेदं श्रीस्तम्भनाथचरितम् ।। प्रशस्तिः ।। स्वस्तिश्रीनृपविक्रमकालादेकोत्तरे-कृतिम् । चतुर्दशशते वर्षे, रवियोगे त्रयोदशे ।। कार्तिके मासि सकायां, गुरुवारे स्थितोदये । कल्याणकारणं स्तम्भनाथस्य चरितं मुदा ।। सूरिश्री मेरुतुङ्गेण, वादिहव्यकृशानुना । वादिवेश्याभुजङ्गेन, श्वेतवस्त्रांहिरेणुना ।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 येनेदं पठ्यते सर्वसमक्षं राजपर्षदि । अङ्गीकृत्य प्रतिज्ञानां, सप्तकं च सुदुर्वहम् ॥ सभायां बाहुमुद्धृत्य, जिनशासनवैरिणः । एकया वेलया सर्वे, वियन्ते जयवादिना ।। अन्यच्च - दम्भप्रोद्भटवादिशेखरमतोपन्यासविन्यासत - च्छेदाभ्युच्छलदन्धकारपरशुर्वादीन्द्रवेश्यापतिः । स्याद्वादर्थविरोधिसिन्धुरशिरःसञ्चारपञ्चाननः, पत्रालम्बनमातनोति जगति श्रीमेरुतुङ्गो गुरुः ।। यस्येत्थं कीर्तिविलसति विदुषां मुखेषु, अन्यच्च - मलधारिंगच्छनायकसूरिश्रीराजशेखरप्रमुखैः । गणभृद्भिर्गुणवद्भिर्ग्रन्थोऽयं शोधितः सकृपैः ।। अन्यच्च इहोत्सूत्रं भवेत् किञ्चित्, प्रमादात्पतितं मम । शोधयन्तु कृपां कृत्वा, तदवयं बहुश्रुताः ।। यावल्लवणसमुद्रो, यावन्नक्षत्रमण्डितो मेरुः । दिनपतिरुदेति यावत्, तावदिदं जयतु जिनचरितम् ॥ संवत् १४२४ वर्षे भाद्रपदकृष्णतृतीयायां गुरौ श्रीस्तम्भनेन्द्रप्रबन्धपुस्तकं लिषितं तपश्चिगच्छनायकश्रीरत्नाकरसूरिशिष्यगणिमिश्रपद्यकीर्तिः पण्डितमिश्रसाधुमूर्तिमिश्राणामपरोधेन भक्त्या च ॥ छ । तत्त्वसार्थकसमाधिजन्मभिस्तापसैर्मुनिभिरस्ततामसैः । साम्प्रतं च विकले कलौ युगे, शासनं जिनपतेविभूषितम् ।। शारदेन्दुकिरणैकसौदरे:, साधुमूर्तिविलसद्गुणाकरः । कं नरं विबुधवर्गशेखरं, नो न रञ्जयति रङ्गसागरः ॥ नभ इव नभो विशालं, सागर इव सागरस्तु गम्भीरः । श्रीमदभयदेवगुरोः नवतप इव नवतपो जयति ।। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिनामो शंखिनीमत (१) दूषमगण्डिका भैरवीचरित विद्याकल्प मन्त्रसार बिन्दुसारचूला योनिप्राभूत देवमहिमसागर प्राभृतपटल राजग्रन्थरहस्य षाड्गुण्यग्रन्थाम्नाय देवेन्द्रस्तव (२) स्तंभनप्रतिमा - नामो जगदानन्दन विश्वेश्वर जगज्ज्योतिः अमृतेश जगत्पाल पुराणपुरुष भुवनत्रयतारण सहजसिद्धि लक्ष्मीकान्त जयपति क्षेमंकर शबरनाथ पुरुषोत्तम प्रबन्ध १ १, २७ १ ३१ प्रबन्ध ३ ४ ६ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ 57 विशेष नामो निरञ्जन आदिरूप तारानाथ सर्वार्थसिद्धि स्वयम्भू सर्वपापापहार पारगतेश्वर प्रभावसागर प्रभावाकर कृपाकोशागार परमेश्वर परमेष्ठि सर्वदुःखनिवारण मूलथाण स्तम्भनायक अप्रतिमल्ल पार्श्वनाथ स्तम्भन स्थळनामो माकन्द (सरोवर) रुक्मिणीवट षडोलिका महाविद्या ( ? ) सिन्दूरगिरि कुञ्जरराजवट: नक्तमालदेश मानुषोत्तरपर्वत सिद्धक्षेत्र (३) 2 2 2 2 a १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ 1 x x 2 = 2 ~ ~ २३ २४ २५ २६ २७ ३० ३१ ३१ प्रबन्ध २ " ८ १२ "S Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ४ शत्रुजय नर्मदापट्टदेश तोरणमालपर्वत उदुम्बर (सर:) साजण-गाजण (वृक्ष) तिलङ्गदेश ढोरसमुद्र (सर:) गौडदेश कोलापुर अवन्ती गजेन्द्रपदस्मशान शिप्रानदी सिद्धवट मण्डपदुर्ग मण्डकेश्वरदुर्ग भद्रगर्त मणिकर्णकशृङ्ग शत-सहस्र-लक्ष कोटिकोटि-कोटि बिन्दु (कुण्ड) काबेरी-नर्मदासंगम कपिला नदी तारापुर ताराविहार (चैत्य) षरुलीभूमण्डल झाङमण्डल (प्रदेश) विराटदेश रत्नापुर गन्धमादनगिरि गजकुण्डसिद्धायतन । पारापतपल्ली चौरवट सज्जनपुर यमदंष्ट्रा(शिला) बीजउरदेश महन्तकपुर महाकुरलदेस मानससरः कालकूटगिरि मदनोन्मादकुण्ड मलयाचल हंससरः काञ्चनतोरणचैत्य काश्मीरदेश उत्पलभट्टानगर भीमभीषणगिरि महाराष्ट्र सुराष्ट्रामण्डल उषामण्डल शर्करा-वट माणिभद्रसरः कुमारसागरसरः जालन्धरदेश चन्द्रवरपुर हीमउरदेश ६ हीरपुर कोंकणदेश नागपुर कुरुक्षेत्रमण्डल पञ्चहुद विचित्रकूटगिरि दण्डकारण्य Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 २७ .. , २८ २८ गूर्जरदेश शंखेश्वर नगर द्वारिका पञ्चाल देश मूलथाण झंझूवाडा पंचासरः पाडलाग्राम: आनन्दपुर झीलाणंद-कुण्ड द्वारमती सुराष्ट्रादेश त्रिपुरुषप्रासाद द्रविडदेश मालवदेश सारङ्गपुर गिरनारगिरि हंसरसालदेश हसकूटपुर तिन्दूसकवन अमरगुफा कुक्कुटेश्वरपुर मयूरगिरि कान्तीपुर महीयदेश महेन्द्रीनदी सेडी नदी वढवाण धवलिक्कक स्तम्भतीर्थ व्यक्ति विशेष-नामो प्रबन्धः मेरुतुङ्गसूरि १, २, १०, १५, १८, २०, २३. जरत्कुमारी जरत्कुमार आस्तीक परीक्षित जिन्मेजय मौलक्य भारद्धाज तक्षक त्रिभुवनस्वामिनी देवी १२ महादेव १३ पार्वती शिववाड (वादित्रोपाध्याय)१४ शक्तिवाड हस्तवाणि मामा (गन्धर्व) मूमू . , निरञ्जनात रामसागरमुनि प्रभाचन्द्रमुनि तारादेवी (राज्ञी, देवी) चारुदत्तमुनि तैलपदेव धर्मशेखरमुनि ३०,३१ राम सीता रावण Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ण 27 28 . पद्मावती 1, 28 जयपाल(नागार्जुन-पिता) 31 सिंह (नागार्जुन) जयनश्री (नागार्जुन माता) कनकगिरि-योगी नागार्जुन योगी पादलिसाचार्य चिर्पटिनाथ वर्धमानसूरि सोमेश्वर द्विज जिनेश्वरसूरि अभयदेवसरि राजशेखरसरि प्रशस्ति हटकेश्वर-लिङ्ग आकाशगामिनी 31 चिर्पटि: (रससिद्धिः) धूम्रवेधविद्या (6) ग्रंथमा मळता विलक्षण शब्द प्रयोगो रुलन् (प्र.३)-रोळातो चिर्भट (प्र.३)-चीभर्दू स्फियिष्यति (प्र.६)-फरी जशे फेरणीयं " फेरव जबादि जलहराः (प्र. 14) बीटिका सूत्कटी जातिटोला ''-जातिना टोला. बोहनिका विरदाः प्रवण्य प्रतलीकुर्वन् "पातलं करतो. पल्ल्ययनिक (प्र. 17) पलाण नार वाहरा वा'र-वहार-कुमक मदद करचटितः (प्र.२४)-हाथे चडेलो लल्लिपल्लि (प्र.२९)-लाड प्रकीर्ण नागमत 4, 28 ज्ञानमत नागपूजन बौद्धदर्शन इच्छारूप(विद्या) परकायाप्रवेश रामचरित्र नोंधः पौराणिक विशेषनामो ग्रंथमां घणां होवा छतां पसंद करेलांनी ज सूचि अहीं आपेल छे.